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Friday, 1 January 2010

समय, इतिहास और साहित्य

समय, इतिहास और साहित्य


उत्तर औपनिवेशिक भारतीय सन्दर्भ में कुछ नोट्स

हितेन्द्र पटेल



[कम से कम 1960 के दशक के बाद से पाठ और इसके अर्थ के बीच के सम्पर्कों पर हुई लगातार बहसों में यह बात दोहराई जाती रही है कि हमारे पाठ और हमारे द्वारा पाये गये अर्थ के बीच का रिश्ता बहुत ही जटिल है. पाठक या श्रोता के रूप में हम उपभोक्ता हैं या उत्पादक हैं यह बहुत ही बुनियादी प्रश्न बन गया है जिसमें जाए बिना साहित्य या इतिहास के बदलते स्वरूप पर विचार करना संभव नहीं. बातचीत की सुविधा के लिए हम कह सकते हैं कि संरचनावाद और उत्तरसंरचनावाद के विमर्शों के बाद हम बहुलतावादी दृष्टि की तरफ बढे हैं. अब इतिहास या समय इतिहासों और समयों के रूप में देखा जा सकता है. प्रस्तुत आलेख में साहित्य और इतिहास के सन्दर्भ में समय की धारणा के कुछ पहलुओं पर विचार किया गया है.]

‘समय’ बदलता है या सबकुछ ‘समय’ में बदलता है? समय संबंधी दीर्घकालीन चिंतन के इस केन्द्रीय प्रश्न पर कोई एक आम सहमति नहीं है. इतिहास के दार्शनिक आर. जी. कॉलिंगवुड ने 1925 में अपने भाषणों में इस सम्बन्ध पर विचार करते हुए समय को एक ‘मेटाफर’ बताया है जिसे कुछ लोग एक ही गति से लगातार चलने वाले प्रवाह (स्ट्रीम) के रूप में लेते हैं और कुछ इसे एक सरल रेखा के रूप में. समय की गति को समझने के लिए एक अन्य समय की कल्पना जरूरी है जिसके सापेक्ष समय के प्रवाह को समझा जा सके. अगर अन्य समय को स्थिर माना जाए तो ही समय के बदलाव को रेखांकित करना संभव है. दूसरी ओर, जो लोग समय को एक सरल रेखा के रूप में देखते हैं उनके लिए जो जाना हुआ है (वर्तमान) उसके पहले का समय भूत और जिसे जाना जाना है उसे भविष्य के रूप में देखा गया है. चूंकि, हम सिर्फ वर्तमान को जानते हैं या जान सकते हैं भूत और भविष्य की सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं हर कल्पना का वास्तविक आधार वर्तमान ही होकर रह जाता है. कालिंगवुड की इस धारणा को स्पष्ट करते हुए दासेन (Dussen) ने लिखा है कि उनके अनुसार वास्तविक सिर्फ वर्तमान है लेकिन यह दो कल्पनाओं (Ideals) से बना है- भूत (वर्तमान के लिए आवश्यक) और भविष्य़ (संभावना). भूत और भविष्य दोनों वर्तमान के गर्भ में ही पैदा होते हैं (‘germinating in the present’). यानि, इतिहास को एक ‘आईडिया’ के रूप में ही देखने की बात कालिंगवुड करते हैं जो इतिहासकार के दिमाग में होता है.

समय को लेकर चलने वाले विमर्श में लेवी स्त्रॉस जैसे संरचनावादियों ने भी समय की अवधारणा को ध्यान में रखकर उन समाजों को समझने की कोशिश की जिन्हें लिखित स्रोतों से समझने का सुयोग नहीं है. इन समाजों में लिखित दस्तावेज नहीं थे, अत: इनके समाज के लिए इतिहास और साहित्य की सारी संभावनाएं समाप्त थी. इन समाजों को असभ्य समाज कहा गया. लेवी स्त्रॉस और अन्य नृतत्त्वविज्ञानियों ने माना कि सिर्फ वर्तमान ही वह दस्तावेज है जहां से भूत के बारे में धारणा बनाई जाती है. जब समय की एक खास धारणा दुनिया के सभी समाजों के लिए प्रयुक्त होती है तो दरअसल जो ‘स्पेस’ का अंतर होता है वह ‘समय’ के अंतर के रूप में देखा जाने लगता है; जिसे पिछडा समाज कहा जाता है वे भी इतिहास में आते हैं लेकिन समय के पिछडे पडाव में अवस्थित होकर. यानि, यह मान ही लिया गया है कि समय, साहित्य और इतिहास में हर समाज को अपने को रखना ही पडेगा. यह वह आग्रह है जिसने समय, साहित्य और समाज के सम्पर्क को समग्रता से देखने समझने में बडी बाधा खडी कर दी है. यह एक ‘हिस्टोरिसिस्ट’ विचारधारात्मक समझ है जिसे ऐतिहासिक ज्ञान के रूप में देखने की प्रवृत्ति का स्त्रास विरोध करते है. इस तरह के सोच के अनुसार इतिहासकारों को बहुलतावादी दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति का विकास करना चाहिए, धारावाहिकता और क्रमिकता की धारणा से अलग हटकर अनेकरूपता और वैविध्य को समझने की कोशिश करनी चाहिए. इसे इतिहासकार की तरह ही साहित्यकार को भी समझने की जरूरत है. आधुनिक विश्व में साहित्य की पूरी अवधारणा जिस समय को लेकर चलती है वह भी इसी क्रमिक समय को ही अपने पार्श्व में रखकर संयोजित होती है. साहित्य के प्राक आधुनिक स्वरूपों में समय को लेकर दूसरी तरह की धारणा थी इसमें संदेह नहीं, लेकिन उन समयों को साहित्य भूल चुका है. साहित्य का पाठक अब क्रमिक समय का आदी है. उसे ही समय समझता है.

लेवी स्ट्रॉस

मनुष्य समाज में रहता है और सामुदायिक जीवन जीता है. तमाम कोशिशों के बाद भी व्यक्तिवादी भाव ने सामुदायिकता की भावना को नष्ट करने में सफलता नहीं पायी. समाज, समुदाय, व्यक्ति, परिवेश, प्रकृति सबकुछ समय के जिस बोध को विभिन्न स्तरों पर बनाए रखते हैं उसके फलस्वरूप इतिहास के सर्वमान्य समय का स्वीकार सर्वत्र संभव नहीं. जब यह कहा जाता है कि एक ही समय में भारत जैसे देश में अठारहवीं से इक्कीसवीं सदी चल रही है तो कुछ गलत नहीं कहा जाता. आखिरकार, ये सदियां तो एक धारणा ही तो हैं.

यह बात अब लगभग सर्वमान्य हो गयी है कि संपूर्ण इतिहास लिखना संभव नहीं. वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठ इतिहास लेखन के ‘पॉजिटिविस्ट’ दबाव से इतिहास मुक्त हो चुका है और फर्नांद ब्रादेल जैसे ‘टोटल हिस्ट्री’ के हिमायती भी अंतत: स्वीकार करते हैं कि उनकी सबसे बडी समस्या यह रही कि वे यह समझने और समझाने में सफल नहीं हो सके कि समय भिन्न भिन्न गति से आगे बढता है. पाल रिकार (Paul Ricoer) ने ब्रादेल की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक द मेडिटरेनियन , जिसे संपूर्ण इतिहास लेखन का एक उदाहरण माना जा रहा था, अन्य सभी इतिहास पुस्तकों की तरह इतिहासकार के द्वारा समय सापेक्ष वृत्तांत (‘नरेटिव’) ही माना है. 2003 में एक बातचीत में किसी एक अन्य संदर्भ में वे प्रामाणिक इतिहास की संभावना के बारे में कहते हैं कि शायद भविष्य में कोई ऐसा समय आये जिसमें जो लोग किसी घटना से प्रभावित हुए हो वे सब मर जायें और कोई महान इतिहासकार पैदा हो और प्रभावित सभी लोगों का प्रामाणिक इतिहास लिख सके. पर यह समय आज का समय नहीं है. वे यह राय एक ऐसी घटना के सन्दर्भ में दे रहे थे जिसके बारे में असंख्य दस्तावेज़ उपलब्ध थे और जिसके प्रत्यक्षदर्शी जीवित थे.

समय और सत्य के बीच के सम्पर्क की एक अवधारणा का विकास यूरोप में नवजागरणकालीन समय में हुआ जिसका प्रसार कालांतर में विश्व के विभिन्न हिस्सों में हुआ. कुल मिलाकार समय को एक ऐसी काल्पनिक इकाई के रूप में देखा समझा जाने लगा जो हमारे पूरे अस्तित्व को अपने भीतर समेट लेता है. यानि, हम और हमारा पूरा अतीत सबको समय की वृहत्तर चौहद्दी में समेट लिया गया. विज्ञान की जो न्यूटनियन समझ है वह यही है कि भूत और भविष्य के बीच एक ‘सिमेट्री’ है. इस धारणा के हिसाब से सबकुछ एक सनातन वर्तमान (इटरनल प्रजेंट) में विद्यमान होता है. इतिहास इस इटरनल प्रजेंट के एक हिस्से भूत के समय का एक अकादमिक बखान बन कर हमारे सामने आता है. इतिहास समय में कैद है. वैसे तो मानव समाज का पूरा बोध ही समय में कैद है लेकिन इतिहास बोध तो समय की धारणा के साथ पूरी तरह से आबद्ध है ही. इतिहास का यह समय मूलत: एक क्रमिक प्रगतिशील समय है. आधुनिकता का पूरा विमर्श समय की इसी प्रगतिशील धारणा पर आधारित है. मानव समाज के क्रमिक विकास की धारणा पर आधारित समय बोध के सहारे ही इतिहास का ताना बाना तैयार हुआ और पश्चिमी ‘मेटा-फिजिक्स’ का विकास हुआ. यही विज्ञान का युग है, इतिहास का युग है, आधुनिकता का युग है, यही मध्यवर्ग का युग है, यही पूंजीवाद का युग है और यही साम्राज्यवाद और समाजवाद का भी युग है. विभिन्न विचारधाराओं में चाहे जितने भी मतभेद हों, लेकिन समय की इस धारणा को लेकर मतैक्य है. समय मानो पाताल से आसमान तक फैला हुआ एक स्पेस है जिसमें हम अतीत, वर्तमान और भविष्य को बांटकर अपने बोध को तैयार करते हैं. यह स्पेस अगर अनंत हो तो वह आधुनिक बोध की विश्लेषण क्षमता से बाहर हो जायेगा जिसकी गुंजाईश आधुनिक बोध की वैज्ञानिक समझ में नहीं है, अत: इस स्पेस को मापने, बांटने की कोशिश की गई. इस स्पेस को इस रूप में बांटा गया कि आप एच. जी. वेल्श के साथ चल कर ‘टाईम मशीन’ के सहारे सुदूर अतीत से लेकर भविष्य की शताब्दियों की यात्रा कर सकते है!

आधुनिकता की यह जययात्रा बहुत अच्छी तरह से चल रही थी कि अचानक इसे चुनौतियां मिलने लगी और इन्हीं के अस्त्रों से इस जययात्रा की पोल खुलने लगी. इस बात को छोड भी दिया जाए कि धार्मिक स्पेस में समय की इस इकहरी व्याख्या को कभी भी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया गया. भारत जैसे देशों की बात तो छोड ही दें, यूरोप में भी नहीं. लेकिन, प्रगतिशील और निश्चित समय और स्पेस का प्रभाव सारी दुनिया में अठारहवीं, उन्नसवीं और बीसवीं शताब्दियों में बडी तेजी से फैला. हर चीज को मापा, समझा और व्यक्त किया जा सकता है इस आग्रह के साथ ही विज्ञान आगे बढा, आधुनिकता बढी. अगर आज किसी चीज़ को मापा नहीं जा सकता, समझा नहीं जा सकता तो भविष्य में ऐसा किया जा सकेगा यह विश्वास बना रहा. जन्म से मृत्यु, प्रारंभ से अंत सब कुछ विज्ञान हमें समझाने लगा. समय को विज्ञान ने माप लिया, स्पेस को मापने का तंत्र विकसित होता रहा. इस पूरे सन्दर्भ में यह बात बहुत ध्यान में रखने की है कि भारत समेत दुनिया के बडे हिस्से में यह आधुनिक बोध औपनिवेशिक काल में आया और इस बोध के बनने में एक यूरोपीय आरोपण था. जब संस्कृति, इतिहास और समय का बोध बना उस समय इसके बनने के यूरोपीय बोध की भूमिका निर्णायक सिद्ध हुई. इन सबका यूरोपीय पाठ ही स्वीकृत पाठ बना. इस बोध के स्वीकार होते ही यह कहना और मानना शुरू हो गया कि भारत के महान अतीत में कालबोध था ही नहीं और वे इतिहास के महत्त्व से अनभिज्ञ थे. निश्चित तिथि 327 ई. पू. (सिकन्दर के आगमन का वर्ष) मानो भारत में इतिहास का आगमन था. इसके पूर्व का पूरा समय एक तरह से प्राक इतिहास बन गया. लिखित पाठ और समय (क्रमिक अर्थ में) का दबाव इतना अधिक था कि अब भी रोमिला थापर इस बात को लेकर लगातार लिख रही हैं कि प्राचीन भारतीयों में एक तरह का समय बोध था. इसके समर्थन में वे पुराणों के हवाले से बडे सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करती हैं.

हम अगर गौर करें तो देख सकते हैं कि विज्ञान और दर्शन के अलगाव पर ही समय के आधुनिक बोध का आधार तैयार हुआ. विज्ञान की धारणा के पीछे दो आधार हैं- न्यूटोनियन धारणा (जिसका उल्लेख पहले किया गया है) और कार्टेशियन द्वैध (डुआलिज्म). विज्ञान और दर्शन एक थे जिसे इस द्वैध ने अलगा दिया. इस द्वैध ने यह माना कि प्राकृतिक और सामाजिक जगत के बीच एक बुनियादी अंतर है. पदार्थ और मन दोनों की संस्कृति अलग है. एक की प्रकृति ऐसी है कि इसका एक निश्चित ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है. दूसरे तरह का ज्ञान कल्पना पर आधारित माना गया जिसका निश्चित ज्ञान या नियम नहीं हो सकता है. पहले तरह के निश्चित ज्ञान को विज्ञान और दूसरे प्रकार के कल्पना पर आधारित ज्ञान को दर्शन आदि में बांट दिया गया. इसके साथ ही अठारहवीं शताब्दी में ज्ञान का विषयीकरण (डिसिप्लिनराईजेशन) हुआ और विश्वविद्यालय केन्द्रिक अकादमिक ज्ञान का आगमन हुआ. उन्नसवीं शताब्दी में यह भेद और स्पष्ट हुआ. धीरे धीरे ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी , इटली और अमरीका के विश्वविद्यालयों में अर्थशास्त्र, समाज विज्ञान, राजनीति शास्त्र, और अंथ्रोपोलाजी के साथ इतिहास भी समाज विज्ञान के रूप में पढाया जाने लगा. साहित्य का अध्ययन कैसे विश्वविद्यालयों में एक विषय के रूप में आया उसके बारे में यह बतलाना ही काफी है कि ब्रिटेन के विश्वविद्यालय भी बीसवीं शताब्दी के शुरूआती दशकों से ही साहित्य को पढाने लगे. यह जो अकादमिक साहित्य था वह दरअसल साहित्य के आधुनिक बोध से ही संचालित था. इतिहास और साहित्य का अकादमिक ज्ञान शुरू से ही आधुनिक बोध की क्षत्रछाया में रहा.

