Friday, 26 March 2010

Netra Ballabh Joshi is no more

There are few people who are not considered 'great' and they are not revered and admired by thousands but, they continue to do things which presereve whatever greatness is in our culture. Netra Ballabh Joshi is one of those people who had made a remote village of Almora- Kukuchhina  a place where one can go and experience something which is divine. I am grateful to historian Lal bahadur Verma for suggesting to go to this place and meet two wonderful people- Netra ballabh Joshi and Ravindra Shukla. Joshi was a remarkable man- full of energy and love. I can say that he was a unique man who was a spiritual and worldly in a unique way.
I met him every year in May when I go there to spend two weeks. Here, in the hospitality of Joshiji, I wrote a book- Haaril which earned me a name among Hindi writers. I recollect how this book was written in two weeks. The concluding part was written and I sensed that this is it, and I found Joshiji standing on the door of his cottage with a glass of tea.
I deeply mourn the death of this man who single handedly changed the face of Kukuchhina with the help of a remarkable lady from France Catherine 'Parvati'.
They ran a lovely school for local children, organised annual cultural functions, ran various projects for the benefit of local people and did wonders by providing hospitality for any visitor to this area.
No words can describe sense of loss I, along with my friends and my family members, feel at this moment. He passed away on 22 March, 2010 at around 12.30 at the age fof 70 something.
The place will not be the same again.
Joshiji's tea shop, the last point where from one starts the tracking for Babaji's Ashram and Pandavkholi, would be there but the man seated there (in picture) would not be there.
He would be in our hearts. We can never forget this man as long as we are alive.  God bless his soul!
He was the man who was down to earth. He was equally comfortable with any body. He was a lover of scholarship, he was ready to listen to schoalrs' opinions but he was a firm believer that this ancient land and its wisdom is what would lead us through in life, and after...
(In this picture he is with Rupa Gupta in May, 2008 when we were staying in his Mrinal Kanta Bhattacharya Ashram, Kukuchhina)

Shyamal Bhattacharya received an award

Shyamal Bhattacharya is receiving Sutapa Roychowdhuri Memorial bangla akademi award 2010 from Dibyendu Palit on 25.03.2010 at Pashim Banga Bangla Academy katha sahitya utsab,Rabindra Sadan Complex,kolkata.

Great Netra Ballabh Joshi is no more

Saturday, 20 March 2010

बिहार के पृथक राज्य बनने की कथा

बिहार की प्रशासनिक पहचान का विलोप 1765 में हो गया जब ईस्ट इंडिया कम्पनी को दीवानी मिली. उसके बाद यह महज एक भौगोलिक इकाई बन गया. अगले सौ सवा सौ सालों में बिहारी एक सांस्कृतिक पहचान के रूप में तो रही लेकिन इसकी प्रांतीय या प्रशासनिक पहचान मिट सी गई. 1890 के दशक में ऐसा समय आया जब सच्चिदानंद सिन्हा जैसे बिहारी नौजवान के लिए यह दु:ख का विषय हो गया कि उसके बिहारी क्षेत्र की पहचान मिट चुकी थी और बिहार का पुलिस का नौजवान बिहार के स्टेशन में 'बंगाल पुलिस' का बैज लगाकर ड्यूटी देता था. सांस्कृतिक इतिहास का यह एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है कि कैसे औपनिवेशिक युग में एक प्राचीन काल से आ रही पहचान क्रमश: मिटने लगी क्योंकि इस पहचान को बनाए रखने के लिए प्रशासनिक प्रयत्न नहीं हुए. 1911 में बिहार और उडीसा के बंगाल से अलग होने के सौ बरस होने वाले हैं. आज भी इतिहास के इस मोड का बिहार की ओर से विवेचन का अभाव है. इस तरह के निर्णय लेने के पीछे का इतिहास बहुधा एक रेखीय नहीं होता. क्या कारण था कि बिहार को बंगाल से अलग लेने का निर्णय ब्रिटिश सरकार ने लिया इस प्रश्न का एक उत्तर यह दिया जाता है कि ब्रिटिश सरकार बंगाल के टुकडे करके उभरते हुए राष्ट्रवाद को कमजोर करना चाहती थी. पहले उसने बंग-विभाजन के द्वारा ऐसा करने की कोशिश की और फिर बाद में बंगाल से बिहार और उडीसा को अलग कर दिया. बंग विभाजन के विरोध का जो इतिहास उपलब्ध है उसमें बिहार में इसके