गांधी की श्रीलंका यात्रा और उनके धर्म और स्त्री संबंधी विचारों पर एक दृष्टि
हितेन्द्र पटेल
जब आत्मकथा लिखने का मन बना रहे थे किसी ने उनसे कहा कि आत्मकथा तो पश्चिमी समाज में लिखने का रिवाज है। हमारे यहाँ तो आत्मकथा नहीं लिखे जाते । इसका तर्क यह दिया गया कि विचार तो बदल सकते हैं और ऐसे में अपनी आत्मकथा में वे चीजें लिखी जा सकती हैं जिस पर बाद में खुद आत्मकथा लेखक का ही विश्वास न रहे । गांधी को इस बात में कुछ तत्त्व दिखा लेकिन फिर उन्होने तय किया कि चूंकि उनका उद्देश्य ‘असली आत्मकथा’ लिखना नहीं है बल्कि अपने किए गए प्रयोगों के बारे में लिखना है इसलिए वे आत्मकथा लिख सकते हैं। वे मानते थे कि उनके जीवन में प्रयोगों के अलावा कुछ नहीं है, इसलिए उनके प्रयोगों की कहानी ही उनकी आत्मकथा बनी।
गांधी जीवन भर अनवरत प्रयोग करते रहे और जीवन के भिन्न भिन्न पड़ावों पर उन्होने अपने लिए कुछ विशेष लक्ष्य भी रखे । गांधी के जीवन और उनके दर्शन के गंभीर अध्येता उन संदर्भों और निहितार्थों को ध्यान में रखकर ही उनके व्यक्त विचारों का अध्ययन करते हैं। जो ऐसा नहीं करते वे गांधी के भीतर विरोधाभास भी ढूंढ लेते हैं।
गांधी के जीवन में कई अध्याय हैं। उनमें से एक अध्याय 1922 में पूरा हो गया है जब उन्होने तय किया कि देश को राजनैतिक आंदोलनों से अधिक रचनात्मक कार्यों के आधार पर सत्याग्रह के लिए तैयार करने की जरूरत है। इसके बाद सामाजिक सुधार, खादी और स्वछता आदि पर उन्होने विशेष ध्यान दिया। अगले आठ साल वे इसी में जुटे रहे। 1930 के बाद गांधी कई अन्य चीजों में उलझे और फिर कभी राजनीतिक आंदोलन के दबाव से निकल नहीं पाये। भारत विभाजन के प्रश्न के गंभीर हो जाने के बाद गांधी एक तरह से राजनैतिक प्रक्रिया में केन्द्रीयता खो देते हैं, हालांकि जनता में उनके प्रभाव में कोई कमी नहीं आई थी, तब जाकर वे फिर से अपनी सोच में कई ऐसे विषयों की ओर वे लौटे जिन्हें वे 1918-1929 के बीच महत्त्व देते थे।
इस रचनात्मक कार्यों पर केन्द्रित आठ वर्षों की अवधि में गांधी के कथनों पर गौर से विचार करने के लिए उनकी श्री लंका यात्रा पर कम ध्यान दिया गया है। इस आलेख में उसी पर मुख्यतः केन्द्रित करके गांधी के धर्म और स्त्री संबंधी विचारों की एक संक्षिप्त चर्चा की गई है।
गांधी को 1927 के जून महीने में जाफना के तीन नौजवानों ने श्री लंका आने का निमन्त्रण दिया। एक महीने बाद उन्हें फिर से आने के लिए अनुरोध किया। साथ ही यह लिख कर भेजा कि खादी के लिए काम करने हेतु अच्छी ख़ासी रकम भी श्रीलंका से मिल पाने की उम्मीद है। श्रीलंका में नवमबर में पहुँचने पर उनका भव्य स्वागत किया गया। हजारों लोग उनके स्वागत के लिए आए। कोलंबो के टाउन हाल में उनका सम्मान किया गया। वे पहले अश्वेत व्यक्ति थे जिन्हें इस तरह म्युनिसिपैलिटी द्वारा सम्मानित किया