Sunday, 21 October 2018

Review of Daya Krishna's book for Akar 50

दया कृष्ण , सभ्यताएँ और संस्कृतियाँ : भावी इतिहास –लेखन की प्रस्तावना (अनुवादक – नंदकिशोर आचार्य), रज़ा फाउंडेशन, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली , 2018( पृ 224, मूल्य 699 रु)
दया कृष्ण (1924-2007) भारत के प्रमुख दार्शनिकों में से एक थे। पश्चिमी दर्शन शास्त्र के गंभीर अध्येता होने के बाद वे अपनी प्रश्नाकुलता (जिसके कारण उन्हें मित्रगण ‘भारतीय सुकरात’ कहते थे) जिस तरह वे भारतीय दर्शन और बौद्धिक परंपरा की ओर आए उसके लिए उनकी वैचारिक यात्रा का एक विशेष महत्त्व है। जीवन के अंतिम दशक में उनकी एक किताब प्रकाशित हुई प्रोलेगोमेना टू एनी फ्यूचर हिस्टोरीयोग्राफी ऑफ कल्चर्स एंड सिविलाइजेशन (1997) जिसकी बहुत चर्चा हुई। इतिहास, दर्शन और सभ्यता के बारे में सोचते हुए भारत के एक प्रमुख दार्शनिक ने कैसे विचार किया यह बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस पुस्तक का अनुवाद प्रतिष्ठित हिन्दी साहित्यिक नंदकिशोर आचार्य ने किया है और इसका प्रकाशन रज़ा पुस्तक माला  में 2018 में किया गया। यह एक कठिन पुस्तक है लेकिन जिन सवालों पर इसमें एक दार्शनिक ने विचार किया गया है उसके बारे में हिन्दी में बातचीत ज़रूरी है।
    इतिहास का अकादमिक विकास उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में जिस तरह से हुआ उसके बारे में यह कहना गलत नहीं होगा कि यह इतिहास एक सीमित समय और क्षेत्र (स्पेस) में ही इतिहास लिखने को वैज्ञानिक ढंग से अतीत के बारे में लिखने की कोशिश का नाम है। इस सीमित समय और क्षेत्र को अपने स्रोतों के सहारे देखने की ही इतिहासकार ज़िम्मेदारी लेता है। वह एक छोटे से समय, मसलन बीस-तीस साल, और इलाके को लेकर अपना अध्ययन करना ही अब चलन में है। वे दिन गए जब  गिब्बन, मोमसेन, टायनबी जैसे विद्वान सभ्यता के सैकड़ों वर्षों के इतिहास जैसे बड़े विषय को लेकर अध्ययन करते थे। अगर हम मार्क ब्लॉक की पुस्तक – ‘द हिस्टोरियंस क्राफ्ट’ का स्मरण करें तो कह सकते हैं कि एक इतिहासकार एक योजना के अंतर्गत एक निश्चित शोध-प्रणाली का अनुसरण कर एक कारीगर की तरह इतिहास लिखता है।     इतिहासकार, जिसे अब कुछ लोग अब इतिहासज्ञ कहना पसंद करते हैं,  के लिए औज़ार और सामग्री – तथ्य और पद्धति का ज्ञान – वैसे ही महत्त्वपूर्ण हैं जैसे एक बढई के लिए लकड़ी काटने का ज्ञान और जो वह बना रहा है उसका खाका है। इतिहास-लेखन को सीखना होता है। किसी भी ‘क्राफ्ट’ की तरह इसे सीखना होता है। यह कवि कर्म जैसा नहीं है जो मुख्यतः उसकी नैसर्गिक प्रतिभा पर निर्भर होता है।
    