Sunday, 24 January 2010

हिन्दी उपन्यास और स्त्री प्रश्न 2

वेश्याओं के धिक्कार सुहागिनों के महिमामंडन दोनों को एक दूसरे के सामने खड़ा कर पितृसत्तात्मक शोषक विचारधारा ने स्त्री को एक और स्तर पर विभाजित कर दिया। दोनों स्त्रियाँ समाज के वर्चस्ववादी शोषण का शिकार हैं किन्तु अपने वास्तविक शत्रु को भूल एक दूसरे के विरुद्ध खड़ी हैं। इस विचारधारा ने सती बनाम वेश्या का प्रपंच खड़ा किया। सती को वेश्या का ''घृणित'' चेहरा दिखा-दिखाकर बार-बार उसके महात्म्य के प्रति आश्र्वस्त किया - सुमन वेश्या भाली बाई को अपने धर्माचरण से हराना चाहती है, वह उस अभाव से उबर कर सात्विकता के उच्च आसन पर बैठना चाहती है किन्तु भोली को मंदिर में गाते देख उसे आघात लगता है - ''भोली के सामने केवल धन ही सिर नहीं झुकाता, धर्म भी उसका कृपाकांक्षी है। धर्मात्मा लोग भी उसका आदर करते हैं। वही वेश्या जिसे मैं अपने धर्म-पाखण्ड से परास्त करना चाहती हूँ - यहाँ महात्माओं की सभा में
ठाकुर जी के पवित्र निवास स्थान में आदर और सम्मान का पात्र बनी हुई है और मेरे लिये कहीं खड़ने होने की जगह नहीं।''३ सचेतन सुमन घर जाकर धर्म के उपादानों की गठरी बाँधकर रख देती है। सती और वेश्या की इस मुठभेड़ के पश्चात्‌ प्रेमचंद समस्या समाधान की ओर व्यवस्थित उन्मुख होते हैं। इनमें पहला पड़ाव है - उन्हें शहर से बाहर बसाना। इन्हें शहरवासियों से दूर रखने के सम्बन्ध में प्रेमचंद तर्क देते हैं - ''हमने वेश्याओं को शहर से बाहर रखने का प्रस्ताव इसलिये नहीं किया कि हमें उनसे घृणा है। हमें उनसे घृणा करने का कोई अधिकार नहीं है। यह उनके साथ घोर अन्याय होगा। यह हमारी ही कुवासनाएँ, हमारे ही सामाजिक अत्याचार, हमारी ही कुप्रथाएँ हैं जिन्होंने वेश्याओं का रूप धारण किया। यह दालमंडी हमारे ही जीवन का कलुषित प्रतिबिंब, हमारे पैशाचिक अधर्म का साक्षातद्व स्वरुप है। हम किस मुँह से उनसे घृणा करें। उनकी अवस्था बहुत शोचनीय है। हमारा कर्त्तव्य है कि हम उन्हें सुमार्ग पर लायें, उनके जीवन को सुधारें और यह तभी हो सकता है, जब वे शहर से बाहर दुर्व्यसनों से दूर रहें। हमारे सामाजिक दुराचार अग्नि के समान हैं और अभागिन रमणियाँ तृण के समान। अगर अग्नि को शांत करना चाहते हैं तो तृण को उससे दूर कर दीजिये; तब अग्नि आप-ही-आप शांत हो जायेगी।''४ पदमसिंह इसकके साथ म्युनिसिपट बोर्ड में प्रस्ताव भी रखते हैं कि वेश्याओं को मुख्य शहर से बाहर बसाने के साथ, शहर के मुख्य सैर के स्थानों और पार्कों में उनका आना निषिद्ध किया जाये, उनके नृत्य पर भारी टैक्स लगाए जायें आदि आदि।
प्रेमचंद 'वेश्यावृत्ति' को किसी ''विशेष दुर्गुण'' की कोटि में न रख अन्य दुर्वृत्तियों जैसा ही पतित बताते हैं - ''हमें वेश्याओं को पतित समझने का कोई अधिकार नहीं है, यह हमारी परम धृष्टता है। हम रात-दिन जो रिश्र्वतें लेते हैं, सूद खाते हैं, दीनों का रक्त चूसते हैं, असहायों का गला काटते हैं, कदापि इस योग्य नहीं हैं कि समाज के किसी अंग को नीच या तुच्छ समझें। ... जिस समाज में अत्याचारी जमींदार, रिश्र्वती राज्य-कर्मचारी, अन्यायी महाजन, स्वार्थी बंधु आदर और सम्मान के पात्र हों वहाँ दालमंडी क्यों न आबाद हो?''५
इस प्रकार कुँवर अनिरुद्ध सिंह इन मीनाबाजारों को 'हराम के धन का परिणाम' बताते हुए वेश्याओं को शहर के बाहर बसाने का विरोध किया।
प्रेमचंद सेवासदन में कुछ विसंगतियों जैसे, 'तृण को अग्नि से बचाने के लिये शहरबदर कर देना पर अग्नि शहर से बाहर न जाये इसकी कोई पक्की व्यवस्था न होना, वेश्याओं के पुनर्वास और आजीविका का प्रबन्ध न होना को अनुत्तरित छोड़ वेश्याओं की कन्याओं के लिये 'सेवासदन' बनाते हैं। सुमन से सुमनबाई और अब सुधर का इस सेवासदन की संचालिका सुमन इन कन्याओं के भविष्य के बारे में अनिश्चित है - उनके विवाह के प्रश्न पर सुमन कहती है - ''यह तो टेढ़ी खीर है। हमारा कर्त्तव्य यह है कि इन कन्याओं को चतुर गृहिणी बनने के योग्य बना दें। उनका आदर समाज करेगा या नहीं, मैं नहीं कह सकती।''६
स्त्री प्रश्न 'हिन्दू स्त्री' और 'मुस्लिम स्त्री' के प्रश्नों में बँट चुका था। स्त्री उद्धार साथ पुनरुत्थानवादी, राष्ट्रवादी और उदारवादी सभी चेहरे जुड़ रहे थे। राष्ट्रवादियों के सामने राष्ट्र निर्माण का प्रश्न था तो पुनरुत्थानवादी इसे धर्म और जाति से जोड़कर देख रहे थे। वेश्या प्रश्न इससे कैसे अछूता रहता! सेवासदन का विठ्ठलदास, जिसके कान भरने पर सुमन का पति उसे घर से निकाल
देता है, सुमन के पतन को हिन्दू धर्म का पतन मानता है। हिन्दू धर्म में भी यदि ब्राह्मण जाति की स्त्री वेश्या बन जाये तो हिन्दुओं को पतन के गर्त्त से बचाना असंभव है। विठ्ठलदास द्वारा धिक्कारे जाने पर सुमन बा.जार में अनेकों ब्राह्मणियों और मुजरा सुनने वाले हिन्दू सज्जनों का हवाला देती है। प्रत्युत्तर में विठ्ठल दास हिन्दू नारी की महिमा समझाते हुए ब्राह्मणियों को ''नीच जाति'' की कुलटाओं का अंतर समझने के लिये कहता है - ''सुमन तुम सच कहती हो, बेशक हिन्दू जाति अधोगति को पहुँच गयी और अब तक वह कभी की नष्ट हो गई होती, पर हिन्दू स्त्रियों ही ने अभी तक उसकी मर्यादा की रक्षा की है। उन्हीं के सत्य और सुकीर्ति ने उसे बचाया है। केवल हिन्दुओं की लाज रखने के लिये लाखों स्त्रियाँ आग में भस्म हो गई हैं। यही वह विलक्षण भूमि है जहाँ स्त्रियाँ नाना प्रकार के कष्ट भोगकर, अपमान और निरादर सहकर पुरुषों की उनमानुषीय क्रूरताओं को चित्त में न लाकर हिन्दू जाति का मुख उज्ज्वल करती थीं। यह साधारण स्त्रियों का गुण था और ब्राह्मणियों का तो पूछना ही क्या? . . . सोचो तो कितने खेद की बात है कि जिस अवस्था में तुम्हारी लाखों बहनें हँसी-खुशी जीवन व्यतीत कर रही हैं, वही अवस्था तुम्हें इतनी असह्य हुई कि तुमने लोक-लाज, कुल मर्यादा को लात मारकर कुपथ ग्रहण किया। . . . सुमन तुम्हारे इस कर्म ने ब्राह्मण जाति ही का नहीं, समस्त हिन्दू जाति का मस्तक नीचा कर दिया।''७
माथा नीचा किये सजल नेत्रों से लज्जित सुमन सुधरने को तैयार हो जाती है।
अंग्रे.जों ने वेश्यावृतित नियमन क़ानून के विरोध की प्रतिक्रिया में इस देश में होने वाले हर प्रकार के सार्वजनिक नृत्यों पर रोक लगा दी थी। राष्ट्रवादियों ने इसके सुधारात्मक पक्ष को ग्रहण किया। प्रेमचंद के कई उपन्यासों में इस प्रवृत्ति के प्रमाण मिलते हैं।
इसी तरह अंग्रेज सिपाहियों द्वारा हिन्दू स्त्रियों के बलात्कार को स्त्री के विरुद्ध हिंसा के बजाय साम्राज्यवादी पशुता से जोड़ दिया गया। प्रेमचंद के उपन्यास 'कर्मभूमि' का विशद मुन्नी प्रसंग इस तथ्य की पुष्टि करता है।
भारतीय राजनीति में गाँधी जी के आने के बाद राष्ट्रीय आंदोलन में स्त्रियों की सहभागिता बड़ी तेजी से बढ़ी। ये सभी वर्गों की स्त्रियाँ थीं। अपने दक्षिण अफ्रीका के आंदोलन से ही गाँधी जी स्त्रियों की सहन शक्ति से अत्यन्त प्रभावित थे। कस्तूरबा को उन्होंने असहयोग आंदोलन की कला में अपना गुरु माना था। स्त्रियों की प्रशस्ति में गाँधी जी ने कहा - ''मैंने इन कॉलमों में सुझाव दिया है कि स्त्री अहिंसा का अवतार है। अहिंसा का अर्थ है अपरिमित प्यार जिसका दूसरा अर्थ है पीड़ा सहने की असीम क्षमता। स्त्री, पुरुष की माँ के अलावा इतना बड़ा कष्ट सहने की क्षमता भला और किसी में दिखाई पड़ती है।''८
स्त्रियों की प्रशंसा में ऐसे कसीदे पहले भी लोगों ने काढ़े थे, खूब बढ़-चढ़ कर काढ़े थे। गाँधी जी की प्रशंसा भिन्न थी। स्त्री की घर में विशेष भूमिका की बात कहते हुए भी उन्होंने स्त्री
को सार्वजनिक जीवन में उतारा। यद्यपि उन्होंने महिलाओं के कार्य सीमित ही रखे किन्तु सार्वजनिक क्षेत्र में उतरी लज्जावंती, बेगम शाहनवा.ज और सरोजिनी नायडू आदि ने आरक्षण, विनियुक्ति आदि प्रस्तावों को ठुकरा कर भारतीय स्त्रियों को समान राजनैतिक दर्जा देने की माँग की। गाँधी जी को इस बात की खूब समझ थी कि स्त्रियों को खादी पहनाए बिना न स्वदेशी का मंत्र चल सकता है और विदेशी वस्त्रों की होली जल सकती है।
१९१९ के रॉलट एक्ट कानून और जालियाँवाला बाग ने राष्ट्रीय आंदोलन में तेजी ला दी। गाँधी जी के आह्वान पर १९२० के दशक में बड़ी संख्या में महिलाएँ बाहर आईं। उनकी भूमिका विदेशी वस्त्र बहिष्कार, विदेशी दवा और शराब की दुकानों पर धरना और पिकेटिंग आदि तक सीमित थी। १९३० के दशक में गाँधी ने उन्हें नमक आंदोलन से जोड़ा। नागरिक अवज्ञा आंदोलन में उनकी भूमिका की प्रशंसा करते हुए गाँधी जी ने कहा - ''भारतीय स्त्रियों ने पर्दा फाड़कर फेंक दिया और राष्ट्र के काम के लिये बाहर आ गईं। उन्होंने महसूस किया कि देश उनकी घरेलू देखभाल की जिम्मेदारी के अलावा कुछ और अधिक करने की माँग कर रहा था . . .।''९
गाँधी जी की आदर्श कार्यकर्ता 'स्वैच्छिक विधवा' थी और उनके लिये 'सती' वह नारी थी जो अपने त्याग, बलिदान स्नेह से परिवार और देश का भाग्य बदल दे।
सार्वजनिक क्षेत्र में स्त्रियों की सहभागिता बढ़ने पर उनके मातृ रूप के साथ उनके 'पत्नी' रूप की भी चर्चा बढ़ी। प्रेमचंद कालीन पूरा साहित्य पत्नी के संगिनी रूप को रेखांकित करता है। प्रेमचंद का अपना साहित्य पत्नी की सहभागिता का विराट दस्तावे.ज है। धनिया, सुखदा, जालपा और विद्या सभी पत्नियाँ अपने पति के जीवन संग्राम और उत्थान में सहायक हैं, आधुनिक स्त्री माँ से पत्नी बनने की अपनी यात्राओं में (उल्टी यात्रा में) अपने मानवी होने का अर्थ तलाशने लगी। मध्यवर्गीय स्त्री के प्रश्नों की धारा की एक दिशा को जैनेन्द्र गाँधी वादी स्पर्श सहित सम्बोधित कर रहे थे।
सन्‌ १९३० के अंत में भारतीय राजनैतिक परिदृश्य में साम्यवादियों का पदार्पण हुआ। इस साम्यवादियों और क्रान्तिकारियों के यहाँ भी औरत का प्रवेश निषेध था। उसके निर्णय की स्वतंत्रता व अधिकार कमोवेश यहाँ भी पुरातनपंथियों की ही तर्ज पर थे। स्त्री विवाह कर स्वतंत्र हो सकती थी। तब स्वतंत्र नारी कौन है? बौद्ध भिक्षु व्याख्यायित कर चुके थे - वेश्या! यशपाल ने इस विषय पर अपना प्रसिद्ध उपन्यास दिव्या (१९४५ ई.) लिखा। प्रेमचंद के 'सेवासदन' की सुमन की तरह दिव्या भी द्विजकन्या है। यशपाल ने जाति व्यवस्था और धार्मिक नियमों साथ ही सामन्ती शासन में पिसती स्त्री व्यथा का अत्यन्त सटीक और मार्मिक चित्रण किया। उन्होंने बौद्धों द्वारा वेश्या को स्वतंत्र घोषित करने (इसी आधार पर गौतम बुद्ध ने वेश्या को दीक्षा दी थी।) की विसंगतियों को भी उद्घाटित किया। यशपाल की दिव्या से छूट गए प्रश्नों को अमृतलाल नागर ने 'सुहाग के नूपुर' में सम्बोधित किया।
नारी देह के प्रति पुरुष की तीव्र और उच्छृंखल कामना ने वेश्यावृत्ति जैसी जिस हृदयहीन व्यवस्था को जन्म दिया; जिस नारीत्व के कारण स्त्री वेश्या बनी उस वेश्या के नारीत्व के पददलित और उत्पीड़ित होने की मार्मिक कथा 'सुहाग के नूपुर' का उल्लेख किये बिना अधूरी रह जायेगी।
उपन्यास के दो नारी पात्र - सती कन्नगी और वेश्या माधवी। क्या अंतर है दोनों में! माधवी की दासी प्रश्न करती है, 'छोटी स्वामिनी ने भी एकपुरुषव्रत साधा है। फूल-हाट में कुलवधुओं के समान संस्सकारों वाली अनेक महिलाएँ हैं। भला उनमें और कुलवधुओं में क्या अंतर है?''१० इस प्रश्न में वेश्या नारी के अन्तर्मन की पीड़ा ही नहीं पुरुष द्वारा स्त्री में एकपुरुषगामिनी ही बने रहने की भावना का खूँटा भी गाड़ देना है। स्त्री समाज का विभाजन अपने भोग की सुविधानुसार, उसकी सुविधा को इस विभाजन से और बल वृद्धि मिलती है। नारी समाज आपस में उस ''मर्यादा, सतीत्व
और उच्च पदों के लिये आपसी प्रतिद्वन्द्विता में उलझ पुरुष समाज के षडयंत्र से अनभिज्ञ ईर्ष्या की उस भस्मकारी अग्नि की आहुति बनता है जो भीतर-बाहर दोनों से जलाती है। पुरुष ने ''सती'' को मिथ्या अधिकारों का ऐसा टोकरा पकड़ा दिया है जिसके खालीपन को वेश्या नहीं देख पाती और उसकी मर्यादा से आहत होती है। यद्यपि 'वेश्या' की स्वतंत्रता और उच्छृंखलता 'सती' को आकृष्ट नहीं करती किन्तु वह अपने 'सुहाग' के छिन जाने पर जो पीड़ा भोगता है उसका कारण इस वेश्या को ठहराती है जबकि दोषी पुरुष है। माधवी के प्रति तीव्र मोह और श्र्वसुर कुल की अकूत संपत्ति की लालसा, साथ ही कन्नगी के शीतल रूप के प्रति आकृष्ट कोवलन अपने विवाह की प्रथम रात्रि को अपनी सती पत्नी को वेश्या के द्वार पर ला खड़ा करता है। माधवी के मन में अपने प्रिय कोवलन के विवाहोत्सव में कन्नगी के सामने नाचने की फाँस गड़ी हुई है, ''परसों अपने विवाह के उत्सव में स्वर्णसिंहासन पर मेरे प्राण-पति के साथ बैठकर नई सेठानी ने अपने पिता की कोठी में मेरा नृत्य देखा था। आज मेरे कोठे पर सेठानी नृत्य करेंगी और मैं अपने प्रिय के साथ बैठकर देखूँगी।''११ इस विडम्बना से अनभिज्ञ कि उसके पैरों में घुघरूँ बाँध उसे जिस-तिस के सामने नचाने वाली कन्नगी नहीं है, वह कन्नगी को नचाना चाहती है। कन्नगी के पास भी पुरुष का दिया हुआ वह सम्मान है जिससे वह माधवी को आहत कर सकती है - ''बहन! मेरे देवतुल्य पतिकुल ने सुहाग के नूपुरों से मेरे पैरों को बाँध दिया है। ये घुँघरू तुम्हारे ही पैरों में शोभा पाएँगे।''१२ नूपुर हों या घुँघरू, सती हो वेश्या-बँधे स्त्री के ही पैरों में हैं। नूपुर को चाहे तबले की थाप पर न बजना हो पर उसका गति संचालन है पुरुषों के ही हाथों में। घुँघरू? वे तो स्त्री के लिये सबसे बड़ी गाली हैं। इसलिये सुहागवती कन्नगी का यह पुरुष प्रदत्त ''सौभाग्य'' माधवी के इस सम्मन के लिये लालायित मन पर पत्थर सी चोट करता है - '' 'सुहाग के नूपुर' शब्द मन के अभाव-खड्ड में ऐसे पड़े मानो भारी बोझ की गठरी कुएँ में पानी में छपाका मार स्रोत के तल में जा लगी हो।''१३
दोनों स्त्रियाँ अपने किसी भी अस्तित्व से अपरिचित अपनी अन्य कैसी भी पहचान से अंजान नारी जीवन की एक ही सार्थकता और उपयोगिता से परिचित हैं, पुरुष को रिझाना और उससे इसका प्रमाण पत्र लेना - ''हाँ सुना है कि इन बहुमुल्य नूपुरों के कारण तुम नगर-भर की सुहागिनों के लिये ईर्ष्या की वस्तु बन गई हो। पर इनसे अपने सौभाग्य देवता को न रिझा सकोगी गुइयाँ! वह शक्ति मेरे ही घुँघरुओं में है।''१४
अपने अपने नूपुरों और घुँघरुओं की निरर्थकता का भान नहीं है दो तेजस्वी नारियों को। उनमें आपस में संशय, द्वेष, डाह और जानलेवा घृणा है और पुरुष? इस सर्वविनाशिनी घृणा के घात-प्रतिघात से आनन्दित है - ''मैं आनन्द ले रहा हूँ। मेरे सामने स्त्री के दो रूप आ रहे हैं। सुहागरात में यह अनुभव भला कितने सौभाग्यशालियों को मिलता है।''१५ मदिरा में मस्त हँसता हुआ कोवलन, पुरुष समाज इससे अनभिज्ञ है या बना रहना चाहता है कि इस अग्नि की तपिश उसके कामातुर तन-मन को भी जलायेगी, चाहे कम ही सही।
'सुहाग के नूपुर' उपन्यास अपने दुर्गुणों से प्रेरित पुरुष द्वारा निर्मित समाज की विडम्बनाओं को परत-दर परत खोलता है। स्थानाभाव के कारण इस उपन्यास का यहाँ विशद विवेचन संभव नहीं है। उसकी वर्चस्ववादी व्यवस्था सभी को उनकी नारकीय स्थितियों में कैद रखती है। मुक्ति के मार्गों को उसकी उद्दाम लालसा रोके खड़ी है। इसलिये राज्य व्यवस्था द्वारा अन्त में ''वेश्या'' ही बना दी
जाती है। सती कन्नगी से वेश्या माधवी हार जाती है, हरा दी जाती है। राजपुरुष आदेश देता है - ''कोटपाल! आज से नगर की कोई वेश्या दान, धर्म और वाणिज्य की आड़ लेकर सतियों को त्रस्त न कर सकेगी और यदि कभी एक क्षण के लिये भी ऐसा हुआ तो मैं इस नगर की सर्वश्रेष्ठ वेश्या इस माधवी को भरे चौराहे पर श्र्वपच-चंडालों के मनोरंजनार्थ नचाऊँगा।''१६ हारने के बाद, हरा दिये जाने के बाद भी वेश्याएँ रहेंगी क्योंकि उन्हें पुरुषों का मनोरंजन करना है बल्कि एक और गुरुतर कार्यभार है उन पर - ''कुलवधुओं की प्रतिष्ठा के लिये समाज को नगरवधुओं की आवश्यकता रहेगी, केवल उन्हें उनकी मर्यादा में बाँध दो।''१७ अपनी-अपनी मर्यादाओं में बँधी स्त्रियाँ ही पुरुष समाज के भोग और मोक्ष दोनों कार्यों को सिद्ध कर सकेंगी। इस महत्‌ कार्य को साधने में उसकी अपनी जो चाहे दशा हो।
उपन्यास के अंत में एकपुरुषव्रता उससे प्रेम करने वाली माधवी, अंततः वेश्या बनने पर बाध्य माधवी, अपनी संतान को भद्र वंशावली में स्थान दिलवा पाने में नाकाम माधवी, सुहाग के नूपुर पहन वेश्या से सती पद पाने को प्राणांतक वेदना से व्याकुल माधवी, भयंकर वृष्टि से सब संतान सम्पत्ति सर्वस्व गँवा बैठी पगली माधवी कहती है - ''सारा इतिहास सच-सच ही लिखा है देव! केवल एक बात अपने महाकाव्य में और जोड़ दीजिये - पुरुष जाति के स्वार्थ और दंभ भरी मूर्खता से ही सारे पापों का उदय होता है। उसके स्वार्थ के कारण ही उसका अर्धांग - नारी जाति - पीड़ित है। एकांगी दृष्टिकोण से सोचने के कारण ही पुरुष न तो स्त्री को सती बनाकर सुखी कर सका और न वेश्या बनाकर। इसी कारण वह स्वयं भी झकोले खाता है और खाता रहेगा। नारी के रूप में न्याय रो रहा है महाकवि! उसके आँसुओं में अग्निप्रलय भी समाई है और जलप्रलय भी।''१८ और यह पूछे जाने पर कि क्या वह माधवी है, पगली कहती है, ''मैं नारी हूँ - मनुष्य समाज का व्यथित अर्धांग।''१९
भारतीय संस्कृति ने अपनी आधी आबादी को यौन शुचिता से ऐसा जोड़ा कि बाद की आधुनिकता भी इसी प्रवृत्ति के साथ पनपी। स्त्री की यौन शुचिता और नारी के सतीत्व से पितृसत्तात्मक विचारधारा की सम्बद्धता दो-चार महानगरों में कम हुई हो तो हुई हो अन्यथा यह विषबेल अभी भी फलती-फूलती अवस्था में है। इस सतीत्व निर्वाह और इस पर तनिक भी शंका हो जाने पर इसे सिद्ध करने का पूरा भार सीता ने ही उठा लिया था। मर्यादा पुरुषोत्तम का महात्म्य पत्नी परित्याग में भी है। उनके पुरुषोत्तम होने के कारणों में एक महत्तम कारण धोबी के कहने पर महारानी का त्याग भी है। (शायद बहुतमत सीता के विरुद्ध नहीं था!) पुरुष मानस में पुरुषोत्तम की यह भावना सदैव बनी रही है। विवाहित स्त्री का सतीत्व और अविवाहिता का कौमार्य आधुनिक समाज के पुरुष की संस्कारबद्ध जड़ता की भी माँग कर रहे हैं। अपनी होने वाली पत्नी की अक्षुण्ण योनि की तीव्र आकांक्षा और अक्सर उसके प्रति उसके संदेह के कीड़ ने कितने दाम्पत्य जीवनों को नरक बना दिया होगा, इसका अनुमान ममता कालिया के 'बेघर (१९७१) उपन्यास से लगाया जा सकता है।
परमजीत का संजीवनी से इसलिये विवाह न करना कि वह 'कुँआरी' नहीं, परमजीत उसकी जिंदगी में 'पहला पुरुष नहीं और फिर पारम्परिक विवाह मार्ग से झगड़ालू और फूहड़ पत्नी रमा के साथ जीवन-निर्वाह जितना दर्दनाक है उससे अधिक दर्दनाक है संजीवनी द्वारा स्वयं को भ्रष्ट समझना। संजीवनी स्वयं इस 'अप्रिय व छोटी सी दुर्घटना' के लिये अपराध-बोध से मुक्त नहीं हो पाती। उसकी
अपनी अस्थि मज्जा में यह बात गहरे तक समाई हुई है कि वह अपवित्र है।
इस अपवित्रता के कारण त्याज्य होने के भय ने स्त्री-पुरुष में स्वाभाविक संवाद-सूत्र कायम नहीं होने दिया। परिणामतः स्त्री-पुरुष का यह सहज सम्पर्क बड़े रहस्य के रूप में परिणत होता गया। नारी देह से जुड़े आधारहीन मिथकों का निराकरण संभव न हो सका। स्त्री को देवी पद पर आसीन कर उसे धक्का दे कर गिराने की दुर्घटना से नारी विश्र्व इतना आक्रान्त रहा है कि उसने भेद बनाए रखने में अपनी कुशलता समझी।
इस संदर्भ में १७९२ में मेरी कोल्सनक्राफ्ट का यह कथन कितना सटीक है - ''दरअसल स्त्री उत्कृष्टता की भ्रान्त धारणाएँ स्त्रियों को इतना नीचे गिरा देती हैं कि यह कृत्रिम निर्बलता उनमें शक्ति की स्वाभाविक विरोधी चालाकी को जन्म देती है, जो उन्हें ऐसी घृणित बचकानी अदाएँ दिखाने की ओर ले जाती हैं जो देखने वालों में कामना भले ही जगाती हों, पर स्त्रियों की गरिमा घटाती ही है। ऐसे पूर्वग्रहों को पोषित मत करिये और वे जीवन में अधीनस्थ ही सही, पर सम्मानजनक स्थिति अर्जित कर लेंगी।''२०
इस ''सम्मानजनक'' स्थिति को प्राप्त करने के लिये औरत चाहे कितनी दूर की यात्रा कर लेउसे कमोवेश वही पुरुष मन मिलता है जो औरत को अपने अधीनस्थ देखना चाहता है। वह औरत से अपने मन की करवाना चाहता है। इसलिये मृदुला गर्ग के उपन्यास 'कठगुलाब' की स्मिता का चाहे जीजा हो पति जिम दोनों को कठपुतलियाँ चाहिये। जीजा मुँह नहीं खोलने देता और जिम हर बात पर कहता है ''वी नीड टु टॉक''। दोनों औरत से केवल अपने मन की बात सुनना चाहते हैं। वे आत्मविश्र्वास से इतने भरे हुए हैं कि उन्हें किसी की बात नहीं सुननी। तिस पर औरत की बात!
अमेरिका के प्रगतिशील समानधर्मा लगने वाले क़ानून भी आत्माभिमानी स्त्री की बात नहीं सुनना चाहते। मारियान इस क़ानून पर टिप्पणी करती है - ''यही तो शान है, हमारे समानधर्मा क़ानून की। औरत के हर फरेब में वह मददगार रहता है। हाँ फेमिनिन वाइल्स से मुक्त हो, सिर ऊँचा करके, अपने हाथों अपने जीवन की रूपरेखा तैयार करने की कोशिश कीजिये, फिर देखिये, वही क़ानून कैसे आपको पटखनी देता है।''२१
प्रेम दीवानी मारियान कभी कुछ न लिखने वाले लेखक इर्विंग से विवाह कर लेती है, ''औरत का काम कभी खत्म नहीं होता'' इस मुहावरे को अपनी जीवन में घटित होते हुए, कुछ ज्य़ादा ही घटित होते हुए देखती है, हर औरत की तरह खूब थकी रहती है, इर्विंग के कहने पर अपना गर्भपात करवा लेती है, अपनी माँ बनने की इच्छा .जमीन में गहरे दफ़ना देती है पर उस दिन वह अपने को बेतहाशा छला हुआ अनुभव करती है जिस दिन उसके दस वर्षों की अनथक मेहनत का परिणाम उसका जरनल इर्विंग अपने नाम से छपवा लेता है। इस बेशर्म चोरी पर तड़पती मारियान से इर्विंग कहता है - ''चीखो मत . . . मैंने कोई कपट नहीं किया। तुमने अपनी मर्जी से अपना जरनल मुझे दिया था। और कोई अनोखी बात नहीं की तुमने। डी.एच. लारेंस, स्कॉट फिटजैरल्ड और भी कितने लेखकों ने उपन्यास लिखते हुए अपनी बीवियों के जरनल इस्तेमाल किए थे। जेल्डा फिटजैरल्ड ने तो अपनी मर्जी से दिया भी नहीं था। बिला सोचे-समझे चल दी थी कोर्ट में, एतराज दर्ज करने, आधी पागल जो थी। हुआ क्या? कोर्ट ने कानूनन फिटजैरल्ड को जेल्डा के जरनल का इस्तेमाल करने की इजा.जत दे दी थी। साहित्य का इतिहास जानती भी हो कि खामखां चिल्लाए जा रही
हो।''