दर्शन के क्षेत्र में ज्ञान के इस तरह के आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान पर दर्शन के क्षेत्र में लगातार संदेह व्यक्त किया जाता रहा. क्रीकगार्द, नीत्शे, हुर्सेल, हाईडेगर से लेकर फूको और देरिदा तक बहुत सारे दार्शनिकों ने इस तरह की व्याख्याओं की सीमाओं को अपने अपने तरीके से व्यक्त किया लेकिन फिर भी आधुनिक समय के दो विषय- साहित्य और इतिहास ने इन संकेतों को दर्ज तो किया लेकिन उसे आत्मसात करने की कोशिश नहीं की. ज़रूरी नहीं था कि उसे स्वीकार ही कर लिया जाता लेकिन उससे जुडकर, भिडकर अगर साहित्य और इतिहास आगे बढता तो आज जैसे संकट में ये दोनों विषय खडे दिखाई दे रहे हैं वैसे नहीं दिखाई देते. भारतीय सन्दर्भ की बात करें तो समाज इन दोनों विषयों के अकादमिक ज्ञान की अनदेखी करता हुआ ही दिखलाई पडता है. यह एक भयावह स्थिति है. हम धीरे धीरे इतिहास विहीन समूहों में बदलते जा रहे है. ऐसा लगता कि आज साहित्यिक मूल्यों और बोध की हमें शायद ज़रूरत नहीं है. अगर समय और बोध की बहुस्तरीयता का प्रसंग हम उठायें और समाज के भीतर पनपने वाले विविध स्वरों, आकाक्षाओं, स्मृतियों को हम पहचानने की कोशिश शुरू करें तो संभव है कि हम साहित्य और इतिहास की एक अलग और बेहतर समझ विकसित कर सकें. यह लाजिमी है कि इतिहास और साहित्य जैसा है वैसा नहीं रहेगा. यह एक ज़रूरी बात है कि हम सामाजिक स्मृतियों का एक नया संसार अपने इतिहास और साहित्य में आने दें जो हमारी समझ को और व्यापक बनाएगा. अभी जो स्थिति है उसमें हम कहें या न कहें जो इतिहास और साहित्य हम पढते हैं वह दरअसल आधुनिक इतिहास और आधुनिक साहित्य ही है जिसमें आधुनिक समय बोध ही त्रिकालों- भूत, भविष्य और वर्तमान, पर प्रक्षेपित होता रहता है. यह एक कैद आधुनिक समय बोध है जो आधुनिक वर्गों की हित चिंता और विवेक से आगे जाने के लिए तैयार नहीं होता.



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औपनिवेशिक काल के बाद जब विभिन्न जातियों, समूहों और भौगोलिक इकाईयों ने आगे बढ कर अपने इतिहास को ढूँढना शुरू किया तो उन्हें इतिहास में अपना चेहरा दिखलाई नहीं पडा. अब जो नया स्पेस रचा जा रहा था उसमें एक अलग समय, इतिहास और साहित्य की मांग उभर रही थी. ये मांगें भूगोल से, सामाजिक जीवन से उठकर आ रही थी, और इन मांगों को लोकतंत्रीय समाजार्थिक और राजनैतिक व्यवस्था में अधिक दिनों तक परम्परा और इतिहास या साहित्य की शास्त्रीय कसौटी पर रखकर दबाया जाना संभव नहीं था. 1950 के दशक में एक ओर नेतागण और दूसरी ओर साहित्यकार मनुष्य और समाज के बारे में “ झिलमिल बातें” कर रहे थे. इस सन्दर्भ की सटीक पडताल करते हुए एक आलोचक ने लिखा है : “ नेहरू सामंती ढांचे को तोडे बिना, एक आधुनिक पूंजीवादी ढांचे को खड़ा करना चाहते थे, अज्ञेय भारतीय दार्शनिक भाववाद से लडे बिना आधुनिकताबोध , बुद्धिवाद और व्यक्ति स्वातंत्र्य को स्थापित करना चाहते थे. घालमेल की यह कोशिश भारतीय राजनीति और नयी कविता आंदोलन – दोनों ही जगह एक अंतविर्रोधों को एक चकाचौंध द्वारा ढंक लेना चाहती थी.” साठ का दशक भारत में इन तमाम समकालीन सरोकारों को उठाने की कोशिश तो कर रहा था लेकिन उस समय राजनैतिक रूप से सक्रिय ऐसा कोई संगठित तबका नहीं था जो इन मांगों को लगातार बनाए रखे. फिर भी इसमें संदेह नहीं कि मुक्तिबोध, राजकमल चौधरी, धूमिल, नागार्जुन आदि कवि जिन तीखे सवालों को उठा रहे थे वे पिछले काल-खंड में कम ही उठाए गये थे. रेणु के उपन्यासों में मैला आँचल, परती परिकथा, सतीनाथ भादुडी का ढोराई चरित मानस आदि उपन्यास कुछ ऐसे उदाहरण दिए जाते हैं जो चालीस और पचास के दशक के दस्तावेज हैं, लेकिन गौरतलब है कि रेणु का ही जुलूस और दीर्घतपा कुछ नई बातों की ओर भी ले जा रहे थे. ये नये समय के समकालीन सवालों के दस्तावेज बने दिखलाई पडते हैं. राजकमल चौधरी की लम्बी कविता की बेचैनी को उस दशक का सबसे प्रतिनिधि स्वर माना जा सकता है. यह वह समय था जब एक नया पर्सपेक्टिव बना जिसे हम सुविधा के लिए साठ का पाराडाईम कह सकते हैं. सारी दुनिया में एक नये तरह का सोच अपने अपने हिसाब से बदल रहा था. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के वर्षों में वैचारिक मंथन का एक दौर शुरू हुआ. विश्व युद्ध का प्रभाव तो था ही साथ ही वामपंथी खेमों में भी 1956 से सोवियत रूस के राजनैतिक आचरण से बहुत असुविधा होने लगी थी. इसी दौर में बडी संख्या में वामपंथी बुद्धिजीवी कम्युनिस्ट पार्टी छोडकर वाम के नये विजन की ओर अग्रसर हुए. ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी से जुडे इतिहासकार पार्टी छोडकर हट गये और वाम के नये विजन की खोज करने लगे. पैरी एंडरसन और एडवर्ड थामसन ऐसे ही इतिहासकारों में थे. न्यू लेफ्ट रिव्यू और हिस्ट्री वर्कशाप इसके बाद अस्तित्व में आये.

भारत में 1950 के दशक का इतिहास उपेक्षित रहा है. यह जांच का विषय है कि कैसे साठ के दशक में भारतीय समाज में लोकतांत्रीकरण की एक नयी प्रक्रिया ने हमारे समाज में ‘नया समय’ तैयार किया. आदर्शों के नवीकरण के इस युग में समकालीन सवालों से नये सोच के साथ संवाद शुरू हुआ. साहित्य में नये स्वर आये जो समाज के विभिन्न सवालों से नये प्रकार के सोच के साथ संवाद कर रहे थे. राजनीति में यह वह दौर था जब जाति का प्रश्न जोर पकडने लगा, अंग्रेजी विरोध बढने लगा था और कांग्रेस के सामने अब ऐसी पार्टियां मुकाबले में खडी हो रही थी जो क्षेत्रीय, सामुदायिक स्पेस को लेकर लामबंदी कर रही थी. हर समय के पाराडाईम की तरह इस 1960 के दशक के समय में भी बहुत भिन्न भिन्न शक्तियां सक्रिय थीं लेकिन कुल मिलाकर ये सभी शक्तियां इस नये समय में नये सवाल खडे कर रही थीं. इस समय के राजनीतिज्ञ, साहित्यकार और इतिहासकार पिछले समय (जिसे मोटे तौर पर 1920 के दशक के पाराडाईम में देखा जा सकता है) से गुणात्मक रूप से भिन्न थे. ये अपने समय और समाज को भिन्न तरीके से देख रहे थे.

अस्सी और नव्बे के दशक में परिस्थितियां और बदलीं और समाज में उन शक्तियों का प्रभुत्व बढा जिसे 1960 के दशक के दौर में उभरने का मौका मिला था. मंझोली जातियों का जो राजनैतिक उभार साठ के दशक में होना शुरू हुआ वह अब राजनैतिक मुख्यधारा को नियंत्रित करने लगा. साथ ही दलितों का उभार होने लगा और एक तरह से नये सोच का विकास होने लगा. यह वही दौर है जब इतिहास लेखन में सबाआल्टर्न धारा ने सबाआल्टर्न आवाजों को इतिहास के अध्ययन के केन्द्र में ला खड़ा किया. हिन्दी साहित्य में इस अंतर को हम सबसे अधिक हंस पत्रिका और राजेन्द्र यादव के उदाहरण से समझ सकते हैं. हंस किसी भी तरह से एक श्रेष्ठ साहित्य पत्रिका नहीं थी और इसके संपादक राजेन्द्र यादव लगभग एक चुके हुए साहित्यकार थे. लेकिन चूंकि हंस ने नयी आवाजों को सहानुभूतिपूर्वक अपने यहां जगह दी और इसे एक खुला मंच बनाया यह हिन्दी जगत की सबसे महत्त्वपूर्ण पत्रिका बन गयी. राजेन्द्र यादव में चाहे जितनी भी कमियां हों लेकिन वे इन नयी आवाजों के एक नये नेता के रूप में उभरे. खुद राजेन्द्र यादव का जो रचनात्मक संसार है उसे देखने से साठ के दशक के पाराडाईम और बाद के समय (जिसे हम नव्बे के दशक का पाराडाईम कह सकते हैं) के बीच के अंतर को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं. यादव के कथा साहित्य में साठ का दशक बोलता है. लेकिन उनके संपादकीय में बाद के समय के सरोकार प्रभावी हैं.

इन दोनों समयों ने औपनिवेशिक युग के नवजागरण, परम्परा बोध और इतिहास बोध से थोडा अलग होकर अपने जीवन और भूगोल से अपने वर्तमान की चुनौतियों को स्वीकारा था. साठ के दशक की तुलना में बाद के समय – नव्बे का दशक इन दबावों से ज्यादा मुक्त समय और स्पेस को लेकर चल रहा था.

इस सन्दर्भ में विभिन्न जातियों के अपने इतिहासों के इतिहास का प्रसंग लाना भी उचित होगा. जिसे हम निम्न जाति का इतिहास कहते हैं वे 1920, 1960 और 1990 के दशकों में भिन्न भिन्न प्रकार से लिखे और माने गये थे. पहले निम्न जातियों ने अपने इतिहासों को इस तरह से लिखा कि उन जातियों को इतिहास के आधार पर श्रेष्ठ दिखलाया जा सके. बाद में इन इतिहासों की श्रेष्ठता के बोध को बचाते हुए समाज में अन्यायपूर्ण तरीके से पीछे किए जाने के कारण उनके आरक्षण पाने को सही करार दिया गया. बाद में इन इतिहासों को ही सही मानने की प्रवृत्ति सामने आयी. इन इतिहासों की खास बात यह है कि यहां भूत और वर्तमान मिले हुए थे. उपेक्षित समुदायों के पास अपने किस्म का आंतरिक इतिहास था उसे कोई भी इतिहास मानने को तैयार नहीं था. सिर्फ वही उसे मान रहे थे जो उनके अपने स्वजातीय लोग थे. जैसे जैसे इन उपेक्षित जातियों का राजनैतिक सामाजिक प्रभुत्व बढा इन इतिहासों को मानने वाले बढने लगे!

उत्तर औपनिवेशिक भारतीय समाज के इतिहास और साहित्य को समझने की एक दृष्टि यह हो सकती है कि इसे दो ‘शिफ्टों’- 1960 और 1990 के दशक के शिफ्टों को ध्यान में रखकर देखें. हाल में कुछ युवा और समकालीनता से जुडने का आग्रह दिखाने वाले आलोचकों ने इसे रेखांकित किया है. साहित्य का नया सौंदर्य शास्त्र नामक पुस्तक में शामिल आलोचकों के लेखों के आधार पर यह कहा जा सकता है. इस पुस्तक की भूमिका में संपादक ने इस शिफ्ट को मंडल कमीशन के बाद उभरे दलित साहित्य और क्षेत्रीय आन्दोलनों की राजनीतिक प्रक्रियाओं एवं सामाजिक संघर्षों को इसके लिए महत्त्वपूर्ण माना है.

बद्रीनारायण ने इस प्रसंग में समय की सामाजिक निर्मिति का एक प्रसंग तैयार किया है जिसमें वे फेबियन के हवाले से इस बात पर बल देते हैं कि हम एक ही समय में रहते हुए अनेक समय स्पेस में जीते हैं. यहां नोट करने की बात है – “ रहते हुए” और “ जीते” का प्रयोग. भाषा का यह प्रयोग हमें अनायास हाईडेगर के ‘बीईंग’ से जोडता है. इस महान दार्शनिक ने 1926 में लिखी अपनी पुस्तक में ‘अस्तित्ववाद’ की एक नई व्याख्या प्रस्तुत की थी. वे मानते थे कि हमारी ‘होना’ चलती चाक पर फेंक दिए गए मिट्टी के लोंदे के होने जैसा है जो जन्म और मृत्यु के दो बिन्दुओं के बीच ‘होता’ है. यह ‘होना’ ही ‘जीना’ है. अगर इस बोध को रचनात्मक स्तर पर लिया जाए तो आधुनिक बोध को ठेस लगेगी. प्राक आधुनिक रचनात्मकता इससे एक सम्पर्क भले ही बना ले. हाईडेगर ‘बीईंग’ और ‘ट्रुथ’ के बीच जिस तरह बात को रखते है उससे किनारा करके साहित्य और इतिहास निकल सकते हैं लेकिन साठ के दशक के उत्तर-संरचनावादियों (विशेष कर फूको और देरिदा) की अनदेखी करना साहित्य और इतिहास दोनों के लिए मुश्किल है. यह दिलचस्प है कि साठ का दशक कई मायनों में विभाजक रेखा के रूप में उभरता है. उत्तर साम्राज्यवादी यूरोपीय देश और उत्तर औपनिवेशिक भारत दोनों के लिये साठ का दशक युगांतकारी परिवर्तनों को रेखांकित करता है. यह वह दौर है जो फ्रांस में अल्थूसेर को (या फूको को) महान सार्त्र से और भारत में राममनोहर लोहिया को महान नेहरू से अधिक समकालीन बनाता है. शायद यह कहना सही होगा कि इस काल खंड के ‘एपिस्टेमा’ के लिए नये समकालीन नायकों की ज़रूरत थी. यह दिलचस्प है कि फूको इस दौर में सार्त्र को दार्शनिक मानने को भी तैयार नहीं थे ! फूको की एक और उक्ति तो और भी चौंकाने वाली है जिसमें वे मार्क्सवाद को उन्नसवीं शताब्दी के तालाब की मछली मानते हैं !!

इतिहास लेखन के क्षेत्र में भी 1960 के दशक में गुणात्मक परिवर्तन हुए जिसकी चर्चा बाद में की जाएगी.