दयाकृष्ण इस तरह के इतिहास लेखन से संतुष्ट नहीं हैं और वे चाहते हैं कि जो इतिहास लिख रहे हैं उनके क्षितिज का विस्तार हो। उनके शब्दों में कहें तो अब इतिहासकार को कारीगर की तरह नजर सामने अपने औजारों और इलाकों पर गड़ाए रखने के साथ आकाश की ओर उठाने की भी जरूरत है ताकि जो भविष्य का आकाश है उसके साथ अपने अतीत से जुड़े काम को मिलाकर देख सके। मनुष्य और सभ्यता दोनों एक दूसरे को जुड़े  हुए हैं। साहिर के शब्दों के सहारे कहें तो नीले गगन के तले अगर धरती का प्यार पलता हो तो धरती पर जो चल रहा है उसके साथ आकाश का एक जुड़ाव है। इतिहास का ‘कैमरा’ प्रेमी के साथ ही आकाश, सुबह शाम सबसे जुड़कर ही समय को रच सकते हैं। दूसरे शब्दों में इतिहासकार को उस खेत जोतते किसान की तरह होना चाहिए जो खेत में बुआई के समय इस बात का ध्यान रखे कि बारिश हो सकती है और उसके खेत बोने के ज्ञान को आकाशी शक्तियों के साथ जोड़ कर देखना होता है ताकि उसका उद्देश्य –अच्छी फसल उसे मिल सके।  प्रोफेसर सरन जैसे विद्वानों के हवाले से दयाकृष्ण जैसे दार्शनिक चिंतक प्रचलित इतिहास लेखन को अपर्याप्त मानते हैं और कहते हैं कि जिस सभ्यता के संदर्भ में इतिहास की घटना घटती है उसकी समझ के बिना ऐतिहासिक घटनाओं का सम्यक विवेचन संभव नहीं। वे इस पुस्तक के आरंभ में यह लिखते हैं – ‘किसी भी संस्कृति अथवा सभ्यता का इतिहास स्वयं मनुष्य का ही इतिहास है।”
    इस तरह की सोच का एक इतिहास रहा है। जब वैश्विक ज्ञान और वैज्ञानिक ज्ञान की आधारशिला रखी जा रही थी तब भी सबलोग यह नहीं मान रहे थे कि सिर्फ वैज्ञानिक आधार पर ही हम अतीत (इतिहास) को समझ सकते हैं। देकार्त के तर्क से परे जाकर इटली के दार्शनिक गियाम्वैटिस्टा विको (1668-1744) ने यह कहने का प्रयास किया था कि हर सभ्यता का अपना एक संदर्भ होता है और उसी के संदर्भ में उसके इतिहास को समझा जा सकता है। वहाँ से शुरू कर हाइडेगर होते हुए मिशेल फूको जैसे चिंतकों ने वैज्ञानिक सीमा को प्रश्नांकित किया है। कई लोगों को इस प्रयास में मानव के इतिहास के इलाके में अपनी शक्ति (इतिहास को नियंत्रित करने की) की सीमा को समझाने की कोशिश भी लगती रही है। इतिहास में देवता और दैविक के लिए कोई स्थान नहीं है। वहाँ मनुष्य ही निर्माता है। समाज का अध्ययन इतिहास की चीज़ है जिसे मानव के अपने प्रयासों को केंद्र में रखकर लिखा जाता है। जो हम जान नहीं सकते उसके बारे में इतिहासकार की दिलचस्पी कम है।
    ‘Prolegomena’ का प्रयोग एक प्रकार से भूमिका के रूप में ही किया गया है जो इतिहास के लिखे जाने के पूर्व ध्यान देने के लिए प्रस्तावित की गई हैं। द्याकृष्ण का मत है कि मनुष्य का इतिहास उसकी सभ्यता के इतिहास से सीधे सीधे जुड़ा है। मनुष्य ही अपनी सभ्यता का निर्माण करता है और इसी क्रम में वह खुद भी निर्मित होता है। यह जो बन रहा है और बनाया जा रहा है यह अगर सिर्फ वर्तमान केन्द्रित रहे तो उसे ठीक ठीक नहीं समझा जा सकता है। दया कृष्ण के शब्दों में “अतीत उसी हद तक सार्थक या महत्त्वपूर्ण माना जाता है जिस हद तक वह वर्तमान का कारण होता है।” (पृ 19)
    दया कृष्ण की मान्यता है कि अतीत की स्मृति और भविष्य के लिए कामना के बीच ही परिवर्तन के सूत्र ढूँढे जा सकते हैं। यह व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों स्तरों पर चलता रहता है। वर्तमान या मनुष्य के अनुभव पर केन्द्रित होने से हम ‘वनडायमेंशनल’ हो जाते हैं। इतिहास यहीं सीमित हो जाता है। वह मनुष्य के अनुभव के आधार पर चीजों को रखकर समझने की कोशिश करता है। जो चीज जैसी दीखती है अनुभव में वैसी ही