अपने महान गुरू लोगद पर एडवर्ड सईद की श्रद्धांजलि

http://www.deshkaal.com/Details.aspx?nid=231201020562082

Saturday, 23 January 2010

हिन्दी उपन्यास और स्त्री प्रश्न 1

भारतीय परम्परा विचारों के आदर्शीकरण में जितनी सिद्धस्त रही है, उस आदर्श को लागू करने में उतनी ही, बल्कि कहें कि उससे बढ़ कर भेद-भाव ग्रस्त रही है। अपने इतिहास के माध्यकाल में जिन संस्कृतियों से इसकी मुठभेड़ हुई, इस क्षेत्र में वे भी उससे कम न थीं। औरतों और बाद में जिस पश्चिमी एनलाइटेनमेन्ट (कदथ्त्ढ़ण्द्यड्ढदथ््रड्ढदद्य) की दीप्ति से भारतीय देदीप्यमान होना चाहते थे, और हुए भी, उनके आदर्शों की कथनी और क्रियान्वयन की करनी में भी भारी दूरी थी। यह जानना रोचक होगा कि १७८९ ई. की फ्रांसीसी क्रान्ति के बाद १७९१ ई. में स्त्री शिक्षा का क़ानून और १७९२ ई. में स्त्रियों को मिले कुछ नागरिक अधिकार १८०४ ई. के 'नेपोलियानिक कोड' और अन्य यूरोपीय देशों की ऐसी ही बुर्जुआ नागरिक संहिताओं के द्वारा रिस्त्र कर दिये गए। १७९२ ई. में मेरी वोल्सनक्राफ़्ट की यह माँग कि बुर्जुआ क्रान्ति का नारा ''स्वतंत्रता समानता भ्रातृत्व'' स्त्री समुदाय पर भी समान रूप से लागू किया जाये, आज भी एक माँग ही है। सम्पत्ति, शिक्षा और वोट का अधिकार पाते-पाते बीसवीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशक व्यतीत हो चुके थे। तात्पर्य यह कि स्त्रियों को राजनैतिक अधिकार बहुत बाद में मिले।
भारत में 'घर' से 'बाहर' पैर रखने वाली महिलाओं की पहली पंक्ति में सर्वप्रथम नाम पंडिता रमबाई का है। इन्हीं रमाबाई के प्रयासों से कांग्रेस सत्र में महिलाओं की सहभागिता संभव हो पाई। महिलाओं ने कितने घोर असहिष्णु वातावरण में राष्ट्रवादी आंदोलनों एवं संगठनों में हिस्सेदारी आरंभ की इसका अनुमान इस घटना से लगता है कि महाराष्ट्र में पहली महिला उपन्यासकार काशीबाई कानितकर और पहली महिला डॉक्टर ''आनन्दीबाई जोशी - दोनों सहेलियाँ जब पहली बार जूते पहनकर तथा छाता लेकर बाहर निकलीं तो उन पर यह कहकर गलियों में पत्थर बरसाए गए कि उन्होंने पुरुष अधिकार वाले प्रतीकों को अपनाकर उनका अपमान करने की हिमाकत की है।''१
(बहुत बाद में एक कवयित्री के प्रति ऐसी ही सामाजिक असहिष्णुता दिखाते हुए लोगों ने भद्दी फब्तियाँ कसी थीं जिसके विरोध में महादेवी वर्मा ने मंच से काव्य-पाठ करना बंद कर दिया था।) बहरहाल १८८९ ई. के बम्बई कांग्रेस अधिवेशन में स्त्रियों ने पहले-पहल भागीदारी की। इस अधिवेशन की रिपोर्ट में ''इस बात का उल्लेख तो किया गया कि महिला प्रतिनिधियों को दरी पर बैठने की अनुमति दी गई, परन्तु इस तथ्य को छिपा लिया गया कि उन्हें बोलने या कि प्रस्तावों पर वोट देने की इजा.जत नहीं दी गई।''२
उल्लेखनीय तथ्य यह है कि जब कांग्रेस के मंच से महिलाओं को बोलने का अधिकार मिला तो उन्होंने सबसे पहले वेश्यावृत्ति की समस्या को उठाया। ये महिलाएँ भारत में अंग्रे.जों द्वारा वेश्यावृत्ति के नियमन के क़ानून की समाप्ति चाहती थीं।
स्त्री शिक्षा, बाल विवाह निषेध, बहुत विवाह निषेध, सती प्रथा निषेध, विधवा विवाह प्रचलन आदि पर उन्नीसवीं सदी सक्रिय रही थी किन्तु वेश्या समस्या पर सहानुभूति परक रवैया बीसवीं शती में आ पाया। भारत में ब्रिटिशों के आगमन के बाद अंग्रेज सिपाहियों की संख्या और छावनियों के अनुपात में वेश्यावृत्ति भी बढ़ी। इन वेश्याओं में अधिकांश स्त्रियाँ निर्धन, परित्यक्ता और अपहृता थीं। अंग्रे.जों ने छावनियों के आस-पास 'रेडलाइट एरिया' प्रणाली विकसित की। अंग्रे.जों द्वारा वेश्यावृत्ति को समाप्त करने के स्थान पर उसे क़ानूनी रूप देने का विरोध भारत ही नहीं उनके अपने देश में भी हुआ। वेश्या उत्पीड़न का प्रश्न यहाँ के रईसों-समर्थों-संभ्रान्तों को तब समझ आया जब अंग्रे.जों ने रखैलों और रक्षिताओं आदि को भी वेश्या की कोटि में डाल दिया। अभी तक बहुत से क़ानूनी दबावों और आत्महत्याओं को झेल रहे वेश्या वर्ग की आँच भद्र वर्ग को भी लगी। वह 'मालिक' से 'ग्राहक' बन कर अपमानित हुआ। अब विवाद छिड़ना स्वाभाविक था। साहित्य में उसका प्रतिफलन और भी स्वाभाविक था।