प्रति उदासीनता को लक्षित किया जाना चाहिए. साथ ही यह भी देखा जा सकता है कि बिहार का बंगाल से अलग किए जाने का कोई बडा विरोध बंगाल में नहीं हुआ. यह लगभग स्वाभाविक सा ही माना गया. बिहार को पृथक राज्य बनाने के लिए हुए आन्दोलन के पीछे सच्चिदानंद सिन्हा एवं महेश नाराय़ण समेत अन्य आधुनिक बुद्धिजीवियों के नेतृत्व को केन्द्र में रखकर चर्चा होती है जिन्होंने 1894 में बिहार टाइम्स नामक पत्र के माध्यम से बिहार के बुद्धिजीवियों के बीच इस संबंध में जागरूकता फैलाने का काम किया. इसमें संदेह नहीं कि इन लोगों ने इस विषय पर एक बौद्धिक आन्दोलन तेज किया और इस प्रक्रिया को स्वीकृत करने में सरकार के लिए सुविधाजनक स्थिति पैदा की, लेकिन यह आन्दोलन , कम से कम विचार के रूप में, 1870 के दशक से उपस्थित था. "बिहार बिहारियों के लिए" का विचार सर्वप्रथम मुंगेर के एक उर्दू अखबार मुर्घ -इ- सुलेमान ने पेश किया था.एक अन्य पत्र कासिद ने भी इसी तरह के वक्तव्य प्रकाशित किए. इसी दशक में बिहार के प्रथम हिन्दी पत्र- बिहार बन्धु (संपादक -केशवराम भट्ट ) ने भी इस तरह के विचार को आगे बढाया. तब से लेकर 1994 तक विविध रूपों में यह विचार व्यक्त होता रहा जिसका ही एक प्रतिफलन बिहार का बंगाली विरोधी आन्दोलन था जो बिहार के प्रशासन और शिक्षा के क्षेत्र में बंगालियों के वर्चस्व के विरोध के रूप में उभरा. एल. एस. एस ओ मैली से लेकर वी सी पी चौधरी तक विद्वानों ने बिहार के बंगाल के अंग के रूप में रहने के कारण बढे पिछडेपन की चर्चा की है. इस चर्चा का एक सुंदर समाहार गिरीश मिश्र और व्रजकुमार पाण्डेय ने प्रस्तुत किया है. इन चर्चाओं में यह कहा गया है कि अंग्रेज़ बिहार के प्रति लापरवाह थे और लगातार बिहार उद्योग धंधे से लेकर शिक्षा, व्यवसाय और सामाजिक क्षेत्र में लगातार पिछडता रहा. चूँकि बिहार में बर्दमान के राजा या कासिमबाजार के जमींदार की तरह के बडे जमींदार नहीं थे यहाँ के एलिट भी उपेक्षित ही रहे. दरभंगा महाराज को छोडकर बिहार के किसी बडे जमींदार को अंग्रेज महत्त्व नहीं देते थे. जिस क्षेत्र में विदेशियों के साथ व्यापार का इतना महत्त्वपूर्ण सम्पर्क था उसका बंगाल के अंग के रूप में रहकर जो हाल हो गया था उससे यह निष्कर्ष निकालना स्वाभाविक था कि बिहार को बंगाल के भीतर रहकर प्रगति के लिए सोचना संभव नहीं.
बिहार बंगाल प्रेसिडेंसी से कैसे अलग राज्य बना, इस प्रश्न के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समझने के लिए 1870 के दशक में जाना आवश्यक है. यही वह समय था जब पहली बार बिहार के पढे-लिखे लोगों के बीच यह भावना आयी कि स्कूल से लेकर अदालत और किसी भी सरकारी दफ्तरों की नौकरियों में बंगालियों का वर्चस्व अनैतिक है. बिहार के प्रथम समाचार पत्र बिहार बन्धु में इस आशय के पत्र और लेख प्रकाशित हुए जिसमें यहाँ तक कहा गया कि बंगाली ठीक उसी तरह बिहारियों की नौकरियाँ खा रहे हैं जैसे कीडे खेत में घुसकर फसल नष्ट करते हैं! सरकारी मत भी यही था कि बंगाली बिहारियों की नौकरियों पर बेहतर अंग्रेज़ी ज्ञान के कारण कब्ज़ा जमाए हुए हैं. 1872 में , बिहार के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर जॉर्जे कैम्पबेल ने लिखा था कि चूंकि बिहार का शासन बंगाल से बंगाली अधिकारियों द्वारा नियंत्रित किया जाता है, इसलिए हर मामले में अंग्रेजी में पारंगत बंगालियों की तुलना में बिहारियों के लिए असुविधाजनक स्थिति बनी रहती है. सरकारी द्स्तावेज़ों और अंग्रेज़ों द्वारा लिखित समाचार पत्रों के लेखों में भी यही भाव ध्वनित होता है. यह बात खास तौर पर कही जाती थी कि शिक्षित बंगाली रेल की पटरियों के साथ साथ पंजाब तक नौकरियाँ पाते गये. खासतौर से कलकत्ता से इसी दशक में प्रकाशित सम्पादकीय इस मामले में द्रष्टव्य है. इसमें जो कुछ कहा गया है वह आँकडों के आधार पर कहा गया है. इस पत्र ने लिखा कि बिहार के लगभग सभी सरकारी नौकरियाँ बंगाली के हाथों में है. बडी नौकरियाँ तो हैं ही छोटी नौकरियों पर भी बंगाली ही हैं. जिलेवार विश्लेषण करके पत्र ने लिखा कि भागलपुर, दरभंगा, गया, मुजफ्फरपुर, सारन, शाहाबाद और चम्पारन जिलों के कुल 25 डिप्टी मजिस्ट्रेटों और कलक्टरों में से 20 बंगाली हैं. कमिश्नर के दो सहायक भी बंगाली हैं. पटना के 7 मुंसिफों ( भारतीय जजों) में से 6 बंगाली हैं. यही स्थिति सारन की है जहां 3 में से 2 बंगाली हैं. छोटे सरकारी नौकरियों में भी यही स्थिति है. मजिस्ट्रेट , कलक्टर, न्यायिक दफ्तरों में 90 प्रतिशत क्लर्क बंगाली हैं. यह स्थिति सिर्फ जिले के मुख्यालय में ही नहीं थी, सब-डिवीजन स्तर पर भी यही स्थिति है. म्यूनिसिपैलिटी और ट्रेजेरी दफ्तरों में बंगाली छाए हुए हैं.