इतिहास में आती है पर यह एक सीमित दृष्टि ही देती है। सभ्यता और संस्कृति कोई प्राकृतिक चीज नहीं हैं। यह वह है जो हम बचाते हैं, ढोते हैं,  इसे विस्मृत होने से बचाने की कोशिश करते हैं और अगली पीढ़ी को सौंपते की जिम्मेवारी भी लेते हैं । अगर यह सौंपने की प्रक्रिया न चले तो चीजें भुला दी जाती हैं। दया कृष्ण के लिए किसी भी सभ्यता के इतिहास लेखक के लिए सबसे जरूरी है यह देखना कि सहेजने और सौंपने की प्रक्रिया कैसे चलती हैं, यह कैसे होता है? वे इसे भी महत्त्वपूर्ण मानते हैं कि जब कोई सभ्यता फैलती है तो उसका बर्ताव पहले की सभ्यताओं के साथ किस प्रकार का होता है। किसी सभ्यता ने किस प्रकार अपने प्रतीक बनाए, बचाए और उसे बदलने की कोशिश की यह बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है ।
    दया कृष्ण ने यह भी लक्षित किया है कि एक समय में रह रहे इतिहासकार (जो अपने वर्तमान में ही अवस्थित होते हैं) एक ही समय में होकर भी अपनी अपनी जगहों के होने के कारण अलग अलग तरीके से भी सोचते हैं। वे भिन्न समाजों , विभिन्न संस्कृतियों और अलग अलग राजनैतिक परिवेश के होते हैं अतः उनमें अंतर होता है।  वे इतिहास के रैखिक समय (लिनियर ) होने की बात को रखते हुए चक्रीय (साइकालिक) समय की समझ को भी अतीत के संदर्भ में रखते हैं। वे टायनबी के उदाहरण को रखते हैं और उनके ईसाई धर्म में अवस्थित होने की चर्चा करते हैं। इस संदर्भ में वे जीवन चक्र और सांस्कृतिक चक्र के बीच के संबंध की बड़ी बारीक चर्चा करते हुए यह कहते हैं कि जैविक चक्र (जो एक जीवन से जुड़ा है) सांस्कृतिक चक्र (जो सामूहिकता से जुड़ा है) का हिस्सा बनता चलता है और जो जीवन के अनुष्ठान होते हैं वे सांस्कृतिक रूप ले लेती हैं। यहीं रिचुअल का जन्म होता है जो किसी सभ्यता को समझने के लिए जरूरी विषय होते हैं । वे जीवन के तीन पक्ष –जैविक , सामाजिक और सांस्कृतिक  को एक ही समय –विवाह में विश्लेषित करके यह कहते हैं कि जो इतिहास ‘रिचुयल’ के कारण आए परिवर्तनों को न समझे वह इन तीनों प्रकारों के जीवन को समझ नहीं पाएगा।
    दयाकृष्ण एक और प्रश्न रखते हैं – सभ्यता और संस्कृति के विस्तार और संकुचन का।  हर संस्कृति की एक सीमा रेखा होती है जैसे हर देश की एक सीमा होती है। जब कोई उसका अतिक्रमण करके दूसरी सीमा में प्रविष्ट होती है तो दोनों सभ्यताएँ – जो फैल रही है और जो संकुचित हो रही हैं- दोनों बदलते   है। इस प्रसंग में वे एक दिलचस्प टिप्पणी करते हैं कि जब कोई सभ्यता किसी दबाव में (मसलन युद्ध में पराजित होकर ) अपने को किसी और संस्कृति और सभ्यता के दबाव में पाती है तो अपने तरीके से सिकुड़ कर (संकुचित होकर) अपने को बचाने के लिए गैर राजनैतिक क्षेत्र में अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए सचेष्ट होती है। अगर कोई इतिहासकर राजनैतिक घटनाक्रमों के आधार पर ही इतिहास को समझने की कोशिश करेगा और पराजित शक्ति के अपने बचाव के सांस्कृतिक प्रयासों को समझने की कोशिश नहीं करेगी तो वह उस समाज को ठीक से नहीं समझ सकेगी। यहाँ स्पष्ट है कि काबराल की सांस्कृतिक संघर्ष और पार्थ चटर्जी की उपनिवेशवादी दौर में सांस्कृतिक क्षेत्र में अपनी सभ्यता और संस्कृति की श्रेष्ठता को बरकारार रखने की बात को भी याद किया जा सकता है।
