अगर अमूर्त्त सा लगने वाला सच सामने आ जाये तो फिर नामों की क्या जरूरत है ? मैं सुबह से देर रात तक टी वी, अखबार और अब वर्चुअल मीडियम के तमाम हिन्दी के लोगों को देखकर यह कहता हूँ कि ये लोग हिन्दी की आत्मा को नहीं समझते हैं. कल रात जब दीपक चौरसिया को आरक्षण पर एक कार्यक्रम एंकर करते देखा तो इतनी कोफ्त हुई कि बयान नहीं कर सकता. ये जो हमारे प्रतिनिधि बनते हैं वे प्लांटेड लोग हैं ऐसा ही लगता है या फिर ये लोग रूपांतरित हो जाते हैं व्यवस्था का दबाव ऐसा है. प्रकाश झा बिहारी हैं, अमिताभ बच्चन एक हिन्दी कवि का बेटा है, मनोज बाजपेयी बिहारी है और दीपक चौरसिया पिछडे वर्ग से आया हुआ पत्रकार है . ये सब मिलकर जो बातचीत कर् रहे थे उसको सुनना कंटेंट और फॉर्म दोनों के स्तर पर असहनीय था. ये लोग समझाना चाह्ते हैं कि शिक्षा का व्यवसायीकरण आरक्षण के कारण हुआ है ! दूसरी ओर फेसबुक पर दिल्ली में नौकरी करने वाला/ करने की जुगत में भिडा पिछडा/दलित वर्ग जिस तरीके से एकांगी विश्लेषण करके हिन्दी समाज की सोच को कास्ट लाईन पर वर्टिकली बाँटना चाहता है उसे देख कर यह विश्वास डिगने लगा है कि ये नीचे से ऊपर गये लोग नयी सकारात्मक सोच रखकर चलेंगे. पूरा देश ग्लोबलाईजेशन के जहर से आक्रांत होता जा रहा है, किसानों और आदिवासियों के हितों को विकास के नाम पर अनदेखा किया जा रहा है और ये सब लोग इस तरह का समाज फोडू प्रचार चला रहे हैं. क्या ऐसे में हिन्दी या भारतीय विचारों या भाषा- संस्कृति को समझते हुए चला सोचा जा सकता है ? पूरे मामले को फिर से विचारना होगा. ये देश बौद्धिक रूप से और गुलाम होता जा रहा है. हम 'उपकार' फिल्म के मनोज कुमार की जगह प्रेम चोपडा होते जा रहे हैं. ऐसे में आप नाम लेने के लिए कहते हैं ?
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