इस प्रकार के आँकडे देने के बाद पत्र ने अन्य प्रकार की नौकरियों का हवाला दिया है. पत्र के अनुसार दस में से नौ डॉक्टर और सहायक सर्जन बंगाली हैं. पटना में आठ गज़ेटेड मेडिकल अफसर बंगाली हैं. सभी भारतीय इंजीनियर के रूप में कार्यरत बंगाली थे. एकाउंटेंट, ओवरसियर एवं क्लर्कों में से 75 प्रतिशत बंगाली ही थे. संपादकीय का सबसे दिलचस्प हिस्सा वह है जिसमें यह उल्लेख किया गया है कि जिस दफ्तर में बिहारी शिक्षित व्यक्ति कार्यरत है उसको पग पग पर बंगाली क्लर्कों से जूझना पडता था और उनकी मामूली भूलों को भी सीनियर अधिकारियों के पास शिकायत के रूप में दर्ज कर दिया जाता था. सम्पादकीय का निष्कर्ष है कि बिहार की नौकरियों को बंगाली आकांक्षाओं की सेवा में लगा दिया गया है.
बंगालियों के बिहार में आने के पहले नौकरियों में कुलीन मुसलमानों और कायस्थों का कब्ज़ा था. स्वाभाविक था कि बंगालियों के खिलाफ सबसे मुखर मुसलमान और कायस्थ ही थे. यहीं से 'बिहार बिहारियों के लिए' का नारा उठा. पहले कुलीन मुसलमानों ने इसे मुद्दा बनाया और बाद में कायस्थों ने.
अंग्रेज़ी शिक्षा के क्षेत्र में बिहार ने बहुत कम तरक्की की थी. सबकुछ कलकत्ता से ही तय होता था इसलिए बिहार में कॉलेज भी कम ही खोले गये. यह बहुत प्रचारित नहीं है कि जब कॉलेज खोलने का निर्णय किया गया तो ब्रिटिश कम्पनी सरकार ने तय किया था कि बंगाल प्रेसिडेंसी में दो कॉलेज खोले जाएं- एक अंग्रेजी शिक्षा के लिए कलकत्ता में और एक संस्कृत शिक्षा के लिए तिरहुत अंचल में (क्योंकि पारम्परिक संस्कृत शिक्षा केन्द्र के रूप में तिरहुत प्रसिद्ध था). यह बंगाल के प्रसिद्ध भारतियों को पसंद नहीं आया और प्रयत्न करके संस्कृत कॉलेज भी कलकत्ता में ही खोला गया. बिहार में बडे कॉलेज के रूप में पटना कॉलेज था जिसकी स्थापना 1862-63 में की गयी थी. इस कॉलेज में बंगाली वर्चस्व इतना अधिक था कि 1872 में जॉर्ज कैम्पबेल ने यह निर्णय लिया कि इसे बंद कर दिया जाए . वे इस बात से क्षुब्ध थे कि 16 मार्च 1872 को कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में उपस्थित 'बिहार' के सभी छात्र बंगाली थे! यह सरकारी रिपोर्ट में उद्धृत किया गया है कि "हम बिहार में कॉलेज सिर्फ प्रवासी बंगाली की शिक्षा के लिए खुला नहीं रखना चाहते". इस निर्णय का विरोध बिहार के बडे लोगों ने किया. इन लोगों का कथन था कि इस कॉलेज को बन्द न किया जाए क्योंकि बिहार में यह एकमात्र शिक्षा केन्द्र था जहाँ बिहार के छात्र डिग्री की पढाई कर सकते थे. इन लोगों ने बिहारियों के शैक्षणिक उत्थान के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की सुविधा मिले तो यहाँ के लोग भी आगे बढ सकते हैं.
बिहार की सरकारी नौकरियों में बंगाली वर्चस्व पर कई सरकारी रिपोर्टों में उल्लेख मिलता है. अंतत: सरकारी आदेश दिए गए कि जहाँ रिक्त स्थान हैं उनमें उन बिहारियों को ही नौकरी पर रखा जाए जिन्हें शिक्षा का सुयोग मिला है. आदेश में कई जगहों पर यह स्पष्ट कहा जाता था कि इसे बंगालियों को नहीं दिया जाए. इसी तरह के कुछ आदेश उत्तर पश्चिम प्रांत में भी दिए गये थे. इस तरह के सरकारी विज्ञापन भी समाचार पत्रों में छपा करते थे जिसमें स्पष्ट लिखा होता था- "बंगाली बाबुओं को आवेदन न करें". बिहार में भी 1870 और 1880 के दशक में कई सरकारी आदेश दिए गये थे जिसमें यह कहा गया था कि बिहारियों को ही इन नौकरियों में नियुक्त किया जाए.
