कार्पोरेट भारत में भाषा का प्रश्न
हिन्दी भारत के भास/उहे एक राष्ट्र के आसा हम ओकरो भंडार बडाइब/ओहू में बोलब ओ गाइब तबो न छोडब आपन बोली/चाहे केहु मारे गोली।’ मनोरंजनप्रसाद सिंह की इन पंक्तियों के पीछे की दृष्टि से आज भारत बहुत आगे आ गया लगता है। राष्ट्र निर्माण के जिस स्वप्न के साथ हिन्दी का प्रचार प्रसार हुआ था उसमें हिन्दी को देश की सम्पर्क भाषा के रूप में देखना एक सहज स्वाभाविक राष्ट्रीय संकल्प था। वह सपना क्यों टूटा यह यहाँ विचारणीय नहीं है लेकिन इस बात को याद रखे बिना कि हिन्दी हमारे राष्ट्रीय स्वप्न के साथ जुड़ा हुआ है, भारतीय भाषाओं के स्वतन्त्र भारत में अधिकार पर बात करना सम्भव नहीं है। आखिर क्यों एक कवि जो अपनी बोली के लिए गोली खाने के लिए तैयार है वह नि:संकोच हिन्दी को भारत (देश) की भाषा मानता है? ऐसे सैकड़ों–हजारों विद्वान लोग थे जो अपनी-अपनी भाषा पर पूरा अभिमान रखते हुए हिन्दी को देश की भाषा के रूप में सहज रूप से स्वीकार कर रहे थे। जब से राष्ट्र निर्माण का संकल्प इस देश में आया उसी समय से हिन्दी को ही यह स्थान दिया गया। इसकी शुरूआत बंगाल में हुई बनारस या पटना में नहीं हुई यह ध्यान दिलाना भी अनुचित नहीं होगा। गाँधी युग में अच्छी तरह से स्वीकार कर लिया गया। देश के स्वाधीन होने के बाद जिस तरह अँग्रेजी को हटाकर हिन्दी को प्रतिष्ठित करने के सिद्धान्त को नेहरूवियन आधुनिक उदार सोच ने स्थगित किया उसपर बहुत चर्चा की जा चुकी है। यह गलत था या सही इसपर कोई मन्तव्य दिए बिना यह कहना सही होगा कि इस समय लिये गये निर्णयों से आखिरकार अँग्रेजी इस देश में शक्तिशाली होती गयी और अब यह उस समय से ज्यादा स्वीकृत है जिस समय अँग्रेजों की हुकूमत थी। मीनाक्षी मुखर्जी समेत कई विद्वानों ने इस अँग्रेजी की भारत में बढ़ती शक्ति को लेकर आश्चर्य व्यक्त किया है। इस विषय पर इस छोटे आलेख में पिछले डेढ़ सौ सालों में भाषा के प्रश्न पर हुए परिवर्तनों पर एक टिप्पणी की गयी है और अन्त में वर्तमान समय में उभर रहे विकल्पों पर एक मन्तव्य दिया गया है।
हिन्दी भारत के भास/उहे एक राष्ट्र के आसा हम ओकरो भंडार बडाइब/ओहू में बोलब ओ गाइब तबो न छोडब आपन बोली/चाहे केहु मारे गोली।’ मनोरंजनप्रसाद सिंह की इन पंक्तियों के पीछे की दृष्टि से आज भारत बहुत आगे आ गया लगता है। राष्ट्र निर्माण के जिस स्वप्न के साथ हिन्दी का प्रचार प्रसार हुआ था उसमें हिन्दी को देश की सम्पर्क भाषा के रूप में देखना एक सहज स्वाभाविक राष्ट्रीय संकल्प था। वह सपना क्यों टूटा यह यहाँ विचारणीय नहीं है लेकिन इस बात को याद रखे बिना कि हिन्दी हमारे राष्ट्रीय स्वप्न के साथ जुड़ा हुआ है, भारतीय भाषाओं के स्वतन्त्र भारत में अधिकार पर बात करना सम्भव नहीं है। आखिर क्यों एक कवि जो अपनी बोली के लिए गोली खाने के लिए तैयार है वह नि:संकोच हिन्दी को भारत (देश) की भाषा