Thursday, 21 January 2010

जगदीश्वर चतुर्वेदी एवं अन्य द्वारा फिलीस्तीन के समर्थन में आलेख

गाजा में इस्राइल के युध्दापराध
जगदीश्वर चतुर्वेदी

फिलीस्तीनी जनता का संघर्ष अब तक के सबसे कठिन दौर से गुजर रहा है। समस्त राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और फैसलों को ताक पर रखकर इस्राइल अपनी विस्तार वादी नीति पर कायम है। अमरीका के द्वारा इस्राइल के प्रत्येक कदम का समर्थन किया जा रहा है। एक साल पहले 27 दिसम्बर 2008 से 21 जनवरी 2009 के बीच इस्राइल के द्वारा जो तबाही गाजा में मचायी थी वह युध्दापराधों की कोटि में आती है। संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा नियुक्त जांच कमीशन ने भी इस्राइल अपराधों पर जबर्दस्त टिप्पणी की है। फिलीस्तीनी जनता के साथ अभी जिस तरह का व्यवहार किया जा रहा है वैसा अमानवीय व्यवहार सिर्फ फासिस्ट ही करते हैं।
सन् 2009 के जनवरी माह में 21 दिन तक चले इस्रायली हमले में फिलीस्तीनी जनता को अकथनीय कष्टों का सामना करना पड़ा। इस्राइली सेना के द्वारा किए गए हमले की जांच दक्षिण अफ्रीका के जज रिचर्ड गोल्डस्टान ने कहा नागरिक आबादी को सुचिंतित भाव से दण्डित ,अपमानित और आतंकित किया गया। समूची अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर दिया गया।
गोल्डस्टोन ने कहा कि यूएन सुरक्षा परिषद को जनवरी के हमलों के मामले को अंतर्राष्ट्रीय अपराध अदालत को सौंप देना चाहिए। दूसरी ओर इस्राइली प्रशासन और अमरीकी प्रशासन ने गोल्डस्टोन की जांच रिपोर्ट को एकसिरे से खारिज कर दिया। ओबामा प्रशासन ने साथ ही यूएनओ पर अपना हमला तेज कर दिया। आश्चर्य की बात यह है कि ईरान के परमाणु प्रोग्राम पर यूएनओ की संस्थाओं अमेरिका खुलकर इस्तेमाल कर रहा है। वहीं दूसरी ओर इस्राइल के गाजा हमले पर युध्दापराध के सवाल पर यूएनओ द्वारा गठित आयोग की सिफारिशें मानने के लिए तैयार नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि यूएनओ को अमेरिका ने अपने हितों के लिए दुरुपयोग करना बंद नहीं किया है। यूएनओ के मनमाने दुरुपयोग में फ्रांस,जर्मनी,ब्रिटेन आदि का खुला समर्थन मिल रहा है।
' अलजजीरा ' (26 दिसम्बर 2009) के अनुसार गाजा पर हमले के एक साल बाद इस इलाके के हालात सामान्य नहीं बनना तो दूर और भी बदतर हो गए हैं। यह इस्राइली नीतियों के द्वारा दिया गया सामूहिक दंड़ है और इसे सुचिंतित ढ़ंग से आर्थिक तौर पर फिलीस्तीन जनता को बर्बाद करने के लिहाज से लागू किया जा रहा है। इस्राइल के द्वारा 90 के दशक में गाजा और दूसरे इलाकों की आर्थिक नाकेबंदी का सिलसिला आरंभ हुआ था, सन् 2006 में व्यापक नाकेबंदी की गयी। यह नाकेबंदी फिलीस्तीन संसद के चुनावों में हम्मास के जीतने के बाद की गयी और उसके बाद से किसी न किसी बहाने फिलीस्तीनी इलाकों की नाकेबंदी जारी है। आर्थिक नाकेबंदी का फिलिस्तीनी जनता पर व्यापक असर हुआ है।
अलजजीरा के अनुसार सन् 2007 के बाद गाजा में इम्पोर्ट आठ गुना बढ़ गया़।बेकारी 40 प्रतिशत बढ़ गयी। बमुश्किल मात्र 7 प्रतिशत फैक्ट्रियों में काम हो रहा है। गाजा में ट्रकों के जरिए सामान की ढुलाई 25 प्रतिशत रह गयी है। अस्पतालों में दवाएं उपलब्ध नहीं हैं,बच्चों की असमय मौत,कुपोषण और भयानक भुखमरी फैली हुई है। इस्राइल ने समग्रता में ऐसी नीति अपनायी है जिसके कारण समूची फिलीस्तीनी जनता को दंडित किया जा रहा है। 'यरुसलम पोस्ट' के अनुसार इस्राइल के राष्ट्रपति ने कहा है कि गाजा की जनता को हम ऐसा सबक सिखाना चाहते हैं जिससे वह इस्राइल हमले करना भूल जाए। वाशिंगटन पोस्ट के अनुसार इस्राइली अधिकारी यह मानकर चल रहे हैं कि गाजा पर किए जा रहे हमलों और नाकेबंदी से त्रस्त होकर फिलीस्तीनी जनता हम्मास को गद्दी से उखाड़ फेंकेगी।
उल्लेखनीय है कि आम जनता पर किए जा रहे जुल्मो-सितम की पध्दति मूलत: आतंकी रणनीति का हिस्सा रही है। गाजा की नाकेबंदी का लक्ष्य है जनता को अ-राजनीतिक बनाना और अंतर्राष्ट्रीय सहायता पर निर्भर बनाना। इस्राइली नीति का मूल लक्ष्य है गाजा के विकास को खत्म करना।
गाजा की तबाही का व्यापक तौर पर आम जनता पर बहुत बुरा असर हुआ है। डाक्टरों की मानें तो गाजा की आधी से ज्यादा आबादी को युध्द की भयावह मानसिकता से निकलने के लिए मनो चिकित्सकों की मदद चाहिए। अहर्निश युध्द और नाकेबंदी ने युवाओं को पूरी तरह बेकार बना दिया है। खासकर पुरुषों को कहीं पर भी सुरक्षा नहीं मिल पा रही है। विगत कई सालों में इस्राइली हमलों के कारण समूची गाजा की आबादी को सामूहिक मानसिक बीमारियों में धकेल दिया गया है।
आमतौर पर वयस्क पुरुषों को सामाजिक सुरक्षा का प्रतीक माना जाता है लेकिन गाजा में पुरुषों को ही सबसे ज्यादा संकटों का सामना करना पड़ रहा है।आज वे संरक्षक नहीं रह गए हैं। ऐसी स्थिति में बच्चों और औरतों पर क्या गुजर रही होगी सहज ही कल्पना की जा सकती है। इस्राइल के द्वारा फिलीस्तीनी जनता को सामूहिक दंड देना शुध्द फासीवाद है।








य़ासिर अराफ़ात और फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष
विजया सिंह
यासिर अराफ़ात ने इस्रायल के खिलाफ अरब का साथ तो दिया पर उन्होंने फिलिस्तीनी स्वायत्तता और मुक्ति के मसले को बिल्कुल भिन्न रूप में स्वीकार किया। यासिर अराफ़ात की सोच उन तत्कालीन राजनीतिज्ञों और सशस्त्र गुरिल्ला संगठनों से भिन्न थी जो एकीकृत अरब-राष्ट्र में विश्वास करते थे।

अराफ़ात ने फिलिस्तीन राष्ट्र की स्वतंत्रता प्राप्ति का नारा बुलंद किया। मिस्र,इराक,सऊदी अरब,सीरिया और मुस्लिम राष्ट्रों से अलग फिलिस्तीन मुक्ति को स्पष्ट रूप में सामने रखा। उन्होंने पहली बार फिलिस्तीन मातृभूमि की कल्पना की। अराफ़ात के लिए यह मुक्ति फिलिस्तीन जनता की आत्म-चेतना तथा पहचान से जुड़ी थी।

पैलेस्टीनियन नेशनल अथॉरिटी (पी एल ए) के पहले राष्ट्रपति यासिर अराफ़ात का पूरा नाम 'मोहम्मद अब्देल रहमान अब्देल रऊफ़ अराफ़ात अल-कुद्वा अल-हुसैनी या अबु अमर था। उनका जन्म 24 अगस्त 1929 में काहिरा (मिस्र की राजधानी) में हुआ था। फिलिस्तीन माता (ज़हवा अबुल सऊद)-पिता (अब्देल रऊफ़ अल-कुद्वा अल-हुसैनी) के पुत्र अराफ़ात सात बच्चों में दूसरे पुत्र थे। किडनी की खराबी के कारण माँ की मृत्यु अराफ़ात के पाँचवे वर्ष में ही हो गई थी। अराफ़ात और उनके छोटे भाई फ़ाथी के बचपन के आगामी चार वर्ष मामा सलीम अबुल सऊद के साथ बीते। बाद में उनकी देखभाल बहन इनाम ने की। पिता के साथ उनके संबंधों का पता इसी से चल जाता है कि उन्होंने न तो पिता की अंत्येश्टि क्रिया में हिस्सा लिया न ही कभी उनकी कब्र पर गए।
सन् 1950 में उन्होंने किंग फहद विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई पूरी की। अराफ़ात ने यहूदियों और ब्रिटिशों के खिलाफ फिलिस्तीन लड़ाकों को हथियार मुहैय्या कराने का काम किया।
सन् 1948 में अरब-इस्राइली युध्द के दौरान अराफ़ात ने पढ़ाई छोड़ कर अरबों का साथ दिया। वहाँ वे फिलिस्तीनों की तरफ से फिदायीन बनकर नहीं अरबमित्र बनकर गए। 1949 में अरबों की हार से मर्माहत होकर वे काहिरा चले गए। किंग फहद प्रथम विश्वविद्यालय, जो बाद में काहिरा विश्वविद्यालय के नाम से जाना गया, लौटकर उन्होंने सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और फिलीस्तीन छात्रसंघ (जनरल यूनियन ऑफ पैलेस्टीनियन स्टूडेन्ट्स) के अध्यक्ष (सन्1952-1956) भी रहे।
अराफ़ात ने कुछ समय के लिए मिस्त्र में काम किया। तदुपरान्त सिविल इंजीनियरिंग के काम को आधार बनाकर वे कुवैत पहुँच गए जहाँ उन्हें दो फिलिस्तीन मित्र - अबु इयाद और अबु जिहाद मिले। इन दोनों ने अराफ़ात के जीवन और फिलिस्तीन राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुवैत में अराफ़ात स्कूल शिक्षक बने और दूसरी ओर अपनी कांट्रैक्टिंग फर्म भी चलाई। बाकी समय उन्होंने राजनीतिक गतिविधियों और फिलिस्तीनी शरणार्थियों से मिलने में बिताया। इसके परिणामस्वरूप 'अल-फ़तह' नामक विशाल किन्तु गुप्त संगठन का निर्माण हुआ जिसके विकास में अराफ़ात ने अपनी फर्म का पूरा लाभ लगा दिया। 'अल-फ़तह' का अरबी में अर्थ 'हरकत अल-तहरीर अल-वतनी अल-फिलिस्तीनी' अर्थात् 'फिलिस्तीन राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम' था।
अल-फ़तह (सन्1959) द्वारा प्रकाशित पत्रिका में इस्राइल के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष की वकालत की गई। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए फिलिस्तीनी नागरिकों को एकजुट होने की सलाह दी गई। अराफ़ात ने फिलिस्तीनियों को एकजुट करने के क्रम में काफी सावधानी बरती। वे फिलिस्तीनी अस्मिता से समझौता करने को तैयार नहीं थे। जबकि कई अरब देश, इस्रायल के साथ मिलकर फिलिस्तीन स्वायत्तता को समाप्त करना चाहते थे। यही कारण था कि बड़े अरब राष्ट्रों की तरफ से की गई आर्थिक सहायता की पेशकश को उन्होंने ठुकरा दिया। बिना किसी की सरपरस्ती और दबाव के वे आत्मनिर्भर होकर कार्य करना चाहते थे। किन्तु सबसे छिटककर अलग हो जाने की भूल न करते हुए उन्होंने आर्थिक सहायता और किसी प्रकार के गठजोड़ को नकारते हुए भी विभिन्न संगठनों से उनके एकीकृत समर्थन की बात की। अल-फ़तह को स्थापित और विकसित करने के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की। इस संगठन को सुचारू रूप से चलाने के लिए उन्होंने कुवैत और खाड़ी देशों के धनिकों से मदद ली। बडे-बड़े व्यवसायियों ने और तेल व्यापारियों ने उदारता से अल-फ़तह की मदद की। बाद में इस कार्य में सीरिया और लीबिया जैसे देश भी जुड़ गए।
मुक्त ,संप्रभु और स्वायत्त फिलिस्तीन राष्ट्र और फिलिस्तीनियों के लिए संघर्ष करने वाले संगठनों को एकत्रित कर अरब लीग की सहायता और समर्थन स् ' फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन'(पैलेस्टाइन लिबरल ऑर्गेनाइजेशन-पी एल ओ) की सन् 1964 में स्थापना की। इस संगठन के अतंर्गत अन्य अरब समूह सुलह और मेल-मिलाप से चलने के पक्षधर थे।

किन्तु 1967 के छह दिनों तक चले लम्बे,भयानक युध्द में इस्राइल की विजय के बाद 'अल-फ़तह' सबसे मजबूत और शक्तिशाली संगठन बनकर उभरा। पी एल ओ की कार्यकारी समिति का चेयरमैन बनने के बाद यह पूरा संगठन अराफ़ात के हाथों में आ गया। पी एल ओ अब अरब समूहों की कठपुतली नही वरन् जॉर्डन में स्थित फिलिस्तीन के अधिकारो और संघर्ष से जुड़ा आत्मनिर्भर संगठन बन गया था।
आगे चलकर जॉर्डन सरकार और फिलिस्तीनियों के बीच भी तनाव बढ़ने लगा था। जिसका मूल कारण था अराफ़ात ने जॉर्डन में सत्ता और निजी सेना के साथ अपनी हुकूमत तैयार कर ली थी। देश के सभी बड़े राजनीतिक पदों पर आधिपत्य जमा लिया था।

फिलिस्तीन रक्षक सेना ने जॉर्डन में सामान्य नागरिक जीवन को नियंत्रित करना शुरू कर दिया था। हालात यह हो गए कि जॉर्डन के राजा हुसैन को अपनी सत्ता और देश की सुरक्षा की चिंता होने लगी। आखिर उसने पी एल ओ को देश से बाहर निकाल दिया। अराफ़ात ने हार नहीं मानी। उन्होंने लेबनान में इस संगठन के पुनर्निर्माण की कोशिश की। लेकिन इस्रायल के लगातार सैनिक हमलों, लेबनान के गृहयुध्द और संगठनों की मनमानियों ने उसे नाकाम कर दिया। इसके बाद उन्होंने अपना मुख्यालय टयूनिस में बनाया।
अराफ़ात का पूरा जीवन फिलिस्तीनी स्वतंत्रता हेतु एक देश से दूसरे देश में भ्रमण करते हुए बीता। उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन और क्रियाकलापों को बाहरी दुनिया से छिपाए रखा। 61वर्ष की उम्र में उन्होंने सुहा ताविल(27 वर्ष) से शादी की। सुहा ने ज़हवा नामक पुत्री को जन्म भी दिया। वे भी अपंग और अनाथ बच्चों के लिए सकारात्मक मानवीय कार्यों में लगी रहीं।
1980 में अराफ़ात ने लीबिया और सऊदी अरब की मदद से पी एल ओ को पुन: गठित किया। दिसम्बर 1987 में फिलिस्तीन के पश्चिमी किनारे(वेस्ट बैंक) और गाज़ा पट्टी में इस्राइल के विरुध्द फिलिस्तीनी युवाओं ने पहला विद्रोह शुरू किया। अबु जिहाद के कहने पर अराफ़ात ने इस विद्रोह का नेतृत्व किया। इस विद्रोह से सशस्त्र फिलिस्तीनी संगठन जुड़ने लगे जिनमें हम्मास और पैलेस्टीनियन इस्लामिक जिहाद (पी आई जे) प्रमुख थे।

15 नवम्बर 1988 को पी एल ओ ने स्वतंत्र फिलिस्तीन राज्य की घोषणा कर दी। अराफ़ात पर लगातार आतंकवादियों से जुड़े होने के आरोप लगते रहे। इसी बीच उन्होंने सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव संख्या 242 का समर्थन करते हुए सभी प्रकार की आतंकवादी कार्रवाइयों की भर्त्सना करते हुए सभी देशों के लिए शांति और सुरक्षा के महत्व को स्वीकार किया। उनके इस बयान का स्वागत किया गया। यह वक्तव्य वस्तुत: पी एल ओ के आधारभूत सिध्दांतों पर आधारित था। 2 अप्रैल 1989 में फिलिस्तीनी राष्ट्रीय परिषद की केंद्रीय समिति द्वारा अराफ़ात को राष्ट्रपति चुना गया। 1990-91 के खाड़ी युध्द में अराफ़ात ने सद्दाम हुसैन (इराक) द्वारा कुवैत पर आक्रमण का समर्थन किया और अमेरिका द्वारा इराक पर हमले का विरोध किया। अराफ़ात के इस निर्णय ने मिस्त्र और अन्य अरब देशों जो अमेरिका के साथ थे, से संबंधों को खराब कर दिया। उनके इस कदम को शांति विरोधी माना गया। इसका आर्थिक लाभ अल-फ़तह व पी एल ओ के विरोधी संगठनों और हम्मास आदि को मिला।
1990 में अराफ़ात और उनके महत्वपूर्ण अफसरों ने इज़राइल से शांति वार्ता शुरू कर दी जिसके परिणामस्वरूप 1993 में ओस्लो नामक समझौता वार्ता शुरू हुई। इसमें कई महत्वपूर्ण फैसले लिए गए, जैसे- वेस्ट बैंक और गाज़ा पट्टी में फिलिस्तीनियों के अधिकार, फिलिस्तीनी पुलिस बल तथा अंतरिम सरकार का गठन। ओस्लो संधि से पहले अराफ़ात को हिंसा के त्याग और इस्राइल के अस्तित्व को अधिकारिक मान्यता देनी पड़ी।

इस्राइल के प्रधानमंत्री इज़ाक रैबिन ने भी पी एल ओ को आधिकारिक मान्यता प्रदान की। इसीलिए अराफ़ात और इज़ाक रैबिन को शीमोन पेरेस के साथ 'नोबुल शांति सम्मान' से नवाज़ा गया। ओस्लो समझौते के अनुसार 1996 में फिलिस्तीन में चुनाव हुए और अराफ़ात राष्ट्रपति चुने गए। उनकी कार्यप्रणाली में लोकतांत्रिक कम और मनमाना भाव ज्यादा था।
इस्राइल में 'बेंजामिन नेतनयाहू' के नेतृत्व में दक्षिणपंथी सरकार के आते ही इस्राइल और फिलिस्तीन की शांति प्रक्रिया को धक्का पहुँचा। इनके बीच आगे चलकर कई समझौते भी हुए। किन्तु हम्मास और पी आई जे जैसे संगठनों ने इस्राइल पर हमले कर शांति प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करनी शुरू कर दी। नाराज़ होकर इस्राइल ने भी फिलिस्तीन में 'ऑपरेशन डिफेन्स शील्ड' आरम्भ कर दिया। अराफ़ात के मुख्यालय रामल्लाह पर भी हमले किए गए।
अन्तत: 2003 में अमेरिका के दबाव में अराफ़ात ने पद-त्याग किया। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने अराफ़ात पर शांति प्रक्रिया में असफल होने का आरोप लगाया। सम्पत्ति को लेकर भी उनपर कई आरोप-प्रत्यारोप लगते रहे। पश्चिमी विचारक अराफ़ात के बड़े राजनीतिक जीवन का मुख्य कारण अनिश्चित, आक्रामक युध्दनीति और निपुण राजनीति को मानते हैं।

अराफ़ात का फिलिस्तीनियों में बहुत सम्मान था। यही कारण था कि इस्रायल द्वारा अराफ़ात को मारने के सभी प्रयास नाकाम हो गए थे। 11 नवम्बर 2004 को 75 वर्ष की आयु में अराफ़ात की मृत्यु अनजानी बीमारी से हुई। निधन का स्पष्ट कारण ज्ञात न होने के कारण उनकी हत्या के कयास भी लगाए जाते रहे हैं। उनकी कब्र मुख्यालय रामल्लाह में बनाई गई है।
(लेखिका- विजया सिंह, रिसर्च स्कॉलर, कलकत्ता विश्वविद्यालय,कोलकाता )




फिलीस्तीन मुक्ति का सपना और एडवर्ड सईद का प्राच्यवाद


सुधा सिंह
एडवर्ड सईद को सन् 1978 के पहले दुनिया में बहुत कम लोग जानते थे। सन् 1978 में 'ओरिएण्टलिज्म' किताब के प्रकाशन के साथ उनके विचारों और गतिविधियों की ओर सारी दुनिया के बुध्दिजीवियों और राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं का ध्यान गया। 'ओरिएण्टलिज्म' किताब को आलोचना में पैराडाइम बदलने वाली किताब के रूप में जाना जाता है। इस किताब ने आलोचना को बदलने के साथ ही सईद को भी बदला, पहले सईद को मध्य-पूर्व अध्ययन के दायर में रखकर विचार किया जाता था। किंतु इस किताब के प्रकाशन के बाद उन्हें एक नए स्कूल के नाम से जाना जाने लगा जिसे आलोचना में 'उत्तर औपनिवेशिक' आलोचना कहते हैं। यह मूलत: उत्तर आधुनिकता के अनेक लक्षणों से युक्त आलोचना स्कूल है।
सईद का जन्म फिलीस्तीन में हुआ था,किंतु पालन-पोषण और शिक्षा का वातावरण अंग्रेजी-अरबी सांस्कृतिक माहौल में हुआ। मिस्र के अंग्रेजी वातावरण में उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। बाद में अमेरिका जाकर उन्होंने स्नातक और बाद की उपाधियां हासिल कीं। अण्डर ग्रेजुएट डिग्री प्रिंस्टन यूनीवर्सिटी से ली, ग्रेजुएट डिग्री हार्वर्ड से ली,और बाद में कोलम्बिया विश्वविद्यालय में अंग्रेजी और तुलनात्मक साहित्य के अध्यापक के तौर पर लंबे समय तक काम किया।
सईद ने स्वयं लिखा है सन् 1967 तक वह पूरी तरह अंग्रेजी के प्रोफेसर की तरह जीवन व्यतीत करने लगे थे। सन् 1968 में उन्होंने लिखने और पर्यटन के बारे में सोचा। पर्यटन और लेखन का मूल मकसद था फिलीस्तीन संघर्ष में सक्रिय रूप से भाग लेना,फिलीस्तीन राजनीति का प्रचार करना और फिलीस्तीन को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में निर्मित करना। इसी क्रम में सईद ने अपनी एक नयी पहचान निर्मित की, स्वयं को फिलीस्तीन की पहचान प्रदान की। सारी दुनिया में फिलीस्तीन अस्मिता को स्थापित करने का काम किया।
सन् 1969 और 1970 में सईद ने अम्मान की यात्रा की, जोर्डन की राजधानी होने केकारण और फिलीस्तीन के हथियारबंद ग्रुपों का केन्द्र होने के कारण यह शहर चर्चा के केन्द्र में था। उस समय फिलीस्तीनी लोग यह सोचते थे कि हथियारबंद संघर्ष के जरिए वे इजरायल को परास्त कर देंगे। उस समय जोर्डन और लेबनान में बड़ी तादाद में फिलीस्तीनी शरणार्थी रह रहे थे। ये वे लोग थे जो पहले फिलस्तीनी इलाकों में रहते थे किंतु मध्यपूर्व युध्द (1967) के दौरान इन्हें अपने घर-द्वार छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। कालान्तर में लेबनान में फिलीस्तीनियों पर हमले हुए लेबनान के प्रशासन ने अमरीका के दबाब में आकर उन्हें खदेड़ना शुरू कर दिया। यही वह बिंदु है जहां से सईद के व्यक्तित्व और लेखन में मूलगामी परिवर्तन आता है।