बिहार के कई समाचार पत्रों में इस आशय के कई लेख और पत्र प्रकाशित होते रहे जिसमें यह कहा जाता था कि बिहार की प्रगति में बडी बाधा बंगालियों का वर्चस्व है. नौकरियों में तो बंगाली अपने अंग्रेज़ी ज्ञान के कारण बाजी मार ही लेते थे बहुत सारी जमींदारियां भी बंगालियों के हाथों में थी.
इसमें संदेह नहीं कि बंगालियों के प्रति सरकारी विद्वेष के पीछे सिर्फ स्थानीय लोगों के प्रति उनका लगाव नहीं था. विभिन्न कारणों से बंगाल में चल रही गतिविधियों से जुडने के कारण बिहार में भी बंगाली समाज सामाजिक और राजनैतिक रूप से सजग था. उनके प्रभाव से शांत समझा जाने वाला प्रदेश बिहार भी अंग्रेज़ विरोधी राष्ट्रवादी आन्दोलन से जुडने लगा था. कई इतिहासकारों का मत है कि बंगालियों के प्रति बिहारियों के मन में विद्वेष को बढाने में सरकार की एक चाल थी. वे नहीं चाहते थे कि राष्ट्रीय और क्रांतिकारी विचारों का जोर बिहार में बढे.
इसमें संदेह नहीं कि बिहार में बंगाली नवजागरण का प्रभाव पडा था और बिहार के बंगाली राजनैतिक और बौद्धिक क्षेत्र में आगे बढे हुए थे. शैक्षणिक, स्वास्थ्य, सार्वजनिक संगठन तथा समाज सुधार के क्षेत्र में बंगाली समाज बिहार में बहुत सक्रिय था. यह नहीं भूला जा सकता कि भूदेव मुखर्जी जैसे बंगाली बुद्धिजीवी-अधिकारी के कारण ही हिन्दी को बिहार में प्रशासन और शिक्षा के माध्यम के रूप में स्वीकृति मिल सकी. बिहार में प्रेस के क्षेत्र में क्रांतिकारी भूमिका प्रदान करने वाले दो महापुरूषों- केशवराम भट्ट और रामदीन सिंह के साथ बंग-संसर्ग के कैसे अलग किया जा सकता है?
इन सबके बावजूद यह मानना ही पडेगा कि बिहार के बहुत सारे शिक्षित लोगों को यह लगता था कि बंगाल के साथ होने के कारण और प्रशासन का कलकत्ता से नियंत्रण होने के कारण बिहारियों के प्रति सरकार पूरी तरह से न्याय नहीं कर पाती.
बंगाल से बिहार के अलग होने की प्रशासनिक भूमिका के दशकों पहले से बिहार के शिक्षितों के बीच बंगाली वर्चस्व के विरूद्ध भाव सक्रिय थे. इस भाव का एक प्रकाश हम अल- पंच में 1889 में प्रकाशित नज़्म में पाते हैं जिसका शीर्षक था- 'सावधान ! ये बंगाली है". इस भाव की ही एक और प्रस्तुति 1880 में 'बिहार के एक शुभ-चिंतक' का पत्र है जिसमें बंगालियों की तुलना दीमकों से की गई है जो बिहार की फसल (नौकरियों) को 'खा रहे हैं'. बुद्धिजीवियों के बीच बंगाली वर्चस्व के प्रति इस भाव के कारण ही इस बात के लिए समर्थन पैदा होने लगा कि बंगाल के साथ रहकर बिहारियों की स्वार्थ -रक्षा संभव नहीं.
1890 के दशक में बिहार की पत्र पत्रिकाओं में (खासकर बिहार टाइम्स में ) इस आशय के लेख नियमित रूप से छपने लगे जिसमें बिहार की दयनीय स्थिति के प्रति सचेतनता और परिस्थिति के प्रति आक्रोश व्यक्त किया गया था. बिहार टाइम्स ने लिखा कि बिहार की आबादी 2 करोड 90 लाख है और जो पूरे बंगाल का एक तिहाई राजस्व देते हैं उसके प्रति यह व्यवहार अनुचित है. इस पत्र ने विभिन्न क्षेत्रों में बिहारियों के प्रतिनिधित्व को लेकर जो तथ्य सामने रखे उसे ध्यान में रखने पर बंगाल में बिहार की उपेक्षा की सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता. कुछ प्रमुख बातें है- बंगाल प्रांतीय शिक्षा सेवा में 103 अधिकारियों में से बिहारी सिर्फ 3 थे, मेडिकल एवं इंजीनियरिंग शिक्षा की छात्रवृत्ति सिर्फ बंगाली ही पाते थे, कॉलेज शिक्षा के लिए आवंटित 3.9 लाख में से 33 हजार रू ही बिहार के हिस्से आता था, बंगाल प्रांत के 39 कॉलेज (जिनमें 11 सरकारी कॉलेज थे) में बिहार में सिर्फ 1 था, कलकारखाने के नाम पर जमालपुर रेलवे वर्कशॉप था (जहाँ नौकरियों में बंगालियों का वर्चस्व था) , 1906 तक बिहार में एक भी इंजीनियर नहीं था और मेडिकल डॉक्टरों की संख्या 5 थी.