    भारतीय संदर्भ में दया कृष्ण की एक अन्य बात भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। वे कहते हैं कि पूरा देश अंग्रेजों के अधीन नहीं रहा। एक बड़ा हिस्सा अंग्रेजों के अधीन राजनैतिक रूप से रहा लेकिन सांस्कृतिक रूप से अपनी स्वायत्ता बनाए रहा। वे राजे रजवाड़ों के अधीन रहे भारत के सांस्कृतिक अनुभवों, आचार व्यवहारों के इतिहास पर ध्यान देने की बात करते हैं।
    दूसरी महत्त्वपूर्ण बात दया कृष्ण क्लिफर्ड गीर्ट्ज के हवाले से कहते हैं। गीर्ट्ज का मत है कि महान एंथ्रोपोलोजिस्ट अपनी तथ्यात्मक विवरणों के कारण महत्त्वपूर्ण नहीं होता बल्कि जिस तरह से उसने लिखा (देखा ) है उसके कारण होता है। भले ही उसके तथ्य सही नहीं हों, अगर उसने सही तरीके से लिखा / देखा है तो उसे अधिक महत्त्व मिलेगा।  कल्चरल एंथ्रोपोलोजिस्ट और इतिहासकार के बीच के अंतर –एक देख कर विवरण तैयार करता है और दूसरा उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर- के संदर्भ में वे एक बहुत महत्त्वपूर्ण बात लिखते हैं कि अभिलेखाकर में उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्य इतिहास नहीं हैं, ये बस इतिहास के कच्चे माल भर हैं, जिसके आधार पर इतिहास को अभी लिखा जाना है। दया कृष्ण के अनुसार महान इतिहासकार अपने लिखने के ढंग और अपने ‘विजन’ के कारण ही महान होते हैं न कि अपने तथ्यों की सटीकता के कारण। वे जो उदाहरण देते हैं वे खासे दिलचस्प हैं। मार्क्स अन्याय के खिलाफ आक्रोश के कारण जिसके साथ एक शोषण-रहित समाज का ‘विजन’ जुड़ा है, हीगेल द्वंदात्मकता के कारण (जिसके आधार पर वे ‘अब्सोलुट स्पिरिट’ को इतिहास में एक आकार (कंक्रीटइजेशन) दे सके), और मैक्स वेबर अपने ‘कॉर्पोरेट रैशनलिटी’, ‘ब्यूरोक्रैट’ के ‘इम्पेर्सोनल रैशनलिटी’, करिश्मा आदि की धारणाओं के  आधार पर पूंजीवाद और धर्म को समझने मे सहायक होने के कारण महत्त्वपूर्ण हैं । इनमें से कोई भी इतिहासकार नहीं हैं लेकिन इतिहास लेखन के लिए ये सभी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं ।
    दया कृष्ण ने सभ्यता के विस्तार को सिर्फ युद्ध और राजनैतिक विस्तार में देखने को सही नहीं माना है। विजयी और विजित सभ्यताओं के संपर्कों और प्रभावों को अन्य क्षेत्रों – वाणिज्य, धर्म , कला, आर्किटेक्चर , साहित्य आदि – से जोड़कर देखने पर बल दिया है। वे मानते हैं कि इस्लाम के प्रसार को मॉडेल मानना सही नहीं है। वे ईसाई धर्म के शुरुआती दौर को सभ्यता के प्रसार को समझने में ज़्यादा सहायक मानते हैं। वे सभ्यता के विस्तार के संदर्भ में सबसे बढ़िया उदाहरण बौद्ध धर्म के प्रचार से आए परिवर्तनों   इस संदर्भ में वे यूरोप के विस्तार के साथ ही भारत, दक्षिण भारत, दक्षिण पूर्व एशिया आदि के वैदिकीकरण की चर्चा भी करते हैं। ये सभी चीजें युद्ध विजय से कम महत्त्वपूर्ण नहीं माने जा सकते। इस संदर्भ में बौद्ध धर्म के द्वारा नेपाल, तिब्बत, चीन, भूटान , जापान, श्रीलंका में आए परिवर्तनों के बारे में सोचना भी सहायक हो सकता है।