पहले वह एक अंग्रेजी के प्रोफेसर के रूप में जाने जाते थे और अब उन्होंने फिलीस्तीन के अधिकारों के प्रचार प्रसार का काम अपने जिम्मे ले लिया और अनेक मर्तबा बेरूत और फिलीस्तीनी इलाकों की यात्रा की। बेरूत ने सईद को इतना आकर्षित किया कि सन् 1972-73 में वह अपनी एक वर्ष की अकादमिक अवकाश की छुट्टियां लेकर वहां चले गए और वहां रहकर गंभीरता के साथ अरबी का अध्ययन किया। कालान्तर में अमरीका और सारी दुनिया में उन्होंने फिलीस्तीन के लक्ष्य के प्रचार के अगणी सिध्दान्तकार,चिन्तक और आन्दोलनकारी के रूप में काम किया।
सईद के चिन्तन के तीन प्रमुख क्षेत्र हैं पहला है मध्यपूर्व और फिलीस्तीन, दूसरा है साहित्य और आलोचना और तीसरा है मीडिया। इन तीन क्षेत्रों में सईद के नजरिए को व्यवहारिक तौर पर लागू करने की कोशिश की जाएगी। प्रस्तुत आलेख में मध्यपूर्व संबंधी नजरिए और तत्संबंधित मीडिया कवरेज के उन पक्षों की मीमांसा कीएगी जो स्वयं सईद ने रेखांकित किए हैं, यहां उनके मीडिया परिप्रेक्ष्य के बुनियादी सूत्रों के सहारे मध्यपूर्व के कवरेज को विश्लेषित करने की कोशिश की गई है। चूंकि उनके मूल्यांकन में सबसे पहले जिन देशों की संस्कृति की अभिव्यंजना मिलती है उनमें लेबनान का जिक्र खूब आता है इसमें भी बेरूत का सबसे ज्यादा जिक्र आता है। बेरूत का प्राकृतिक सौंदर्य उन्हें बार-बार खींचता है साथ बेरूत में रहने वाले फिलीस्तीनी भी खींचते हैं।
सईद ने फिलीस्तीन के बारे में जब लिखना और बोलना शुरू किया तो वे फिलीस्तीन से बहुत दूर थे। वे अमरीका में रहते थे। फिलीस्तीन के बारे में कम जानते थे। सारी दुनिया में फिलीस्तीन के बारे में अमरीका-इस्राइल का प्रौपेगैण्डा फैला हुआ था। इस्राइल के नजरिए कर ही सारी दुनिया में वर्चस्व था। सारे मीडिया अमरीका-इस्राइल के नजरिए का एकतरफा प्रचार करते रहते थे। सईद ने एकदम विपरीत माहौल में रहते हुए सारी दुनिया में और खासकर अमरीका में फिलीस्तीन राष्ट्रवाद को प्रमुख एजेण्डा बनाया। फिलीस्तीन की आजादी के लक्ष्य को प्रमुख मुद्दा बनाया। इस्राइल के मीडिया वर्चस्व को अकेले प्रचार के द्वारा अमरीका में ध्वस्त करने का काम किया। फिलीस्तीन जनता के संघर्ष को सारी दुनिया तक पहुँचाने में सईद की बहुत बड़ी भूमिका रही है। आज इस्राइल के साथ सिर्फ अमरीका है।
फिलीस्तीन राष्ट्र की जमीन पर इस्राइल ने सन् 1948 से कब्जा किया हुआ है। वह समस्त अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और मंचों के आदेशों और प्रस्तावों की अवहेलना कर रहा है। फिलीस्तीनियों को उनके संप्रभु और स्वतंत्र राष्ट्र के अधिकार से किसी न किसी बहाने से वंचित किए हुए है।
सईद के चिन्तन की केन्द्रीय विशेषता है स्वतंत्रता के प्रति दुस्साहसी वीरता। आलोचना में साम्राज्यवाद के प्रति दो-टूक रवैयया।
सईद की कैंसर के कारण मौत हुई,जब उनकी मौत हुई तब वह 62 साल के थे। उन्होंने 15 किताबें लिखीं, इसके अलावा सैंकडों आलेख लिखे, संगीत के बारे में उनकी गहरी समझ थी, संगीत की आलोचना और साहित्यालोचना में गहरा साम्य है। सन् 1978 में 'ओरिएण्टलिज्म' के आने के बाद सबसे बड़ा काम यह हुआ कि मध्यपूर्व की ओर सारी दुनिया के बुध्दिजीवियों का ध्यान गया। बौध्दिक जगत में मध्यपूर्व में चल रही साम्राज्वादी साजिशों और हिंसाचार को उद्धाटित करने में यह किताब मील का पत्थर साबित हुई। फिलीस्तीन के प्रति गहरी प्रतिबध्दता के कारण ही उन्हें फिलीस्तीन राष्ट्रीय परिषद का सदस्य बनाया गया जिसके वह 1991 तक सदस्य रहे।
सईद ने अमरीका की मध्यपूर्व विदेशनीति की तीखी आलोचना की है साथ ही यासिर अराफात के द्वारा जिस तरह अपने जीवन के अंतिम दिनों में समझौते किए उनकी भी आलोचना पेश की। खासकर ओसलो समझौते को उन्होंने फिलीस्तीन के समर्पण की संज्ञा दी। सईद के रवैयये और नजरिए को देखकर उन्हें तार्किक,अतिवादी,षडयंत्रकारी,गैर-जिम्मेदार,अमरीका विरोधी तक कहते थे। कुछ लोग उन्हें '' आतंक के प्रोफेसर' के नाम से भी पुकाते थे। ये सब वे लोग हैं जो उनके आलोचक हैं। संभवत: ये सारी बातें सईद में न हों। किंतु एक बात उनके व्यक्तित्व में थी, वह गैर परंपरागत बुध्दिजीवी थे। उनका समूचा बौध्दिक कर्म इसकी पुष्टि करता है।वह दुस्साहसी बुध्दिजीवी थे।

सईद ने अपने बचपन के आरम्भिक बारह साल फिलीस्तीन में बिताए, उनके पिता व्यापारी थे। ईसाईयत में आस्था थी। सन् 1947 के अंत में उनका परिवार कैरो अर्थात् काहिरा चला आया। इसके पास महीने बाद इस इलाके में युध्द शुरू हो गया। यह युध्द फिलीस्तीन अरब और यहूदियों के बीच शुरू हुआ, इसके बाद ही फिलीस्तीन का विभाजन हुआ। सईद की समूची शिक्षा अभिजन अंग्रेजी स्कूलों में हुई। मैसाचुसेट्स के बोर्डिंग स्कूल में अनेक साल बिताए। सन् 1957 में प्रिंस्टन से उन्होंने ग्रेजुएट किया।सन् 1964 में हार्वर्ड से पीएचडी डिग्री हासिल की।सन् 1963 में कोलम्बिया ने उन्हें इंग्लिश इंस्ट्रक्टर के रूप में नौकरी दी। उसके बाद उन्हें लगातार तरक्की दी गई। सन् 1967 के युध्द के बाद से उन्होंने फिलीस्तीन संघर्ष में दिलचस्पी लेनी शुरू की और फिर उसका हिस्सा बन गए। इस क्रम में उनकी पहचान भी बदल गयी, अब वे अमरीकी-अरब और फिलीस्तीन इन तीनों ही पहचान के रूपों को एक साथ जीने लगे।

इस्राइल की तत्कालीन प्रधानमंत्री गोल्डामायर ने सन् 1969 में एक भाषण में कहा था कि ' कोई फिलीस्तीन नहीं है।' यही वह बयान था जिसने सईद के नजरिए को बदल दिया। न्यूयार्क पब्लिक लाइब्रेरी के लिए दिए गए व्याख्यान में इसका उन्होंने जिक्र करते हुए लिखा है कि ''अपरिहार्यत: इसने मुझे अपनी भाषा में लेखन के लिए मजबूर किया।' इसके बाद 'मुझे एहसास हुआ कि कैसे व्यक्ति बनता है भाषा कैसे बनती है,लेखन तो यथार्थ की निर्मिति है यह उपकरण की तरह यह काम करता है।'' आगे लिखा लेखन '' शब्दों की शक्ति और उसकी प्रस्तुति को सामने लाता है। ये शब्द लेखक ,राजनीतिक,दार्शनिकों के यथार्थ को सिलसिलेबार ढंग से पेश करते हैं कभी-कभी अन्य के लिए पेश करते हैं।

सईद का पहला निबंध था '' दि अरब पोट्रेड''' यह निबंध 1968 में छपा था। इस निबंध में बताया गया था कि कैसे प्रेस में और कुछ विद्वानों के यहां इमेज का मेनीपुलेशन चल रहा है। जिस समय यह निबंध लिखा था उस समय अमरीका के बौध्दिक जगत में इस तरह के लेख को दुस्साहस ही कहा जाएगा। यह निबंध कालान्तर में दस साल बाद उनकी विश्व विख्यात किताब 'ओरिएण्टलिज्म' का आधार बना। इस किताब के मूल सूत्र सबसे पहले इसी निबंध में पेश किए गए थे।
(सुधा सिंह,एसोसिएट प्रोफेसर,दिल्ली विश्वविद्यालय ,दिल्ली )

सुधा सिंह का एडवर्ड सईद पर आलेख एड्

फिलीस्तीन मुक्ति सप्ताह- फिलीस्तीन के बिना अधूरा है प्राच्यवाद








आलोचकगण जब 'ओरिएण्टलिज्म' पर विचार करते हैं तो यह भूल जाते हैं कि आखिरकार सईद को यह किताब लिखने की जरूरत क्यों पड़ी ?

यह किताब जब लिखी गयी थी तब सारी दुनिया में नए सिरे से नव्य-औपनिवेशिकता और नव्य-आर्थिक उदारतावाद की मुहिम शुरू हो चुकी थी। इस मुहिम का लक्ष्य नए किस्म की वैचारिक गुलामी था। द्वितीय विश्वयुध्दोत्तार दौर में मध्य-पूर्व से इसका सिलसिला आरंभ हुआ था और आज वह अपनी पकड़ में सारी दुनिया को ले चुका है। यही वह प्रस्थान-बिंदु है जिसके कारण 'ओरिण्टलिज्म' का संदर्भ-सूत्र मध्यपूर्व और साम्राज्यवाद विरोध है। 'ओरिण्टलिज्म' लिखने का मकसद विचार-विमर्श करना मात्र नहीं है बल्कि साम्राज्यवाद के वैचारिक ताने-बाने से कैसे मुक्त हुआ जाए,उसके रास्ते तलाशना भी है। युध्दोत्तार दौर में साम्राज्यवाद के खिलाफ विश्वव्यापी चेतना पैदा करने में इस कृति को केन्द्रीय भूमिका है। यह किताब साम्राज्यवाद निर्मित विचारों ,केटेगरी,संस्थान, प्रक्रिया और प्रभाव का समग्रता में मूल्यांकन पेश करती है। इस किताब का लक्ष्य है साम्राज्यवाद के द्वारा निर्मित केटेगरी ,अवधारणाओं आदि को चुनौती देना और उनके विकल्पों की खोज करना। उल्लेखनीय है कि नई समीक्षा,रूपवादी समीक्षा,संरचनावाद,कांग्रेस फोर कल्चरल फ्रीडम आदि के माध्यम से संस्कृति,साहित्य और कला जगत में जिस तरह का अ-राजनीतिक,जनतंत्र विरोधी और वर्चस्ववादी माहौल बनाया गया था उसे विश्वस्तर पर अपदस्थ करने में इस किताब की केन्द्रीय भूमिका है।

'ओरिण्टलिज्म' को पढ़ते समय अनेक बार यही लगता है कि 'यह छूट गया' ,मेरी बात भी कह दी जाती अथवा मेरा संदर्भ होता तो अच्छा होता। यह अनुभूति स्वयं इस किताब की सबसे बड़ी ताकत है। मानविकी और समाजविज्ञान में साम्राज्यवादी विचारों के वर्चस्व को इस अकेली किताब ने जितनी बड़ी चुनौती पेश की,वैसे चुनौती माक्र्स रचित 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र'' के बाद अन्य कोई किताब पैदा नहीं कर पायी है। जिस तरह पश्चिम से लेकर पूरब तक सभी विचारधारा के लोगों को 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र '' ने आकर्षित किया, उसे मानव मुक्ति का महापाठ बनाया ठीक वैसे ही 'ओरिण्टलिज्म' को साम्राज्वाद विरोधी मुक्तिकामी ताकतों ने अपना महापाठ बनाया। माक्र्स ने मजदूरों और समूचे समाज की मुक्ति के सपने को केन्द्र में रखकर पूंजीवाद की तीखी आलोचना की और समाजवाद का विकल्प पेश किया। वहीं सईद ने 'ओरिण्टलिज्म' के जरिए साम्राज्यवाद से मुक्ति और समतावादी जनतंत्र का सपना पेश किया। फर्क यह है माक्र्स पूंजीवाद की जगह समाजवाद चाहिए था, जबकि सईद को पूंजीवाद में ही गैर-साम्राजी जनतांत्रिक विकल्प चाहिए। आत्मनिर्भर संप्रभु राष्ट्र और जनतांत्रिक समाज व्यवस्था चाहिए।

सईद ने जब प्राच्यवाद पर लिखा तो उस पर व्यापक प्रतिक्रिया व्यक्त हुई। सईद ने 'पश्चिम' और 'प्राच्य' की एक ही केटेगरी बनायी, जबकि सच यह है कि 'पश्चिम' एक नहीं अनेक हैं, उसी तरह 'प्राच्य' एक नहीं अनेक हैं। इन दोनों के बीच के अन्तर्विरोधों को सामान्यीकरणों के सहारे नहीं समझा जा सकता। समय-समय पर इनके अंतर्विरोध के मुख्य बिंदु में भी बदलाव होता रहा है। स्वयं सईद ने माना है कि प्राच्यविदों ने काफी काम किया है उन्होंने भाषा के नियम बनाए,डिक्शनरी,मृतयुगों को जिंदा किया, सैंकडों किताबों का अनुवाद किया, सीखने लायक बहुत कुछ निर्मित किया।

'ओरिएण्टलिज्म' में शुरू से अंत तक सईद का प्राच्यवादी ज्ञान को लेकर एक तरह संदेह का भाव है। वे इस ज्ञान को सत्ता के आईने में रखकर देखते हैं। सत्ता के संबंधों के साथ जोड़कर देखते हैं। सवाल यह है क्या यह बात भाषा के नियमों अथवा संहिता पर भी लागू होती है ? क्या यह बात अनुदित पाठ पर भी लागू होती है ? सवाल यह है कि किस तरह का ज्ञान साम्राज्य के संपर्क के कारण दुरंगी भूमिका अदा करता है ? उसे हम स्वीकार करें या न करें ? प्राच्यवाद का आम विमर्श के रूपों और प्रस्तुतियों के साथ किस तरह का संबंध है ? व्यक्तिगत का प्राच्यवाद से क्या संबंध है ? सईद ने जब प्राच्यवाद के बारे में लिखना शुरू किया था तो कहा था कि प्राच्यवाद उन्माद है। प्राच्यवाद एटीट्यूट यानी संस्कार है। यह मूलत:''इम्पीरिकल'' विरोधी है। सवाल यह है ये तीनों बातें सभी प्राच्यविदों पर लागू होती हैं अथवा कुछ पर ही लागू होती हैं।

'ओरिएण्टलिज्म' के पन्द्रह साल बाद 'कल्चर एंड इम्पीरियलिज्म' नामक किताब आयी और इस किताब में सईद ने व्यापक तौर पर यह स्थापित किया कि ज्ञान और सत्ताा का गहरा रिश्ता होता है। इसकी व्याख्या के क्रम में संस्कृति और साम्राज्य के अन्तस्संबंध पर सईद ने नयी धारणाएं पेश कीं, कुछ लोगों को इनमें स्पष्टता का अभाव भी नजर आता है। समग्रता में संस्कृति और साम्राज्य के अन्तस्संबंध की धारणा उलझनें ज्यादा पैदा करती है। इसमें भी सामान्यीकरण्ा के फार्मूलों को सईद ने लागू किया है। सईद के लेखन की विशेषता है कि उन्होंने बार-बार प्राच्यवाद पर ही लिखा है। सवाल यह पैदा होता है कि प्राच्यवाद के विभिन्ना विमर्शों को पेश करते हुए सईद आखिरकार क्या कहना चाहते हैं ? वह किस तरह के विचारों के इतिहास को पेश करना चाहते हैं ?प्राच्यवाद के विमर्श में कौन सा विचारक सबसे ज्यादा प्रभावित करता है और किन लोगों को प्रभावित करता है ? वर्चस्वशाली अभिजन कौन है ?राज्य के संस्थान किस तरह के हैं ? जनता की राय क्या है ? ये सवाल हैं जिन पर सईद के यहां साफ नजरिया दिखाई नहीं देता। यह भी स्पष्ट नहीं होता कि विभिन्ना विधा रूपों का आपस में किस तरह का संबंध था ? अपने युग के साथ किस तरह का संबंध था ? अथवा विभिन्ना युगों के साथ विधा का किस तरह का संबंध था ? विभिन्ना संस्कृतियों और इतिहास के बीच किस तरह का संबंध था ? विभिन्ना साम्राज्यवादी देशों का अपने उपनिवेशों के साथ किस तरह का संबंध था ?