ऐसे हालात में बिहारी प्रबुद्धों द्वारा बिहार को पृथक राज्य बनाए जाने का समर्थन दिया जाने लगा और स्वदेशी आन्दोलन के उपरांत हालात ऐसे हो गये कि कांग्रेस ने 1908 के अपने प्रांतीय अधिवेशन में बिहार को अलग प्रांत बनाए जाने का समर्थन किया गया. कुछ प्रमुख मुस्लिम नेतागण भी सामने आये जिन्होंने हिन्दू मुसलमान के मुद्दे को पृथक राज्य बनने में बाधा नहीं बनने दिया. इन दोनों बातों से अंग्रेज शासन के लिए बिहार को अलग राज्य का दर्जा दिए जाने का मार्ग सुगम हो गया. अंतत: वह घडी आयी और 12 दिसंबर 1911 को बिहार को अलग राज्य का दर्जा मिल गया. बिहार की पहचान उसे 145 बर्ष बाद उसे प्राप्त हुई.
यह एक नयी शुरूआत थी. [ इस लेख के संपादित अंश दैनिक जागरण, 18 मार्च, पटना , में प्रकाशित ]

गांधी, हिन्द स्वराज और सभ्यता

सभ्यता एक मोहक शब्द है. इसके प्रयोग मात्र में यह भाव आता है मानो यह अत्यंत गुणकारी और लाभप्रद है. पर तमाम सुंदर शब्दों की तरह यह भी यूरोपीय बोधोदय के गर्भ से निकला हुआ है . इस धारणा को वैश्विक स्तर पर प्रचारित करने का ऐतिहासिक दायित्व उन्हीं शक्तियों ने लिया जिसने सारी दुनिया में औद्योगिक पूंजीवाद को फैलाया. अंध औद्योगिकीकरण और इससे जुडे सभ्यता संकट पर सबसे पहले आवाज भी यूरोप में ही उठी. जिन्हें 'रोमांटिक' चिंतक माना जाता है उनकी तरफ से लगातार यांत्रिक औद्योगिकरण और इससे उपजी श्रमविमुखता के विरूद्ध लगातार लिखा जाता रहा. हालांकि गांधी यूरोपीय रोमांटिक चिंतकों से बुनियादी रूप से अलग हैं क्योंकि वे आधुनिकता के उत्तर-बोधोदय संदर्भ से परे हट कर सोच रहे थे. यह वह बुनियादी बात है जिसके कारण उनके लिए व्यक्ति और वैश्विक आदर्श के बीच का द्वन्द्व उस तरह जटिल नहीं होता जैसा कि संभवत: रवीन्द्रनाथ के यहाँ होता है. इस प्रसंग पर बाद में लौटते हैं.
इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि 1908 में गांधी हिन्द-स्वराज के माध्यम से औद्योगिक समाज की समस्याओं और उसके अंतर्विरोधों पर जिस तरह की बातें कह रहे थे वह उन दिनों कई पश्चिमी विद्वानों के लेखन में उपलब्ध था. जब हिन्द स्वराज लिखा जा रहा था तब इंग्लैंड में सभ्यता के खिलाफ मंडल कायम हो रहे थे और एक लेखक ने तो 'सभ्यता, उसके कारण और उसकी दवा' नामक किताब भी लिखी थी. एक समाजशास्त्री ने उल्लेख किया है कि गांधी हिन्द-स्वराज लिखते समय एडवर्ड कारपेंटर की इस पुस्तक - सिविलाइजेशन: इट्स काज एंड क्योर से बहुत प्रभावित थे. गांधी ने खुद 'सभ्यता के दर्शन' अध्याय में इस पुस्तक का उल्लेख किया है.कम से कम तालस्तोय के राजनैतिक लेखन और रस्किन के अनटू हिज लास्ट से हम सब परिचित हैं जिन्होंने इस नयी सभ्यता और उनके आदर्शों पर तीखी टिप्पणियां की. गांधी जब लंदन में कानून की पढाई कर रहे थे और जब दक्षिण अफ्रीका में सत्य से अपने प्रयोग कर रहे थे वे लगातार इन विचारों से जुडे रहे थे.