हिन्दी में साहित्य इतिहास से मीलों आगे रहा है. हिन्दी समाज में इतिहास लेखन की जो परंपरा 1947 के पहले थी वह आधुनिक इतिहास लेखन के प्रभावशाली होने के साथ ही खत्म हो गई. आज हिन्दी में इतिहास लिखने वाले कुछ अपवादों को छोडकर अंग्रेज़ी आधुनिक इतिहास लेखन के भोदे अनुवाद भर हैं. बाद के दो दशकों में भारतीय समाज में जो बदलाव आये वे 1960 के दशक के कालखंड के विस्तार और 1990 के निर्णायक दशक की पूर्व पीठिका के रूप में देखे जा सकते हैं. 1990 में जो ‘पाराडाईम शिफ्ट’ हुआ उसने सारी दुनिया में एक नये बोध को जन्म दिया. इस नये बोध को बहुत सारे लोग विचारों की दुनिया में उत्तरआधुनिकता की विजय के रूप में देखते हैं. यह सही भी है और गलत भी. आधुनिकता वादी विमर्श को चुनौती देने वाले दार्शनिकों, चिंतकों को एक साथ रखकर उत्तरआधुनिक कहने के कारण सभी उत्तरसंरचनावादी चिंतकों को उत्तरआधुनिक कह दिया जाता है. अगर इस विभाजन को मान लिया जाए तो यह सही है कि 1990 के दशक ने उत्तरआधुनिकतावादियों को सही प्रमाणित कर दिया. लेकिन, यह गलत विभाजन है. आधुनिकतावादी सर्वग्रासी आख्यान की सीमाओं को चिह्नित करने वाले चिंतक विभिन्न दिशाओं से आए थे और उनमें से बहुत सारे चिंतक मार्क्सवादी थे. कम से कम फ्रेंकफुर्त स्कूल के दिनों से होर्खाईमर, अडोर्नो इत्यादि चिंतक आधुनिकता के दबावों की तार्किक प्रस्तुतियां पेश कर रहे थे और मार्कूज़ के वन डाईमेंशनल मैन तक के इस सफर को किसी भी तरह से संरचनावादी और उत्तर संरचनावादी आन्दोलनों से सीधे सीधे जोडना ठीक नहीं. खुद फूको और देरिदा अपने को उत्तर आधुनिक नहीं मानते. इस सन्दर्भ में भारतीय चिंतक आशीष नंदी का जिक्र किया जा सकता है. लोग उन्हें भी उत्तरआधुनिक मानते हैं जबकि वे खुद को एंटी माडर्निस्ट कहलाना पसंद करते हैं. सबाअल्टर्न इतिहास धारा से जुडे तमाम इतिहासकारों को उत्तर आधुनिक कहना सही नहीं है. इस प्रकार 1990 के दशक ने किसी उत्तर आधुनिक धारा की विजय को चिह्नित नहीं किया. हां, यह कहना उचित होगा कि विश्वराजनीति और विचारधारा के दो ध्रुवों में से एक ध्रुव – समाजवादी राज्य सोवियत के पतन ने इतिहास की प्रगति को धक्का पहुंचाया. बोद्रिला ने लिखा कि बीसवीं सदी के अंतिम दशक में ‘इतिहास अपने कक्ष (आर्बिट) से छिटक गया है’. वे इस दौर में एक और रोचक टिप्पणी करते हैं कि अब यथार्थ (रीयलिटी) की जगह आभासी यथार्थ (वर्चुअल रियलिटी) ने ले ली है और यही लोगों को निर्देशित करती है. यानि लोग सच की जगह माने हुए सच को महत्त्व देंगे. इस सच को मनवाने के जितने अस्त्र है (यथा- मीडिया) वे सब अब अर्थ के उत्पादन, उसके प्रसारण और उसके विलुप्तीकरण की प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं.

इस ओर कम ध्यान दिया जाता है कि नव्बे के दशक में जो ‘शिफ्ट’ हुआ उसके लिए 1980 के दशक के वे तमाम तरह के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिवर्तनों ने निर्णायक भूमिका अदा की जिसके फलस्वरूप एक नये किस्म का समाज पूरी दुनिया में बनने लगा. याद किया जाना चाहिए कि 1984 के बाद जब भारत जैसे देश के युवा प्रधानमंत्री ने नये भारत की तस्वीर रखी तो एक नये प्रकार का मंथन इस देश में भी शुरू हुआ. कम्प्यूटर का आना, रीबॉक के जूते और रे बेन के चश्मे को पहने भारत के प्रधानमंत्री का एक नये प्रकार के लोगों को देश के भविष्य की रूपरेखा तैयार करने के लिए आमंत्रण आदि कुछ ऐसी बातें लोगों को याद होंगी जिसने इस देश में एक नये प्रकार का समाजार्थिक परिवेश तैयार किया. यह वही दौर था जब इस देश में नवधनाढ्यों का जोर बढा और बडी संख्या में लोग शेयर बाजार की ओर बढे. यह एक नये समय के आने का दौर था जिसमें गांधी-नेहरू तो दूर इंदिरा गांधी भी पुरानी लगने लगी थीं. अब कईयों को लगने लगा कि असली आज़ादी तो अब आयी है जब हमारे समाज से लालफीताशाही और समाजवादी दुराग्रहों से मुक्ति मिली. अब तेजी से एक नया वर्ग उभरा जिसके बारे में पवन वर्मा और गुरूचरन दास जैसे लोगों ने बहुत विस्तार से लिखा है. इस सम्बन्ध में सबसे अच्छी तरह से विचार करने वालों में अशोक मित्र का नाम उल्लेखनीय है जो हर्षद मेहताओं के उभरने के युग में इस प्रक्रिया के अंतर्विरोधों को समझ रहे थे. यह तो मानना ही पडेगा कि 1984 से 1991 के बीच भारतीय सोच में एक गुणात्मक बदलाव आया. जयप्रकाश ने सही लक्षित किया है कि “ इस दौर में उदारीकरण और वैश्वीकरण की शक्तियां हमारे समाज में दाखिल हुईं और उन्होंने यथार्थ का अन्यथाकरण – उसमें तोडफोड करना शुरू कर दिया. अब प्रतिबद्धता की बनिस्पत समाज सजगता बड़ा काव्यमूल्य बन गई.” चूंकि इस दौर में ही चीन में तियनमन स्क्वायर की घटना, सोवियत रूस समेत पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों में काबिज समाजवादी शक्तियां धराशायी हुईं और ऐसा लगा कि सारी दुनिया का जो चेहरा था वह बदल गया है. अब सब ओर उदारनीतिकरण को ही एकमात्र विकल्प बनाया गया. आप चाहे या न चाहे वैश्वीकरण के इस नये दबाव के चलते अब आपको बाजार के सामने राज्य को छोटा नियामक मानना होगा और तेजी से विकास करना होगा ताकि लोग खुल कर जी सकें और स्वतंत्रता का उपभोग कर सकें . सारी दुनिया एक होने वाली है, सीमाएं टूटनी चाहिए और अब बस सबकी प्रगति तय है. ऐसे नये समय के सबसे बडे प्रतीक के रूप में हम बर्लिन के दीवार को गिरते हुए देखने लगे.

जाहिर है, इन व्यापक परिवर्तनों का प्रभाव सोच पर भी हुआ. गौर से देखा जाए तो ये परिवर्तन अब उतने अप्रत्याशित नहीं लगते जितने तब लगे थे. जिस समय से रीगन और मार्ग्रेट थैचर के बीच एक समझौता हुआ और पूंजीवादी अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों ने बाजार के सामने राज्य के छोटे होने को ‘टिना’ (देयर इज नो अल्टरनेटिव) के सिद्धांत के तहद स्वीकृति दे दी समाजवादी शक्तियों के लिए नये समय में विश्वबाजार से जुडने की बाध्यता बढने लगी. देखा जाए तो पेरेस्त्रोईका के आने के बाद समाजवादी विश्वव्यवस्था को तिलांजलि दे दी गयी. समाजवादी व्यवस्था के अपने अंतर्रविरोधों की अनदेखी करना उचित नहीं लेकिन सोवियत रूस आदि के पतन के कारण वैश्विक संकट में भी अंतर्निहित हैं इसमें संदेह नहीं.

यह आकस्मिक नहीं है कि फुकोयामा की ‘इतिहास के अंत’, को व्यापक स्वीकृति इसी दौर में मिली और वैश्विक पूंजी के वर्चस्व के इस दौर में एक नया समय उभरा जिसे कुछ लोग उत्तर आधुनिक समय कहते हैं, कुछ लोग यथार्थ से आभासी सत्य की ओर बढने का युग कहते है और कोई इसे विखंडन का युग मानते हैं –ऐसा युग जिसमें ‘टेक्स्ट’ और ‘कांटेक्स्ट’ के बीच का सम्पर्क बदल गया, सत्य (यथार्थ) और सत्यों (आभासी यथार्थ) के बीच एक अनिर्णीत लड़ाई का दौर शुरू हो गया. यह एक नया युग था जब अपनी अपनी बात को लेकर चीख पुकार करने वालों का दौर अचानक शुरू हो गया. हिन्दी में एक प्रचलित कहावत है- ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ . यह मानों नये युग को ‘सम अप’ कर रहा हो. यानि जिसके पास शक्ति उसके पास सत्य!

भारत में यह दौर बहुत ही दिलचस्प और निर्णायक सिद्ध हो रहा है. चीज़ें इस तरह से उलट पुलट गयी हैं कि वर्तमान तो नये समय की लाठी नियंत्रित कर ही रही है यह उन तमाम धारणाओं को भी उलट कर देख रही है. इस नाजुक दौर में, भारतीय भाषाओं में लिखने वाले रचनाकारों ने निश्चित ही नये भाव बोध की रचना की है. बांग्ला की लेखिका महाश्वेता देवी को पहले श्रेष्ठ रचनाकार नहीं माना गया किंतु इस बदले हुए समय में जिस तीव्रता से उनके पात्र अपने समस्त आवेग से उपस्थित होते हैं उसे अनदेखा किया नहीं जा सकता . सामाजिक –सांस्कृतिक संक्रमण की प्रक्रिया की पीडा को ‘शनीचरी’ कहानी में जिस तरह व्यक्त किया गया है उसकी ओर हिन्दी के आलोचकों का ध्यान गया है. नामदेव ढसाल की कविता ‘ डा. आम्बेडकर 1986’ में इन पंक्तियों को देखें- “ ... मैं जानता हूं हो गया है मेरे युग का सवेरा/...अब हमारे दरवाजों के सामने झूलते हैं सफेद हाथी/...नये इतिहास की रचना होगी/... पानी की एक एक दीवार टूट रही है/मुझे होने दे तेरे सभी बच्चों में से सबसे सुंदर /... इंतजार कर रहा हूं तुम्हारे आदेश का / अब इस/ ज्वालामुखी की बेल को कहां लगाऊं मैं?’

इन परिवर्तनों के बीच यह स्वाभाविक है कि इतिहास लेखन का स्वरूप भी प्रभावित हुआ है. इतिहास लेखन की दो धाराएं रही हैं- प्रथम धारा के अंतर्गत जो इतिहास लेखन होता है उसमें इतिहास तथ्यों की प्रामाणिक उपस्थिति को महत्त्व देकर ऐतिहासिक रूप से मान्य सत्य का वृत्तांत तैयार करता है. दूसरी धारा के अंतर्गत इतिहास लेखन को एक प्रकार के लेखन के रूप में देखा जाता है जिसमें एक प्रकार का सच निकल कर आता है जिसे इतिहासकार प्रतिष्ठित करना चाहता है. जिस तरह का समय 1990 में उपस्थित हुआ उसमें दूसरी तरह की धारा ज़्यादा लोकप्रिय सिद्ध हो रही है. लोग इतिहास की जगह इतिहासों में दिलचस्पी दिखा रहे हैं और एक नये प्रकार के समय बोध के साथ इतिहास लेखन हो रहा है. यह सब कुछ इतना ज़्यादा हो रहा है कि आलोचक कहने लगे हैं कि इतिहास पर अब अकादमिक इतिहासलेखकों का एकाधिकार समाप्त हो रहा है और अब अधिकतर इतिहास ऐसे लोग लिख रहे हैं जो इतिहासकार के रूप में विश्वविद्यालयों में दीक्षित नहीं हैं.

साहित्य में भी इसी तरह के संकेत मिल रहे हैं. साहित्य के क्षेत्र में शास्त्रीयता के दबाव के साथ जो कुछ लिखा समझा जा रहा है वह कुल मिलाकर “गिरोहों का आंतरिक संवाद” ही है. आलोचना तो छोड ही दें रचनात्मक विधाओं में भी ताजगी का अभाव है. यह संकट सिर्फ हिन्दी का नहीं है. जब तक यह समझा नहीं जायेगा कि दुनिया आधुनिकता के आग्रहों से बहुत आगे निकल चुकी है लोग लकीर के फकीर ही बने रहेंगे. आप किसी भाषा के विद्वानों का एक सर्वेक्षण करें जिसमें कुछ लोग 60-65 के हों और कुछ लोग 40-45 के. आप देखेंगे कि वरिष्ठ लोग एक ही तरह की बातें, एक ही तरह के विचार और एक ही तरह के लोगों की पैरवी कर रहे होंगे और उन्हें सर्वत्र घोर पतन दिखलाई दे रहा होगा. दूसरी और 40-45 के समूह के लोग ज़्यादा समकालीन सवालों को उठा रहे होंगे और उनकी बातें एक सी नहीं होंगी. परम्परा और शास्त्रीयता के डंडे से इन नये लोगों को पीटने वाले लोगों में अद्भुत किस्म का एका होता है. और कुछ नहीं तो पात्रता का प्रश्न उठाकर, नये लोगों को हडबडी में बताकर यह कहने का अधिकार तो ये वरिष्ठ ले ही लेते हैं कि आजकल लोग तपस्या करने के लिए तैयार नहीं हैं, उन्हें तो बस जैसे हो फौरन ही फल मिलना चाहिए. दस बरस जाने दीजिये, ये जो कम शास्त्रीय समकालीन लोग हैं वे ज़्यादा सही लग रहे होंगे. यह अकारण नहीं है. दरअसल, 1990 के दशक ने विचारधारा के दबाव को कम किया, समाज में नये स्वरों को वैधता प्रदान की और शास्त्रीयता और परम्परा के दबावों को भी कम किया. यह एक तरह से नये युग की शुरूआत थी. यह हमारे विचार का एक मुद्दा होना चाहिए कि आज जो लोग हिन्दी में सबसे समकालीन सरोकारों को साहित्य में स्वर प्रदान कर रहे हैं उन्हें “ठीक से” हिन्दी लिखने नहीं आती, वे व्याकरणगत अशुद्धियां करते हैं.