मानता है? ऐसे सैकड़ों–हजारों विद्वान लोग थे जो अपनी-अपनी भाषा पर पूरा अभिमान रखते हुए हिन्दी को देश की भाषा के रूप में सहज रूप से स्वीकार कर रहे थे। जब से राष्ट्र निर्माण का संकल्प इस देश में आया उसी समय से हिन्दी को ही यह स्थान दिया गया। इसकी शुरूआत बंगाल में हुई बनारस या पटना में नहीं हुई यह ध्यान दिलाना भी अनुचित नहीं होगा। गाँधी युग में अच्छी तरह से स्वीकार कर लिया गया। देश के स्वाधीन होने के बाद जिस तरह अँग्रेजी को हटाकर हिन्दी को प्रतिष्ठित करने के सिद्धान्त को नेहरूवियन आधुनिक उदार सोच ने स्थगित किया उसपर बहुत चर्चा की जा चुकी है। यह गलत था या सही इसपर कोई मन्तव्य दिए बिना यह कहना सही होगा कि इस समय लिये गये निर्णयों से आखिरकार अँग्रेजी इस देश में शक्तिशाली होती गयी और अब यह उस समय से ज्यादा स्वीकृत है जिस समय अँग्रेजों की हुकूमत थी। मीनाक्षी मुखर्जी समेत कई विद्वानों ने इस अँग्रेजी की भारत में बढ़ती शक्ति को लेकर आश्चर्य व्यक्त किया है। इस विषय पर इस छोटे आलेख में पिछले डेढ़ सौ सालों में भाषा के प्रश्न पर हुए परिवर्तनों पर एक टिप्पणी की गयी है और अन्त में वर्तमान समय में उभर रहे विकल्पों पर एक मन्तव्य दिया गया है।
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यह अब एक ‘क्लिशे’ हो गया है कि अगर चीन,
जापान, फ्रांस, रूस और जर्मनी जैसे देशों का पूरा काम (तकनीकी जरूरत समेत)
अपनी-अपनी भाषाओं में हो जाता है तो आखिरकार भारत का काम क्यों नहीं चल
सकता। इस बात के समर्थन और विरोध में दशकों से कहा सुना जाता रहा है लेकिन
कोई हल नहीं निकल सका। स्थिति यह हो गयी कि रवीन्द्रनाथ टैगोर की भाषा
बंग्ला भी अँग्रेजी दबाव में लगातार आती गयी, हिन्दी की तो बात छोड़ ही दें।
ऐसे स्थिति आ गयी कि तकनीकी और समाज विज्ञान के क्षेत्र में ही नहीं
साहित्य और धर्म के क्षेत्र में भी अँग्रेजी आने लगी। राजनीति, धर्म और
पत्रकारिता सभी क्षेत्रों में अँग्रेजी का वर्चस्व बढ़ने लगा। अब इस स्थिति
में कुछ गुणात्मक किस्म के परिवर्तन हुए हैं जिससे समीकरण बदले हैं। इस नयी
परिस्थिति में भारतीय भाषाओं के सामने एक नये विकल्प का संसार खुलता दीख
रहा है इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह याद रखा जाना चाहिए कि
बंकिम–रवीन्द्रनाथ या भारतेन्दु–प्रेमचन्द की औपनिवेशिक ‘राष्ट्रीय दुनिया’
अब नहीं है। उस समय के आदर्श अब जितने भी मोहक लगते हों वे हमारे लिए
पर्याप्त नहीं हैं। अँग्रेजी का जो विरोध था वह अँग्रेजी हुकूमत के साथ
जुड़ा हुआ था। एक राष्ट्र को कैसा होना चाहिए इसके बारे में सोचते हुए
इंटेलिजेंसिया (इसे सुविधा के लिए हिन्दी में स्वीकार कर लिया जा सकता है)
ने एक राष्ट्रीय स्वप्न का ताना-बाना बुना जिसमें एक स्वाधीन राष्ट्र के
लिए अपनी भाषा का महत्त्व बना। उसकी खोज शुरू हुई और इस दौरान ही अँग्रेजी
