Tuesday, 5 August 2014

 26 साल पहले के ‘आरंभ’ की याद ; कुछ पर्सनल नोट्स
‘आरंभ’ हिन्दी भाषी छात्र-छात्राओं की एक जीवंत संस्था थी जो 1988 के मध्य से 1989 के मध्य तक पूरी सक्रियता से हिन्दी भाषी छात्र-छात्राओं को लेकर गोष्ठियाँ, मीटिंग्स, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि कार्यक्रम करती रही थी. इतने कम समय में इस संस्था से जुडे लोगों ने जो कुछ किया उसके महत्त्व के बारे में जो लोग उससे जुडे रहे थे उनके अलावा किसी के लिए समझ पाना खासा कठिन है. सामान्यत: जब संस्थाएँ बनती हैं और नियमित काम होता है तो इससे जुडे कुछ प्रकाशन आदि होते हैं जिसके आधार पर बाद की पीढी उनके किए कामों से परिचित होते हैं. ‘आरंभ’ के साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. इसकी ओर से कुछ भी प्रकाशित नहीं हुआ और आज अगर कोई कहे कि इस तरह की किसी संस्था ने एक खास अवधि में वैसा काम किया जो आज तक किसी संस्था ने नहीं किया तो शायद लोग मुस्कराने लगें; लेकिन जिनको याद है वे कहेंगे कि हाँ, बिल्कुल सही है यह !
      इस संस्था के निर्माण में जयपुरिया कॉलेज के कुछ उत्साही छात्र छात्राओं की केन्द्रीय भूमिका थी. अशोक सिह, अभिजीत कृष्ण, रूपा गुप्ता, ऋता गुप्ता, प्रदीप जीवराजका आदि  ने इसकी शुरूआत की. अशोक सिंह को छोडकर बाकी सभी पहली बार इस तरह के काम के लिए आगे आए थे और उनमें निर्दोष किस्म का क्रांतिकारी उत्साह था. एक आध मीटिंग के बाद इसको एक सांगठनिक रूप देने की कोशिश हुई. अशोक सिंह ने हितेन्द्र पटेल का नाम अध्यक्ष के रूप में सुझाया. रेखा सिंह और ममता त्रिवेदी आदि लोगों से सम्पर्क साधा गया और इस तरह एक कोर टीम बनी. जब मिलना जुलना शुरू हुआ तो यह स्पष्ट हो गया कि उनके भीतर एक किस्म की सामूहिकता बन चुकी है और वे मिलजुल कर साहित्यिक-सांस्कृतिक काम करने में जुट गए. उस समय जनवादी लेखक संघ बहुत सक्रिय हुआ करता था. विमल वर्मा से अशोक सिंह के सम्बन्ध बहुत अच्छे थे और एक एक कर कई गोष्ठियाँ हुईं जिसमें हिन्दी जगत के प्रतिष्ठित आलोचक-अध्यापक गण इन गोष्ठियों में आए. विमल वर्मा, श्रीहर्ष, कृष्ण चन्द्र पाण्डेय ‘अनय’, मदन सूदन, चन्द्रदेव सिंह, शंभुनाथ, चन्द्रकला पाण्डेय, रामवृक्ष चन्द, सुब्रत लाहिडी समेत बहुत सारे लोगों ने आरंभ की गोष्ठियों में भाग लिया. जो चीज़ सबसे चकित करने वाली थी कि इन गोष्ठियों में छात्र-छात्राओं की उपस्थिति. 50 से 70 की संख्या में बगैर किसी शिक्षक समुदाय के दबाव के श्रोता आते थे और बहुत मनोयोग से सुनते थे. धीरे धीरे आरंभ का विस्तार होने लगा और पूनम मिश्र, उमा झुनझुनवाला, शोभा, रमेश अग्रहरि, तरूण द्विवेदी आदि इस संस्था के साथ जुड गए. आज मुड कर देखने पर लगता है कि इन लोगों के लिए साहित्य संस्कृति से जुडने का इससे अच्छा मंच और कुछ नहीं हो सकता था. इनमें से कई साहित्य, अध्यापन, कानून, राजनीति, नाटक, संगीत आदि के क्षेत्र में बाद में चलकर आगे बढे. आप इनमें से किसी से भी पूछ लीजिए कि आरंभ का उनके जीवन में क्या योगदान था, मेरा दावा है कि सभी कहेंगे कि बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान था इसका !
      जो सबसे बडा काम इस संस्था ने किया वह था आत्म-विश्वास पैदा करने का. कुछ उदाहरण देना उपयुक्त होगा. ममता त्रिवेदी अच्छा गाती थी. सनातन धर्म विद्यालय के एक कार्यक्रम में उसने एक साहित्यिक गीत प्रस्तुत किया. अध्यक्षीय वक्तव्य में विमल वर्मा ने कहा कि हिन्दी को एक नयी महादेवी मिल गयी ! अब आप इस वक्तव्य को जैसे भी देखें उस समय ममता त्रिवेदी के लिए यह किसी वरदान से कम नहीं रहा होगा. अशोक सिंह अपने को हिन्दी के प्रमोद दास गुप्ता के रूप में देखने लगा होगा ऐसा मेरा अनुमान है. प्रदीप जीवराजका संस्था के कोषाध्यक्ष हुआ करता था वह चीजों को सँभालने, लोगों को समझाने बुझाने का ऐसा अभ्यस्त हो गया कि बाद में सफल वकील बन गया ! उमा झुनझुनवाला एक सफल नाट्य कर्मी बनी. रेखा सिंह एक प्रखर वक्ता बनकर ऐसे उभरी कि बाद में उसके लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय छात्र राजनीति में नेतृत्व में जाने का, और फिर बाद में डी वाई एफ आई और सी पी एम में आगे बढने में कोई दिक्कत नहीं हुई. गुप्ता बहनें- रूपा और ऋता की भाषण-बाजी में ज्यादा रूचि नहीं थी लेकिन जब भी सामूहिक गायन होता उनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण होती. अचला नागर के निर्देशन में साहित्यिक गीतों का कार्यक्रम हुआ था जो हरिवंशराय बच्चन की कविताओं पर केन्द्रित था. अद्भुत कार्यक्रम हुआ था. अंत में चन्द्रदेव सिंह का वक्तव्य भी बहुत सुंदर था. अभिजीत कृष्ण को आरंभ ने बहुत बडा संगठक अपने को मानने का सुयोग बनाया. हितेन्द्र पटेल को वक्ता के रूप में आत्मविश्वास मिला.  उस समय के सभी लोग इसी तरह की बातें कहेंगे.