गया। विद्योदय कॉलेज के बौद्ध पंडितों द्वारा भी उनका भव्य स्वागत हुआ और पाँच सौ बौद्ध भिक्षुओं ने अपने पीत वस्त्रों में उनकी भव्य प्रशस्ति की। इस यात्रा के बारे में महादेव देसाई ने विस्तार से लिखा जिसे पुस्तकाकार छापा भी गया। देसाई ने लिखा है कि जिस तरह का सम्मान गांधीजी का वहाँ हुआ वह भारत में हुए सम्मान से किसी तरह से कम न था। हिंदुओं द्वारा गांधी के साथ बौद्ध और ईसाई लोगों की गांधी के स्वागत की होड सी लग गई। ढाई सप्ताह की इस यात्रा में गांधी ने जो कुछ कहा जिसके आधार पर गांधी के धर्म और स्त्री संबंधी विचारों को समझने में मदद मिलती है। गांधी के कुछ ऐसे विचार भी हैं जो अन्यत्र इतनी स्पष्टता से कम ही आए हैं, इसलिए इस यात्रा में गांधी के वक्त विचारों पर अलग से भी ध्यान दिया जाना चाहिए।
गांधी का धर्म और उनका ‘धरम’
अपने विवरण में महादेव देसाई ने लिखा है कि गांधी जी इस बात को समझ नहीं पाते थे कि ईश्वर ने जो असली मंदिर बनाए हैं जो प्रकृति के सौंदर्य के रूप में उपलब्ध है उसे छोडकर मनुष्य ईंट गारे से बने मंदिर में अपने ईश्वर को ढूंढते हैं। अपने एक भाषण में वे श्रोताओं से कहते हैं कि वहाँ आते हुए उन्होने प्रकृति का ऐसा सौंदर्य देखा जैसा उन्होने जीवन में नहीं देखा था, पर वे इस बात से हैरान हैं कि उस सौन्दर्य से अभिभूत होकर झूमने के बजाए स्त्री और पुरुष मद्यपान करके झूम रहे हैं !
गांधी के बारे में अब यह मान्य होना चाहिए कि धर्म का उनके लिए अर्थ आत्म-ज्ञान ही था। इस संबंध में गांधी बहुत स्पष्ट हैं। अपनी आत्मकथा में भी वे इस बात को स्पष्ट रूप से कहते हैं। धर्म की बात करते हुए राम नाम तक जाते हुए गांधी बहुत सहजता से इसे भाय-मुक्ति से जोड़ते हैं। उन्होने लिखा है कि वे भूत प्रेत से बहुत डरते थे और रंभा नमक एक सेविका से उन्हें इस भय से मुक्ति का एक मंत्र मिला – रामनाम का जाप। इस रामनाम ने उन्हें हर भय से मुक्ति दिलायी। बाद में तेरह साल की उम्र में उन्होने लढा महाराज के रामायण पाठ को सुना जिसका उनपर गहरा प्रभाव पड़ा। महाराज के बारे में कहा जाता था कि रामायण पाठ से ही उन्हें कुष्ट रोग से मुक्ति मिली थी। जब उनका परिवार पोरबंदर आ गया रामायण पाठ बंद हुआ और भागवत पाठ एकादशी के दिन शुरू हुआ। मदन मोहन मालवीय के भागवत पाठ का उनपर बहुत प्रभाव पड़ा था। राजकोट ने उन्हें अन्य मतों –हिन्दू धर्म के अन्य पंथो के प्रति सहिष्णु बनाया ।राम और शिव के मंदिरों में वे जाते थे। जैन भिक्षु उनके पिता के पास आते थे और उनके यहाँ भोजन करते थे। उनके पिता के मुसलमान और पारसी मित्र भी उनसे धर्म पर चर्चा करते थे जिसे उनके पिता ध्यान और रुचि से सुनते थे। पिता की सेवा करते हुए किशोर गांधी को उन्हें सुनने का मौका मिलता था। ईसाई धर्म से उनका संपर्क नहीं हुआ था और वे इस धर्म को नापसंद करते थे। उन दिनों ईसाई प्रचारक हाई स्कूल के पास खड़े होकर हिन्दू धर्म और उनके देवताओं की निंदा किया करते थे जिसे गांधी बर्दाश्त नहीं कर पाते थे।