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अब इतिहास के सन्दर्भ में 1960 और 1990 के दशक को दूसरे तरह से देखने की कोशिश की जाए. यह पहले भी कहा गया है कि 1960 के दशक में इतिहास लेखन के क्षेत्र में एक गुणात्मक परिवर्तन हुआ था. यह परिवर्तन दो स्तरों पर देखा जा सकता है. संरचनावादी और उत्तर संरचनावादी प्रभाव के कारण जो सोच में एक गुणात्मक परिवर्तन हुआ वह तो बहुत विश्लेषित है, लेकिन भारत जैसे देश में उच्च शिक्षा का जो विस्तार हुआ उसकी ओर कम ध्यान दिया जाता है. अचानक कालेज विश्वविद्यालयों की बाढ सी आ गयी और इन विश्वविद्यालयों में साहित्य और इतिहास को पढने-पढाने वाले लोग इतने बढ गये कि उच्च शिक्षा का मान कम हो गया. न तो उतने उच्च शिक्षित और दक्ष अध्यापकों की फौज तैयार थी और न ही सुचारू रूप से यह कोशिश की गई कि अध्ययन –अध्यापन का पूर्ववर्ती मान बना रहे. उच्च शिक्षा के नये केन्द्र बनने लगे, राजनैतिक हस्तक्षेप बढने लगा और एक तरह से उच्च शिक्षा का लोकतांत्रीकरण हुआ. भारत में इस तरह के लोकतांत्रीकरण की सराहना भी हुई और इससे हुए परिवर्त्तनों को रेखांकित भी किया गया. पार्थसारथी गुप्ता के शब्दों में 1966 में लिखे इस मूल्यांकन को देखें:

“ भारत के आज के अकादमिक स्तर और विद्वता के मान को देखने पर हमें यह मानना पडता है कि संख्या के विस्तार के एवज में और गैर अकादमिक दबावों के कारण गुणवत्ता की बलि दी गयी है.”

इस तरह के विकास सिर्फ भारत जैसे देशों में ही नहीं हुए बल्कि दुनिया के तमाम देशों में उच्च शिक्षा के केन्द्रों की संख्या में बहुत बढोत्तरी हुई. यह वह दौर था जब पुराने दौर के महान लोगों को लगता था कि अब ‘मीडियाक्रेसी’ का युग आ गया है. जिन लोगों ने 1920 के दौर में अपनी ट्रेनिंग पायी थी उनके लिए 1960 का दशक मीडियाकरों द्वारा नियंत्रित था. यह कितना अजीब लगता है कि हाइडेगर चिंतन के क्षेत्र में 1960 के दशक में सर्वत्र मीडियाक्रेसी के वर्चस्व से बहुत व्यथित होते थे! यह बात और है कि 1960 के दशक के बौद्धिक हस्तक्षेप को आज बहुत मान दिया जाता है जिसने सोच की दुनिया में दो टर्न- दार्शनिक और लिंग्विस्टिक को जन्म दिया. पूरा आधुनिक बोध, इतिहास, विज्ञान, साहित्य सबकुछ संदेह के घेरे में आ गया और पुनर्विवेचन की मांग करने लगा. यह युगांतकारी दशक था. कुछ मायनों में यह पूर्व के युग का रचनात्मक विस्तार था; आखिर फूको, देरिदा इत्यादि लोग हाइडेगर की धारणाओं को ही और पुष्ट कर रहे थे. फिर भी, 1960 के इस युग से पूर्ववर्ती युग के नायकों को बहुत सारी शिकायतें रही. कोई जरूरी नहीं है कि संरचनावादी, उत्तरसंरचनावादी ‘उत्तरआधुनिक’ विमर्शों के विचारों को स्वीकार कर लिया जाए लेकिन इन वैचारिक प्रयासों में ऐसा बहुत कुछ था जो नये समय के सवालों से जुडने के लिए साहित्यकारों और इतिहासकारों के लिए उपयोगी हो सकता था. मार्क्सवादी आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने 1992 में इस विषय पर अपने एक साक्षात्कार में बडी गहराई से विचार किया था. दुर्भाग्य से इस तरह से इस विषय पर सोचा नहीं गया. हिन्दी में इस विषय पर जो स्थिति है उसके बारे में राजेश्वर सक्सेना का कथन है: “ हिन्दी के वर्तमान परिदृश्य पर उत्तर आधुनिक की छाया मंडरा रही है और हिन्दी जगत इसे नहीं समझ पा रहा है.”

भारत में इतिहास लेखन में 1960 का दशक तो और भी महत्त्वपूर्ण है. इसी दौर में सही मायने में आधुनिक भारतीय इतिहासलेखन का एक मुकम्मल ढांचा तैयार हुआ. रामशरण शर्मा, इरफान हबीब, बिपनचन्द्र जैसे लोग नये महान इतिहासकारों के रूप में जाने जाने लगे. अगर रोमिला थापर, सुमित सरकार आदि को जोड लिया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अगले दो तीन दशकों तक जो अकादमिक इतिहास लेखन की मुख्य धारा रही उसके निर्माताओं ने 1960 के दशक में दीक्षा ली थी.

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इतिहास लेखन के क्षेत्र में कुछ नये सवाल उभरे. चिंतकों को लगने लगा कि संस्कृति का प्रश्न भी इतिहासलेखन का एक बड़ा सरोकार होना चाहिए. फ्रांसीसी इतिहास लेखन की सबसे शक्तिशाली धारा- एनाल्स स्कूल ने भी 1960 के आसपास अपने सरोकारों को परिवर्त्तित किया. जिसे एनाल्स स्कूल की तृतीय धारा कहा जाता है उसे मेंटलिटी इतिहासकारों की धारा भी कहा जाता है. अब फर्नांड ब्रादेल और लेबरास के भौगोलिक आर्थिक इतिहास की जगह पर दूबी, लादुरी, फिलिपे एरिस इत्यादि का प्रभाव ज़्यादा होता दिखलाई पडता है जो छपाई, पुस्तक, बचपन, मृत्यु, विवाह जैसे विषयों का इतिहास लिख रहे थे. इन इतिहासों में पारंपरिक ऐतिहासिक स्रोतों के स्थान पर लोक स्मृति, लोक-विश्वास, मौखिक इतिहास के तमाम तरह के नये स्रोतों को लाया गया था. यह एक नया युग था. फिल्मों में भी इस दौर की फिल्में आधुनिकता के दबावों से मुक्त होने की छटपटाहट दिखला रही थी. इंगमार बर्गमैन की उस फिल्म के उस दृश्य को याद करें जिसमें फिल्म का नायक मृत्यु के देवता के साथ समुंदर के किनारे शतरंज खेल रहा है. सत्तर के दशक में कार्लास चिपोला की अमर फिल्म ग़ाडफादर ने तो मानो आदर्शों का नवीकरण ही कर दिया. इस फिल्म को विशेषज्ञों ने तीस के दशक की क्लासिक कृति ग़ान विद द विंड का सत्तर के दशक का ज़वाब माना. यह वही दौर था जब अडार्नो जैसे लोग संस्कृति उद्योग पर विचार कर रहे थे और ज्ञान के उत्पादन की प्रक्रिया को समझने की कोशिश कर रहे थे. यह नये समय और नये मूल्यों के निर्माण का काल था.

इन परिवर्तनों से लगभग अनभिज्ञ रहकर भी एक किस्म का ज्ञान महत्त्वपूर्ण बना रहा जो परम्परा और प्रगतिशीलता का एक ऐसा पाठ तैयार कर रहा था जो तत्त्वत: ‘इक्लेक्टिक’ था लेकिन वह बाहर से वामपंथी था. हिन्दी के सन्दर्भ में यह परंपरा और प्रगतिशीलता का एक मिला जुला पाठ था जो हर शिफ्ट को नकारने की कोशिश करता था. साठ के दशक में रामविलास शर्मा की अस्तित्ववाद पर लिखी एक पुस्तक इसी तरह की पुस्तक थी जो 1960 के दशक में 1920 और 1930 के दशकों के बोध को लेकर चल रही थी. उन तमाम पाठकों के लिए जो शिफ्ट के लिए तैयार नहीं थे यह एक असाधारण पुस्तक है और जो साठ की समकालीनता के साथ थे उनके लिए यह पुरानी पड चुकी ( डेटेड) किताब थी. दुर्भाग्य से 1990 के शिफ्ट को रेखांकित करने का वैचारिक प्रयास हिन्दी में देखने में नहीं आया है. कुल मिलाकर 1990 के शिफ्ट को हिन्दी में दर्ज करने की कोशिश नहीं होती है. कुछ आलोचक इस शिफ्ट को अमरीकी साम्राज्यवादी षडयंत्र मानते हैं और थियरी के आने को, फ्रेगमेंट्स की चर्चा को सोवियत रूस के पतन के साथ जोड कर देखते हैं. उनके लिए यह शिफ्ट एक प्रायोजित विमर्श है जो अमरीकी पैसे से चल रहा है. सबआल्टर्न इतिहास चर्चा से लेकर एडवर्ड सईद तक सब के सब अमरीकी सहयोग से नकली विमर्श तैयार कर रहे हैं ! इस तरह की सोच डेटेड है और 1990 के दशक को समझने के लिए नाकाफी है.

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यदि यह मान लिया जाए कि 1990 के समय के नये प्रश्नों के सन्दर्भ में नये साहित्य और नये इतिहास की जरूरत है तो दो प्रश्न उठते हैं- प्रथम, ये नये प्रश्न किस प्रकार के हैं और द्वितीय, नये प्रश्नों से जुडने के लिए किस तरह की बौद्धिक प्रविधि की जरूरत है. यह प्रस्तावित करना गलत नहीं होगा कि 1990 के दशक में समय गुणात्मक रूप से बदला है. कुछ लोग इसे समाजवादी स्वप्न के अवसान के बाद सारी दुनिया में छाए वैचारिक बेचैनी में वित्तीय पूंजीवाद और सैन्यवाद के विजय की शताब्दी मानते हैं जिसने सारी दुनिया में अमरीकी पूंजी का वर्चस्व कायम करना शुरू किया. इस दृष्टि से अब दुनिया के तमाम समय और सभ्यताओं को सर्वशक्तिमान अमरीकी समय और सभ्यता के साथ कदमताल करना था वरना उसका हश्र वही होगा जो अफगानिस्तान, इराक आदि का हुआ और ईरान का हो सकता है. अब इस ग्लोबल समय में सबकुछ को बदलना है, पुराने आदर्शों को टूटना है, समाज के ढांचे को बदलना है और नये ग्लोबल समाज की नींव रखी जानी है. पूरी दुनिया में पिछले दशकों में शहरीकरण तेज हुआ है, कृषि की तुलना में उद्योगों पर ज्यादा बल दिया जाने लगा है और बडी मात्रा में लोगों के अपने पूर्ववर्ती स्थानों से नयी जगहों पर जाना हुआ है. बेनेडिक्ट एंडरसन कहते हैं कि कुछ समय पहले तक किसी देश के नागरिक के लिए उसका पहचान पत्र राशन कार्ड हुआ करता था, अब पासपोर्ट हो गया है. इस बदले हुए समय में अपनी मिट्टी, अपने गांव, अपने शहर, अपनी भाषा जैसे प्रश्नों और आदर्शों को चलने वाले समय को ग्लोबल समय से ताल मेल बैठाना होगा. यह वह समझ है जिसने हमारे देश में एक अद्भुत दृश्य हमें दिखलाया जो हमारे इस संकट के समय में हुए परिवर्तनों को समझने में सहायक हो सकता है. पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने जिसने ‘पिछले समय’ में किसानों के लिए संघर्ष का एक इतिहास रचा था अपने यहां एक पूंजीपति के कार बनाने वाली कम्पनी की खातिर किसानों पर बर्बरता से गोली चलवायी. पूरे देश में इस घटना ने खलबली मचाई और वामपंथियों के बीच एक बडी बहस को जन्म दिया. सुमित सरकार जैसे इतिहासकार और महाश्वेता देवी जैसे साहित्यकारों ने जिन शब्दों में वामपंथी सरकार की आलोचना की वह सबको पता है. आखिरकार इस समय में वामपंथी क्या करें? इस संकट से निकलने का एक राजनैतिक समाधान यह ढूढा गया कि मायावती के बहुजन समाज के साथ गठबंधन कर लिया जाए. एक वामपंथी और एक दलितवादी पार्टी के बीच के इस गठबंधन को कैसे देखा जाए? यह नया समय है.

दूसरी ओर यह स्पष्ट हो चला है कि पूंजीवाद अब खुद महासंकट में है. इस संकट से निकलने की कोई सूरत न पश्चिम में दिखलाई दे रही है और न ही एशियाई देशों- चीन या भारत में दिखलाई पड रही है. स्वराज पाल जैसे लोग जोर जोर से कह रहे हैं कि बाजारवाद (पूंजीवाद) बुरी तरह से विफल हो गया है, सत्यम जैसी कम्पनियां जिसने नये भारतीय स्वप्न को आकार दिया था अब बतला रही हैं कि वह तो घाटे में चल रही थी. प्राईवेट एयरलाइंस के चिकने चुपडे चेहरों वाले ट्रेड यूनियनिज्म के शिकार हो रहे है.... और तो और खुद अमरीका में मंदी है और इस मंदी का कारण है वह नकली ग्रोथ जो सारी दुनिया से इंश्योरेंस कम्पनियों में जमा पैसे से अमरीका के लैंड इस्टेट में लगाकर दिखलाया जा रहा था. अब यह नकली मांग (जिसे आज की भाषा में लिक्विडिटी कहा जाता है) आंखों में धूल झोंकने में विफल है और कम्पनिया दिवालिया हो रही हैं. इस आलेख में इस मंदी पर विस्तार से विचार करने की गुंजाईश नहीं है इसकी ओर सिर्फ संकेत भर किया जा सकता है.

अब इस नये समय में समय की मांग यह है कि मनुष्यता की मूलभूत समस्याओं की ओर ध्यान दिया जाए. मनुष्य अपनी बुनियादी भौतिक जरूरतों के बाद समाज में सम्मान के साथ, प्रेम पूर्वक रहना चाहता है. उसकी कुछ जैविक जरूरतें भी होती हैं जिसकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता. पिछला समय यह देने में असफल होता है तो सामाजिक तनाव बढेंगे ही और समाज में नया समय आयेगा ही. हर युग में एक ही समय उपस्थित होता है- वर्तमान. भूत को जानने की जरूरत वर्तमान को व्यवस्थित करने के लिए ही होती है. वर्तमान के सामाजिक थ्योरिस्ट वर्तमान के इस रूप को याद रखने की सलाह देते हैं. इस अर्थ में वर्तमान के समीकरण इतिहास के समीकरण हो जाते हैं. इस बात को स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण के साथ अपनी बात समाप्त करूंगा. 1857 के विद्रोह के 150 साल के इतिहास में भारतीय समाज में दो तीन विचारधाराओं का जोर रहा. पहले औपनिवेशिक विचारधारा के वर्चस्व के दौर में यह बलवा था जिसमें बलवाईयों ने बहुत खूनखराबा किया. फिर राष्ट्रवादी विचारधारा के वर्चस्व के युग में यह राष्ट्रीय विद्रोह बना जिसमें महान विद्रोहियों ने जनआकाक्षाओं को व्यक्त करते हुए अपनी आहुति दी. अब दलितवादी विचारधारा का जोर बढा है तो इस विद्रोह की जो व्याख्या हो रही है उसमें पुराने महानायकों की जगह दलित महानायकों की प्रतिष्ठा हो रही है!

