भारतीय परम्परा विचारों के आदर्शीकरण में जितनी सिद्धस्त रही है, उस आदर्श को लागू करने में उतनी ही, बल्कि कहें कि उससे बढ़ कर भेद-भाव ग्रस्त रही है। अपने इतिहास के माध्यकाल में जिन संस्कृतियों से इसकी मुठभेड़ हुई, इस क्षेत्र में वे भी उससे कम न थीं। औरतों और बाद में जिस पश्चिमी एनलाइटेनमेन्ट (कदथ्त्ढ़ण्द्यड्ढदथ््रड्ढदद्य) की दीप्ति से भारतीय देदीप्यमान होना चाहते थे, और हुए भी, उनके आदर्शों की कथनी और क्रियान्वयन की करनी में भी भारी दूरी थी। यह जानना रोचक होगा कि १७८९ ई. की फ्रांसीसी क्रान्ति के बाद १७९१ ई. में स्त्री शिक्षा का क़ानून और १७९२ ई. में स्त्रियों को मिले कुछ नागरिक अधिकार १८०४ ई. के 'नेपोलियानिक कोड' और अन्य यूरोपीय देशों की ऐसी ही बुर्जुआ नागरिक संहिताओं के द्वारा रिस्त्र कर दिये गए। १७९२ ई. में मेरी वोल्सनक्राफ़्ट की यह माँग कि बुर्जुआ क्रान्ति का नारा ''स्वतंत्रता समानता भ्रातृत्व'' स्त्री समुदाय पर भी समान रूप से लागू किया जाये, आज भी एक माँग ही है। सम्पत्ति, शिक्षा और वोट का अधिकार पाते-पाते बीसवीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशक व्यतीत हो चुके थे। तात्पर्य यह कि स्त्रियों को राजनैतिक अधिकार बहुत बाद में मिले।
भारत में 'घर' से 'बाहर' पैर रखने वाली महिलाओं की पहली पंक्ति में सर्वप्रथम नाम पंडिता रमबाई का है। इन्हीं रमाबाई के प्रयासों से कांग्रेस सत्र में महिलाओं की सहभागिता संभव हो पाई। महिलाओं ने कितने घोर असहिष्णु वातावरण में राष्ट्रवादी आंदोलनों एवं संगठनों में हिस्सेदारी आरंभ की इसका अनुमान इस घटना से लगता है कि महाराष्ट्र में पहली महिला उपन्यासकार काशीबाई कानितकर और पहली महिला डॉक्टर ''आनन्दीबाई जोशी - दोनों सहेलियाँ जब पहली बार जूते पहनकर तथा छाता लेकर बाहर निकलीं तो उन पर यह कहकर गलियों में पत्थर बरसाए गए कि उन्होंने पुरुष अधिकार वाले प्रतीकों को अपनाकर उनका अपमान करने की हिमाकत की है।''१
(बहुत बाद में एक कवयित्री के प्रति ऐसी ही सामाजिक असहिष्णुता दिखाते हुए लोगों ने भद्दी फब्तियाँ कसी थीं जिसके विरोध में महादेवी वर्मा ने मंच से काव्य-पाठ करना बंद कर दिया था।) बहरहाल १८८९ ई. के बम्बई कांग्रेस अधिवेशन में स्त्रियों ने पहले-पहल भागीदारी की। इस अधिवेशन की रिपोर्ट में ''इस बात का उल्लेख तो किया गया कि महिला प्रतिनिधियों को दरी पर बैठने की अनुमति दी गई, परन्तु इस तथ्य को छिपा लिया गया कि उन्हें बोलने या कि प्रस्तावों पर वोट देने की इजा.जत नहीं दी गई।''२
उल्लेखनीय तथ्य यह है कि जब कांग्रेस के मंच से महिलाओं को बोलने का अधिकार मिला तो उन्होंने सबसे पहले वेश्यावृत्ति की समस्या को उठाया। ये महिलाएँ भारत में अंग्रे.जों द्वारा वेश्यावृत्ति के नियमन के क़ानून की समाप्ति चाहती थीं।
स्त्री शिक्षा, बाल विवाह निषेध, बहुत विवाह निषेध, सती प्रथा निषेध, विधवा विवाह प्रचलन आदि पर उन्नीसवीं सदी सक्रिय रही थी किन्तु वेश्या समस्या पर सहानुभूति परक रवैया बीसवीं शती में आ पाया। भारत में ब्रिटिशों के आगमन के बाद अंग्रेज सिपाहियों की संख्या और छावनियों के अनुपात में वेश्यावृत्ति भी बढ़ी। इन वेश्याओं में अधिकांश स्त्रियाँ निर्धन, परित्यक्ता और अपहृता थीं। अंग्रे.जों ने छावनियों के आस-पास 'रेडलाइट एरिया' प्रणाली विकसित की। अंग्रे.जों द्वारा वेश्यावृत्ति को समाप्त करने के स्थान पर उसे क़ानूनी रूप देने का विरोध भारत ही नहीं उनके अपने देश में भी हुआ। वेश्या उत्पीड़न का प्रश्न यहाँ के रईसों-समर्थों-संभ्रान्तों को तब समझ आया जब अंग्रे.जों ने रखैलों और रक्षिताओं आदि को भी वेश्या की कोटि में डाल दिया। अभी तक बहुत से क़ानूनी दबावों और आत्महत्याओं को झेल रहे वेश्या वर्ग की आँच भद्र वर्ग को भी लगी। वह 'मालिक' से 'ग्राहक' बन कर अपमानित हुआ। अब विवाद छिड़ना स्वाभाविक था। साहित्य में उसका प्रतिफलन और भी स्वाभाविक था।
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