गांधी ने इस बात का उल्लेख अपनी आत्मकथा में जरूरी समझा है कि धर्मों के प्रति सहिष्णुता का अर्थ यह नहीं था कि वे किसी ईश्वर में विश्वास करते थे। मनुस्मृति पढ़कर उन्हें अरुचि ही हुई और वे अनीश्वरवाद के प्रति झुके। सत्य और नैतिकता ने उसी समय उनके भीतर स्थान बना लिया ऐसा उन्होने लिखा है। एक शिक्षाप्रद गुजराती पद्य ने उन्हीं बहुत प्रभावित किया था। उसमें एक पंक्ति है कि हर अच्छे मनुष्य जानता है कि सभी मानव एक ही हैं, इसलिए वह किसी भी बुराई के बदले भी भलाई ही करता है।
ईसाई मित्रों से हुए दक्षिण अफ्रीका में हुई बहसों में से सबसे महत्त्वपूर्ण वह बहस है जिसे गांधी ने अपनी आत्मकथा में दर्ज किया है। उनके ईसाई मित्रों को लगता है कि हिन्दू धर्म कभी भी किसी को शांति नहीं दे सकता क्योंकि उन्नति और मुक्ति के सारे प्रयास व्यर्थ हैं। इन प्रयासों से मानव मुक्ति संभव नहीं । इससे बेचैनी से मुक्ति नहीं मिलेगी और पीड़ा का अंत नहीं होगा; एकमात्र उपाय है अपने सारे पापों को ईसा मसीह पर डाल देना। वही एकमात्र पापमुक्त ईश्वर संतान हैं। वही सबके पापों को अपनी पीठ पर ढोता है, ढो सकता है। गांधी इसे अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि वे अपने पापों के फल से मुक्ति नहीं चाहते । उन्हें तो पाप से ही मुक्ति चाहिए। इसके लिए बेचैन रहने की पीड़ा उन्हें मंजूर है।
गांधी हिन्दू धर्म के इतिहास को लेकर स्वाभिमान से भरे थे। इसका प्रमाण है उनका बौद्धों के बीच दिया गया भाषण। उन दिनों इस बात का बहुत प्रचार था कि अतीत में देश की एक गौरवशाली धार्मिक और दार्शनिक परंपरा –बौद्धों को हिंदुओं को जबरन दबा दिया । ज़ाहिर है, उस समय गांधी जैसे नेता से यह अपेक्षा की गई थी कि वे बौद्ध धर्म के बारे में कुछ अच्छी और हिंदुओं के इस कुकृत्य के बारे में वे कुछ कहेंगे। गांधी ने जो कुछ कहा है उसे बहुत ध्यान से समझने की ज़रूरत है। वहाँ के बौद्धों ने उनसे कहा था कि बौद्धों के साथ अन्याय हुआ है और गांधी को उनकी मदद करनी चाहिए। गांधी ने जिन शब्दों में श्रीलंका के बौद्धों के समक्ष अपनी बात रखी है उसे देखें – “यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि बौद्ध धर्म का या बुद्ध की शिक्षा का सम्पूर्ण विकास भारत में हुआ है। दूसरा कुछ हो भी नहीं सकता था, क्योंकि बुद्ध खुद हिंदुओं के बीच के हिन्दू थे। हिन्दू धर्म का सर्वश्रेष्ठ उनके यहाँ है। उन्होने उन शिक्षाओं के लिए अपना जीवन दे दिया जो वेदों में दफन थीं... उनके महान हिन्दू ‘स्पिरिट’ ने वाग्जाल को हटाया, उन निरर्थक शब्दों से मुक्ति दिलाई जिसने वेद के स्वर्णिम सत्य को ढँक रखा था।” इसके साथ उन्होने यह भी कहा कि हिन्दू धर्म ने बुद्ध की शिक्षा को सही रूप में आत्मसात किया। आज के बौद्ध धर्म में से जिस हिस्से को हिन्दू धर्म ने अस्वीकार किया वह बुद्ध के जीवन और शिक्षण के मूल में नहीं है।