के स्थान पर एक स्तर पर हिन्दी और अन्य स्तरों पर हिन्दी समेत सभी भारतीय
भाषाओं को रखकर सोचने का विकल्प उभरा। हिन्दी को सम्पर्क भाषा के रूप में
देखने का जो आधार बना उसमें राष्ट्र के बनने के पूर्व के समय के सामूहिकता
के आधारों–धर्म, धार्मिक पुस्तकें, धार्मिक स्थल आदि का महत्त्व है। जो
हिन्दू मानस के थे उनके लिए संस्कृत सबसे ऊपर थी, पर विभिन्न कारणों से
हिन्दी उनके लिए सबसे मान्य देश की सम्पर्क भाषा बन कर उभरी। हिन्दी के
राष्ट्रीय विकल्प बन जाने का कारण हिन्दी के लोग नहीं थे यह याद रखें।
हिन्दी किसी भी तरह से कई अन्य भारतीय भाषाओं से बेहतर स्थिति में नहीं थी।
हिन्दी को सबसे बड़ी भाषा इसलिए माना गया क्योंकि यह हमारे राष्ट्रीय
स्वप्न का हिस्सा थी।
जिसे हम गाँधी युग कहते हैं उसमें इस
स्वप्न को जब रूप दिया गया भाषा का प्रश्न उलझने लगा। इस प्रश्न को दो
स्तरों पर सुलझाने की कोशिश हुई - जनता के साथ संवाद में यह मान्य हुई।
इससे हिन्दी को महत्त्व मिला इसमें सन्देह नहीं। भारत के सभी हिस्सों में
हिन्दी ही जनता और उनके राष्ट्रीय नेताओं के बीच की भाषा बनी। लेकिन,
नेताओं, बडे लोगों ने अपने घर और आपस के संवाद के लिए, ज्ञानार्जन के लिए
अँग्रेजी को ही मान्य बनाया। लगभग सभी बड़े नेता, पूँजीपति और विद्वान आदि
अँग्रेजी के साथ ही रहे। इस सन्दर्भ में गाँधी ने कुछ दबाव बनाया और हिन्दी
प्रदेश के नेताओं के साथ हिन्दी में संवाद करना शुरू किया। यह दिलचस्प है
कि गोविन्द बल्लभ पन्त जैसे हिन्दी प्रदेश के नेता ने गाँधी से अँग्रेजी
में पत्राचार करना चाहा और दूसरी ओर से दबाव बनने पर अनिच्छा से हिन्दी में
पत्र लिखना शुरू किया। काँग्रेस के बडे़ नेताओं में सिपर्फ राजेन्द्र
प्रसाद थे जिन्होंने हिन्दी को सहज रूप से स्वीकार किया। उन्होंने अपनी
आत्मकथा हिन्दी में लिखी, अन्य बडे़ नेताओं ने अँग्रेजी में। इस देश में
एलिट अपने लिए नेताओं का चुनाव बड़ी सावधानी से करते हैं। उस दौर से लेकर
1990 के दशक तक एलिट किसी देशी नेता को अपना समर्थन देने से येन–केन
प्रकारेण बचना चाहता है। गाँधी के मामले में वह मजबूर था इसलिए उसे ‘थोड़ा
सनकी’ मानते हुए भी समर्थन देने के लिए तैयार हुआ क्योंकि वह ‘अच्छे आदमी’
थे। (ये इतिहासकार बरूण दे के शब्द हैं) यह खासा दिलचस्प है कि वामपन्थ के
लगभग सभी बडे़ नेता, काँग्रेस के अधिकांश बडे़ नेता आदि अँग्रेजी से अपनी
भाषाओं की तुलना में अधिक निकट थे। यानी, जनता के लिए भारतीय भाषा और एलिट
के लिए अँग्रेजी (अपनी भाषा के साथ) यही आदर्श विकल्प था। बिहार के एक
विद्वान हैं – शैबाल मित्र। उन्होंने एक दिलचस्प लेख लिखा है जिसमें
उन्होंने कहा है कि बिहार में पारम्परिक इंटेलिजेंसिया के लिए भाषा
अँग्रेजी थी। (यहाँ पारम्परिक का उपयोग समाजशास्त्रीय केटेगरी के रूप में
है।) जो इस देश की भाषा के साथ थे उसे वे कॉकटेली इंटेलिजेंसिया कहते हैं।