साहित्य और इतिहास लेखन इन समय के सवालों से अपने को अलग नहीं कर सकता. बदलते समय के जटिल सवालों को रचनात्मक साहित्य पुराने समय के साहित्यिक औजारों से कैसे व्यक्त कर सकता है? जो संकेत अभी मिल रहे हैं वे यही बता रहे हैं कि इस नये समय में नयी इतिहास दृष्टि की जरूरत है जो हमारे साहित्य और इतिहास लेखन को समृद्ध और उपयोगी बनाएगी. [ आलोचना, अक्टूबर-दिसम्बर 2009]

Friday, 21 August 2009

जाति का प्रश्न

जाति का प्रश्न
औपनिवैशिक उत्तरभारतीय परिदृश्य (1880-1930)

हिन्दी समाज के बौद्धिकों ने इस समाज के सबसे बडे प्रश्न- जाति पर जिस तरह से सोचा विचारा है उसपर हाल के वर्षों में समाज शास्त्रियों का ध्यान गया है. सन्दर्भ चाहे 1857 का हो, नवजागरण का हो, साम्पदायिकता का हो या फिर राष्ट्रवाद का जाति के प्रश्न को सामने रखने की कोशिश लगातार हो रही है. तेलगु, तमिल, मलयालम और सबसे अधिक मराठी साहित्य के श्रोतों का उपयोग कर नये सोच के साथ इन भाषिक समाजों के ‘इंटेलिजेंसिया’ वर्ग की विचारधारा के विभिन्न स्तरों की बहुस्तरीय पडताल अभी जारी है. आज अत्यंत सक्रिय दलित साहित्य आन्दोलन के कुछ विचारकों के अनुसार “ हिन्दी नवजागरण के लेखक धार्मिक रूढियों से बँधे दिखाई देते हैं, इसीलिये वहाँ ‘वर्ण व्यवस्था’ का विरोध नहीं समर्थन है.” [1] हिन्दी में एक दिलचस्प बात यह देखी जाती है कि ज्यों ज्यों नवजागरण का प्रभाव बढा जाति के प्रश्न पर सीधी तरह से तीखी टिप्पणी से, सन्दर्भ विवेचन से बचने का चलन बढता गया. जाति के उल्लेख कम होने के पीछे इन समाजों में जाति का कम महत्त्व पूर्ण होना नहीं था बल्कि राष्ट्रवाद के एक खास तरह के सोच का परिणाम था जिसके अंतर्गत यह माना जाने लगा कि बोध और रचनात्मक स्तर पर जातिवादी (कास्टिस्ट) सन्दर्भ को लाने से हमारी राष्ट्रीय चेतना के प्रसार में बाधा उत्पन्न होती है. निश्चित रूप से जाति का विरोध प्रेमचन्द से पहले भी था और कुछ हिन्दी बौद्धिक जाति को इस देश के विकास में एक बडी बाधा मानते थे, लेकिन अधिकतर हिन्दी लेखक जाति के प्रश्न पर वर्णाश्रमी प्रभाव से मुक्त नहीं थे और इस समाज में जाति की विभीषका के प्रति उतने सचेत साहित्य में नहीं दिखलाई पडते जितनी की ज़रूरत थी. प्रेमचन्द, राहुल, चतुरसेन शास्त्री और कुछ लेखकों में जाति के प्रश्न पर बैचैनी दिखलाई पडती है लेकिन आज ऐसा प्रतीत होता है कि कुल मिलाकर हिन्दी के लेखकों को जाति पर और अधिक गहरे जाकर विचार करना चाहिये था. जब फणीश्वर नाथ रेणु की अमर कहानी में बूढा मिरदंगिया एक ब्राह्मण को प्यार से बेटा कह देता है तो गांव के लडकों ने घेरकर उसे मारने की तैयारी कर ली क्योंकि “ बहरदार होकर ब्राह्मण के बच्चे को बेटा कहेगा? मारो साले बुड्ढे को घेरकर ! मृदंग फोड दो!” रेणु की अद्भुत अपूर्व शैली में यह आया है कि “ मिरदंगिया ने हँसकर कहा था, “ अच्छा, इस बार माफ कर दो सरकार ! अब से आप लोगों को बाप ही कहूंगा!” बाद में नागार्जुन ने इस हँसी को ‘फेड’ होते देखा और उसकी जगह एक क्रोध को जन्मते देखा और कहा- “दलित माओं के सब बच्चे अब बागी होंगे”. ( हरिजन गाथा)
यह सब उस दौर तक ही हो चुका था जब दलित साहित्य हिन्दी में नहीं आया था और न ही राजनैतिक रूप से शक्तिशाली दलित- पिछडों के उत्थान के बाद इस तरह की बातों को कहने का चलन शुरू हुआ.
इस आलेख में हिन्दी ‘इंटेलिजेंसिया’ के नवजागरण के दौर में जाति को लेकर जो सोच रहा था उसपर कुछ उदाहरणों के उल्लेख द्वारा संकेत करने का प्रयास किया गया है. बहुधा यह कहा जाता है कि कुछ अतिउत्साही दलित लेखक नवजागरण को छोटा बनाने की कोशिश करते हैं और साक्ष्य न होते हुए भी इस दौर के हिन्दी बौद्धिकों पर उलटी सीधी टिप्पणियां करते रहते हैं. उन्नसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में निचली जातियों –खासकर पिछडी जातियों के उभार के प्रति जो ब्राह्मणवादी नज़रिया था उसका कितना और किस तरह का प्रतिफलन हिन्दी साहित्य में हमें मिलता है इसकी जांच करना भी इस पर्चे का उद्देश्य है. इसी विवाद का एक दूसरा पक्ष यह है कि किस प्रकार औपनिवेशिक दौर में जातियों के पायदान में ऊपर उठने के लिये निचली जातियों में 1890 के बाद से 1911 तक होड लगी हुई थी और निचली जातियों के नेता अपना जातीय इतिहास लिखकर अपनी जाति का एक गौरवपूर्ण इतिहास लिखकर यह बतलाने में लगे थे कि कैसे वे ब्राह्मण, क्षत्रिय थे और बाद में अन्यायपूर्ण तरीके से उन्हें निचली जाति का बना दिया गया. मैंने अन्यत्र इस प्रसंग की विस्तार से चर्चा की है.[2] इस आलेख में राष्ट्रीय बनने के दौर में उत्तर भारतीय समाज के बौद्धिकों में निचली जातियों के उत्थान के दौर में उनके प्रति भावों की साहित्यिक अभिव्यक्तियों को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है.


1
निचली जातियों और अगडी जातियों को साथ लेकर हिन्दू एकता की बात उन्नसवीं शताब्दी के आठवें दशक में भी कही जाती थी. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की पत्रिका हरिश्चन्द्र मैगज़ीन के अप्रिल 1874 अंक में एक लेख छपा था- ‘पबलिक ओपिनियन’ जिसमें ब्राह्मण से लेकर शूद्र तक सबको लेकर एक वर्णाश्रम हिन्दू धर्म के आदर्श की बात की गयी थी. इसके अनुसार हिन्दु जातियों के आपसी फूट के कारण सब (हिन्दू) “ बल सत्यानाश में मिल गया और यह बात ध्यान से बाहर हो गई कि हिन्दू भी कभी एक मत थे.” [3] इस लेख के लेखक का प्रस्ताव था कि “ धर्म और व्यवहार को एक में न सानैं.” [4]लोगों को अलग अलग विश्वासों को मानने का हक है लेकिन जहाँ “ व्यौहार का काम पडै सब एक हो जाओ और जब अपने हित की बात आवैं तब एक सी आवाज़ दो.”[5] इस तरह के उदाहरण भारतेन्दु से लेकर माधव प्रसाद मिश्र और अयोध्याप्रसाद हरिऔध इत्यादि साहित्यकारों की लेखनी में सहज ही मिल जाते हैं जहां हिन्दुओं की एकता के लिये सभी हिन्दुओं- ब्राह्मणों से लेकर शूद्रों तक – के बीच एकता की बात कही जाती थी. लेकिन, विभिन्न जातियों के बीच जो तनाव समाज में था उसके कारण ज्यों ज्यों निचली जातियों के लोग अपना इतिहास लिखने लगे और अपने को ऊँची जातियों के समतुल्य बताने लगे तनाव बढा. इन निचली जातियों के सामुदायिक इतिहास पर कम काम हुआ है, लेकिन उन्नसवीं शताब्दी में ऊँची जाति के लोग भी यह मानते थे कि दुसाध जाति के लोग राज करते थे. बाद में इस तरह की उदार इतिहास दृष्टि का लोप हो गया. उदाहरण के तौर पर पुराने मुंगेर जिले के गिद्धौर के एक क्षत्रिय राजा का जीवन चरित लिखते हुए एक प्रसिद्ध क्षत्रिय विद्वान ने लिखा है: “पहले इस देश में 816 वर्ष बहेलिये वा दुसाध राज्य करते रहे सम्बत 1123 में राजा विक्रम सिंह चन्दैल अगोरी बरदी से यहां आए और श्री बैद्यनाथ जी की कृपा से निंगुरिया नामी दुसाध को मार राज्य ले लिया तब से आज तक बराबर इनके वंश में राज्य चला आता है, इस राज्य के आधीन चान्दन, चकाई, विस्तहाजरी, और बहुत से फुटकर महाल हैं.[6]
औपनिवेशिक दौर में निचली जाति के उत्थान के प्रति अवज्ञा का भाव शुरू से था. विद्वान लेखक भी कभी कभी इस बात से बडे परेशान होते थे कि नीच लोग अंग्रेज़ी राज में कुछ ज़्यादा ही बढ चढ गये हैं. रामदीन सिंह ने एक खराब नीति की चर्चा करते हुए एक अन्य क्षत्रिय सुधारक के हवाले से कहलाया है कि “यह (खराब) नीति तो ब्राह्मण क्षत्री की नहीं है हाँ चंडाल चमार कसाई की अवश्य है.”[7] आगे कहा गया है- “ बाबू हितनारायण सिंह बराबर कहा करते थे कि नीचोँ से सर्वदा बचना चाहिए क्योंकि अब वह समय नहीं रहा कि जिस में वर्ण विचार हो और अंग्रेज़ अमलदारी होने से सब धन बाईस पसेरी अर्थात सब बराबर हो गये बल्कि नीच ही लोग बढ चढ गये तो उनसे एक दो बात परहेज ही करना ही हमलोगों को उचित है और समय ही देखकर काम करना बहुत अच्छी बात है. क्योँकि सरकारी कर्मचारी लोग यही जानते हैं कि ब्राह्मण क्षत्री ही वैश्य शूद्र पर ज्यादती करते हैं. इसलिए सब किसी को उचित है कि दुष्ट और कांटा से बचाकर रहना ही भला है न तो भली भांति उनका मुंह तोडना ही भला है... खाल काँटा इन दुनहु को , दोई जगत उपाय / जूतन ते मुख तोडिबो , रहिबो दूर बचाय”[8] इस भाव को और स्पष्ट करते हुए रामदीन सिंह ने जोडा है- “आज कल यही हाल देखने में आता है शहरों में दूकानदारों से कुछ कहो तो चट गाली दे देते हैं, कुंजरिन से बोलो तो तो वह भी फटकारती है भले मनुष्यों का कहीं भी गुजर बिना गम खाये नहीं हो सकता है.”[9]
रामदीन सिंह ने यह भी लिखा है कि “ यह तो सब कोई जानते हैं कि जैसी विपत्ति आजकल क्षत्रियों पर है वैसी और किसी और किसी जाति पर नहीं.”[10] वे इस विपत्ति का मुकाबला करने के लिये क्षत्रियों के लिये एक पत्रिका शुरू करते हैं जिसके विज्ञापन का घोषणा पत्र में वे बतलाते हैं कि जिस प्रकार यूरोप वासियोँ, बंगालियों और बिहार के कायस्थों ने पढ-लिख कर, समाचार पत्र निकाल कर उन्नति की है उसी प्रकार देश के क्षत्रियों को एक होकर आग आना चाहिये. वे याद दिलाते हैं कि “कायस्थ लोग तीन युगों (सतयुग, त्रेता और द्वापर) से शूद्र थे. अब क्षत्रिय हो गये... ऐ मेरे प्यारे क्षत्रिय सपूतों, कुछ भी तो सोचो कि हमारे कुल में रघु, राम, युधिष्ठिर, अर्जुन और कर्ण प्रभृति कैसे कैसे महापुरूष हो गये हैं ...धिक्कार है हमारे क्षत्रित्व पर कि कायस्थ प्रभृति नीच वर्ग बडे बडे स्थानों पर नीयत होते हैं और हमारे बन्धु-बान्धव प्यादगीरी कर केवल 3 या 4 मुद्रा में पलायन करते हैं.”[11]
क्षत्रियों में अपनी जाति की दशा को लेकर जो भाव था उसको प्रकट करने में हिन्दी के बौद्धिक मुखर थे. क्षत्रिय पत्रिका ने 1882 में एक लेख प्रकाशित किया जिसका एक अंश देखें: “ क्या...क्षत्री कभी जागेंगे... अपने ही सहवासी शूद्रों (कायस्थ जो अब क्षत्री कहलाने लगेगी हैं) को देखिये कि कहां तक उन्नति कर गये जिस राज दरबार में देखिये जुत्थ के जुत्थ यही नज़र आते हैं... (कायस्थों ) पहले तो शूद्र से रूपया खर्च कर क्षत्री कहलाये अब तो तलवार धरें बान धरें बहादुर उपाधि भी मिलने लगी... गवर्नमेंट से बहादुरी इन्हीं कायस्थ कलाल , कलवार, बनिये को मिलती है.” [12]
हिन्दी नवजागरण के एक महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व रामदीन सिंह के इन उद्धरणों को उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं सदी के हिन्दी क्षेत्र के सवर्ण लेखक, समाज सुधारकों के विचारों के साथ रखा जा सकता है. उस दौर में राष्ट्रवाद, जाति के प्रति प्रेम और अपने सम्प्रदाय (धर्म) के भावों के बीच एक सहज किस्म का सम्पर्क था. जाति का प्रयोग इन तीनों- धर्म, राष्ट्र और जाति तीनों के लिये होता था.[13] बडी सहजता से विद्वान लोग जाति सूचक भाषा का प्रयोग करते थे. यहां एक दो उदाहरणों की चर्चा की जा सकती है. बाल कृष्ण भट्ट हिन्दी के महान लेखक और संपादक के रूप में सुविख्यात हैं. पहले के समय और वर्तमान के बीच आये अंतर को वे इस भाषा में व्यक्त करते हैं- “ उस समय ब्राह्मण तीनों वर्ण के लोगों को अपनी मूठी में किये थे, किसी को सामर्थ्य न थी कि इनसे आँख मिला सके. अब इस समय बनिया बक्काल भी ब्राह्मण बना चाहते हैं, और काछी कुनबी क्षत्री. सच है, ‘धोबी के घर धरमदास हैं ब्राह्मण पूत मदारी.”[14] खुद रामदीन सिंह ने खड्गविलास प्रेस, पटना से 1891 में द्विज पत्रिका अर्थात “ब्राह्मण ,क्षत्रिय और वैश्य को सुधारने वाली पाक्षिक” पुस्तिका निकाली थी. दिलचस्प बात यह है कि इसमें जो छपता था वह देश के हित से संबंधित होता था और किसी जाति के पक्ष में इसमें कुछ नहीं छपता था. इस पत्रिका का प्रकाशन लगातार होता रहा. इसमें छपने वाली सामग्री को ध्यान से पढने से प्रतीत होता है कि उस समय के लेखकों के बीच इतिहास बोध के निर्माण किस रूप में हो रहा था. एक उदाहरण देखें-“ ...बहुत शताब्दियां बीती जब बंगाल में कोल और सौंताल आदि असभ्य जाति के लोग बसते थे पर ब्राह्मण धर्मावलंबी हिन्दू लोगों ने पंजाब और उच्च भारतवर्ष को विजय कर के अंत में बंग देश की ओर पदार्पण किया और आदिम निवासियों को वशीभूत कर के बहुतेरों को जंगल पहाड़ का मार्ग बताया तथा कुछ लोगों को अपना दास बना के रक्खा इन विजयी हिन्दुओं के पुरोहित ब्राह्मण थे इस से यह ब्राह्मण धर्मावलंबी कहलाए यह मध्य एशिया निवासिनी प्रबल प्रतापशालिनी आर्य जाति के लोग थे यही आर्य जाति उच्च कुल के वर्तमान हिन्दुओं की मूल थी इसी जाति के भिन्न भिन्न भाग मध्य एशिया से पश्चिम की यात्रा करके यूरोप में जा बसे जिनसे अंगरेज़ फ्रेंच जर्मन इत्यादि बहुत सारी यूरोपीय जाति उत्पन्न हुईं.[15] इस दौरान हिन्दी के कुछ प्रकाशित ग्रंथों में भी कुछ ऐसे वाक्य मिलते हैं जिनमें ‘नीची जाति’ के प्रति, उसके आगे बढकर सम्मान पाने की लालसा के प्रति एक तिरस्कार का भाव है. इन पंक्तियों पर ध्यान दें: “ कुंवर सिंह को लोग बाबू कुंवर सिंह कहते थे. ‘बाबू’ की पदवी उन दिनों ऐसी सस्ती न थी जैसी आज कल हो गयी है कि उजले कपडों से कोइरी चमार तक बाबू बन जाते हैं.”[16]
जाति के सन्दर्भ के प्रयोग हिन्दी साहित्य में कम होने लगे और प्रेमचन्द के युग में इसका प्रयोग बहुत कम होने लगा. लेकिन उसके पहले यह बहुत आम था. यह वह दौर था जब नवजागरण के पुरोधाओं को वर्ण-व्यवस्था के नियमों के पालन और राष्ट्र के नवनिर्माण में कोई विरोधाभास नज़र नहीं आता था. कुछ उदाहरणों से उनके विचारों को समझा जा सकता है. अपने समय की प्रतिष्ठित हिंदी पत्रिका सुदर्शन के संपादक और एक प्रतिष्ठित साहित्यकार माधव मिश्र ने एक कथा का उल्लेख किया है. इस कथा में जोधपुर के महाराज से बादशाह अकबर ने पूछा कि हिन्दू किस को कहते हैं? महाराज के एक सामंत से जब महाराज ने पूछा तो उसने कहा कि इसका उत्तर तो कोई भी साधारण आदमी दे देगा. मामूली आदमी की खोज की गयी और एक नाई को लाया गया. उसने इस प्रश्न के उत्तर में कहा- “ हिन्दू वह है जो गो ब्राह्मण की पूजा करे और उनमें श्रेष्ठ वह है जो उनकी रक्षा करने में प्राणों तक की परवाह न करे. नाई के कथन से संतुष्ट होकर महाराज ने बादशाह अकबर के सामने हिन्दू की यूं व्याख्या की- “ ...किसी हिन्दू के घर में आग लग जाय और वह इतनी प्रचण्ड हो उठे कि या तो वह अपने कुढंगे कुपढ ब्राह्मण ही को जो उस मकान में पडा हुआ ज़िन्दगी के अंतिम सांस ले रहा हो, बचा ले, किम्बा अपनी लूढी लँगडी बूढी बांझ गऊ ही की, जो वहां उस समय बँध रही हो, रक्षा कर ले. अथवा अपने बुढापे की लकडी , घर के चिराग एकमात्र पुत्र ही के प्राण रख ले. कारण कि समय की इतनी न्यूनता हो कि एक की रक्षा के पश्चात दूसरे की रक्षा असंभव जान पडती हो! अग्नि की ज्वाला में दूसरे के भस्म हो जाने का निश्चय हो चुका हो. ऐसी कठिन अवस्था में जो वीर पुरूष सुत सम्पत्ति का मोह छोड उस अकर्मण्य ब्राह्मण बा बूढी गऊ के प्राणों की रक्षा में तत्पर हो, वही श्रेष्ठ हिन्दू है और साधारण वे हैं जो इन दोनों की पूजा करते हैं. (कहते हैं कि , उस दिन से बादशाह ने गो वध बन्द कर दिया था).” [17] कथा के उपरांत लेखक का संदेश है कि अगर किसी घर में एक मरनासन्न ब्राह्मण, एक बूढी गाय और एकलौता बेटा हो और आग लग जाये तो जो सच्चा वीर हिन्दू होगा वह पहले ब्राह्मण और बूढी गाय को बचायेगा. एक अन्य उदाहरण भी दिया जा सकता है जिसमें वे कहते हैं कि एक अग्रवाल वैश्य ब्राह्मण के विरूद्ध अपशब्द का प्रयोग नहीं कर सकता यह काम किसी नीच का ही हो सकता है. उनकी पत्रिका में छपा था कि कांग्रेस सही अर्थों में राष्ट्रीय नहीं है क्योंकि वहां वर्णाश्रम धर्म का पालन नहीं होता. लेखक के अनुसार सभा में ब्राह्मण की उपस्थिति ज़रूरी है और अध्यक्ष भी उसे ही होना चाहिये. एक जगह लेखक बहुत आहत होता है कि एक वैश्य अध्यक्षता कर रहा है जबकि शास्त्र के हिसाब से उसे कोषाध्यक्ष होना चाहिये.[18]
इस तरह के विचारों के पक्षधर लोगों की संख्या कम नहीं थी. 1920 के दशक में गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन के शक्तिशाली होने के दौर में भी उत्तर भारत के बहुत सारे हिस्सों में सच्चे हिन्दू के आदर्श को लेकर हिन्दू राजनैतिक संगठकों के बीच हुई बहसों को देखकर यह कहना गलत न होगा कि वर्णाश्रम आदर्श के प्रति इन महान लोगों की अटूट आस्था थी. वस्तुत: यह प्रस्तावित करना सही होगा कि शिष्ट साहित्य और पत्रकारिता के दायरे से जाति का परोक्ष रूप से चले जाने के इस दौर में जाति के सम्बन्ध में राष्ट्र्वादी चिंतन ने यह मन बनाया कि जाति व्यक्तिगत चीज़ है और इसके बारे में ज़्यादा हो हल्ला करना राष्ट्र्वाद के लिये ठीक नहीं है. इसी दौर के इस बोध के साथ जाति की सीधा चर्चा साहित्य और पत्रकारिता में कम हो गयी. अब बलवंत भूमिहार जैसे उपन्यास, जिनमें जाति का उल्लेख बडी सहजता से होता था, लिखने का दौर खत्म हो गया था. ऐसा नहीं था कि समाज में जातिवादी विमर्श खत्म हो गये हों. बल्कि यह कहना उचित होगा कि जाति को लेकर एक उग्र किस्म का संघर्ष यादवों और भूमिहारों के बीच जनेऊ पहनने को लेकर इसी दौर की घटना है.[19] भूमिहारों को ब्राह्मण मनवाने के लिये जिस तीव्रता से स्वामी सहजानन्द ने इस दौर में आन्दोलन किया था उससे सामान्य परिचय भी यह बतलाने के लिये पर्याप्त है कि जातीय आधार पर तीखी नोंक झोंक 1920 के दशक में जारी थी.[20]विभिन्न जातीय इतिहासों के विश्लेषण से भी यह साफ है कि समाज में जाति के प्रश्न पर जातियों के बीच तीव्र प्रतिद्वन्दिता चल रही थी.