सईद के ओरिएण्टलिज्म में अनेक महत्वपूर्ण चीजें अनुपस्थिति हैं। मसलन् इसमें किपलिंग के मात्र पांच संदर्भ हैं। फ्रांसीसी भाषा विज्ञानियों और ब्रिटिश घुमंतू बौध्दिकों ,जर्मन प्राच्यविदों का कहीं पर भी जिक्र नहीं है। इसके अलावा पापुलर कल्चर के बारे में एकसिरे से मूल्यांकन गायब हैं। 19वीं और बीसवीं सदी के उत्तारार्ध्द के प्रेस को लेकर कोई समझ नजर नहीं आती। सईद के एकांगी नजरिए का ही परिणाम है कि उन्हें पश्चिम की आक्रामकता नजर आती है किंतु पूरब की आक्रामकता नजर नहीं आती। क्या यह संभव है कि मध्ययुग के पूरब के हमलावरों को भूल जाएं ? सईद के अनुसार प्राच्य पीड़ित रहा है पश्चिम के द्वारा। पश्चिम का वर्चस्व रहा है। सवाल यह है कि पश्चिम का जिस जमाने में वर्चस्व था उस समय पश्चिम का प्रतिरोध हो रहा था या नहीं ? उस प्रतिरोध की आवाज को खोजने में सईद असमर्थ रहे हैं। सईद की प्राच्यवाद संबंधी प्रस्तुति यही संदेश देती है गैर पश्चिमी जगत पराजित हो रहा है अथवा चुप है। वे यह बात कहीं पर भी रेखांकित नहीं करते कि गैर पश्चिमी समाज के प्रतिरोध और प्रतिवाद के क्या रूप रहे हैं ? इन समाजों के आंतरिक क्या कारण अथवा अंतर्विरोध रहे हैं ? साम्राज्यवाद का फिनोमिना बहुत बाद के वर्षों में आया है इसे मध्यकाल में अथवा मध्यकालीन मानसिकताओं और मूल्यों की जड़ों में खोजना मूर्खता होगी। यह सच है कि साम्राज्यवाद ने मध्यकालीन रूढ़ियों का अपने पक्ष में इस्तेमाल किया है। किंतु प्रत्येक देश में उसके आंतरिक ताने-बाने पर नजर डालने की जरूरत है ,आंतरिक अन्तर्विरोधों और पहले से चली आ रही मूल्य-संरचनाओं और संस्कृति के बीच के द्वंद्वात्मक संबंध की जटिलताओं को खोला जाना चाहिए। सईद के नजरिए में असल कमजोरी यहीं पर है। सईद की सबसे बड़ी कमजोरी है कि उन्होंने सारी बीमारियों की जड़ साम्राज्यवाद को बना दिया है। काले और गोरे के भेद को बना दिया है। आधुनिककाल में सामाजिक,सांस्कृतिक अध्ययन में साम्राज्यवाद समस्या का एक बड़ा बिंदु है किंतु इसे सर्वस्व नहीं समझना चाहिए। आज भी मध्यकालीन प्रेतबाधाएं और मूल्य हैं जो पूरब के देशों में तबाही मचा रहे हैं। कायदे से देशज समस्या की आंतरिक सांस्कृतिक परतों का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।

'ओरिएण्टलिज्म' में फिलीस्तीन व्यापक संदर्भ में दाखिल होता है। अरब,इस्लाम,पूरब आदि के प्रति साम्राज्यवाद के पूर्वाग्रहों और घृणा के वे अंतिम पीड़ितों में से एक हैं। साम्राज्यवाद के पूर्वाग्रह सिलेसिलेबार,योजनाबध्द और सुसंगत रूप में काम करते हैं। उन्हें ही सईद ने 'ओरिएण्टलिज्म' की संज्ञा दी है। इस किताब का इसलिए भी महत्व है कि इसने प्राच्यवाद की परिभाषा और दायरा भी बदला है। पहले प्राच्य अध्ययन की शाखाएं यूरोपीय परंपरा का अध्ययन करती रही हैं। खासकर यूरोपीय इतिहासकारों और कला संग्रहकत्तर्ााओं का अध्ययन करती रही हैं।

सईद का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने प्राच्यवाद को 'भेद की विचारधारा' के आधार पर व्याख्यायित किया है। यह ऐसी विचारधारा है जो पूरब पर अपने आधिपत्य को हर तरह से वैध ठहराने की कोशिश करती रही है। प्राच्यवाद एक तरह से प्रच्छन्ना नस्लवाद है जो अपनी प्रतिगामिता और निरंतरता को होमर के समय से लेकर आज तक बनाए हुए है। खासकर इनलाइटेनमेंट से आज तक अपनी निरंतरता बनाए हुए है। सईद के अनुसार 'प्रत्येक यूरोपीय अपने को प्राच्यविद ,नस्लवादी,साम्राज्यवादी और कुल मिलाकर जातीयकेन्द्रिक मानता है।'' अपने तर्क की पुष्टि के लिए सईद ने व्यापक परिप्रेक्ष्य में विभिन्ना विधा रूपों में काम करने वाले बौध्दिकों के संदर्भ का इस्तेमाल किया है। ये सारे संदर्भ और विधा रूप मिलकर एक ही विमर्श तैयार करते हैं जिसे हम प्राच्यवाद के नाम से जानते हैं। ज्ञान की विभिन्ना शाखाओं के पाठ का इस्तेमाल करते हुए सईद ने इन पाठों के बीच के अन्तर्सबंधों का भी खुलासा किया है। विभिन्ना शाखाओं के पाठ मिलकर किस तरह प्राच्यवाद का पाठ तैयार करते हैं और किस तरह यह प्रक्रिया प्रच्छन्ना तरीके से हमारी चेतना में प्रवाहित होती रहती है और किस तरह साम्राज्यवादी पूर्वाग्रह हमारे बौध्दिक चिन्तन और संस्कृति में घुस आए हैं, इन सब पहलुओं पर 'ओण्टिलिज्म' में प्रकाश ड़ाला गया है।

सईद के 'ओरिएण्टलिज्म' संबंधी विवेचन की मूल चिन्ता प्राच्यवाद को समग्रता में उद्धाटित करने की है। वे प्राच्यवाद के संभावित दायरों का भी खुलासा करते हैं। साथ ही प्राच्यवादी कठमुल्लेपन को निशाना बनाते हैं। प्राच्यवादी कठमुल्लापन कविता,कहानी,उपन्यास आदि के जरिए साधारण जनता के बीच प्रवाहित होता रहा है। प्राच्यवादी चिन्तकों ने अपनी एक खास किस्म की पहचान बनायी हुई है। वे अपने को खोजी, सत्यान्वेषक के रूप में पेश करते रहे हैं। सईद उनके इसी पाखण्डी रूप को उद्धाटित करते हैं। सईद ने लिखा है कि प्राच्यविद वे लोग हैं जो पश्चिम के श्रेष्ठत्व को किसी न किसी रूप में पेश करते हैं उसकी वकालत करते हैं। ये साम्राज्यवादी सत्ता के खेल का हिस्सा हैं। इस प्राच्यवादी मानसिकता के लेखक और बुध्दिजीवी अरब और मुस्लिम जगत में साम्राज्यवाद के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए जाने-अनजाने मदद करते रहे हैं। इससे तीसरी दुनिया के देशों के ज्ञान को सत्ता को प्रदूषित करने में सफलता मिली है। सत्ता के प्रदूषण से बचने का क्या उपाय है ? सईद ने सन् 1981 में लिखा '' मैं सोचता हूँ कि ज्ञान को गैर-विशेषज्ञों के लिए खोल देना चाहिए।''

फिलीस्तीन के समर्थन में देशकाल डाट काम पर सप्ताहव्यापी लेखन की शुरूआत

http://www.deshkaal.com/Details.aspx?nid=20120101864699

फिलिस्तीन

फिलिस्तीन के मुक्ति संघर्ष के समर्थन में हिन्दी में ब्लाग लेखन सप्ताह

Tuesday, 19 January 2010

पश्चिम बंगाल में हिन्दी भाषी समाज

कांग्रेसी नेता मानस भुइयां ने हिन्दी भाषी समाज के लिए एक बडा काम किया है. पत्रकार कृपाशंकर चौबे ने सूचित किया है कि कांग्रेस के इस नेता ने स्वीकार किया है कि बंगाल में हिन्दी भाषी जनता की जनसंख्या एक करोड है. उन्होंने इस मांग का समर्थन किया है कि महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की एक शाखा कोलकाता में भी खुलनी चाहिए. यह बात भी गौरतलब है कि वामफ्रंट सरकार ने अपने 32 वर्ष के शासन के बाद हिन्दी को अल्पसंख्यक भाषा का दर्जा देना स्वीकार किया है. ऐसे में बंगाल की उपेक्षित हिन्दी भाषी जनता के लिए उत्साह का वातावरण तैयार हुआ है. बर्सों से हिन्दी भाषी छात्रों के लिए हिन्दी में प्रश्न-पत्र के लिए आन्दोलन किया जाता रहा है, लेकिन सरकार आंख मूंदे हुए है. चौबे ने कई अन्य बातों का खुलासा किया है. 1998 से शब्दकर्म पत्रिका ने लगातार कई लेख हिन्दी भाषी जनता की मांगों को लेकर छापे थे. जिन लेखकों ने हिन्दी भाषी जनता के पक्ष को रखकर गुहार लगाई थी उनमें सम्पादक हितेन्द्र पटेल के अलावा अनय, कृपाशंकर चौबे, के के सिंह, अमरनाथ आदि लोग शामिल थे. यह बात बार बार दोहराई गयी थी कि हिन्दी भाषी जनता के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की जाए और शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में लगातार की जा रही उनकी उपेक्षा को बंद किया जाए.  सैकडों सालों से हिन्दी प्रदेश के लोगों ने बंगाल में आकर अपने श्रम से यहां की धरती सींची है. इस बंगाल के निर्माण में हिन्दी भाषी लोगों का खून-पसीना भी लगा है. वाम पंथी सरकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वे मेहनतकश जनता के लिए लडेंगे, लेकिन अभी तक तो लगता है यह अपने पूर्ववर्ती शासन से भी ज्यादा निष्ठुर है. चौबे ने लिखा है कि वामपंथी सरकार ने यहां के हिन्दी भाषी सफाई कर्मचारियों की जगह पर बंगाली सफाई कर्मचारियों को चुनने की नीति अपनायी है. अगर आप यहां की नौकरियों के विज्ञापनों को देखें तो साफ समझ में आएगा कि यहां हिन्दी भाषी लोगों को नौकरी मिलना कितना कठिन होता जा रहा है. इस राज्य में जाति प्रमाण पत्र उन्हें ही दिया जाता है जो बंग्ला भाषी हैं यह बात जाति प्रमाण पत्र के लिए लगातार सरकारी दफ्तर के चक्कर लगाता कोई भी बोल देगा.
चौबे ने एक और बात पर उंगली रखी है. यहां एक हिन्दी अकादमी है जिसे पांच बरस से बंद सा रखा गया है. सरकार का पूरा ध्यान बंग्ला अकादमी पर है और ये उर्दू अकादमी तक को पैसे देती है लेकिन हिन्दी अकादमी पर इसका ध्यान नहीं है.
हिन्दी भाषी बुद्धिजीवियों से अपील है कि वे इन बातों पर ध्यान दें और जनता की भलाई के लिए सोचें. एक संकीर्ण मन से बंगाली -बिहारी, बंगाली-अबंगाली के समीकरण से नहीं बल्कि खुले मन से, ताकि आम आदमी को उसका संवैधानिक अधिकार मिल सके. 

ज्योति बसु, भ्रामक जानकारियां

ज्योति बसु के बारे में बंगाल के बाहर के लोगों को ठीक से जानकारी नहीं है. इस कारण उनकी महानता के बारे में भ्रम बनने और उसके टिकने के पूरे आसार हैं. वे एक बडे नेता थे और अपनी पार्टी में उनका मान था जो अंत समय तक बना रहा. लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उनके बारे में जो बातें कही सुनी जा रही हैं उसमें कुछ जानकारियों को शामिल नहीं किया जाता. मैं कोशिश करूंगा कि उनके बारे में कुछ व्यक्तिगत जानकारियां उपलब्ध करवा सकूं ताकि लोग उनके बारे में अपनी राय ठीक से बना सकें.ज्योति बसु के पिता श्री निशिकांत बसु एक होम्योपैथिक डॉक्टर थे. वे बिधानचन्द्र राय और नलिनी रंजन सरकार के घनिष्ट मित्र थे. नीलरतन सरकार ने ही निशिकांत बसु की नियुक्ति एक मेडिकल ऑफिसर के रूप में हिन्दुस्तान इंश्योरेंस कम्पनी में की थी. वे शुरू से ही कलकत्ता में रहते थे. 1924 में उन्होंने कलकत्ता के एक समृद्ध इलाके- हिन्दुस्तान पार्क में जमीन खरीदी और एक विशाल भवन बनवाया. ज्योति बसु की बह्न सुधा देवी का विवाह प्रसिडेंसी कालेज के प्रिंसिपल डॉ स्नेहमय दत्त से हुई.


इंग्लैंड जाकर वे आई सी एस बनना चाहते थे. एक बार परीक्षा में बैठे भी लेकिन सफल नहीं हो सके. ज्योति बसु 1939 में भारत वापस आये और उनके पिता ने उनकी शादी ईशान चन्द्र घोष की पोती छवि से की. पर तीन वर्ष बाद छवि की मृत्यु हो गयी. बिधानचन्द्र राय ने छवि को बचाने की भरसक कोशिश की, पर सफल नहीं हो सके. यह ज्योति बसु के लिए एक बड़ा झटका था. बाद में, 1948 में ज्योति बसु का विवाह कमल बसु से हुआ.

स्नेहांसु आचार्य से ज्योति बसु की गहरी मित्रता थी जो कायम रही. स्नेहांसु आचार्य कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल नहीं हुए और अपना पूरी ध्यान कानून के क्षेत्र में केन्द्रित रखा. पर वे बाद में वामफ्रंट के शासन में एडवोकेट जनरल बने. उनके आवास पर ही कम्युनिस्ट और अन्य दलों के नेताओं का मिलना जुलना होता था.

ज्योति बसु ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और कभी भी कांग्रेस के साथ अपने को संबद्ध नहीं किया.



भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी की एक शाखा समझा जाता था. 1942 में रूस पर जर्मनी के आक्रमण के बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने ब्रिटेन की सफलता की कामना की. 1943 के महाअकाल के समय में भी कम्युनिस्ट पार्टी ने "विचारधारात्मक" कारण से कोई टिप्पणी नहीं की.  

Monday, 18 January 2010

ज्योति बसु का देहांत

ज्योति बसु भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की एक धारा के सबसे बडे नेता थे, इसमें कोई संदेह नहीं.  1940 से लेकर 2000 तक वे अपनी पार्टी के लिए समर्पित रहे और अपने तरीके से आम लोगों के लिए काम करने की कोशिश करते रहे. प्रमोद दास गुप्ता की मृत्यु के बाद वे अपने दल के सबसे मान्य नेता बने रहे. 23 वर्षों तक बंगाल जैसे राज्य में मुख्यमंत्री बने रहने एक उपलब्धि से कम नहीं.
आज ज्योति बसु का मूल्यांकन करने का समय नहीं है, लेकिन जिस तरह उनका महानीकरण और  बंगालीकरण किया जा रहा है उसको किसी भी तरह से सही नहीं कहा जा सकता. वे कभी भी महान नेता नहीं थे और न ही उन्होंने किसी बडे जनान्दोलन का नेतृत्व किया. वे कोई महान विचारक या विजनरी भी नहीं थे.  वे एक यथार्थवादी और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शक्तियों को पहचानने वाले एक वामपंथी नेता थे.
मिलोवान जिलास ने रूस के कम्युनिस्ट शासन के पतन के बाद कहा था कि जो लोग लेनिन को महान और स्टालिन को खराब नेता कहते हैं वे भूल करते हैं. स्टालिन ने लेनिन के कार्य को ही आगे बढाया. ठीक उसी तरह बुद्धदेव भट्टाचार्य को खराब और ज्योति बसु को महान नेता कहा जाना गलत है. भूमि सुधार से लेकर पंचायती राज के सच को ठीक से प्रचारित नहीं किया गया है जिसकी वजह से वाम शासन की एक आदर्श छवि पूरे देश में प्रचारित है. इस शासन का मूल ढांचा ज्योति बसु का ही तैयार किया गया था. बसु को एक बडा नेता माना जाना चाहिए ठीक वैसे ही जैसे बीजू पटनायक को. लेकिन वो कोई जयप्रकाश नारायण नहीं थे. उनकी जो छवि अभी मीडिया में प्रचारित की जा रही है वह भ्रामक है.

Monday, 4 January 2010

A poem sent by a highly intelligent and sensitive young girl

Aajkal chand meri gali se hokar gujarta hai,

Dekhta hai uski tarah koi aur v tanha bhatakta hai.

Wo aata hai , meri khidaki se jhakta hai,

Ek lambi se aah bharta hai,

Aur muskurakar kahta hai

“ chalo achha hai,

Tum v jage ho meri he tarah.

In lambi raaton mei

Mai akela nahi, koi to hai mere saath!

Jo deta hai mujhe mere duje pan ka ehsaas.”

Mai muskura kar kahti hoon chand se

“mai itani beraham nahi chand,

Jo tumhe uun bhatakane dun akele anjaan.

Chalo chand kyon na rache aaj se hum ek naya bidhan,

Hum dono ki samasyao ka milkar kare samadhan!”

Chand phir se muskurakar kahta hai

“ mai jagta hoon isliye ki mujhe janana hai ek raaj

Kahan chali jati hai meri chandani har purnima k baad?

Par ye batao tum kyon jagti ho har raat

Ek prachand bedana k saath?”

Mere hoton par hoti hai ek ajib si muskurahat,

Mai kahti hoon chand se” jara suno meri baat-

Mai jagti hoon isliye ki mujhe v janana hai ek raaj,

Kaise sota hai wo chain se,

Dekar mujhe bechaini din raat!”

(2)



AAj phir bade udas ho chand?

Thak kar aa gaye wapas phir se meri khidaki par

dene dastak aaj.

Kya maine nahi kaha tha tumhe!

Dhundane jaaoge agar chandani ko tum is jahan mei

To kabhi nahi milegi wah tumhe!

Kya kahoon tumhe mai chand

Apne he prem ko chale ho kahin aur dhundane!

Maine tab v kaha tha tumhe

Thak kar ho jaaoge chur

Par nahi milegi chandani kahi aur tumhe!

Kaas ki ye baat tum samajh paate

Ki chandani tumse hai

Aur wah tumme hai jo de rahi tumhe roshani

Tumhari udasi mei v aaj!

Ek baar dil se use pukar to lo

Phir dekho har roz kaise purnima aayegi

Aur charo or hogi roshani ki barsat!”

Friday, 1 January 2010

समय, इतिहास और साहित्य

समय, इतिहास और साहित्य


उत्तर औपनिवेशिक भारतीय सन्दर्भ में कुछ नोट्स

हितेन्द्र पटेल



[कम से कम 1960 के दशक के बाद से पाठ और इसके अर्थ के बीच के सम्पर्कों पर हुई लगातार बहसों में यह बात दोहराई जाती रही है कि हमारे पाठ और हमारे द्वारा पाये गये अर्थ के बीच का रिश्ता बहुत ही जटिल है. पाठक या श्रोता के रूप में हम उपभोक्ता हैं या उत्पादक हैं यह बहुत ही बुनियादी प्रश्न बन गया है जिसमें जाए बिना साहित्य या इतिहास के बदलते स्वरूप पर विचार करना संभव नहीं. बातचीत की सुविधा के लिए हम कह सकते हैं कि संरचनावाद और उत्तरसंरचनावाद के विमर्शों के बाद हम बहुलतावादी दृष्टि की तरफ बढे हैं. अब इतिहास या समय इतिहासों और समयों के रूप में देखा जा सकता है. प्रस्तुत आलेख में साहित्य और इतिहास के सन्दर्भ में समय की धारणा के कुछ पहलुओं पर विचार किया गया है.]