वे इस बात को नहीं मानते हैं कि भारत में बौद्ध धर्म का अवसान हुआ है। उनकी यह मान्यता है कि बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म का ही एक हिस्सा था और उसने हिन्दू धर्म को पुष्ट और परिष्कृत इस रूप में किया कि अब हिन्दू धर्म प्राक बुद्ध काल के हिन्दू धर्म में लौट नहीं सकता।यानि, बुद्ध ने हिन्दू धर्म को परिष्कृत किया उसे मजबूती दी ।
बौद्धों को फटकारने से भी गांधी संकोच नहीं करते। उनको संबोधित करते हुए गांधी ने अस्पृश्यता के प्रश्न पर बौद्धों को फटकार लगाते हुए कहा कि छुआछूत को मानते हुए कोई बौद्ध नहीं हो सकता। एक बड़े पदाधिकारी के हवाले से गांधी ने कहा कि कुछ ऐसे बौद्ध हैं जो अस्पृश्य जाति की महिलाओं को शरीर के ऊपरी हिस्से को ढंकने के लिए कपड़े पहनने पर आपत्ति है। बौद्धों और हिंदुओं दोनों की इस मामले में उन्होने बहुत सख्त आलोचना की ।
गांधी ने अपने धर्म को सभी धर्मों से जोड़ने की भी कोशिश अपने भाषणों में की है। वे कहते हैं कि जब वे अपने सनातनी होने की बात करते हैं तो लोग समझ नहीं पाते कि मेरे पास इस्लाम, ईसाई और जोरास्ट्रियन धर्म के लिए भी स्थान है। उनका धर्म व्यापक है जो किसी भी धर्म का विरोध नहीं करता, यहाँ तक कि बहुत ही ‘फनेटिक’ मुसलमान का भी नहीं। मैं किसी किसी ‘फेनेटिक’ को भी वे निंदा का पात्र नहीं मानते थे और चाहते थे कि वे उसकी बात को उसकी तरफ से समझने की कोशिश करें। इसी दृष्टि का विस्तार करते हुए वे आगे कहते हैं कि उनके हिसाब से उन्हें हर किसी से प्रेम करना चाहिए , सिर्फ भारत के लोगों से ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लोगों से, जो किसी भी धर्म के मानने वाले हों। वे उस व्यापक उदारता के लिए अपील करते हैं और मानते हैं कि वे इसी के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। इस व्यापकता को सहज और सुलभ मानते हुए गांधी ने अपने भाषणों में कहा है कि जो धर्म प्रचारक हैं वे भूल करते हैं। वे अपने ‘गोस्पेल’ और अपनी धार्मिक परम्पराओं के साथ , जिसे उन्होने कई पीढ़ियों में निर्मित किया है, वे लोगों तक पहुँचने की कोशिश करते हैं। गांधी कहते हैं कि ईसाई धर्म ग्रन्थों की बातें उनके लिए नई नहीं हैं, उसे वे बहुत विस्तार से बचपन में ही सुन चुके हैं, उसमें उन्हें नया कुछ भी नहीं लगता। इन शिक्षाओं और भागवत गीता की शिक्षा में उन्हें कोई अंतर समझ में नहीं आता है।