हिन्द स्वराज के गांधी और पश्चिमी सभ्यता के संकट पर विचार करने के लिए गांधी के शब्दों से ही बात शुरू की जा सकती है. इस पुस्तक में गांधी कहते हैं- " मेरी पक्की राय है कि हिन्दुस्तान अंग्रेज़ों से नहीं, बल्कि आजकल की सभ्यता से कुचला जा रहा है, उसकी चपेट में फंस गया है... सब धर्मों के अंदर जो 'धर्म' है वह हिन्दुस्तान से जा रहा है." आगे वे जोडते हैं-" सभ्यता की होली में जो लोग जल मरे हैं , उनकी तो कोई हद ही नहीं है. उसकी खूबी यह है कि लोग उसे अच्छा मानकर उसमें कूद पडते हैं. फिर वे न तो दीन के रहते हैं और न दुनिया के." गांधी अन्यत्र लिखते हैं कि " यह सभ्यता तो अधर्म है और यह यूरोप में इतने दर्जे तक फैल गयी है कि वहां के लोग आधे पागल जैसे देखने में आते हैं... यह शैतानी सभ्यता है...यह सभ्यता दूसरों का नाश करने वाली है और खुद नाशवान है." 'सच्ची सभ्यता कौन सी है' अध्याय में गांधी जिस प्रकार इस शैतानी सभ्यता के मुकाबले भारतीय सभ्यता को रखते हैं वह ध्यान देने लायक है: " जो सभ्यता हिन्दुस्तान ने दिखायी है, उस सभ्यता को पाने में दुनिया में कोई नहीं पहुंच सकता. जो बीज हमारे पुरखों ने बोये हैं , उसकी बराबरी कर सके ऐसी कोई चीज देखने में नहीं आयी. रोम मिट्टी में मिल गया, मिश्र की बादशाही चली गयी, जापान पश्चिम के सिकंजे में चला गया और चीन का कुछ भी कहा नहीं जा सकता. लेकिन गिरा टूटा जैसा भी हो, हिन्दुस्तान आज भी अपनी बुनियाद में मजबूत है." आगे चलकर वे आधुनिक सभ्यता पर लिखते हैं- " (भारत में) जहाँ यह चांडाल सभ्यता नहीं पहुंची है वहां आज भी वैसा (सच्चा स्वराज्य) है." वे इस अध्याय के अंत में निष्कर्ष देते हैं- " हिन्दुस्तान की सभ्यता का झुकाव नीति को मजबूत करने की ओर है; पश्चिम की सभ्यता का झुकाव अनीति को मजबूत करने की ओर है, इसीलिए मैंने इसे हानिकारक कहा है. पश्चिम की सभ्यता ईश्वर को मानने वाली है. "
गांधी के इस प्रकार के विचारों को लेकर विद्वानों में बहुत मतभेद रहा है. जो लोग तरक्कीपसंद माने जाते हैं उन्हें यह एक 'यूटोपियन' मस्तिष्क के उद्गार लगे हैं जिसमें व्यक्त विचार समयानुकूल नहीं हैं. 1920 में कोमिंटर्न का गांधी के विचारों का आकलन देखा जा सकता है: ...गांधीवाद जैसी प्रवृत्तियां सामाजिक जीवन के सर्वाधिक पिछडे हुए और आर्थिक रूप से सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी रूपों को आदर्श मानती हैं, ...क्रांति की प्रक्रिया के विकास क्रम में ये प्रवृत्तियां नग्न प्रतिक्रियावादी शक्ति में रूपांतरित हो जाती हैं." सिर्फ तरक्कीपसंद ही नहीं गोपालकृष्ण गोखले तक हिन्द स्वराज को पढकर हंसते थे और उन्हें लगता था कि कुछ साल गांधी जब इस देश में रह लेंगे तो उन्हें असलियत का पता चल जायेगा ! यह गांधी के विचारों को अपने तरीके से समझने की चेष्टा है. प्राय़: गांधी को विद्वान लोग अपने हिसाब से घटाकर और काटछांट कर देखते और परखते रहे हैं जो आधुनिक मानस का स्वभाव है.