    इन सब बातों के आलोक में दया कृष्ण का मत है कि इतिहासकार दरअसल ‘माइक्रो’ इतिहास को लिखता है जिसमें एक खास समय, इलाका और उससे संबन्धित तथ्य उसके पास होते हैं , जबकि जरूरत है कि वह ‘मैक्रो’ इतिहास की ओर ध्यान दे जहां समय और इलाके की कोई सीमा नहीं उसका आकाश उसके सामने खुला है। उसे रचनात्मक होकर कल्पनाशील होने की पूरी सुविधा है। इस अर्थ में ही इतिहास का आकाश खुलता है। दयाकृष्ण के शब्दों में इतिहास मनुष्य के लंबी अवधि में पहिले विविध प्रकार के प्रयत्नों का फल है। वह समायातीत होकर मनुष्य के सामूहिक प्रयासों से जुड़ पाता है।  यह समझ किसी खास समय और खास इलाके से जुड़े तथ्यों की वैज्ञानिक व्याख्या से संभव नहीं है। वे इस सीमा को इतिहास तक सीमित रखकर नहीं देखते बल्कि वे अर्थशास्त्र और राजनीति के साथ भी इसे पाते हैं। इस अन्द्र्भ में दया कृष्ण विट्ट्गेंस्टाइन के वैश्विक पोलिटिकल सिस्टम की चर्चा भी करते हैं जो विभिन्न इलाकों की राजनीति को प्रभावित करती हैं।
    दया कृष्ण सभ्यता के इतिहास , इसके लिखे जाने की प्रक्रिया, इसके घटने के समय के बाद इसके ऐतिहासिक रूप के बनने की जटिल प्रक्रिया आदि पर विषद चर्चा के बाद इस बात तक आते हैं कि किसी सभ्यता का कोई भूगोल होता है या नहीं ? वे इस बात को फिर से दोहराते हैं कि सभ्यता के इतिहास का संबंध अतीत और भविष्य दोनों से है और साथ ही एक सभ्यता दूसरी सभ्यता से पृथक नहीं है, जुड़ी हुई है। वे एक बेहतरीन निष्कर्ष निकालते हैं कि दरअसल सभ्यताएँ मानव समाज की अधूरी परियोजनाएँ है जिसमें अभी भी संभावना बनी हुई है। यह बेहद दिलचस्प निष्कर्ष है।
    दूसरी बात यह कहते हैं कि सभी सभ्यताओं की समस्त उपलब्धियां पूरे मानव समाज की उपलब्धि है और इस प्रकार इसका एक वैश्विक रूप है। मानव समाज का कोई भी हिस्सा इसकी समस्त उपलब्धियों का अधिकारी है। यह सहकारी प्रकल्प है भले ही इसमें प्रतियोगिता भी रही है।  इसपर किसी का भी स्वामित्व या एकाधिकार एक छलावा ही है। द्या कृष्ण ने इस बात पर एक प्रकार से अफसोस ही प्रकट किया है कि अब तक सभ्यता के इतिहास (वे कहानी कहते हैं) को इस प्रकार लिखा गया है मानो वे सब अलग अलग हों। सबको यह ही लगता है कि महत्त्वपूर्ण चीजें भीतर ही घटित हुई और बाहर से कुछ जो लेनदेन हुआ वह कम हुआ और वह आकस्मिक ही था। सुविधा के लिए यह ठीक हो सकता है लेकिन दयाकृष्ण के अनुसार ये सभी सभ्यताएँ एक तरह से जुड़कर एक दूसरे से सीखती हुई आगे बढी हैं। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं की “समकालीन पश्चिमी चिंतन में बुद्धि के उच्छेदन (सबवर्शन  को उस चिंतन की एक अन्य लड़ी द्वारा आगे बढ़ाया गया है जो ज्ञान को एक ऐसे उत्पाद के रूप में देखने का परिणाम है जिसकी जड़ें ‘सत्य’ की तलाश में नहीं बल्कि उन कामनाओं और हितों की पूर्ति में है जिनका पारंपरिक रूप से ‘सत्य’ समझे जाने वाले तत्त्व से कोई संबंध नहीं है।” (पृ 220) इस तरह के प्रयासों के प्रति दया कृष्ण सावधान हैं और वे कहते हैं कि एक सभ्यता को उस प्रलोभन से बचाना होगा जो बुद्धि द्वारा ही प्रस्तुत किए गए हैं। (फूको, देरीदा और रोर्टी समेत कई दार्शनिकों का स्पष्ट उल्लेख इस संदर्भ में किया गया है।) ये प्रलोभन सर्वाधिक सूक्ष्म और खतरनाक होते हैं क्योंकि वे बुद्धि को ही अपने को भिन्न तरह से देखने के लिए राजी करने का प्रयत्न करते हैं। इसके कारण अपने को एक सांस्कृतिक क्रियाशीलता के रूप में देखने और साभ्यतिक भूमिका को भूलने का खतरा बढ़ता है।