इस बात से भड़कने की जरूरत नहीं है। बिहार जैसे राज्य में सभी बडे़ विद्वान
हिन्दी जानते हुए अँग्रेजी में ही काम करते रहे यह एक सच है। अब आप राहुल
सांकृत्यायन का नाम न लें, वे एक अपवाद हैं। राहुल भाषा के मामले में बहुत
ही लोकतान्त्रिक थे। वे 1926 में भी जनता के साथ उसकी अपनी बोली में
राजनैतिक संवाद करना चाहते थे। राजेन्द्र प्रसाद आदि हिन्दी में भाषण देते
थे। उन्हीं सभाओं में राहुल (तब रामोदर दास) छपरा की बोली में भाषण देते थे
और जनता में वही ज्यादा लोकप्रिय होता था। बंगाल में यह प्रवृत्ति थोड़ी कम
थी लेकिन वहाँ भी प्राथमिकता अँग्रेजी को ही दी जाती रही। इस देश के
इंटेलिजेंसिया का जब कोई सम्यक विश्लेषण होगा यह साफ हो जाएगा कि यह
अँग्रेजी की तरफ झुकी हुई रही है। चाहे उर्दू की ‘उँची दुनिया’ हो या पिफर
बांग्ला का सांस्कृतिक संसार हो सब तरफ अँग्रेजी को ही बढ़त मिली हुई थी।
प्रमाण के लिए समर सेन और तपन रायचैधरी की आत्मकथाएँ पढ लें। लेकिन उस समय
राष्ट्रीय दबाव इतना अधिक था कि यह सबकुछ उभर कर नहीं आया। अकादमिक जगत का
कोई भी आदमी इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि साहित्य के सीमित संसार ने
भाषिक और अकादमिक का एक ‘नीचा नगर’ बनाया जिसके अलावा सब जगह अँग्रेजी को
बढ़त मिली हुई थी। पर, सरकारी नीति निर्माण में सिद्धान्तत: अँग्रेजी को
धीरे-धीरे हटना था सरकारी नीति के कारण भारतीय भाषाओं को कम से कम अँग्रेजी
के समतुल्य स्थान देने की बाध्यता थी। इसी कारण हिन्दी को आगे आने का एक
मौका बना। नेहरू के नेतृत्व में एक उदार उत्तर–औपनिवेशिक राष्ट्रीय दौर
शुरू हुआ जिसमें अँग्रेजी को बने रहने का मौका मिला। इस देश में अँग्रेजी
अगर इस शक्तिशाली रूप में बनी हुई है तो उसके लिए मैकॉले को श्रेय दिया
जाता है लेकिन उसके साथ नेहरू का नाम भी लिया जाना चाहिए। हालाँकि यह भी एक
सच है कि मैकॉले और नेहरू ने किसी बदनीयती से ऐसा नहीं किया था। वे जिस
वैचारिक संसार से आते थे वहाँ से अँग्रेजी को इसी रूप में देखा जा सकता था।
उदार उत्तर–औपनिवेशिक दौर जब तक चला (कह
सकते हैं अस्सी के दशक तक यह चला) इस देश के एलिट सुविधाजनक स्थिति में
रहे। हर स्तर पर अँग्रेजी के साथ चलने के फायदे बने रहे। एकबारगी तो ऐसा
लगा कि पूँजीपति वर्ग पूरी तरह से उदार एलिट के तर्कों से ही चलने के लिए
तैयार हो गया है। यही वह दौर था जब सलमान रूश्दी जैसे लेखक ने मैकॉले जैसा
भयानक वक्तव्य दिया जिसमें भारतीय साहित्य को लगभग अँग्रेजी साहित्य में
घटा देने की भयावह कोशिश की गयी थी। वह उदारवाद का स्वर्णिम काल था जब लगा
कि बाजार भी उनके साथ है। जितने नये शिक्षण संस्थान बने सबमें यही पाठ
दोहराया गया कि अँग्रेजी के सिवा कोई विकल्प नहीं। ऐसी बातें कॉमन सेंस का
हिस्सा बनने लगीं जिसमें यह निहित था कि जाने अंजाने अँग्रेजों ने भारत को