      दूसरा बडा काम आरंभ ने यह किया कि बौद्धिक जगत का संसार उनके सामने खोल दिया. कई गोष्ठियों में अनय जी विस्तार से प्रेमचंद साहित्य और उनके पात्रों का परिचय कराते रहे, श्री हर्ष ने प्रभावशाली तरीके से कविता और प्रतिबद्धता के अंतर्स्संपर्कों को पेश किया, विमल वर्मा आलोचना के बडे बडे नामों को सबके लिए परिचित बना गए, सुब्रत लाहिडी नाटक, संस्कृति कर्म की जानी अनजानी बातों को बताते रहे. शंभुनाथ भी आरंभ की गोष्ठियों में आए थे. संयोग से उस समय बहुत कम पैसे में महाजाति सदन के एक सेमिनार हॉल में जगह मिल जाती थी जहाँ गोष्ठियाँ हो जाती थी. सनातन धर्म विद्यालय तो आरंभ के लिए हमेशा खुला ही रहता था मानो !
तीसरी सबसे बडी बात थी सबके लिए एक अपने सामाजिक स्पेस का फैलाव. किरण मोरारका नाम की एक लडकी थी. बहुत ही उत्साही. सब जब अपने अपने यहाँ कार्यक्रम करने लगे तो उसने भी अपने घर पर बीस लडके लडकियों को लेकर एक मीटिंग की थी. मारवाडी, यूपियन, बिहारी, गुजराती, स्त्री, जाति और  विषय जैसे तटबंध मानो हिन्दी के सामने उठ ही नहीं सकती थी ! जाति, क्षेत्र और व्यवसाय आदि से बँधे संगठन हुए होंगे लेकिन हिन्दी का ऐसा कोई संगठन आज तक बना है मेरी जानकारी में नहीं है. यह खुलापन उनमें इतना रच बस गया कि कमोबेश सभी इस तरह के बंधनों से जीवन भर के लिए मुक्त हो गए. एक लडकी ने बाद में एक प्रखर मुस्लिम संस्कृतिकर्मी से, एक गुजरातन ने एक प्रखर बिहारी वकील से (जो आरंभ में भी आता जाता था), एक वैश्य ने एक बिहारी छात्र से शादी की, एक बिहारी लडकी ने एक बंगाली से शादी की, एक अन्य वैश्य लडकी ने एक मारवाडी लडके से शादी की, एक लडकी ने गुजराती लडके से शादी की... . यह किसी संस्था के योगदान को रेखांकित नहीं करता ?
उस दौर में लगता था कि अपनी बिरादरी में शादी करना क्या कोई शादी है ! विचारों और विश्वासों को मानो किसी ने जड से पकड कर हिला दिया हो ! आज याद करते हुए रोमांच होता है कि उन दिनों यह निश्चित किया था कि सिर्फ अंतर्जातीय और दहेज रहित विवाह आयोजन में ही जाउँगा. कई वर्षों तक इसका पालन भी किया !यह आरंभ की स्पिरिट ही थी कि एक आर्य समाज मन्दिर में हो रही शादी में उपस्थित लोग संस्था के साथी थे जो चार कचौडी, आलूदम और एक सस्ती सी मिठाई के पैकेट को खाकर भी संतुष्ट थे. कामरेड अशोक सिंह से शादी करने वाले जोडे का सम्बन्ध अच्छा नहीं था लेकिन उसने भी ‘जन संसार’ में इसकी रिपोर्ट लिखी और ‘साहसिक कदम’ पर बधाई दी !
गोष्ठियों में कैसे बोलते हैं, संगठन को कैसे चलाया जाता है, रिपोर्ट कैसे लिखते हैं, कैसे क्या किया जाता है सबकुछ इस संस्था ने सिखाया. पैनल कैसे पास किया जाता है और चुनाव कैसे किया जाता है आदि बहुत कुछ इस संस्था ने सिखाया. (इसके बारे में बाद में विस्तार से लिखा जाएगा) आपस में मतभेद रखकर भी सबको साथ लेकर चलने का मंत्र सबको स्वीकार्य था. (अभिजीत कृष्ण और प्रदीप जीवराजका को इसके लिए कुछ अतिरिक्त अंक दिए जा सकते हैं). आज यह सोचते हुए भी रोमाँच होता है कि राजेश सेठिया (जो अब डॉक्टर है) पैसे इकट्ठा करने के लिए चंदा कैसे वसूल किया जाए इस विषय पर रैडिकल राय दिया करता था !
यह सबकुछ 1989 मध्य तक चला फिर उसके बाद बिखराव आ गया जिसके कारणों पर विस्तार से बातचीत बाद में.