2
बीसवीं सदी में राष्ट्रवादी आन्दोलन के लोकोन्मुखी होने के बाद दो आदर्शों – वर्णाश्रमी सनातनी हिन्दू का आदर्श और हिन्दुओं की राष्ट्रीय एकता का स्वप्न- के बीच तनातनी का एक दिलचस्प दौर शुरू हुआ. 1920 के बाद, खासकर मालाबार दंगों के बाद हिन्दू धर्मावलंबियों के रक्षार्थ हिन्दू नेताओं ने यह देख लिया कि एक आदर्शों का नवीकरण ज़रूरी है. मदन मोहन मालवीय जैसे लोगों को यह लगा कि हिन्दू संगठनों के साथ अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियों और अन्य पिछडी जातियों को जोडा जाना चाहिये. उन्हें जिस तरह के विरोध का सामना करना पडा वह स्पष्ट कर देता है कि हिन्दू कट्टरवादी आदर्शों के प्रति अभी भी बहुत सारे लोग कटिबद्ध थे. मदन मोहन मालवीय की छवि एक कट्टर सनातनी हिंदू की है. उन्होंने हिन्दू महासभा की स्थापना की और सारे देश के हिन्दुओं को राजनैतिक रूप से संगठित करने का प्रयास किया. लेकिन हिन्दु समुदाय के असली सनातनी, वर्णाश्रमी हिन्दुओं की और से उंन्हें जिसमें तरह से ‘नया आर्यसमाजी’, ‘हिन्दु धर्म के शत्रु’ के रूप में प्रचारित किया गया वह कम दिलचस्प नहीं है. मालवीय का मत था कि हिन्दु राष्ट्रीय एकता के लिये सवर्ण और निम्न जातियों को एक साथ आना होगा. वे एक सावधान हिन्दू थे जो वर्णाश्रम के आदर्शों में राष्ट्र हित हेतु एक लचीलेपन की जरूरत को समझ रहे थे. उनका कथन था कि उँची जाति के लोगों को चाहिये कि चमार आदि जाति के लोगों को अपनी सभाओं में आने दें और अपने बराबर नहीं लेकिन नीचे बैठने दें. लेकिन दूसरी और ऎसे हिन्दुओं की कमी नहीं थी जो इस तरह के उँच नीच के जाने को हिन्दुपन की क्षय समझ रहे थे. अन्यत्र इस विषय पर चर्चा हुई है जिसमें हिन्दू राष्ट्र्वाद के इस दो धाराओं के बीच के अंतर को रेखांकित किया गया है.[21] एक ओर मालवीय जैसे लोग थे जो हिन्दू एकता की खातिर वर्णाश्रम धर्म को छोडे बिना छोटी जात के लोगों को साथ लेने की मुहिम चला रहे थे तो दूसरी ओर ऐसे लोग भी थे जो इसमें धर्म की हानि समझ रहे थे. इस तरह के लोग सनातन धर्म पताका फहरा रहे थे. 1926 में भी जब कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन शक्तिशाली हो चुका था सनातनियों की पत्रिकाएं लगातार यह कह रही थीं कि वर्णाश्रम को छोडने से देश धर्म भ्रष्ट हो जायेगा. मालवीय की हिन्दु महासभा के प्रति भी उनके मन में कोई आदर नहीं है और वे मालवीय की सबको साथ लेकर चलने की इच्छा को सही नहीं मानते. ‘हिन्दू महासभा का रहस्य’ नामक एक लेख में कहा गया है-
“ ...मालवीय जी, पण्डित दीन दयाल शर्म्मा आदि के सनातन धम्मानुकूल विचारों को ही हम लोग प्रमाण मानते हैं, उनके व्यक्तित्व को नहीं.... सर्वप्रियता प्राप्त करने के पीछे (वे) बडे बड़ी काम बिगाड डालते हैं. ...(वे) लाला लाजपत राय और दरभंगा महाराज के धार्मिक विचारों का सम्मिलन ...करना चाहते हैं! इसी को कहते हैं दक्षिणी ध्रुव को उत्तरी ध्रुव और पश्चिमी गोलार्द्ध को पूर्वी गोलार्द्ध से मिलाना और दो नावों पर चढना.”[22] मालवीय की चेष्टाओं पर भी उनका विश्वास नहीं. उन्हें खेद है कि मालवीय के हिन्दू विश्वविद्यालय में संस्कृत की प्रधानता नहीं है और वहां “क्वींस कालेज की तरह भी संस्कृत का प्राधान्य नहीं रहा और वहां के विद्यार्थी बिस्कुट, शोरबा और अंडा गले के नीचे उतारते हैं.”[23] इसी लेख में कुछ और बातों पर विचार किया गया है जिसे देखना उचित होगा. सनातन धर्मियों के अनुसार शुद्धि कर हिन्दू सभा का वर्ण संकरता फैलाना अनुचित है. हिन्दू सभा की आलोचना करते हुए सनातन धर्म पताका ने लिखा-“ जब एक बार गो मांस या शूकर मांस खा लेने से ही हमारे धर्म शास्त्रों में दीर्घ-काल व्यापिनी विकट तपस्या का प्रायश्चित्त है तब जिन चमार आदि अस्पृश्यों के पचास पुश्तों से अभक्ष्य भक्षण हो रहा है , उन्हें कैसे हम अपने कूओं से जल भरने दें या एक पंक्ति में बैठाकर श्वांस सूघें. इनके सिवा जब कांग्रेस, आर्य समाज आदि ने शुद्धि अछूतोद्धार आदि का प्रस्ताव पास कर सुधारकों के लिये दरवाजा खोलना दिया है, तब इन्हें हिन्दू सभा में घुसेडने की क्या आवश्यकता है ! किंतु कुछ औंधी खोपडी के मुठ्ठी भर सुधारकों की रूचि रखने के लिये मालवीय जी ने ऐसे धर्म विरूद्ध प्रस्तावों का अनुमोदन कर सनातन भाईयों के मताधिक्य और श्रेष्ठत्व की उपेक्षा की और उनकी विमल विचार –माला में खलबली मचा दी है. पहले तो यों ही आर्यसमाजियों और ईसाइयों ने अछूतों को भडकाकर गांवों में सनातनियों से लडने वाली एक पार्टी खडी कर दी थी, दूसरे हिन्दू सभा ने ऐसे उपेक्षणीय विषयों को उठा कर उसके कर्णधारों ने अस्पृश्यों और सनातनियों के बीच सारे देश में बराबर के लिये रणभूमि तय्यार कर दी.”[24]
इस लेख में अंतत: यह कहा गया कि “ हिन्दू महासभा एक स्वार्थमयी और रहस्य पूर्ण संस्था भी बनी जा रही है.” [25] यह देखना आज बहुत दिलचस्प है कि हिन्दू सभा के समर्थक किस तरह अछूतों को हिन्दू मनवाने के लिये लड रहे थे और हिन्दु धर्म के रखवाले उन्हें खडी-खोटी सुना रहे थे. हिन्दू सभा और सनातन धर्म के पंडितों के बीच के शास्त्रार्थ इस प्रसंग में बहुत उपयोगी सिद्ध होटल हैं. यहां एक दो प्रसंगों की चर्चा की जा सकती है. छपरा जिले में हिन्दू सभा की ओर से बोलते हुए बाबू चन्द्रिका प्रसाद ने कहा- “ हाय हाय बडे शोक की बात है कि हिन्दू जाति डोम मेहतरों को अपने में मिलाना नहीं चाहती, इनके न मिलाने से बडी दुर्दशा हो गयी. औरंगज़ेब ने ... मंदिर तोड डाले...कायर हिन्दुओं ने विश्वनाथ का दूसरा मंदिर बनवा लिया, सोमनाथ का मंदिर तोड दिया गया. यदि उस समय डोम और मेहतर हिन्दू जाति के अन्दर होते तो ये लडके बचा लेते.... नहीं मालूम अब हिन्दू जाति की क्या दशा होगी. इस हिन्दू धर्म ने कणाद जैसे नास्तिकों को अपने में रक्खा उसको तो निकाला ही नहीं फिर डोम मेहतरों को कैसे निकाल सकता है.” सनातनियों की ओर से बोलते हुए पं. कालूराम शास्त्री ने कहा कि जब तक क्षत्रिय समाप्त नहीं हो गये सोमनाथ का मंदिर लूटा नहीं जा सका. जब क्षत्रिय न बचा सके तो उसे डोम मेहतर क्या बचा पाते. शास्त्र के श्लोकों का अर्थ बताते हुए शास्त्री जी ने कहा कि “ ब्राह्मणी के साथ शूद्र का संसर्ग होने से जो संतान होती है उसका नाम चाण्डाल है. वह लोहे के और शीशे के जेवर पहिरे, गले में बद्धी बांधे, कांख में पेटी रक्खे, दिन के पूर्वार्द्ध में नगर का पाखाना साफ करके उत्तरार्द्ध में नगर में न जाय ये इकट्ठे होकर नगर के बाहर नैर्‍ऋत्य कोण में रहें ऐसा न करें तो दण्डनीय हैं.” फिर बोले- “ पाराशर स्मृति में लिखा है कि यदि चाण्डाल का दर्शन हो जावे तो सूर्य का अवलोकन करो और यदि चाण्डाल का स्पर्श हो जावे तो पहिरे हुए वस्त्रों को धोओ और स्नान करो. यह धर्म शास्त्र की आज्ञा है कोई भी आस्तिक हिन्दू इसमें चीं चपट नहीं कर सकता.”
चन्द्रिका प्रसाद हिन्दु सभाई थे और वे ताड गये कि ज़्यादा शास्त्रार्थ करने की अपेक्षा कुछ ऐसी बातें कहनी चाहिये जिससे हिन्दु हित की बात प्रमुख हो जाये. बोले जायेंगे, हिन्दुओं की रक्षा के लिये इन्हें अपने में मिलाना होगा. इस पर कालूराम शास्त्री के वचन में थोडी नर्माई आयी लेकिन फिर भी पाराशर स्मृति का एक श्लोक उद्धृत करना नहीं भूले जिसका अर्थ था- “ चाण्डाल के घट का जल यदि कोई द्विजाति भूलकर पी ले तो फौरन कै कर देना चाहिये कै करके समस्त जल को निकाल दे तथा फिर प्राजापत्य उपवास करे यदि उस जल को उसी समय न निकाल दिया जाये तो फिर कृच्छ सांतपन करना चाहिये...” मामले को थोडा दूसरा रूख देते हुए शास्त्री जी ने कहा कि मामला शूद्रों का नहीं है- श्वपच शूद्रों में पाँच भेद हैं तथा शास्त्रों में पांचों के साथ पृथक पृथक व्यवहार है- बल्कि चाण्डालों और श्वपचों का है. अंतत: शास्त्री जी उस आम सभा में बोले- “ मनु की व्यवस्था देखिये- चाण्डालों तथा श्वपचों का निवास ग्राम के बाहर हो तथा इनके पात्र अश्पृश्य हैं तथा इनका धन कुत्ता तथा गदहा है. इनके कपडे मुरदों के वस्त्र वा पुराने चिथडे हों तथा फूटे बर्तनों में भोजन लोहे के आभूषण तथा घूमना स्वभाव [ यह इनका लक्षण है]. धर्मानुष्ठान के समय में इन [चाण्डाल और श्वपच इत्यादि] के साथ देखना बोलना आदि व्यवहार न करे. उनका व्यवहार तथा विवाह बराबर वालों के साथ हो. इनको खपरे आदि में रखकर अलग से पराधीन अन्न देना चाहिये तथा वे रात को ग्रामों तथा नगरों में न घूमें ...”
इस शास्त्रार्थ में क्या हुआ इसपर सनातन धर्म पताका का मंतव्य था –“ आज के शास्त्रार्थ में हिन्दू सभा ने वह पछाड खाई है कि यदि इसमें शर्मदार सभासद होंगे तो फिर कभी शास्त्रार्थ का नाम न लेंगे निर्लज्जों की तो कथा ही भिन्न है.” [26]
इस पूरे प्रकरण को इसके सन्दर्भ में देखना उचित होगा. विद्वानों ने उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सनातनी और सुधारवादी हिन्दूवादी धाराओं के टकरावों की पर्याप्त चर्चा की है. मैक्लेन ने कहा है कि उस दौर में हिन्दू बनाम मुसलमान के बजाय सनातनी और सुधारवादियों के बीच ज़्यादा तीव्र संघर्ष चल रहा था.[27] इस दौर में हिन्दुओं को एकजुट करने के प्रयास आन्दोलनों –हिन्दी और गो-रक्षा- के दौर में तो हुआ ही एक प्रकार से राष्ट्रीय सोच का एक हिन्दू संस्करण भी लिखने पढने वाले वर्ग ने तैयार कर दिया. जिस समय राष्ट्र्वादी सोच आकार ले रहा था उसी दौर में एक साम्प्रदायिक सोच भी तैयार हो रहा था.[28] लेकिन, विद्वानों का ध्यान इस और कम गया है कि इसी दौर में एक सवर्णवादी पाठ भी तैयार हुआ. पूरे इतिहास पर उनकी दृष्टि, समाज के पिछडे समुदायों के प्रति रवैया तथा प्रगति के संबंध में उनकी धारणा इन सभी मामलों में उन्नसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के पहले तीन दशक में यह कोशिश लगातार हुई कि उत्तर भारतीय समाज में सनातनी या वर्णाश्रमी मूल्य बोध बना रहे. अधिकतर सनातनी लोग यह सोचते थे कि “बुरे दिन” आ गये हैं और सुधारवादी चक्कर में पडकर कोरी- चमार भी ब्राह्मण बनने के “ धर्म विरोधी” स्वप्न देखने लगे हैं. [29] फिर भी सुधारवादी आन्दोलनों और बाद में कांग्रेस के नेतृत्व में हुए जनांन्दोलनों के कारण समाज में निम्न जातियों की भागीदारी महत्त्वपूर्ण होने लगी. धीरे धीरे सनातनी विद्वान भी हिन्दू के भीतर निचली जातियों को लेकर सोचने लगे. 1907 में लिखे गये एक भाषण में अयोध्या प्रसाद हरिऔध ने “बीस करोड हिन्दू के राष्ट्र” की बात की.[30] मालवीय हिन्दू एकता के लिये निचली जातियों को साथ लेकर चलने के हिमायती थे हालांकि सबको बराबर मान कर नहीं. वे समझाते थे कि विवाहादि जैसे सामाजिक व्यवहार में जाति के नियमों का पालन अवश्य होना चाहिये लेकिन सभाओं में निचली जाति के लोगों को समकक्ष नहीं पर नीचे बैठने दिया जाय. उनका मानना था कि नीची जाति के लोग इसी से प्रसन्न हो जायेंगे और हिन्दु एकता का आदर्श उपस्थित हो जायेगा. 1922 में गया की एक सभा में यह कहा कि अगर ब्राह्मणों को सभा में उच्च आसन दिया जाय तो रैदासों को भी नीचे बैठने दिया जाये.[31] उनके अनुसार द्विजों द्वारा इस तरह की उदारता से ही निचली जाति के लोग संतुष्ट हो जायेंगे. अपनी बात को समझाने के लिये वे पुराण की एक कथा सुनाते हैं कि एक बार एक राजा एक गांव से होकर गुजर रहे थे. उस गांव में एक अहीर के घर कथा हुई थी और प्रसाद वितरण हो रहा था. राजा ने अहीर के हाथ से प्रसाद ग्रहण नहीं किया क्योंकि अहीर नीच जात का माना जाता था. घर लौटकर राजा ने देखा कि उसके सारे पुत्र बीमार पड गये हैं. इस कथा के माध्यम से मालवीय ने यह स्थापित करने का प्रयास किया कि किसी भी भक्त का निरादर प्रभु सहन नहीं कर सकते भले ही भक्त नीच अहीर ही क्यों न हो.[32] नेताओं में कुछ ऐसे लोग भी थे जो किसी भी सूरत में वर्णाश्रमी आदर्शों को छोडने को तैयार नहीं थे. इस तरह के लोगों में सबसे बड़ा नाम था दरभंगा महाराज का जिनके विचारों पर एक दृष्टि डालना युक्तिसंगत होगा. जनवरी 1923 में बम्बई की एक बड़ी सभा में उन्होंने कहा कि “ शोभा, प्रतिष्ठा, गौरव और जीवन इसी में है कि सच्चे हिन्दू की हैसियत से सत्य सनातन धर्म कि रक्षा करते हुए संसार के आगे बढें. उसी को हिन्दू जाति की उन्नति कहेंगे ...जिस जातीय व्यवस्था की आपके पूर्व पुरूषों ने धन, जन और जीवन सभी कुछ देकर रक्षा की है वह व्यवस्था जीवित रहेगी.” [33]
कतिपय संस्मरणों में बीसवीं सदी के दूसरे दशक में हिन्दी प्रदेश में जात पात के नियमों का कैसा आतंक था इस बात का पता चलता है. 1915 की गर्मियों में जमालपुर बाज़ार में एक मैथिल ब्राह्मण, जिसने आर्य समाज को स्वीकार कर लिया था, ने घोषणा की कि वह एक कुएँ से निकाल कर एक अछूत के हाथ से पानी पीकर लोगों को दिखलायेंगे कि इससे कोई प्रलय नहीं होता है. मैथिल पंडितों के भय दिखाने के बावजूद जब मोहित मिश्र (शर्मा) न डिगे तो देखा गया कि क्रुद्ध भीड के सामने किसी की हिम्मत न हो रही थी कि आगे बढे और कुएं से पानी निकालकर शर्मा को पानी दे. वहां कई आर्य समाजी नौजवान भी खडे थे. पर “ कहीं लोग पानी भरने वाले को ही न मार दें- युग युग से जो काम वर्जित है उसे अचानक उठकर कर देने का साहस कोई नहीं जुटा पा रहा था. स्त्रियां दूर दूर से , अपने घरों की खिडकियों से झांककर, यह तमाशा देख रही थीं. ‘ पता नहीं आज क्या हो जाए? धर्म का नाश होने पर तो यह धरती भी नष्ट हो सकती है. भूचाल आ जाएगा, महामारी फैल जाएगी’ तब हिम्मत कौन करे? मोहित शर्मा के बहुत ललकारने पर, हाथ पकड कर खींचने पर श्यामला साह तेली तथा एक दो सूडी, कलवार भी इनारे की जगत पर आ चढे.” ... उन दिनों डोम चमार आदि जातियों की तो बात ही नहीं उठती थी , बनिया जाति के ही कुछ शाखा के कुछ लोगों का पानी नहीं चलता था” हजारों लोगों के सामने एक साहसी ब्राह्मण आर्य समाजी युवक मोहित मिश्र को इस साहस के लिये कितने कष्ट उठाने पडे उसके बारे में जानने पर आज विश्वास करना कठिन होगा.[34]
उपसंहार में यह कहना अनुचित न होगा कि 1920 के दशक तक भी राष्ट्रवादी हिन्दू नेतृत्व जाति के प्रश्न पर वर्णाश्रमी व्यवस्था से विमुख होकर् अपने सामाजिक संगठन को नहीं समझ पा रहा था. लोकशक्ति के युग के आने की सूचना गांधी के नेतृत्व में चल रहे आन्दोलनों से हो चुकी थी और संख्या का समीकरण हर राजनैतिक समीकरण के लिये प्रभावी सिद्ध हो रहा था. ऐसे समय में भी मदन मोहन मालवीय जैसे प्रतिष्ठित हिन्दू नेताओं और उनके संगठन हिन्दू महासभा को जिस तरह से विरोध का सामना करना पड रहा था वह यह बतलाने के लिये काफी था कि सनातनी बज्र पुरातनपंथी वर्णाश्रमी समर्थकों की कमी उस समय भी यह नहीं देख सक रही थी कि अब नया युग आ गया है और नया समाज बन रहा है. वह कैसा युग था इसको व्यक्त करने के लिये अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जिससे प्रमाणित होता है कि तमाम प्रगतिशील तत्त्वों के साथ हिन्दी में ब्राह्मणवादी सोच प्रभावी रूप से उपस्थित था. यह ऐतिहासिक महत्त्व की बात है कि यह सोच बाद के वर्षों में परोक्ष रूप से धीरे धीरे कम दिखाई देने लगा. यह ‘छुप जाना’ था या खत्म हो जाना था, यह जांच का विषय है.