गांधी ने उस समय तक मुस्लिम लीग के राजनैतिक चुनौती का सामना नहीं किया था और वे अपने विचारों को बिना अधिक दबाव के इस यात्रा के दौरान व्यक्त करते हुए दिखलाई पड़ते हैं। वे कहते हैं कि हमलोग (कांग्रेस ) प्रयास कर रहे हैं- हमलोग प्रांतवाद को दबाने की चेष्टा कर रहे हैं; नस्लवाद को दबाने की चेष्टा कर रहे हैं; हमलोग धर्मवाद (रिलीजियन्लिज़्म), (अगर इस शब्द को इस रूप में रखा जाए ) को दबाने की चेष्टा कर रहे हैं। इतना कहने के बाद गांधी ने कहा – हमलोग राष्ट्रवाद को उसके समग्र रूप में रखने की कोशिश कर रहे हैं, पर यह स्वीकार करना होगा कि इसे करने में हम अब तक सफल नहीं हो पाये हैं। इस पूरे काम में वे राजनीति को बहुत महत्त्वपूर्ण मानते हैं। गोखले को याद करते हुए वे कहते हैं कि राजनीति खाली समय में किया जाने वाला काम बन गया है, जो कि ठीक नहीं है। इस काम को समाज के सबसे योग्य और समर्पित लोगों द्वारा एक पूर्णकालिक काम के रूप में स्वीकार करना चाहिए।
इस क्रम में वे स्त्री को पुरुष के समकक्ष होने की बात करते हैं। पर सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा उनके वक्तव्य का वह है जिसमें उन्होने कहा है कि सामाजिक समस्याओं के प्रश्न को इससे जोड़कर देखना ही होगा। वे श्रीलंका निवासियों को कहते हैं कि श्रीलंका की जलवायु के हिसाब से किसी भी तरह मद्य पान को सही नहीं ठहराया जा सकता । गांधी उन लोगों की आलोचना करते हैं जो मानते हैं कि शराब को सीमित मात्रा में लेने में कोई दिक्कत नहीं। वे कहते हैं कि उन्होने दक्षिण अफ्रीका में अफ्रीकी, यूरोपियनों और भारतीयों को, जिनमें डाक्टर, वकील और बैररिस्टर भी शामिल थे, नशे में नालियों में लोटते देखा है, जिन्हें पुलिस उठाकर ले जाती थी ताकि शर्मिंदा न होना पड़े। गांधी मद्यपान के पूरे विरुद्ध हैं।
अस्पृश्यता के प्रश्न को वे बार बार उठाते हैं और इस बात की निंदा करते हैं कि रोडियाओं को अस्पृश्य समझा जाता है और उनकी महिलाओं को शरीर के ऊपरी हिस्से को ढंकने की अनुमति नहीं है। इस क्रम में गांधी ने आगे कहा कि लोकतन्त्र असंभव है यदि शक्ति को सबके साथ साझा न किया जाए। हालांकि वे चेताते भी हैं कि लोकतन्त्र को भीड़तंत्र में तब्दील नहीं होने देना चाहिए। वे चाहते हैं कि जिसे अस्पृश्य कहा जाता है उनको इस लोकतन्त्र में लाने का दायित्व कांग्रेस का है। (यह संदेश वे श्रीलंका कांग्रेस को दे रहे हैं।)
स्त्री के प्रश्न पर गांधी
स्त्री के संबंध में भी गांधी के विचारों को उनके श्रीलंका प्रवास के दौरान दिए गए वक्तव्यों से जोड़ कर देखना सहायक है।
श्री लंका की यात्रा के दौरान गांधी के साथ कस्तूरबा को देखकर किसी को लगा कि वे गांधी की माँ हैं। एक ने पूछ भी लिया , जिसके उत्तर में गांधी ने कहा –हाँ , वह मेरी माँ हैं। चालीस बरस पहले मैं अनाथ हो गया था, पिछले तीस बरस से वह मेरी माँ हैं। बरसों से आपसी समझ से हमलोग पति पत्नी नहीं रहे। उसने मेरी माँ का स्थान ले लिया है।