‘समय’ बदलता है या सबकुछ ‘समय’ में बदलता है? समय संबंधी दीर्घकालीन चिंतन के इस केन्द्रीय प्रश्न पर कोई एक आम सहमति नहीं है. इतिहास के दार्शनिक आर. जी. कॉलिंगवुड ने 1925 में अपने भाषणों में इस सम्बन्ध पर विचार करते हुए समय को एक ‘मेटाफर’ बताया है जिसे कुछ लोग एक ही गति से लगातार चलने वाले प्रवाह (स्ट्रीम) के रूप में लेते हैं और कुछ इसे एक सरल रेखा के रूप में. समय की गति को समझने के लिए एक अन्य समय की कल्पना जरूरी है जिसके सापेक्ष समय के प्रवाह को समझा जा सके. अगर अन्य समय को स्थिर माना जाए तो ही समय के बदलाव को रेखांकित करना संभव है. दूसरी ओर, जो लोग समय को एक सरल रेखा के रूप में देखते हैं उनके लिए जो जाना हुआ है (वर्तमान) उसके पहले का समय भूत और जिसे जाना जाना है उसे भविष्य के रूप में देखा गया है. चूंकि, हम सिर्फ वर्तमान को जानते हैं या जान सकते हैं भूत और भविष्य की सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं हर कल्पना का वास्तविक आधार वर्तमान ही होकर रह जाता है. कालिंगवुड की इस धारणा को स्पष्ट करते हुए दासेन (Dussen) ने लिखा है कि उनके अनुसार वास्तविक सिर्फ वर्तमान है लेकिन यह दो कल्पनाओं (Ideals) से बना है- भूत (वर्तमान के लिए आवश्यक) और भविष्य़ (संभावना). भूत और भविष्य दोनों वर्तमान के गर्भ में ही पैदा होते हैं (‘germinating in the present’). यानि, इतिहास को एक ‘आईडिया’ के रूप में ही देखने की बात कालिंगवुड करते हैं जो इतिहासकार के दिमाग में होता है.

समय को लेकर चलने वाले विमर्श में लेवी स्त्रॉस जैसे संरचनावादियों ने भी समय की अवधारणा को ध्यान में रखकर उन समाजों को समझने की कोशिश की जिन्हें लिखित स्रोतों से समझने का सुयोग नहीं है. इन समाजों में लिखित दस्तावेज नहीं थे, अत: इनके समाज के लिए इतिहास और साहित्य की सारी संभावनाएं समाप्त थी. इन समाजों को असभ्य समाज कहा गया. लेवी स्त्रॉस और अन्य नृतत्त्वविज्ञानियों ने माना कि सिर्फ वर्तमान ही वह दस्तावेज है जहां से भूत के बारे में धारणा बनाई जाती है. जब समय की एक खास धारणा दुनिया के सभी समाजों के लिए प्रयुक्त होती है तो दरअसल जो ‘स्पेस’ का अंतर होता है वह ‘समय’ के अंतर के रूप में देखा जाने लगता है; जिसे पिछडा समाज कहा जाता है वे भी इतिहास में आते हैं लेकिन समय के पिछडे पडाव में अवस्थित होकर. यानि, यह मान ही लिया गया है कि समय, साहित्य और इतिहास में हर समाज को अपने को रखना ही पडेगा. यह वह आग्रह है जिसने समय, साहित्य और समाज के सम्पर्क को समग्रता से देखने समझने में बडी बाधा खडी कर दी है. यह एक ‘हिस्टोरिसिस्ट’ विचारधारात्मक समझ है जिसे ऐतिहासिक ज्ञान के रूप में देखने की प्रवृत्ति का स्त्रास विरोध करते है. इस तरह के सोच के अनुसार इतिहासकारों को बहुलतावादी दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति का विकास करना चाहिए, धारावाहिकता और क्रमिकता की धारणा से अलग हटकर अनेकरूपता और वैविध्य को समझने की कोशिश करनी चाहिए. इसे इतिहासकार की तरह ही साहित्यकार को भी समझने की जरूरत है. आधुनिक विश्व में साहित्य की पूरी अवधारणा जिस समय को लेकर चलती है वह भी इसी क्रमिक समय को ही अपने पार्श्व में रखकर संयोजित होती है. साहित्य के प्राक आधुनिक स्वरूपों में समय को लेकर दूसरी तरह की धारणा थी इसमें संदेह नहीं, लेकिन उन समयों को साहित्य भूल चुका है. साहित्य का पाठक अब क्रमिक समय का आदी है. उसे ही समय समझता है.

लेवी स्ट्रॉस

मनुष्य समाज में रहता है और सामुदायिक जीवन जीता है. तमाम कोशिशों के बाद भी व्यक्तिवादी भाव ने सामुदायिकता की भावना को नष्ट करने में सफलता नहीं पायी. समाज, समुदाय, व्यक्ति, परिवेश, प्रकृति सबकुछ समय के जिस बोध को विभिन्न स्तरों पर बनाए रखते हैं उसके फलस्वरूप इतिहास के सर्वमान्य समय का स्वीकार सर्वत्र संभव नहीं. जब यह कहा जाता है कि एक ही समय में भारत जैसे देश में अठारहवीं से इक्कीसवीं सदी चल रही है तो कुछ गलत नहीं कहा जाता. आखिरकार, ये सदियां तो एक धारणा ही तो हैं.

यह बात अब लगभग सर्वमान्य हो गयी है कि संपूर्ण इतिहास लिखना संभव नहीं. वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठ इतिहास लेखन के ‘पॉजिटिविस्ट’ दबाव से इतिहास मुक्त हो चुका है और फर्नांद ब्रादेल जैसे ‘टोटल हिस्ट्री’ के हिमायती भी अंतत: स्वीकार करते हैं कि उनकी सबसे बडी समस्या यह रही कि वे यह समझने और समझाने में सफल नहीं हो सके कि समय भिन्न भिन्न गति से आगे बढता है. पाल रिकार (Paul Ricoer) ने ब्रादेल की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक द मेडिटरेनियन , जिसे संपूर्ण इतिहास लेखन का एक उदाहरण माना जा रहा था, अन्य सभी इतिहास पुस्तकों की तरह इतिहासकार के द्वारा समय सापेक्ष वृत्तांत (‘नरेटिव’) ही माना है. 2003 में एक बातचीत में किसी एक अन्य संदर्भ में वे प्रामाणिक इतिहास की संभावना के बारे में कहते हैं कि शायद भविष्य में कोई ऐसा समय आये जिसमें जो लोग किसी घटना से प्रभावित हुए हो वे सब मर जायें और कोई महान इतिहासकार पैदा हो और प्रभावित सभी लोगों का प्रामाणिक इतिहास लिख सके. पर यह समय आज का समय नहीं है. वे यह राय एक ऐसी घटना के सन्दर्भ में दे रहे थे जिसके बारे में असंख्य दस्तावेज़ उपलब्ध थे और जिसके प्रत्यक्षदर्शी जीवित थे.

समय और सत्य के बीच के सम्पर्क की एक अवधारणा का विकास यूरोप में नवजागरणकालीन समय में हुआ जिसका प्रसार कालांतर में विश्व के विभिन्न हिस्सों में हुआ. कुल मिलाकार समय को एक ऐसी काल्पनिक इकाई के रूप में देखा समझा जाने लगा जो हमारे पूरे अस्तित्व को अपने भीतर समेट लेता है. यानि, हम और हमारा पूरा अतीत सबको समय की वृहत्तर चौहद्दी में समेट लिया गया. विज्ञान की जो न्यूटनियन समझ है वह यही है कि भूत और भविष्य के बीच एक ‘सिमेट्री’ है. इस धारणा के हिसाब से सबकुछ एक सनातन वर्तमान (इटरनल प्रजेंट) में विद्यमान होता है. इतिहास इस इटरनल प्रजेंट के एक हिस्से भूत के समय का एक अकादमिक बखान बन कर हमारे सामने आता है. इतिहास समय में कैद है. वैसे तो मानव समाज का पूरा बोध ही समय में कैद है लेकिन इतिहास बोध तो समय की धारणा के साथ पूरी तरह से आबद्ध है ही. इतिहास का यह समय मूलत: एक क्रमिक प्रगतिशील समय है. आधुनिकता का पूरा विमर्श समय की इसी प्रगतिशील धारणा पर आधारित है. मानव समाज के क्रमिक विकास की धारणा पर आधारित समय बोध के सहारे ही इतिहास का ताना बाना तैयार हुआ और पश्चिमी ‘मेटा-फिजिक्स’ का विकास हुआ. यही विज्ञान का युग है, इतिहास का युग है, आधुनिकता का युग है, यही मध्यवर्ग का युग है, यही पूंजीवाद का युग है और यही साम्राज्यवाद और समाजवाद का भी युग है. विभिन्न विचारधाराओं में चाहे जितने भी मतभेद हों, लेकिन समय की इस धारणा को लेकर मतैक्य है. समय मानो पाताल से आसमान तक फैला हुआ एक स्पेस है जिसमें हम अतीत, वर्तमान और भविष्य को बांटकर अपने बोध को तैयार करते हैं. यह स्पेस अगर अनंत हो तो वह आधुनिक बोध की विश्लेषण क्षमता से बाहर हो जायेगा जिसकी गुंजाईश आधुनिक बोध की वैज्ञानिक समझ में नहीं है, अत: इस स्पेस को मापने, बांटने की कोशिश की गई. इस स्पेस को इस रूप में बांटा गया कि आप एच. जी. वेल्श के साथ चल कर ‘टाईम मशीन’ के सहारे सुदूर अतीत से लेकर भविष्य की शताब्दियों की यात्रा कर सकते है!

आधुनिकता की यह जययात्रा बहुत अच्छी तरह से चल रही थी कि अचानक इसे चुनौतियां मिलने लगी और इन्हीं के अस्त्रों से इस जययात्रा की पोल खुलने लगी. इस बात को छोड भी दिया जाए कि धार्मिक स्पेस में समय की इस इकहरी व्याख्या को कभी भी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया गया. भारत जैसे देशों की बात तो छोड ही दें, यूरोप में भी नहीं. लेकिन, प्रगतिशील और निश्चित समय और स्पेस का प्रभाव सारी दुनिया में अठारहवीं, उन्नसवीं और बीसवीं शताब्दियों में बडी तेजी से फैला. हर चीज को मापा, समझा और व्यक्त किया जा सकता है इस आग्रह के साथ ही विज्ञान आगे बढा, आधुनिकता बढी. अगर आज किसी चीज़ को मापा नहीं जा सकता, समझा नहीं जा सकता तो भविष्य में ऐसा किया जा सकेगा यह विश्वास बना रहा. जन्म से मृत्यु, प्रारंभ से अंत सब कुछ विज्ञान हमें समझाने लगा. समय को विज्ञान ने माप लिया, स्पेस को मापने का तंत्र विकसित होता रहा. इस पूरे सन्दर्भ में यह बात बहुत ध्यान में रखने की है कि भारत समेत दुनिया के बडे हिस्से में यह आधुनिक बोध औपनिवेशिक काल में आया और इस बोध के बनने में एक यूरोपीय आरोपण था. जब संस्कृति, इतिहास और समय का बोध बना उस समय इसके बनने के यूरोपीय बोध की भूमिका निर्णायक सिद्ध हुई. इन सबका यूरोपीय पाठ ही स्वीकृत पाठ बना. इस बोध के स्वीकार होते ही यह कहना और मानना शुरू हो गया कि भारत के महान अतीत में कालबोध था ही नहीं और वे इतिहास के महत्त्व से अनभिज्ञ थे. निश्चित तिथि 327 ई. पू. (सिकन्दर के आगमन का वर्ष) मानो भारत में इतिहास का आगमन था. इसके पूर्व का पूरा समय एक तरह से प्राक इतिहास बन गया. लिखित पाठ और समय (क्रमिक अर्थ में) का दबाव इतना अधिक था कि अब भी रोमिला थापर इस बात को लेकर लगातार लिख रही हैं कि प्राचीन भारतीयों में एक तरह का समय बोध था. इसके समर्थन में वे पुराणों के हवाले से बडे सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करती हैं.

हम अगर गौर करें तो देख सकते हैं कि विज्ञान और दर्शन के अलगाव पर ही समय के आधुनिक बोध का आधार तैयार हुआ. विज्ञान की धारणा के पीछे दो आधार हैं- न्यूटोनियन धारणा (जिसका उल्लेख पहले किया गया है) और कार्टेशियन द्वैध (डुआलिज्म). विज्ञान और दर्शन एक थे जिसे इस द्वैध ने अलगा दिया. इस द्वैध ने यह माना कि प्राकृतिक और सामाजिक जगत के बीच एक बुनियादी अंतर है. पदार्थ और मन दोनों की संस्कृति अलग है. एक की प्रकृति ऐसी है कि इसका एक निश्चित ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है. दूसरे तरह का ज्ञान कल्पना पर आधारित माना गया जिसका निश्चित ज्ञान या नियम नहीं हो सकता है. पहले तरह के निश्चित ज्ञान को विज्ञान और दूसरे प्रकार के कल्पना पर आधारित ज्ञान को दर्शन आदि में बांट दिया गया. इसके साथ ही अठारहवीं शताब्दी में ज्ञान का विषयीकरण (डिसिप्लिनराईजेशन) हुआ और विश्वविद्यालय केन्द्रिक अकादमिक ज्ञान का आगमन हुआ. उन्नसवीं शताब्दी में यह भेद और स्पष्ट हुआ. धीरे धीरे ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी , इटली और अमरीका के विश्वविद्यालयों में अर्थशास्त्र, समाज विज्ञान, राजनीति शास्त्र, और अंथ्रोपोलाजी के साथ इतिहास भी समाज विज्ञान के रूप में पढाया जाने लगा. साहित्य का अध्ययन कैसे विश्वविद्यालयों में एक विषय के रूप में आया उसके बारे में यह बतलाना ही काफी है कि ब्रिटेन के विश्वविद्यालय भी बीसवीं शताब्दी के शुरूआती दशकों से ही साहित्य को पढाने लगे. यह जो अकादमिक साहित्य था वह दरअसल साहित्य के आधुनिक बोध से ही संचालित था. इतिहास और साहित्य का अकादमिक ज्ञान शुरू से ही आधुनिक बोध की क्षत्रछाया में रहा.

दर्शन के क्षेत्र में ज्ञान के इस तरह के आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान पर दर्शन के क्षेत्र में लगातार संदेह व्यक्त किया जाता रहा. क्रीकगार्द, नीत्शे, हुर्सेल, हाईडेगर से लेकर फूको और देरिदा तक बहुत सारे दार्शनिकों ने इस तरह की व्याख्याओं की सीमाओं को अपने अपने तरीके से व्यक्त किया लेकिन फिर भी आधुनिक समय के दो विषय- साहित्य और इतिहास ने इन संकेतों को दर्ज तो किया लेकिन उसे आत्मसात करने की कोशिश नहीं की. ज़रूरी नहीं था कि उसे स्वीकार ही कर लिया जाता लेकिन उससे जुडकर, भिडकर अगर साहित्य और इतिहास आगे बढता तो आज जैसे संकट में ये दोनों विषय खडे दिखाई दे रहे हैं वैसे नहीं दिखाई देते. भारतीय सन्दर्भ की बात करें तो समाज इन दोनों विषयों के अकादमिक ज्ञान की अनदेखी करता हुआ ही दिखलाई पडता है. यह एक भयावह स्थिति है. हम धीरे धीरे इतिहास विहीन समूहों में बदलते जा रहे है. ऐसा लगता कि आज साहित्यिक मूल्यों और बोध की हमें शायद ज़रूरत नहीं है. अगर समय और बोध की बहुस्तरीयता का प्रसंग हम उठायें और समाज के भीतर पनपने वाले विविध स्वरों, आकाक्षाओं, स्मृतियों को हम पहचानने की कोशिश शुरू करें तो संभव है कि हम साहित्य और इतिहास की एक अलग और बेहतर समझ विकसित कर सकें. यह लाजिमी है कि इतिहास और साहित्य जैसा है वैसा नहीं रहेगा. यह एक ज़रूरी बात है कि हम सामाजिक स्मृतियों का एक नया संसार अपने इतिहास और साहित्य में आने दें जो हमारी समझ को और व्यापक बनाएगा. अभी जो स्थिति है उसमें हम कहें या न कहें जो इतिहास और साहित्य हम पढते हैं वह दरअसल आधुनिक इतिहास और आधुनिक साहित्य ही है जिसमें आधुनिक समय बोध ही त्रिकालों- भूत, भविष्य और वर्तमान, पर प्रक्षेपित होता रहता है. यह एक कैद आधुनिक समय बोध है जो आधुनिक वर्गों की हित चिंता और विवेक से आगे जाने के लिए तैयार नहीं होता.



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औपनिवेशिक काल के बाद जब विभिन्न जातियों, समूहों और भौगोलिक इकाईयों ने आगे बढ कर अपने इतिहास को ढूँढना शुरू किया तो उन्हें इतिहास में अपना चेहरा दिखलाई नहीं पडा. अब जो नया स्पेस रचा जा रहा था उसमें एक अलग समय, इतिहास और साहित्य की मांग उभर रही थी. ये मांगें भूगोल से, सामाजिक जीवन से उठकर आ रही थी, और इन मांगों को लोकतंत्रीय समाजार्थिक और राजनैतिक व्यवस्था में अधिक दिनों तक परम्परा और इतिहास या साहित्य की शास्त्रीय कसौटी पर रखकर दबाया जाना संभव नहीं था. 1950 के दशक में एक ओर नेतागण और दूसरी ओर साहित्यकार मनुष्य और समाज के बारे में “ झिलमिल बातें” कर रहे थे. इस सन्दर्भ की सटीक पडताल करते हुए एक आलोचक ने लिखा है : “ नेहरू सामंती ढांचे को तोडे बिना, एक आधुनिक पूंजीवादी ढांचे को खड़ा करना चाहते थे, अज्ञेय भारतीय दार्शनिक भाववाद से लडे बिना आधुनिकताबोध , बुद्धिवाद और व्यक्ति स्वातंत्र्य को स्थापित करना चाहते थे. घालमेल की यह कोशिश भारतीय राजनीति और नयी कविता आंदोलन – दोनों ही जगह एक अंतविर्रोधों को एक चकाचौंध द्वारा ढंक लेना चाहती थी.” साठ का दशक भारत में इन तमाम समकालीन सरोकारों को उठाने की कोशिश तो कर रहा था लेकिन उस समय राजनैतिक रूप से सक्रिय ऐसा कोई संगठित तबका नहीं था जो इन मांगों को लगातार बनाए रखे. फिर भी इसमें संदेह नहीं कि मुक्तिबोध, राजकमल चौधरी, धूमिल, नागार्जुन आदि कवि जिन तीखे सवालों को उठा रहे थे वे पिछले काल-खंड में कम ही उठाए गये थे. रेणु के उपन्यासों में मैला आँचल, परती परिकथा, सतीनाथ भादुडी का ढोराई चरित मानस आदि उपन्यास कुछ ऐसे उदाहरण दिए जाते हैं जो चालीस और पचास के दशक के दस्तावेज हैं, लेकिन गौरतलब है कि रेणु का ही जुलूस और दीर्घतपा कुछ नई बातों की ओर भी ले जा रहे थे. ये नये समय के समकालीन सवालों के दस्तावेज बने दिखलाई पडते हैं. राजकमल चौधरी की लम्बी कविता की बेचैनी को उस दशक का सबसे प्रतिनिधि स्वर माना जा सकता है. यह वह समय था जब एक नया पर्सपेक्टिव बना जिसे हम सुविधा के लिए साठ का पाराडाईम कह सकते हैं. सारी दुनिया में एक नये तरह का सोच अपने अपने हिसाब से बदल रहा था. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के वर्षों में वैचारिक मंथन का एक दौर शुरू हुआ. विश्व युद्ध का प्रभाव तो था ही साथ ही वामपंथी खेमों में भी 1956 से सोवियत रूस के राजनैतिक आचरण से बहुत असुविधा होने लगी थी. इसी दौर में बडी संख्या में वामपंथी बुद्धिजीवी कम्युनिस्ट पार्टी छोडकर वाम के नये विजन की ओर अग्रसर हुए. ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी से जुडे इतिहासकार पार्टी छोडकर हट गये और वाम के नये विजन की खोज करने लगे. पैरी एंडरसन और एडवर्ड थामसन ऐसे ही इतिहासकारों में थे. न्यू लेफ्ट रिव्यू और हिस्ट्री वर्कशाप इसके बाद अस्तित्व में आये.