[1] ओम प्रकाश वाल्मीकि, ‘1857 और हिन्दी नवजागरण’, प्रगतिशील वसुधा- 76, वर्ष 4, अंक 4, जनवरी-मार्च 2008, पृ. 170. हिन्दी नवजागरण के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों के संतुलित अध्ययन के लिये ज़ोर देने पर बल एक अरसे से दिया जाता रहा है. हिन्दी के बहुत सारे समाजशास्त्रीय पद्धति से परिचित आलोचकों ने इस विषय पर लिखा है. हिन्दी नवजागरण के महत्त्व को स्वीकारते हुए भी मैनेजर पाण्डेय जैसे समीक्षक इसके नकारात्मक पक्ष को भी ध्यान रखने की ज़रूरत पर बल देते हैं. (देखें- मैनेजर पाण्डेय, साहित्य और इतिहास दृष्टि (दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2000), पृ. 191.
[2] हितेन्द्र पटेल, ‘ज़ाति का प्रश्न’, देवेन्द्र चौबे, साहित्य का नया समाजशास्त्र, (दिल्ली: किताब घर, 2006).
[3] हरिश्चन्द्र मैगज़ीन, 15 अप्रिल, 1874, पृ. 198.
[4] वही, पृ, 199.
[5] वही, पृ. 199.
[6] हेतुकर झा (सं) बाबू रामदीन सिंह रचित बिहार दर्पण, (दरभंगा: महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फाउण्डेशन,1996 [1882], पृ.134.
[7] वही, पृ. 142-43.
[8] वही, पृ. 148.
[9] वही, पृ. 148.
[10] वही, पृ. 138.
[11] क्षत्रिय पत्रिका,1880,
[12] रामचरित्र सिंह, क्षत्रिय पत्रिका, खण्ड 2, संख्या 3,4,1882, पृ. 28. इस लेख में लेखक का उद्देश्य कायस्थों या अन्य किसी जाति की निन्दा करना नहीं था बल्कि क्षत्रियों को इस बात के लिये तैयार करना था कि बदलते समय में अगर वे बंगाली, मद्रासी और कायस्थों की तरह उन्नति नहीं करेंगे तो उनका कोई मान सम्मान नहीं रहेगा.
[13] मैने अन्यत्र इस विषय पर विस्तार से चर्चा की है. देखें- हितेन्द्र पटेल, ‘कम्युनलिज्म एण्ड इंटेलिजेंसिया इन लेट नाइंटींथ एण्ड अर्ली ट्वेंटीथ सेंचुरीज बिहार’(शोध प्रबंध, इतिहास अध्ययन केन्द्र, ज. ने. वि., 2007), अध्याय 5.
[14] बालकृष्ण भट्ट, निबंधावली. पृ.
[15] द्विज पत्रिका , संख्या 25, 1891. यह पत्रिका साहब प्रसाद सिंह द्वारा खड्गविलास प्रेस, बांकीपुर (पटना) से प्रकाशित होती थी. इस पत्रिका ने बंग देश का भूगोल और इतिहास पुस्तक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित किया था. इस इतिहास पुस्तक में जाति का उल्लेख बहुत सहजता से लोगों के वर्णन में किया जाता था. विशेष रूप से द्रष्टव्य है इस पुस्तक का ‘हिन्दू शासन’ खंड. इस खंड में उल्लेख किया गया है कि बंगाल में कुलीनता का प्रचलन कैसे शुरू हुआ- “ राजा आदिशूर (इन्होंने 974 ई के इधर उधर सिंहासनारोहन किया था) ने भारत के जिन जिन प्रदेशों में बौद्ध धर्म का प्राबल्य नहीं हुआ था उन उन प्रदेशों से अच्छे अच्छे पंडित बुलाने का संकल्प लिया.... कन्नौज से पाँच ब्राह्मण- भट्ट नारायण, दक्ष, श्री हर्ष, छांदोड और वेदगर्भ (बुलाए गये).यही कुलीन बंगाली ब्राह्मणों के आदि पुरूष हैं. इन के साथ एक एक कायस्थ जाति के सेवक थे वही कुलीन कायस्थों के के पूर्व पुरूष हैं.... आदिशूर ने जिन ब्राह्मणों और कायस्थों कन्नौज से बुलाया था उन की संतान को श्रेणी बद्ध करना सुयश का बड़ा भारी कारण हुआ किस की क्या मर्यादा है यह स्थिर करके बल्लाल सेन ने कुलीनता की प्रथा चलाई.”
[16] नगेन्द्र नाथ गुप्त, अमर सिंह (पुणे: संवाद प्रकाशन, 2008), पृ. 13. यह पुस्तक मूलत: 1895 में बांग्ला में लिखी गयी थी और इसका हिन्दी अनुवाद प्रतापनारायण मिश्र ने किया था. खड्ग विलास प्रेस , बांकीपुर (पटना) से इसका प्रकाशन बारह वर्षों बाद हो सका. फरवरी 2008 में संवाद प्रकाशन, पुणे ने इस पुस्तक को फिर से प्रकाशित किया है.
[17] माधव मिश्र, ‘ पिञ्जरपोल’, सचित्र माधव मिश्र निबन्ध माला परिशिष्ट खण्ड (सं. चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद शर्मा एवं झावरमल्ल शर्मा) (प्रयाग: इंडियन प्रेस लिमिटेड, 1935), पृ.25.
[18] माधव मिश्र संपादित सुदर्शन पत्रिका में जून 1900 के अंक में यह स्पष्ट रूप से कहा गया था कि हिन्दुओं को चाहिये कि वे सिर्फ उन्हीं राष्ट्रीय संगठनों को हिन्दुओं की राष्ट्रीय संस्था मानें जहां वर्णाश्रम धर्म के नियमों का पालन होता हो.
[19] हेतुकर झा, ‘लोअर कास्ट पेजेंट्स एंड अपर कास्ट्स ज़मीदार्स इन बिहार, 1921-25’, इंडियन इकानामिक एंड सोशल हिस्ट्री रिव्यू, 14,4, 1977.
[20] स्वामी सहजानंद जैसे महान किसान नेता ने अपना सामाजिक जीवन एक जाति के नेता के रूप में किया था. वे भूमिहारों को ब्राहमण का दर्ज़ा दिलाने के लिये लड रहे थे. उनके शुरूआती लेखन में जातिवादी सोच को स्पष्टत: देखा जा सकता है. (देखें- सहजानंद, भूमिहार ब्राह्मण परिचय, बनारस, 1916 एवं ब्राह्मण समाज की स्थिति, बनारस, प्रकाशन वर्ष का उल्लेख नहीं).
[21] देखें Hitendra Kumar Patel, ‘The Intelligentsia and the Question of Caste in Bihar in the Late Nineteenth and Early Twentieth Centuries’, in Raj Sekhar Basu & S. Dasgupta (eds.), Narratives of the Excluded (Kolkata: K. P. Bagchi, 2008).
[22] सनातन धर्म पताका, मुरादाबाद, संख्या 2, वर्ष 26, 1926, पृ. 28-29. यह मासिक पत्रिका 1900 से मुरादाबाद से निकलती थी.
[23] पूर्वोक्त पृ. 30.
[24] सनातन धर्म पताका, वर्ष 26, संख्या 2, पृ. 30-31.
[25] पूर्वोक्त, पृ. 33.
[26] सनातन धर्म पताका, वर्ष 26, पृ. 14.
[27] विस्तार से चर्चा के लिये देखें- John Mclane, Indian Nationalism And The Early Congress (Princeton:1977). इस सम्बन्ध में अन्य उपयोगी जानकारी के लिये देखें- W. Jones Kenneth, Socio Religious Reform Movements In British India (Cambridge University Press, 1994), Vasudha Dalmia, The Nationalization Of Hindu Traditions (Delhi and Calcutta: Oxford University Press, 1997).
[28] Gyanendra Pandey, Construction of Communalism , Delhi, OUP, 1992.
[29] बनारस और अन्य उत्तर भारतीय नगरों और कलकत्ता से निकलने वाले पत्रों में तो इस तरह के हज़ारों उदाहरण दिये ही जा सकते हैं, बिहार की कुछ पत्रिकाएं भी 1888 के बाद से इस तरह के भावों को स्पष्टत: व्यक्त कर रही थी. उदाहरण के लिये देखें सारन सरोज के जून और दिसम्बर 1888 के अंक.
[30] हरिऔध ने 1907 में सनातन धर्म के समर्थन में एक भाषण तैयार किया था जिसे उन्होंने प्रकाशित किया था. इस पुस्तिका की एक फटी हुई कापी राष्ट्रीय पुस्तकालय, कलकत्ता में है.
[31] विस्तृत चर्चा के लिये देखें- ब्राह्मण सर्वस्व, जनवरी, 1923. इस अंक में मालवीय 30 दिसंबर 1922 को गया में दिये गये भाषण को छापा गया था.
[32] वही.
[33] पूरे भाषण के लिये देखें ‘ सनातनधर्मोद्धार का उपाय’, ब्राह्मण सर्वस्व, जनवरी 1923, पृ. 58-63.
[34] विस्तार से जानने के लिये देखें- सावित्री दूबे, जो जाने नहीं गये (दिल्ली: अभिरूचि प्रकाशन, 1997), पृ.19-49.
[ वागर्थ, अगस्त, 2009]