जीवन आनंद और उपभोग नहीं है बल्कि दायित्व और सेवा है। जिस चीज से मनुष्य जानवर से अलग है वह यही है कि मनुष्य आनन्द और भौतिक लालसाओं को नियंत्रित करने के लिए संयम की जरूरत को समझता है।
स्त्रियों की एक सभा में गांधी जी ने पुरुषों की पसंद के हिसाब से अपने को सजाए (गांधी की भाषा में लदे) स्त्रियों को देखा । उन्होने उनको संबोधित करते हुए कहा – “मैं तुमसे कहता हूँ कि अगर दुनिया में अपनी कोई भूमिका चाहती हो तो अपने को पुरुषों को अच्छा लगाने के लिए अपने ऊपर की इस लदाई को अस्वीकार करना होगा। अगर मैं स्त्री के रूप में जन्म लेता तो मैं पुरुषों की इस धारणा के खिलाफ उठ खड़ा होता और विद्रोह करता कि स्त्रियाँ मनोविनोद के लिए जन्म लेती हैं। मैं मानसिक रूप से एक स्त्री बन चुका हूँ ताकि स्त्री के हृदय में प्रवेश कर सकूँ।” इसके आगे गांधी कहते हैं –“मैं अपनी स्त्री के हृदय में प्रविष्ट नहीं हो पाता अगर मैं उससे वैसा ही व्यवहार करता जैसा मैं पहले किया करता था। मैंने अपना व्यवहार बदला और उसके सारे अधिकार को उसके पास फिर से वापस होने दिया। इसके लिए मैंने अपने तथाकथित पति होने के सारे अधिकारों को छोड़ दिया। आज वह मेरी तरह ही सहज (‘सिम्पल’) है। स्त्रियॉं को संबोधित करते हुए वे कहते हैं कि, “ अपनी इच्छाओं की पुरुषों की दासी मत बनो। अपने को सजाओ मत, अपने को सुगंधित जल से मत नहलाओ । तुम्हें अगर सचमुच की सुगंध की चाह है तो इसे अपने हृदय से निकालने वाली सुवास को आने दो। इस सुगंध से तुम पुरुषों को ही मोहित नहीं करोगी बल्कि पूरी मानवता को कर सकोगी। यह तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। पुरुष का जन्म स्त्री से होता है, वह उसी की अस्थि मज्जा से बना है। अपने को पहचानो।”
अन्यत्र उन्होने यह भी कहा कि एक इंसान और जानवर के बीच का एक बड़ा अंतर जिसे प्राचीन युग से मनुष्य ने बनाया है वह है कि मनुष्य विवाह संस्था का सम्मान करता है और इसके अनुरूप आचरण के लिए अपने ऊपर संयम के लिए बनाए नियम का अनुपालन करता है।
उपस्थित प्रबुद्ध स्त्रियों का आह्वान उन्होने समाज को सुधारने के लिए आगे आने को कहा और यह भी जोड़ा कि उन्हें निर्भय होकर अपने समाज के लोगों, गरीब स्त्रियों की मदद में जुट जाना चाहिए।
श्रीलंका यात्रा के दौरान उनके दिए गए वक्तव्यों की गंभीर व्याख्या शायद गांधी के अध्येताओं के लिए उपयोगी होगा, ऐसा कहना गलत नहीं होगा । जिस बेबाकी से और साथ ही सद्भावना के साथ गांधी ने संवाद किया है उसमें गांधी के विचार बहुत स्पष्ट रूप में आए हैं। (मधुमति अक्टूबर २०२० गांधी विशेषांक)
In this article gandhi said against untouchability but why did he said that he doesn't advocate intercast marriage, Interdinning and Interliving dear sir don't you think Gandhi was confused on this issue or was very clever to cheat untouchable
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