भारत में 1950 के दशक का इतिहास उपेक्षित रहा है. यह जांच का विषय है कि कैसे साठ के दशक में भारतीय समाज में लोकतांत्रीकरण की एक नयी प्रक्रिया ने हमारे समाज में ‘नया समय’ तैयार किया. आदर्शों के नवीकरण के इस युग में समकालीन सवालों से नये सोच के साथ संवाद शुरू हुआ. साहित्य में नये स्वर आये जो समाज के विभिन्न सवालों से नये प्रकार के सोच के साथ संवाद कर रहे थे. राजनीति में यह वह दौर था जब जाति का प्रश्न जोर पकडने लगा, अंग्रेजी विरोध बढने लगा था और कांग्रेस के सामने अब ऐसी पार्टियां मुकाबले में खडी हो रही थी जो क्षेत्रीय, सामुदायिक स्पेस को लेकर लामबंदी कर रही थी. हर समय के पाराडाईम की तरह इस 1960 के दशक के समय में भी बहुत भिन्न भिन्न शक्तियां सक्रिय थीं लेकिन कुल मिलाकर ये सभी शक्तियां इस नये समय में नये सवाल खडे कर रही थीं. इस समय के राजनीतिज्ञ, साहित्यकार और इतिहासकार पिछले समय (जिसे मोटे तौर पर 1920 के दशक के पाराडाईम में देखा जा सकता है) से गुणात्मक रूप से भिन्न थे. ये अपने समय और समाज को भिन्न तरीके से देख रहे थे.

अस्सी और नव्बे के दशक में परिस्थितियां और बदलीं और समाज में उन शक्तियों का प्रभुत्व बढा जिसे 1960 के दशक के दौर में उभरने का मौका मिला था. मंझोली जातियों का जो राजनैतिक उभार साठ के दशक में होना शुरू हुआ वह अब राजनैतिक मुख्यधारा को नियंत्रित करने लगा. साथ ही दलितों का उभार होने लगा और एक तरह से नये सोच का विकास होने लगा. यह वही दौर है जब इतिहास लेखन में सबाआल्टर्न धारा ने सबाआल्टर्न आवाजों को इतिहास के अध्ययन के केन्द्र में ला खड़ा किया. हिन्दी साहित्य में इस अंतर को हम सबसे अधिक हंस पत्रिका और राजेन्द्र यादव के उदाहरण से समझ सकते हैं. हंस किसी भी तरह से एक श्रेष्ठ साहित्य पत्रिका नहीं थी और इसके संपादक राजेन्द्र यादव लगभग एक चुके हुए साहित्यकार थे. लेकिन चूंकि हंस ने नयी आवाजों को सहानुभूतिपूर्वक अपने यहां जगह दी और इसे एक खुला मंच बनाया यह हिन्दी जगत की सबसे महत्त्वपूर्ण पत्रिका बन गयी. राजेन्द्र यादव में चाहे जितनी भी कमियां हों लेकिन वे इन नयी आवाजों के एक नये नेता के रूप में उभरे. खुद राजेन्द्र यादव का जो रचनात्मक संसार है उसे देखने से साठ के दशक के पाराडाईम और बाद के समय (जिसे हम नव्बे के दशक का पाराडाईम कह सकते हैं) के बीच के अंतर को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं. यादव के कथा साहित्य में साठ का दशक बोलता है. लेकिन उनके संपादकीय में बाद के समय के सरोकार प्रभावी हैं.

इन दोनों समयों ने औपनिवेशिक युग के नवजागरण, परम्परा बोध और इतिहास बोध से थोडा अलग होकर अपने जीवन और भूगोल से अपने वर्तमान की चुनौतियों को स्वीकारा था. साठ के दशक की तुलना में बाद के समय – नव्बे का दशक इन दबावों से ज्यादा मुक्त समय और स्पेस को लेकर चल रहा था.

इस सन्दर्भ में विभिन्न जातियों के अपने इतिहासों के इतिहास का प्रसंग लाना भी उचित होगा. जिसे हम निम्न जाति का इतिहास कहते हैं वे 1920, 1960 और 1990 के दशकों में भिन्न भिन्न प्रकार से लिखे और माने गये थे. पहले निम्न जातियों ने अपने इतिहासों को इस तरह से लिखा कि उन जातियों को इतिहास के आधार पर श्रेष्ठ दिखलाया जा सके. बाद में इन इतिहासों की श्रेष्ठता के बोध को बचाते हुए समाज में अन्यायपूर्ण तरीके से पीछे किए जाने के कारण उनके आरक्षण पाने को सही करार दिया गया. बाद में इन इतिहासों को ही सही मानने की प्रवृत्ति सामने आयी. इन इतिहासों की खास बात यह है कि यहां भूत और वर्तमान मिले हुए थे. उपेक्षित समुदायों के पास अपने किस्म का आंतरिक इतिहास था उसे कोई भी इतिहास मानने को तैयार नहीं था. सिर्फ वही उसे मान रहे थे जो उनके अपने स्वजातीय लोग थे. जैसे जैसे इन उपेक्षित जातियों का राजनैतिक सामाजिक प्रभुत्व बढा इन इतिहासों को मानने वाले बढने लगे!

उत्तर औपनिवेशिक भारतीय समाज के इतिहास और साहित्य को समझने की एक दृष्टि यह हो सकती है कि इसे दो ‘शिफ्टों’- 1960 और 1990 के दशक के शिफ्टों को ध्यान में रखकर देखें. हाल में कुछ युवा और समकालीनता से जुडने का आग्रह दिखाने वाले आलोचकों ने इसे रेखांकित किया है. साहित्य का नया सौंदर्य शास्त्र नामक पुस्तक में शामिल आलोचकों के लेखों के आधार पर यह कहा जा सकता है. इस पुस्तक की भूमिका में संपादक ने इस शिफ्ट को मंडल कमीशन के बाद उभरे दलित साहित्य और क्षेत्रीय आन्दोलनों की राजनीतिक प्रक्रियाओं एवं सामाजिक संघर्षों को इसके लिए महत्त्वपूर्ण माना है.

बद्रीनारायण ने इस प्रसंग में समय की सामाजिक निर्मिति का एक प्रसंग तैयार किया है जिसमें वे फेबियन के हवाले से इस बात पर बल देते हैं कि हम एक ही समय में रहते हुए अनेक समय स्पेस में जीते हैं. यहां नोट करने की बात है – “ रहते हुए” और “ जीते” का प्रयोग. भाषा का यह प्रयोग हमें अनायास हाईडेगर के ‘बीईंग’ से जोडता है. इस महान दार्शनिक ने 1926 में लिखी अपनी पुस्तक में ‘अस्तित्ववाद’ की एक नई व्याख्या प्रस्तुत की थी. वे मानते थे कि हमारी ‘होना’ चलती चाक पर फेंक दिए गए मिट्टी के लोंदे के होने जैसा है जो जन्म और मृत्यु के दो बिन्दुओं के बीच ‘होता’ है. यह ‘होना’ ही ‘जीना’ है. अगर इस बोध को रचनात्मक स्तर पर लिया जाए तो आधुनिक बोध को ठेस लगेगी. प्राक आधुनिक रचनात्मकता इससे एक सम्पर्क भले ही बना ले. हाईडेगर ‘बीईंग’ और ‘ट्रुथ’ के बीच जिस तरह बात को रखते है उससे किनारा करके साहित्य और इतिहास निकल सकते हैं लेकिन साठ के दशक के उत्तर-संरचनावादियों (विशेष कर फूको और देरिदा) की अनदेखी करना साहित्य और इतिहास दोनों के लिए मुश्किल है. यह दिलचस्प है कि साठ का दशक कई मायनों में विभाजक रेखा के रूप में उभरता है. उत्तर साम्राज्यवादी यूरोपीय देश और उत्तर औपनिवेशिक भारत दोनों के लिये साठ का दशक युगांतकारी परिवर्तनों को रेखांकित करता है. यह वह दौर है जो फ्रांस में अल्थूसेर को (या फूको को) महान सार्त्र से और भारत में राममनोहर लोहिया को महान नेहरू से अधिक समकालीन बनाता है. शायद यह कहना सही होगा कि इस काल खंड के ‘एपिस्टेमा’ के लिए नये समकालीन नायकों की ज़रूरत थी. यह दिलचस्प है कि फूको इस दौर में सार्त्र को दार्शनिक मानने को भी तैयार नहीं थे ! फूको की एक और उक्ति तो और भी चौंकाने वाली है जिसमें वे मार्क्सवाद को उन्नसवीं शताब्दी के तालाब की मछली मानते हैं !!

इतिहास लेखन के क्षेत्र में भी 1960 के दशक में गुणात्मक परिवर्तन हुए जिसकी चर्चा बाद में की जाएगी.

हिन्दी में साहित्य इतिहास से मीलों आगे रहा है. हिन्दी समाज में इतिहास लेखन की जो परंपरा 1947 के पहले थी वह आधुनिक इतिहास लेखन के प्रभावशाली होने के साथ ही खत्म हो गई. आज हिन्दी में इतिहास लिखने वाले कुछ अपवादों को छोडकर अंग्रेज़ी आधुनिक इतिहास लेखन के भोदे अनुवाद भर हैं. बाद के दो दशकों में भारतीय समाज में जो बदलाव आये वे 1960 के दशक के कालखंड के विस्तार और 1990 के निर्णायक दशक की पूर्व पीठिका के रूप में देखे जा सकते हैं. 1990 में जो ‘पाराडाईम शिफ्ट’ हुआ उसने सारी दुनिया में एक नये बोध को जन्म दिया. इस नये बोध को बहुत सारे लोग विचारों की दुनिया में उत्तरआधुनिकता की विजय के रूप में देखते हैं. यह सही भी है और गलत भी. आधुनिकता वादी विमर्श को चुनौती देने वाले दार्शनिकों, चिंतकों को एक साथ रखकर उत्तरआधुनिक कहने के कारण सभी उत्तरसंरचनावादी चिंतकों को उत्तरआधुनिक कह दिया जाता है. अगर इस विभाजन को मान लिया जाए तो यह सही है कि 1990 के दशक ने उत्तरआधुनिकतावादियों को सही प्रमाणित कर दिया. लेकिन, यह गलत विभाजन है. आधुनिकतावादी सर्वग्रासी आख्यान की सीमाओं को चिह्नित करने वाले चिंतक विभिन्न दिशाओं से आए थे और उनमें से बहुत सारे चिंतक मार्क्सवादी थे. कम से कम फ्रेंकफुर्त स्कूल के दिनों से होर्खाईमर, अडोर्नो इत्यादि चिंतक आधुनिकता के दबावों की तार्किक प्रस्तुतियां पेश कर रहे थे और मार्कूज़ के वन डाईमेंशनल मैन तक के इस सफर को किसी भी तरह से संरचनावादी और उत्तर संरचनावादी आन्दोलनों से सीधे सीधे जोडना ठीक नहीं. खुद फूको और देरिदा अपने को उत्तर आधुनिक नहीं मानते. इस सन्दर्भ में भारतीय चिंतक आशीष नंदी का जिक्र किया जा सकता है. लोग उन्हें भी उत्तरआधुनिक मानते हैं जबकि वे खुद को एंटी माडर्निस्ट कहलाना पसंद करते हैं. सबाअल्टर्न इतिहास धारा से जुडे तमाम इतिहासकारों को उत्तर आधुनिक कहना सही नहीं है. इस प्रकार 1990 के दशक ने किसी उत्तर आधुनिक धारा की विजय को चिह्नित नहीं किया. हां, यह कहना उचित होगा कि विश्वराजनीति और विचारधारा के दो ध्रुवों में से एक ध्रुव – समाजवादी राज्य सोवियत के पतन ने इतिहास की प्रगति को धक्का पहुंचाया. बोद्रिला ने लिखा कि बीसवीं सदी के अंतिम दशक में ‘इतिहास अपने कक्ष (आर्बिट) से छिटक गया है’. वे इस दौर में एक और रोचक टिप्पणी करते हैं कि अब यथार्थ (रीयलिटी) की जगह आभासी यथार्थ (वर्चुअल रियलिटी) ने ले ली है और यही लोगों को निर्देशित करती है. यानि लोग सच की जगह माने हुए सच को महत्त्व देंगे. इस सच को मनवाने के जितने अस्त्र है (यथा- मीडिया) वे सब अब अर्थ के उत्पादन, उसके प्रसारण और उसके विलुप्तीकरण की प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं.

इस ओर कम ध्यान दिया जाता है कि नव्बे के दशक में जो ‘शिफ्ट’ हुआ उसके लिए 1980 के दशक के वे तमाम तरह के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिवर्तनों ने निर्णायक भूमिका अदा की जिसके फलस्वरूप एक नये किस्म का समाज पूरी दुनिया में बनने लगा. याद किया जाना चाहिए कि 1984 के बाद जब भारत जैसे देश के युवा प्रधानमंत्री ने नये भारत की तस्वीर रखी तो एक नये प्रकार का मंथन इस देश में भी शुरू हुआ. कम्प्यूटर का आना, रीबॉक के जूते और रे बेन के चश्मे को पहने भारत के प्रधानमंत्री का एक नये प्रकार के लोगों को देश के भविष्य की रूपरेखा तैयार करने के लिए आमंत्रण आदि कुछ ऐसी बातें लोगों को याद होंगी जिसने इस देश में एक नये प्रकार का समाजार्थिक परिवेश तैयार किया. यह वही दौर था जब इस देश में नवधनाढ्यों का जोर बढा और बडी संख्या में लोग शेयर बाजार की ओर बढे. यह एक नये समय के आने का दौर था जिसमें गांधी-नेहरू तो दूर इंदिरा गांधी भी पुरानी लगने लगी थीं. अब कईयों को लगने लगा कि असली आज़ादी तो अब आयी है जब हमारे समाज से लालफीताशाही और समाजवादी दुराग्रहों से मुक्ति मिली. अब तेजी से एक नया वर्ग उभरा जिसके बारे में पवन वर्मा और गुरूचरन दास जैसे लोगों ने बहुत विस्तार से लिखा है. इस सम्बन्ध में सबसे अच्छी तरह से विचार करने वालों में अशोक मित्र का नाम उल्लेखनीय है जो हर्षद मेहताओं के उभरने के युग में इस प्रक्रिया के अंतर्विरोधों को समझ रहे थे. यह तो मानना ही पडेगा कि 1984 से 1991 के बीच भारतीय सोच में एक गुणात्मक बदलाव आया. जयप्रकाश ने सही लक्षित किया है कि “ इस दौर में उदारीकरण और वैश्वीकरण की शक्तियां हमारे समाज में दाखिल हुईं और उन्होंने यथार्थ का अन्यथाकरण – उसमें तोडफोड करना शुरू कर दिया. अब प्रतिबद्धता की बनिस्पत समाज सजगता बड़ा काव्यमूल्य बन गई.” चूंकि इस दौर में ही चीन में तियनमन स्क्वायर की घटना, सोवियत रूस समेत पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों में काबिज समाजवादी शक्तियां धराशायी हुईं और ऐसा लगा कि सारी दुनिया का जो चेहरा था वह बदल गया है. अब सब ओर उदारनीतिकरण को ही एकमात्र विकल्प बनाया गया. आप चाहे या न चाहे वैश्वीकरण के इस नये दबाव के चलते अब आपको बाजार के सामने राज्य को छोटा नियामक मानना होगा और तेजी से विकास करना होगा ताकि लोग खुल कर जी सकें और स्वतंत्रता का उपभोग कर सकें . सारी दुनिया एक होने वाली है, सीमाएं टूटनी चाहिए और अब बस सबकी प्रगति तय है. ऐसे नये समय के सबसे बडे प्रतीक के रूप में हम बर्लिन के दीवार को गिरते हुए देखने लगे.

जाहिर है, इन व्यापक परिवर्तनों का प्रभाव सोच पर भी हुआ. गौर से देखा जाए तो ये परिवर्तन अब उतने अप्रत्याशित नहीं लगते जितने तब लगे थे. जिस समय से रीगन और मार्ग्रेट थैचर के बीच एक समझौता हुआ और पूंजीवादी अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों ने बाजार के सामने राज्य के छोटे होने को ‘टिना’ (देयर इज नो अल्टरनेटिव) के सिद्धांत के तहद स्वीकृति दे दी समाजवादी शक्तियों के लिए नये समय में विश्वबाजार से जुडने की बाध्यता बढने लगी. देखा जाए तो पेरेस्त्रोईका के आने के बाद समाजवादी विश्वव्यवस्था को तिलांजलि दे दी गयी. समाजवादी व्यवस्था के अपने अंतर्रविरोधों की अनदेखी करना उचित नहीं लेकिन सोवियत रूस आदि के पतन के कारण वैश्विक संकट में भी अंतर्निहित हैं इसमें संदेह नहीं.

यह आकस्मिक नहीं है कि फुकोयामा की ‘इतिहास के अंत’, को व्यापक स्वीकृति इसी दौर में मिली और वैश्विक पूंजी के वर्चस्व के इस दौर में एक नया समय उभरा जिसे कुछ लोग उत्तर आधुनिक समय कहते हैं, कुछ लोग यथार्थ से आभासी सत्य की ओर बढने का युग कहते है और कोई इसे विखंडन का युग मानते हैं –ऐसा युग जिसमें ‘टेक्स्ट’ और ‘कांटेक्स्ट’ के बीच का सम्पर्क बदल गया, सत्य (यथार्थ) और सत्यों (आभासी यथार्थ) के बीच एक अनिर्णीत लड़ाई का दौर शुरू हो गया. यह एक नया युग था जब अपनी अपनी बात को लेकर चीख पुकार करने वालों का दौर अचानक शुरू हो गया. हिन्दी में एक प्रचलित कहावत है- ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ . यह मानों नये युग को ‘सम अप’ कर रहा हो. यानि जिसके पास शक्ति उसके पास सत्य!

भारत में यह दौर बहुत ही दिलचस्प और निर्णायक सिद्ध हो रहा है. चीज़ें इस तरह से उलट पुलट गयी हैं कि वर्तमान तो नये समय की लाठी नियंत्रित कर ही रही है यह उन तमाम धारणाओं को भी उलट कर देख रही है. इस नाजुक दौर में, भारतीय भाषाओं में लिखने वाले रचनाकारों ने निश्चित ही नये भाव बोध की रचना की है. बांग्ला की लेखिका महाश्वेता देवी को पहले श्रेष्ठ रचनाकार नहीं माना गया किंतु इस बदले हुए समय में जिस तीव्रता से उनके पात्र अपने समस्त आवेग से उपस्थित होते हैं उसे अनदेखा किया नहीं जा सकता . सामाजिक –सांस्कृतिक संक्रमण की प्रक्रिया की पीडा को ‘शनीचरी’ कहानी में जिस तरह व्यक्त किया गया है उसकी ओर हिन्दी के आलोचकों का ध्यान गया है. नामदेव ढसाल की कविता ‘ डा. आम्बेडकर 1986’ में इन पंक्तियों को देखें- “ ... मैं जानता हूं हो गया है मेरे युग का सवेरा/...अब हमारे दरवाजों के सामने झूलते हैं सफेद हाथी/...नये इतिहास की रचना होगी/... पानी की एक एक दीवार टूट रही है/मुझे होने दे तेरे सभी बच्चों में से सबसे सुंदर /... इंतजार कर रहा हूं तुम्हारे आदेश का / अब इस/ ज्वालामुखी की बेल को कहां लगाऊं मैं?’