गांधी के विचारों को अगर गहराई में जाकर देखा जाए तो ये विचार सुसंगत प्रतीत होते हैं. जब से गांधी तालस्ताय, रस्किन आदि के प्रभाव में आए तब से जो हमारे पास उनके विचारों का इतिहास उपलब्ध है उसे इस प्रसंग में देखा जा सकता है. 1888 में जब गांधी लंदन में छात्र थे बादुला और एनी बेसेंट के प्रशंसक थे और जब उन्होंने लंदन प्रेस में यह पढा कि मादाम ब्लावत्सकी की प्रेरणा से एनी बेसेंट एक थियॉसाफिस्ट हो गयी हैं तो उनके आनंद की सीमा न रही थी. बाद में भी एनी बेसेंट के प्रति उनके मन में सम्मान लगातार बना रहा. इस बात को ध्यान में रखना भी जरूरी है कि पश्चिम की सभ्यता की सीमाओं को रेखांकित करने का प्रयत्न यूरोप के साथ साथ भारत में भी लगातार होते रहे थे और गांधी उनसे परिचित भी थे. दयानंद सरस्वती, अरबिंद घोष, विवेकानंद आदि से लेकर केंटिश कुमारस्वामी तक पश्चिमी सभ्यता को लगभग नकारने वालों के अतिरिक्त ऐसे लोग भी थे जो पश्चिम और पूरब के देशों के बीच के अंतर को समझने की कोशिश करते थे और यह मानते थे कि हम भौतिक क्षेत्रों में पश्चिम से भले ही पीछे हों असली मामले -सांस्कृतिक रूप में उनसे श्रेष्ठ हैं. समाजशास्त्रियों ने इस बात को रेखांकित करते हुए इस सांस्कृतिक क्षेत्र से ही राष्ट्रवाद की विचारधारा का उत्स माना है. हिंद स्वराज लिखे जाने के पूर्व ही स्वदेशी आन्दोलन के दौर में भारतीय कला दृष्टि बनाम पश्चिमी कला दृष्टि का प्रश्न महत्त्वपूर्ण हो चुका था. गांधी इन सब बातों से भली भांति परिचित थे. जब भी गांधी पर बात होती है तो यह बात भी ध्यान में रखना चाहिए कि वे 1902 में कलकत्ता में बहुत घूमे थे, बहुत सारे लोगों से मिले थे और इस शहर के लोगों में जो बह्सें हो रही थी उससे उनका अच्छा परिचय था. इस पूरे परिदृश्य को ध्यान में रखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि हिन्द-स्वराज में जो पश्चिमी सभ्यता के प्रति जो कठोर उद्गार हैं वे उस समय के लोगों में चर्चा के विषय थे महज गांधी के दकियानूसी परंपरावादी हिन्दू मन में उपजे विचार नहीं थे.
महात्मा गांधी की एक विशेषता यह है कि वे अपने विचारों को सामाजिक और राजनैतिक रूप देने में बाद में सफल हुए और इस देश के करोडों लोगों ने उन्हें हृदय से अपना नेता माना. इस क्रम में यह बात आती गयी कि इस महान राजनेता के विचारों को समझने के लिए उनकी पुस्तक को सहारा बनाया जाए. खुद गांधी ने हिंद स्वराज के लिखने के प्रसंग को अपनी आत्मकथा में कोई महत्त्व नहीं दिया है. एक जगह वे कहते हैं कि जिस समय वे हिंद स्वराज के माध्यम से देश को चरखे के माध्यम से आर्थिक रूप से स्वावलंबी होने का संदेश दे रहे थे उन्होंने खुद चरखा देखा भी नहीं था!
एक विशेष अर्थ में इस पुस्तक का महत्त्व है और इसी कारण से गांधीवादी चिंतकों ने इस पुस्तक को गांधीवाद की मूल पुस्तक के रूप में स्वीकार किया है. इस पुस्तक में व्यक्त विचारों को गांधी आजन्म अपने लिए सही मानते रहे. 1940 के दशक में भी जब इस पुस्तक के संशोधन की बात आयी तो उन्होंने कोई संशोधन करना स्वीकार नहीं किया. जो लोग गांधीवादी विचारधारा से परिचित हैं वे इस पुस्तक में व्यक्त विचारों और गांधी के आन्दोलन और उनके सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों में कोई विरोधाभास नहीं देखते. सिर्फ वे लोग जो गांधी के राजनैतिक रूप को तो ऐतिहासिक महत्त्व का मानते हैं, प्रगतिशील मानते हैं पर समयानुकूल देश को आगे ले जाने वाले के रूप में आधुनिक मानस के जवाहरलाल नेहरू को मानते हैं वे ही इस पुस्तक में आये पश्चिमी सभ्यता के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि से परेशान होते हैं. एक विद्वान ने सही लक्षित किया है कि नेहरू के राजनैतिक गुरू गांधी थे और बौद्धिक गुरू रवीन्द्रनाथ थे. पूर्व बनाम पश्चिम के अंतर्विरोध से निबटने के लिए रवीन्द्रनाथ की सोच थी कि भारत की शास्त्रीय परंपरा के दायरे में यूरोप की शास्त्रीय (यूरोप पुनर्जागरण समेत) और भारतीय लोक परंपराओं के मिलन से 'आधुनिकता के लिए जगह' बनाकर इस अंतर्विरोध को निबटाया जा सकता है. गांधी इसे आधुनिकता के दायरे के बाहर ही अंजाम देना चाहते थे. दोनों महान भारतीय के बीच इस मूलभूत अंतर को रेखांकित करने के संदर्भ में भी हिन्द-स्वराज एक जरूरी दस्तावेज है. दरअसल, गांधी के ऐतिहासिक व्यक्तित्व के एक पहलू- उनकी सांस्कृतिक दृष्टि को जिस तरह ओझल रखा गया उस पर विचार करने के लिए हिन्द-स्वराज का महत्त्व है और बना रहेगा. गांधी किस हद तक विक्टोरियन प्रगति की धारणा से विलग थे इसका प्रमाण है कि वे अपने बच्चों को शिक्षा के लिए अंग्रेज़ी स्कूलों में नहीं भेजते. उन्हें लगता था कि इन स्कूलों में बच्चे स्वाधीनता खो देते हैं और उनकी शिक्षा अनुभव से उन्हें नहीं जोडती. अपनी आत्मकथा में इस प्रसंग में उन्होंने विस्तार से लिखा है और यह माना है कि इन स्कूलों में गुलामी की शिक्षा दी जाती है और उन्होंने अपने बच्चों को इस तरह की अकादमिक शिक्षा न देकर ठीक ही किया. यह वह दूसरा प्रसंग है जो गांधी को समझने में सहायक सिद्ध हो सकता है. आधुनिक स्कूली शिक्षा को आधुनिक पश्चिमी सभ्यता की धुरी के रूप में देखा जाता है. ऐसे में गांधी का अपने बच्चों की शिक्षा के सम्बंध में विचार विचारणीय है. दूसरी बात, आधुनिक शिक्षा के सन्दर्भ में अंग्रेजी के वर्चस्व को लेकर है. गांधी के इस कथन पर तत्कालीन प्रबुद्ध लोगों ने तीखी प्रतिक्रिया दी थी कि " राममोहन राय आदि अगर अंग्रेजी में काम नहीं करते तो और महान होते, और बडे काम कर सकते.". कई लोग यह मानते हैं कि गांधी का अंग्रेजी विरोध उन्हें अपने समय को अधूरा समझने वाला प्रमाणित करता है. आज जब सारी दुनिया में यह भ्रम सफलता पूर्वक फैलाया जा रहा है कि अंग्रेजी के बिना हम दुनिया में टिक नहीं पायेंगे गांधी समस्याएं खडी कर देते है.