    पुस्तक को पढ़ते हुए यह स्पष्ट है कि सभ्यता और शास्त्र के बीच के संबंध की रक्षा का एक उद्देश्य इसके साथ जुड़ा है। जिन लोगों को सभ्यता और संस्कृति के निर्माता के रूप में शास्त्र से लोक की ओर उन्मुख होना जरूरी लगता हो उनके लिए यह पुस्तक एकांगी लगेगी। सभ्यता द्वारा निर्मित शास्त्रीय संरचना की रक्षा को दया कृष्ण बहुत महत्त्व देते हैं। दार्शनिक ने जिस उद्देश्य से यह पुस्तक लिखी है उसके बाहर जाकर लोक और शास्त्र के द्वंद्व की चर्चा यहाँ करना अनावश्यक होगा।
    सभ्यता के संबंध में दया कृष्ण के इस प्रकार के निष्कर्षों से सभ्यता के इतिहास के संबंध में नये ढंग से सोचने की दृष्टि मिलती है। जिस अध्याय में इतिहास , इतिहास-लेखन और मानव समाज के लिए अपनी पहचान (आइडेंटिटी) और सत्य के साथ उनके संबंध की पड़ताल की गई है उसमें दया कृष्ण ने एक तरह से अपने निष्कर्षों को बहुत खोल कर लिख दिया है। इस पुस्तक के शुरू में यह कहा गया है कि यह 1997 में अङ्ग्रेज़ी में प्रकाशित दया कृष्ण की पुस्तक का अनुवाद है। इससे लग सकता है कि यह पूरी किताब का अनुवाद है। पर इस पुस्तक में से छह में से चार अध्यायों का ही अनुवाद संकलित है। छोड़ दिए गए दो अध्यायों में से एक जो सीधे सीधे इतिहासलेखन पर ही है उपयोगी सिद्ध होता। संभव है इन दोनों महत्त्वपूर्ण अध्यायों को अलग से प्रकाशित किया जाए।
    अपनी सोच में दया कृष्ण सभ्यता और संस्कृति के बहुलता वादी दृष्टिकोण के पक्ष में खड़े हैं। जिस तरह से वे सभ्यता के निर्माण के उद्यम पर चिंतन द्वारा मनुष्य द्वारा सभ्यता के निर्माण के अधूरे काम के रूपायण की ओर बढ़े हैं उस प्रयास को हिन्दी बौद्धिक जगत समझने की कोशिश करे तो हो सकता है कि दया कृष्ण जैसे विचारकों के बारे में जो अनभिज्ञता है वह दूर हो और आम हिन्दी का पाठक समृद्ध हो। यह फिर से दोहराया जा सकता है कि यह कठिन है क्योंकि दया कृष्ण ने अपनी बात को अपने विषय की दुरूह अकादमिक भाषा में ही रखा है। अनुवादक ने भी हिन्दी के शब्द भंडार की समृद्धि का प्रमाण देने की चेष्टा एक स्वाभिमानी हिन्दी लेखक की तरह की है। बेचारे हिन्दी के सामान्य पाठक के प्रति विद्वान अनुवादक ने कोई रहम नहीं किया है।  एक एक शब्द मानो अङ्ग्रेज़ी के शब्द का मुक़ाबला करने के लिए लाए गए हैं। यह बहुत ही श्रमसाध्य कार्य रहा होगा यह स्पष्ट है।
    अब इस पुस्तक पर चर्चा करके इसको पाठकों के लिए और अधिक ग्रहण-योग्य बनाने की चुनौती हमारे सामने है। तभी हिन्दी में निरंतर क्षीण हो गयी विचार परंपरा में यह हिन्दी अनुवाद विस्तार करेगी जिसकी आशा अशोक बाजपेयी ने आमुख में व्यक्त की है।    

            

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