इन परिवर्तनों के बीच यह स्वाभाविक है कि इतिहास लेखन का स्वरूप भी प्रभावित हुआ है. इतिहास लेखन की दो धाराएं रही हैं- प्रथम धारा के अंतर्गत जो इतिहास लेखन होता है उसमें इतिहास तथ्यों की प्रामाणिक उपस्थिति को महत्त्व देकर ऐतिहासिक रूप से मान्य सत्य का वृत्तांत तैयार करता है. दूसरी धारा के अंतर्गत इतिहास लेखन को एक प्रकार के लेखन के रूप में देखा जाता है जिसमें एक प्रकार का सच निकल कर आता है जिसे इतिहासकार प्रतिष्ठित करना चाहता है. जिस तरह का समय 1990 में उपस्थित हुआ उसमें दूसरी तरह की धारा ज़्यादा लोकप्रिय सिद्ध हो रही है. लोग इतिहास की जगह इतिहासों में दिलचस्पी दिखा रहे हैं और एक नये प्रकार के समय बोध के साथ इतिहास लेखन हो रहा है. यह सब कुछ इतना ज़्यादा हो रहा है कि आलोचक कहने लगे हैं कि इतिहास पर अब अकादमिक इतिहासलेखकों का एकाधिकार समाप्त हो रहा है और अब अधिकतर इतिहास ऐसे लोग लिख रहे हैं जो इतिहासकार के रूप में विश्वविद्यालयों में दीक्षित नहीं हैं.

साहित्य में भी इसी तरह के संकेत मिल रहे हैं. साहित्य के क्षेत्र में शास्त्रीयता के दबाव के साथ जो कुछ लिखा समझा जा रहा है वह कुल मिलाकर “गिरोहों का आंतरिक संवाद” ही है. आलोचना तो छोड ही दें रचनात्मक विधाओं में भी ताजगी का अभाव है. यह संकट सिर्फ हिन्दी का नहीं है. जब तक यह समझा नहीं जायेगा कि दुनिया आधुनिकता के आग्रहों से बहुत आगे निकल चुकी है लोग लकीर के फकीर ही बने रहेंगे. आप किसी भाषा के विद्वानों का एक सर्वेक्षण करें जिसमें कुछ लोग 60-65 के हों और कुछ लोग 40-45 के. आप देखेंगे कि वरिष्ठ लोग एक ही तरह की बातें, एक ही तरह के विचार और एक ही तरह के लोगों की पैरवी कर रहे होंगे और उन्हें सर्वत्र घोर पतन दिखलाई दे रहा होगा. दूसरी और 40-45 के समूह के लोग ज़्यादा समकालीन सवालों को उठा रहे होंगे और उनकी बातें एक सी नहीं होंगी. परम्परा और शास्त्रीयता के डंडे से इन नये लोगों को पीटने वाले लोगों में अद्भुत किस्म का एका होता है. और कुछ नहीं तो पात्रता का प्रश्न उठाकर, नये लोगों को हडबडी में बताकर यह कहने का अधिकार तो ये वरिष्ठ ले ही लेते हैं कि आजकल लोग तपस्या करने के लिए तैयार नहीं हैं, उन्हें तो बस जैसे हो फौरन ही फल मिलना चाहिए. दस बरस जाने दीजिये, ये जो कम शास्त्रीय समकालीन लोग हैं वे ज़्यादा सही लग रहे होंगे. यह अकारण नहीं है. दरअसल, 1990 के दशक ने विचारधारा के दबाव को कम किया, समाज में नये स्वरों को वैधता प्रदान की और शास्त्रीयता और परम्परा के दबावों को भी कम किया. यह एक तरह से नये युग की शुरूआत थी. यह हमारे विचार का एक मुद्दा होना चाहिए कि आज जो लोग हिन्दी में सबसे समकालीन सरोकारों को साहित्य में स्वर प्रदान कर रहे हैं उन्हें “ठीक से” हिन्दी लिखने नहीं आती, वे व्याकरणगत अशुद्धियां करते हैं.

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अब इतिहास के सन्दर्भ में 1960 और 1990 के दशक को दूसरे तरह से देखने की कोशिश की जाए. यह पहले भी कहा गया है कि 1960 के दशक में इतिहास लेखन के क्षेत्र में एक गुणात्मक परिवर्तन हुआ था. यह परिवर्तन दो स्तरों पर देखा जा सकता है. संरचनावादी और उत्तर संरचनावादी प्रभाव के कारण जो सोच में एक गुणात्मक परिवर्तन हुआ वह तो बहुत विश्लेषित है, लेकिन भारत जैसे देश में उच्च शिक्षा का जो विस्तार हुआ उसकी ओर कम ध्यान दिया जाता है. अचानक कालेज विश्वविद्यालयों की बाढ सी आ गयी और इन विश्वविद्यालयों में साहित्य और इतिहास को पढने-पढाने वाले लोग इतने बढ गये कि उच्च शिक्षा का मान कम हो गया. न तो उतने उच्च शिक्षित और दक्ष अध्यापकों की फौज तैयार थी और न ही सुचारू रूप से यह कोशिश की गई कि अध्ययन –अध्यापन का पूर्ववर्ती मान बना रहे. उच्च शिक्षा के नये केन्द्र बनने लगे, राजनैतिक हस्तक्षेप बढने लगा और एक तरह से उच्च शिक्षा का लोकतांत्रीकरण हुआ. भारत में इस तरह के लोकतांत्रीकरण की सराहना भी हुई और इससे हुए परिवर्त्तनों को रेखांकित भी किया गया. पार्थसारथी गुप्ता के शब्दों में 1966 में लिखे इस मूल्यांकन को देखें:

“ भारत के आज के अकादमिक स्तर और विद्वता के मान को देखने पर हमें यह मानना पडता है कि संख्या के विस्तार के एवज में और गैर अकादमिक दबावों के कारण गुणवत्ता की बलि दी गयी है.”

इस तरह के विकास सिर्फ भारत जैसे देशों में ही नहीं हुए बल्कि दुनिया के तमाम देशों में उच्च शिक्षा के केन्द्रों की संख्या में बहुत बढोत्तरी हुई. यह वह दौर था जब पुराने दौर के महान लोगों को लगता था कि अब ‘मीडियाक्रेसी’ का युग आ गया है. जिन लोगों ने 1920 के दौर में अपनी ट्रेनिंग पायी थी उनके लिए 1960 का दशक मीडियाकरों द्वारा नियंत्रित था. यह कितना अजीब लगता है कि हाइडेगर चिंतन के क्षेत्र में 1960 के दशक में सर्वत्र मीडियाक्रेसी के वर्चस्व से बहुत व्यथित होते थे! यह बात और है कि 1960 के दशक के बौद्धिक हस्तक्षेप को आज बहुत मान दिया जाता है जिसने सोच की दुनिया में दो टर्न- दार्शनिक और लिंग्विस्टिक को जन्म दिया. पूरा आधुनिक बोध, इतिहास, विज्ञान, साहित्य सबकुछ संदेह के घेरे में आ गया और पुनर्विवेचन की मांग करने लगा. यह युगांतकारी दशक था. कुछ मायनों में यह पूर्व के युग का रचनात्मक विस्तार था; आखिर फूको, देरिदा इत्यादि लोग हाइडेगर की धारणाओं को ही और पुष्ट कर रहे थे. फिर भी, 1960 के इस युग से पूर्ववर्ती युग के नायकों को बहुत सारी शिकायतें रही. कोई जरूरी नहीं है कि संरचनावादी, उत्तरसंरचनावादी ‘उत्तरआधुनिक’ विमर्शों के विचारों को स्वीकार कर लिया जाए लेकिन इन वैचारिक प्रयासों में ऐसा बहुत कुछ था जो नये समय के सवालों से जुडने के लिए साहित्यकारों और इतिहासकारों के लिए उपयोगी हो सकता था. मार्क्सवादी आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने 1992 में इस विषय पर अपने एक साक्षात्कार में बडी गहराई से विचार किया था. दुर्भाग्य से इस तरह से इस विषय पर सोचा नहीं गया. हिन्दी में इस विषय पर जो स्थिति है उसके बारे में राजेश्वर सक्सेना का कथन है: “ हिन्दी के वर्तमान परिदृश्य पर उत्तर आधुनिक की छाया मंडरा रही है और हिन्दी जगत इसे नहीं समझ पा रहा है.”

भारत में इतिहास लेखन में 1960 का दशक तो और भी महत्त्वपूर्ण है. इसी दौर में सही मायने में आधुनिक भारतीय इतिहासलेखन का एक मुकम्मल ढांचा तैयार हुआ. रामशरण शर्मा, इरफान हबीब, बिपनचन्द्र जैसे लोग नये महान इतिहासकारों के रूप में जाने जाने लगे. अगर रोमिला थापर, सुमित सरकार आदि को जोड लिया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अगले दो तीन दशकों तक जो अकादमिक इतिहास लेखन की मुख्य धारा रही उसके निर्माताओं ने 1960 के दशक में दीक्षा ली थी.

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इतिहास लेखन के क्षेत्र में कुछ नये सवाल उभरे. चिंतकों को लगने लगा कि संस्कृति का प्रश्न भी इतिहासलेखन का एक बड़ा सरोकार होना चाहिए. फ्रांसीसी इतिहास लेखन की सबसे शक्तिशाली धारा- एनाल्स स्कूल ने भी 1960 के आसपास अपने सरोकारों को परिवर्त्तित किया. जिसे एनाल्स स्कूल की तृतीय धारा कहा जाता है उसे मेंटलिटी इतिहासकारों की धारा भी कहा जाता है. अब फर्नांड ब्रादेल और लेबरास के भौगोलिक आर्थिक इतिहास की जगह पर दूबी, लादुरी, फिलिपे एरिस इत्यादि का प्रभाव ज़्यादा होता दिखलाई पडता है जो छपाई, पुस्तक, बचपन, मृत्यु, विवाह जैसे विषयों का इतिहास लिख रहे थे. इन इतिहासों में पारंपरिक ऐतिहासिक स्रोतों के स्थान पर लोक स्मृति, लोक-विश्वास, मौखिक इतिहास के तमाम तरह के नये स्रोतों को लाया गया था. यह एक नया युग था. फिल्मों में भी इस दौर की फिल्में आधुनिकता के दबावों से मुक्त होने की छटपटाहट दिखला रही थी. इंगमार बर्गमैन की उस फिल्म के उस दृश्य को याद करें जिसमें फिल्म का नायक मृत्यु के देवता के साथ समुंदर के किनारे शतरंज खेल रहा है. सत्तर के दशक में कार्लास चिपोला की अमर फिल्म ग़ाडफादर ने तो मानो आदर्शों का नवीकरण ही कर दिया. इस फिल्म को विशेषज्ञों ने तीस के दशक की क्लासिक कृति ग़ान विद द विंड का सत्तर के दशक का ज़वाब माना. यह वही दौर था जब अडार्नो जैसे लोग संस्कृति उद्योग पर विचार कर रहे थे और ज्ञान के उत्पादन की प्रक्रिया को समझने की कोशिश कर रहे थे. यह नये समय और नये मूल्यों के निर्माण का काल था.

इन परिवर्तनों से लगभग अनभिज्ञ रहकर भी एक किस्म का ज्ञान महत्त्वपूर्ण बना रहा जो परम्परा और प्रगतिशीलता का एक ऐसा पाठ तैयार कर रहा था जो तत्त्वत: ‘इक्लेक्टिक’ था लेकिन वह बाहर से वामपंथी था. हिन्दी के सन्दर्भ में यह परंपरा और प्रगतिशीलता का एक मिला जुला पाठ था जो हर शिफ्ट को नकारने की कोशिश करता था. साठ के दशक में रामविलास शर्मा की अस्तित्ववाद पर लिखी एक पुस्तक इसी तरह की पुस्तक थी जो 1960 के दशक में 1920 और 1930 के दशकों के बोध को लेकर चल रही थी. उन तमाम पाठकों के लिए जो शिफ्ट के लिए तैयार नहीं थे यह एक असाधारण पुस्तक है और जो साठ की समकालीनता के साथ थे उनके लिए यह पुरानी पड चुकी ( डेटेड) किताब थी. दुर्भाग्य से 1990 के शिफ्ट को रेखांकित करने का वैचारिक प्रयास हिन्दी में देखने में नहीं आया है. कुल मिलाकर 1990 के शिफ्ट को हिन्दी में दर्ज करने की कोशिश नहीं होती है. कुछ आलोचक इस शिफ्ट को अमरीकी साम्राज्यवादी षडयंत्र मानते हैं और थियरी के आने को, फ्रेगमेंट्स की चर्चा को सोवियत रूस के पतन के साथ जोड कर देखते हैं. उनके लिए यह शिफ्ट एक प्रायोजित विमर्श है जो अमरीकी पैसे से चल रहा है. सबआल्टर्न इतिहास चर्चा से लेकर एडवर्ड सईद तक सब के सब अमरीकी सहयोग से नकली विमर्श तैयार कर रहे हैं ! इस तरह की सोच डेटेड है और 1990 के दशक को समझने के लिए नाकाफी है.

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यदि यह मान लिया जाए कि 1990 के समय के नये प्रश्नों के सन्दर्भ में नये साहित्य और नये इतिहास की जरूरत है तो दो प्रश्न उठते हैं- प्रथम, ये नये प्रश्न किस प्रकार के हैं और द्वितीय, नये प्रश्नों से जुडने के लिए किस तरह की बौद्धिक प्रविधि की जरूरत है. यह प्रस्तावित करना गलत नहीं होगा कि 1990 के दशक में समय गुणात्मक रूप से बदला है. कुछ लोग इसे समाजवादी स्वप्न के अवसान के बाद सारी दुनिया में छाए वैचारिक बेचैनी में वित्तीय पूंजीवाद और सैन्यवाद के विजय की शताब्दी मानते हैं जिसने सारी दुनिया में अमरीकी पूंजी का वर्चस्व कायम करना शुरू किया. इस दृष्टि से अब दुनिया के तमाम समय और सभ्यताओं को सर्वशक्तिमान अमरीकी समय और सभ्यता के साथ कदमताल करना था वरना उसका हश्र वही होगा जो अफगानिस्तान, इराक आदि का हुआ और ईरान का हो सकता है. अब इस ग्लोबल समय में सबकुछ को बदलना है, पुराने आदर्शों को टूटना है, समाज के ढांचे को बदलना है और नये ग्लोबल समाज की नींव रखी जानी है. पूरी दुनिया में पिछले दशकों में शहरीकरण तेज हुआ है, कृषि की तुलना में उद्योगों पर ज्यादा बल दिया जाने लगा है और बडी मात्रा में लोगों के अपने पूर्ववर्ती स्थानों से नयी जगहों पर जाना हुआ है. बेनेडिक्ट एंडरसन कहते हैं कि कुछ समय पहले तक किसी देश के नागरिक के लिए उसका पहचान पत्र राशन कार्ड हुआ करता था, अब पासपोर्ट हो गया है. इस बदले हुए समय में अपनी मिट्टी, अपने गांव, अपने शहर, अपनी भाषा जैसे प्रश्नों और आदर्शों को चलने वाले समय को ग्लोबल समय से ताल मेल बैठाना होगा. यह वह समझ है जिसने हमारे देश में एक अद्भुत दृश्य हमें दिखलाया जो हमारे इस संकट के समय में हुए परिवर्तनों को समझने में सहायक हो सकता है. पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने जिसने ‘पिछले समय’ में किसानों के लिए संघर्ष का एक इतिहास रचा था अपने यहां एक पूंजीपति के कार बनाने वाली कम्पनी की खातिर किसानों पर बर्बरता से गोली चलवायी. पूरे देश में इस घटना ने खलबली मचाई और वामपंथियों के बीच एक बडी बहस को जन्म दिया. सुमित सरकार जैसे इतिहासकार और महाश्वेता देवी जैसे साहित्यकारों ने जिन शब्दों में वामपंथी सरकार की आलोचना की वह सबको पता है. आखिरकार इस समय में वामपंथी क्या करें? इस संकट से निकलने का एक राजनैतिक समाधान यह ढूढा गया कि मायावती के बहुजन समाज के साथ गठबंधन कर लिया जाए. एक वामपंथी और एक दलितवादी पार्टी के बीच के इस गठबंधन को कैसे देखा जाए? यह नया समय है.

दूसरी ओर यह स्पष्ट हो चला है कि पूंजीवाद अब खुद महासंकट में है. इस संकट से निकलने की कोई सूरत न पश्चिम में दिखलाई दे रही है और न ही एशियाई देशों- चीन या भारत में दिखलाई पड रही है. स्वराज पाल जैसे लोग जोर जोर से कह रहे हैं कि बाजारवाद (पूंजीवाद) बुरी तरह से विफल हो गया है, सत्यम जैसी कम्पनियां जिसने नये भारतीय स्वप्न को आकार दिया था अब बतला रही हैं कि वह तो घाटे में चल रही थी. प्राईवेट एयरलाइंस के चिकने चुपडे चेहरों वाले ट्रेड यूनियनिज्म के शिकार हो रहे है.... और तो और खुद अमरीका में मंदी है और इस मंदी का कारण है वह नकली ग्रोथ जो सारी दुनिया से इंश्योरेंस कम्पनियों में जमा पैसे से अमरीका के लैंड इस्टेट में लगाकर दिखलाया जा रहा था. अब यह नकली मांग (जिसे आज की भाषा में लिक्विडिटी कहा जाता है) आंखों में धूल झोंकने में विफल है और कम्पनिया दिवालिया हो रही हैं. इस आलेख में इस मंदी पर विस्तार से विचार करने की गुंजाईश नहीं है इसकी ओर सिर्फ संकेत भर किया जा सकता है.

अब इस नये समय में समय की मांग यह है कि मनुष्यता की मूलभूत समस्याओं की ओर ध्यान दिया जाए. मनुष्य अपनी बुनियादी भौतिक जरूरतों के बाद समाज में सम्मान के साथ, प्रेम पूर्वक रहना चाहता है. उसकी कुछ जैविक जरूरतें भी होती हैं जिसकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता. पिछला समय यह देने में असफल होता है तो सामाजिक तनाव बढेंगे ही और समाज में नया समय आयेगा ही. हर युग में एक ही समय उपस्थित होता है- वर्तमान. भूत को जानने की जरूरत वर्तमान को व्यवस्थित करने के लिए ही होती है. वर्तमान के सामाजिक थ्योरिस्ट वर्तमान के इस रूप को याद रखने की सलाह देते हैं. इस अर्थ में वर्तमान के समीकरण इतिहास के समीकरण हो जाते हैं. इस बात को स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण के साथ अपनी बात समाप्त करूंगा. 1857 के विद्रोह के 150 साल के इतिहास में भारतीय समाज में दो तीन विचारधाराओं का जोर रहा. पहले औपनिवेशिक विचारधारा के वर्चस्व के दौर में यह बलवा था जिसमें बलवाईयों ने बहुत खूनखराबा किया. फिर राष्ट्रवादी विचारधारा के वर्चस्व के युग में यह राष्ट्रीय विद्रोह बना जिसमें महान विद्रोहियों ने जनआकाक्षाओं को व्यक्त करते हुए अपनी आहुति दी. अब दलितवादी विचारधारा का जोर बढा है तो इस विद्रोह की जो व्याख्या हो रही है उसमें पुराने महानायकों की जगह दलित महानायकों की प्रतिष्ठा हो रही है!

साहित्य और इतिहास लेखन इन समय के सवालों से अपने को अलग नहीं कर सकता. बदलते समय के जटिल सवालों को रचनात्मक साहित्य पुराने समय के साहित्यिक औजारों से कैसे व्यक्त कर सकता है? जो संकेत अभी मिल रहे हैं वे यही बता रहे हैं कि इस नये समय में नयी इतिहास दृष्टि की जरूरत है जो हमारे साहित्य और इतिहास लेखन को समृद्ध और उपयोगी बनाएगी. [ आलोचना, अक्टूबर-दिसम्बर 2009]