हिन्दी में कूपमंडूकता

जगदीश्वर चतुर्वेदी ने अपने ब्लॉग में दो बातों पर ध्यान खी6चा है- प्रथम- हिन्दी में कूपमंडूकता और द्वितीय- आलोचना के मुकाबले अनुसंधान को दोयम दर्ज्र का काम मानना. इसमें कोई संदेह नहीं कि हिन्दी में अधिकांश लेखन निरर्थक किस्म का, घिसे पिटे विषयों पर ही हो रहा है. एक खास किस्म की जडता हिन्दी को घेरे हुए है. लेकिन, इससे निजात पाने का जो कठिन रास्ता है उसको ढूढना ही होगा. कुछ सुझाव दिए जा सकते हैं जिसपर मित्र लोग विचार कर सकते हैं.
1. हिन्दी में ही हम हैं. यह रहेगी तभी हम रहेंगे. हिन्दी को समृद्ध करने के सिवाय, इसमें लिखने पढने और विचारने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं है. यह हमारा शरीर है. जैसे हम अपने शरीर को नहीं बदल सकते हम हिन्दी से बाहर नहीं है. हिन्दी अपनी तमाम खूबियों और खामियों के साथ हमारी है. इसे दुरूस्त करना ही हमारा दायित्त्व है,
2. हिन्दी का मतलब हिन्दी साहित्य नहीं है. हिन्दी में विचार का मतलब सिर्फ हिन्दी आलोचकों के विचार पर केन्द्रित करना नहीं है. हिन्दी में अन्य विषयों में जो काम हुए हैं या हो सकते हैं उनको भी केन्द्र में लाना होगा. मुझे इस मामले में हिन्दी में बोले हुए का उपयोग बहुत महत्त्वपूर्ण लगता है. बहुत सारे लोगों ने अपने बोले हुए और दृश्य माध्मम के रचनात्मक कामों में हिन्दी का जो कार्य किया है उसे भी हिन्दी को अपनाना चाहिए.बहस इस बात पर भी हो कि बिमल राय ने अपनी फिल्मों में क्या और क्यों दिखलाया. टी वी माध्यम के भीतर भी ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जो इस देश को समझने में हिन्दी की संभावना को उजागर करता है. अभी भी डी डी न्यूज पर मध्यभारत की दशा दिशा पर जो डॉक्यूमेंट्री दिखाई गयी उसका कोई मुकाबला नहीं है.हिन्दी के लोगों को इसपर सोचना चाहिए. आई पी एल की कमेंन्ट्री हिन्दी में नहीं होती है और सुशील दोषी जैसे लोगों के लिए क्रिकेट कमेंट्री का काम मिलना मुश्किल क्यों हो रहा है इसपर विचार होना चाहिए.
3. जो कुछ हिन्दी में होता आया है और हो रहा है उसको ज्यादा ध्यान से देखना और अपने भाषा समुदाय में प्रचारित करना चाहिए. आज मनोज कुमार को हिन्दी के विद्वान याद नहीं करते. आश्चर्य है कि हिन्दी के स्मार्ट विद्वान लोग अंग्रेजी के विद्वानों के दो नम्बरी संस्करण बनकर घूमते हैं और हिन्दी में असली और बेहतर काम करने वाले पीछे तमाशा देख रहे हैं.
4. जो नये लोग हिन्दी में काम कर रहे हैं उनपर ध्यान दिया जाए. नये विद्वानों को ज्यादा ध्यान देकर सुना जाए. 60 पार के लोगों की तुलना में ये हमारे लिए ज्यादा उपयोगी हैं और नयी बात कहने की कोशिश कर रहे हैं.
(जारी)