अँग्रेजी में काबिलियत देकर भारत को चीन समेत अन्य देशों की तुलना में बढ़त
दे दी है। यानी, अँग्रेजी हमारी ताकत है। यही वह दौर था जब हिन्दी के बड़े
कवि (जिन्हें साहित्य जगत का सबसे बडा सम्मान मिल चुका है) ने उदारता से
कहा कि वे अँग्रेजी को एक भारतीय भाषा मानते हैं।
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बाजार और पूँजीवाद की अनिश्चितता ही उसकी
शक्ति है। उदार पूँजीवाद के भीतर से नये तर्क उभरे और एक नये समीकरण ने
जन्म ले लिया। उदार उत्तर–औपनिवेशिक दौर के महानायक वे लोग थे जो एक ऐसे
एलिट को शक्तिशाली बना रहे थे जिनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने
मुनाफे को देश के साथ साझा करने में पीछे नहीं हटेंगे। संजय बारू ने मनमोहन
सिंह के सम्बन्ध में जो किताब लिखी है उसमें भी यही तर्क उभरता है।
उत्तर–औपनिवेशिक कॉरपोरेट युग, जिसकी शुरूआत इस देश में हो चुकी है, ने एक
नया समय शुरू किया है जिसमें देशी भाषाओं को बाजार की ओर से अधिक शक्तिशाली
बनाया जाना शुरू हुआ। यह एक पेचीदा बात है जिसको वे नहीं समझ सकते जो अभी
भी पिछले दोनों दौर के तर्कों के सहारे ही हल ढूँढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।
यह नया समय शक्तिशाली बनने के नये स्वप्न
के साथ लगातार आक्रामक होता जा रहा है। संयोग से यह समय इस देश में
राजनैतिक रूप से उस विचारधारा के लोगों के नियन्त्रण में है जिसके स्वप्न
की भाषा राष्ट्रीय है और वे शक्ति के देशी भावों के साथ चलना चाहते हैं। इस
युग में आर्थिक और सांस्कृतिक जगतों को अलगाया जा रहा है। आर्थिक रूप से
उन्नत होना जिनका ध्येय है उनको इस समय के राजनैतिक स्वरों से कम असुविधा
हो रही है। उन्हें लग रहा है कि यह वह राजनैतिक नेतृत्व है जो उनके आर्थिक
रूप से शक्तिशाली बनने को काम्य मानता है। वह अगर सांस्कृतिक और सामाजिक
क्षेत्रों में अनुदार भी रहे तो भी उसे विशेष परेशानी नहीं होती है। चीन के
मॉडल की सफलता के बाद इस मॉडल का जोर बढ़ा है। इसमें राजनैतिक, सामाजिक और
सांस्कृतिक स्वतन्त्रता का हनन बहुत चुभने वाला नहीं रह जाता, बशर्ते
आर्थिक विकास सुनिश्चित हो। लेकिन इस प्रोजेक्ट को सफल बनाने में लगे
राजनैतिक नेतृत्व के लिए यह पूरा मामला ‘राष्ट्रीय’ है, ‘सांस्कृतिक’ है।
वह देश को साफ–सुथरा, विकास से युक्त, सुखी और शक्तिशाली बनाना चाहता है।
वर्तमान भारत पर सोचते हुए एक इतिहास के
विद्यार्थी को दो प्रसंगों को याद करने की छूट मिलनी चाहिए। प्रथम, फ्रांस
की राज्य–क्रान्ति का प्रसंग और द्वितीय, बिस्मार्क का युग। फ्रांस की
क्रान्ति इसलिए शुरू हुई क्योंकि राजा के पास आर्थिक विकल्प नहीं बचे थे और
वह उस व्यवस्था द्वारा पोषित शक्तिशाली वर्गों से अधिक योगदान की अपेक्षा
करता था जिसके लिए शक्तिशाली समूह तैयार नहीं थे। उससे आर्थिक संकट गहराया
और क्रान्ति शुरू हुई, कई वर्षों तक चली और अन्तत: विप्लवी समाज फ्रांस ने
एक निरंकुश अधिनायक को सत्ता सौंप दी जो मुकुट को अपनी तलवार की नोक से
उठाकर अपने सिर पर रखना सही मानता था और जो ‘असम्भव को मूर्खों की डिक्शनरी
का शब्द मानता था’। बिस्मार्क ने जर्मनी को आर्थिक रूप से शक्तिशाली बनाया
और कहा जाना चाहिए कि औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप इंग्लैंड ने जो कुछ सौ
सालों में हासिल करके अपनी बढ़त बनायी थी उसको खारिज करते हुए बीस तीस
सालों में जर्मनी ने इंग्लैंड के बराबर अपनी औद्योगिक क्षमता को बढ़ा दिया।
उस बिस्मार्क ने इंजीनियरों को विद्वानों से बड़ा माना और नौजवानों को संदेश
दिया – ‘परिश्रम, परिश्रम और परिश्रम!’ उस ‘लौह पुरूष’ ने ही तो महान
जर्मनी के ऐतिहासिक संकल्प को पूरा किया।
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इस दौर में कॉरपोरेट को काम करने वाले एक
‘हिन्दू बिस्मार्क’ की जरूरत थी। लोकतन्त्र के रूप में भारत की जो तस्वीर
बनती दिखती है उसमें सबकुछ ऐसे ही चला तो सबकुछ बदल जाएगा। देश शक्तिशाली
बनेगा, आर्थिक रूप से बनेगा, पूँजी का वर्चस्व बढे़गा, राजनीति में
गुणात्मक बदलाव होंगे और देश की जनता के इतिहास और उसकी अपनी बोली–वाणी को
महत्त्व मिलेगा। इस दौर में अँग्रेजी का वर्चस्व टूटना चाहिए। अब बाजार यह
मान चुका है कि इस देश में विकास के लिए भारतीय भाषाओं का महत्त्व अँग्रेजी
से अधिक है। वह इस ‘मास’ (आमलोग) को विकास में शामिल करके अपना विस्तार
करना चाहता है। पूँजी के विस्तार के इस दौर में अखबारों में छपे मार्केट
ट्रैंड को समझाने वाले कुछ दिनों से बार बार यह कह रहे थे कि इस देश की
भाषा का ही भविष्य है। लेकिन इस नये समय में, इस (नये) ‘देश’ में देश की
भाषा कैसी होगी इसे कैसे बनाया–बढ़ाया जाएगा यह इस बात पर निर्भर है कि देश
की नयी इंटेलिजेंसिया कैसा व्यवहार करती है। आपने देखा होगा कि इन दिनों
क्रिकेट की कमेंट्री अब वे लोग कर रहे हैं जिनकी भाषा (अँग्रेजी के अलावा)
बांग्ला, तमिल, तेलुगु और मराठी है।
और अन्त में, यूपीएससी की परीक्षा के
सम्बन्ध में जो आन्दोलन चल रहा था उसके बारे में दो शब्द। क्या किसी को भी
यह लगता था कि यह आन्दोलन ‘सफल’ नहीं होगा? इसका ‘सफल’ होना तय था। ठीक
वैसे ही जैसे पड़ोसी देश की एक रैडिकल लेखिका को लम्बे समय का वीसा दिया
जाना! लगता है वे तमाम संस्थाएँ और पद–प्रतिष्ठान आदि ही अपनी शक्ति खोते
जाएँगे जो पिछले दौर में शक्ति के केन्द्र हुआ करते थे। क्या आपको लगता है
कि यूपीएससी, योजना आयोग या यूजीसी उतने शक्तिशाली रह सकेंगे? अगर लगता है
तो आप अभी भी उदार औपनिवेशिक राष्ट्रीय युग के साथ चिपके हुए हैं। उदार
अँग्रेजीपरस्तों की दीनता अभी नहीं दिख रही है साफ साफ, थोडे़ दिनों बाद
दिखने लगेगी। ये बात और है कि ऐसा होना काम्य है या नहीं।
(यह आलेख 'सबलोग' के सितंबर 2014 अंक में प्रकाशित है।)