Thursday, 20 August 2009

साम्प्रदायिकता, राष्ट्रवाद और साहित्य

बिहार में साम्प्रदायिकता, राष्ट्रवाद, साहित्य और जातिवाद
हिन्दी प्रदेश के इतिहासलेखन की एक बडी समस्या यह है कि इसे समाज के इतिहास को इसके अपने साहित्य और इस भाषा के स्रोतों की सहायता से कम और इतिहासलेखन के पाश्चात्य अकादमिक मानदंडों के आधार पर अधिक लिखा गया है. इस कारण से इस समाज के इतिहास के दो संस्करण हमें उपलब्ध होते हैं; एक ऐसा इतिहास जिसे हिन्दी प्रदेश के साहित्य और पत्रकारों ने राष्ट्रीय दृष्टि से सोचते हुए निर्मित किया और दूसरा जो इतिहास की अकादमिक समझ से निर्मित किया गया है. इन दोनों इतिहासों का लगभग स्वतंत्र सा अस्तित्व बना रहा है. एक विद्वान ने कहा है कि हिन्दी प्रदेश के दो इतिहास हैं- एक जो साहित्यिक दृष्टि से लिखा गया और दूसरा ऐतिहासिक दृष्टि से. दोनों को एक साथ रखकर कम विचार किया गया है. [1] इस पुस्तक को लिखने का उद्देश्य इन दोनों दृष्टियों को पास लाकर एक ऐसे इतिहास को तीन विचारधाराओं- राष्ट्रीय, साम्प्रदायिक और जातिवादी के विकास और अंतर्संपर्कों पर विचार करना है.
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इतने बडे हिन्दी प्रदेश में इतिहास लेखन के प्रति एक उदासीनता का भाव रहा है. एक बड़ा कारण यह है कि स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालयों में इतिहास के बारे में जो कुछ पढाया जाता है उसके साथ अध्ययनकर्ताओं का कोई लगाव होना मुश्किल है. जिस इतिहास बोध से भारतीय महान इतिहासकारों ने लिखा है वह मूलत: भारत को एक आधुनिक, पश्चिमी, अकादमिक दृष्टि से लिखा गया है और लगभग हर स्तर पर पश्चिमी ऐतिहासिक दृष्टि को वरियता प्रदान करती है. राष्ट्रवाद, सामुदायिकता, आधुनिक भाषा आदि का जिस रूप में विकास पश्चिमी देशों में पिछले तीन चार शताब्दियों में हुआ उसके आधार पर सामाजिक परिवर्तनों को समझने का जो माडल बना उसे ही आधार बनाकर भारतीय समाज को समझने की कोशिश होती रही है. ऐसा क्यों है और किस प्रकार औपनिवेशिक विचारधाराएं स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात भी सक्रिय और प्रभावी रही हैं इसकी विस्तृत चर्चा यहां संभव नहीं. यहां इस ओर सिर्फ संकेत भर किया जा सकता है कि भारत में प्रभावी तीनों तरह की दृष्टियां- राष्ट्रवादी, औपनिविशिक और मार्क्सवादी आधुनिक विचारधारा से प्रभावित हैं और इन तीनों दृष्टियों ने आधुनिकता को लाने वाली शक्तियों की तरफ से ही अपने अपने हिसाब से ऐतिहासिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है. इन तीनों के लिए औपनिवेशिक भारत में आती हुई प्रगतिशील आधुनिकता और प्रतिक्रियावादी सामाजिक शक्तियों ( धार्मिक शक्तियां समाहित) के बीच के संघर्ष को ध्यान में रखा गया है.
इतिहास दृष्टि
सामान्य प्रवृत्तियां
भारतीय सामाजिक विकास में मुख्य बाधाएं
नये भारत के भविष्य के प्रति दृष्टिकोण्
औपनिवेशिक दृष्टि
भारतीय समाजों को विभाजित मानना, अंग्रेज़ी शासन को आधुनिक शक्तियों द्वारा चालित मानना, भारतीय मध्यवर्ग को पाश्चात्य शिक्षा से दीक्षित होने के बाद अपने स्वार्थ के लिए अंग्रेज विरोधी मानना आदि
जातिवाद, धार्मिक अंधविश्वास, भारतीय समाज की जडता, आधुनिक शिक्षा और विज्ञान के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण, विकसित देशों से सीखने के बजाय उनके खिलाफ षडयंत्रकारी दृष्टिकोण आदि
भारत एक स्वंप्रभु राष्ट्र बनने में अक्षम और भीतरी विभाजनकारी शक्तियों के आपसी संघर्षों के कारण इसका एक राष्ट्र राज्य के रूप में विकास कठिन.
मार्क्सवादी दृष्टि
औपनिवेशिक दृष्टि की सभी प्रमुख प्रवृत्तियों को मानते हुए औपनिवेशिक युग को आर्थिक रूप से शोषणकारी मानना और इसके खिलाफ श्रमिकों और किसानों के संगठन को महत्त्व देना, इस क्रम में कांग्रेस द्वारा चलाए जा रहे राष्ट्रीय आन्दोलन को अपर्याप्त मानना क्योंकि ये अंतत: बुर्जुआ स्वार्थों की ही वकालत करते थे.
औपनिवेशिक दृष्टि की सभी प्रवृत्तियों को मानते हुए औपनिवेशिक शासन को भी इसके लिए जिम्मेदार मानना. हिन्दू साम्प्रदायिकता के प्रति ये कठोर थे और उन्हें ये समाज में अलगाव पैदा करने वाले और औपनिवेशिक शासकों के सहयोगी के रूप में देखते थे.
बुर्ज़ुआ गणतंत्र के रूप में इसका विकास विरोधाभासों को लेकर चलने के कारण ज्यादा टिकाऊ नहीं और समाजवादी भविष्य के लिए मार्ग प्रशस्त करने के लिए किसानों और मजदूरों के संगठन के साथ ही प्रतिक्रियावादी सांप्रदायिक और जातिवादी शक्तियों के विरूद्ध लगातार संघर्ष ज़रूरी.
उदारवादी राष्ट्रवादी दृष्टि
औपनिवेशिक दृष्टि की सभी प्रमुख प्रवृत्तियों को मानते हुए औपनिवेशिक युग को आर्थिक रूप से शोषणकारी मानना और इसके खिलाफ पूरे राष्ट्र को संगठित होने को सकारात्मक मानना.
औपनिवेशिक दृष्टि की सभी प्रवृत्तियों को मानते हुए औपनिवेशिक शासन को भी इसके लिए जिम्मेदार मानना. मार्क्सवादी दृष्टि से अंतर यह है कि इस दृष्टि के केन्द्र में उभरता हुआ मध्यवर्ग है जो पाश्चात्य ज्ञान से दीक्षित होकर, नये सोच को आत्मसात करके उदार समाज के प्रति सचेष्ट थे. हिन्दू मुसलमान सम्पर्क के बारे में इस दृष्टि के अनुसार अलगाव हाल के वर्षों में आया है और दोनों धर्मों के मानने वालों के बीच कोई वैमनष्य नहीं है.
राष्ट्र-राज्य के रूप में उदारवादी नेतृत्व में देश में एक शक्तिशाली राष्ट्र राज्य का निर्माण ज़रूरी.

जाहिर है कि इन सभी दृष्टियों कुछ बुनियादी अंतर होने के बावजूद एक बड़ा साम्य यह दिखलाई पडता है कि ये सभी एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में भारत के उभरने को एक सही मानते हैं और देश के भीतर जातिवादी और साम्प्रदायिक शक्तियों को देश की प्रगति के मार्ग में एक बडी बाधा मानते हैं.
बिहार के महान नेता राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी पुस्तक में यह माना है कि 1906-07 तक साम्प्रदायिकतावाद कोई बुरा शब्द नहीं था और लोग अपने को हिन्दू या मुसलमान कहने में किसी प्रकार की असुविधा का अनुभव नहीं करते थे. उस समय तक गांधीवाद का ‘सुपर कम्युनल’ राष्ट्रवादी विचारधारा का विकास हिन्दुओं में नहीं हुआ था.[2] राष्ट्रवाद, साम्प्रदायिकता और जातिवाद के अंतर्संपर्क की ऐतिहासिक व्याख्याओं में बिहार अब तक उपेक्षित सा रहा है. अब तक के अध्ययनों में पूरा ध्यान बनारस, इलाहाबाद आदि से प्रकाशित सामग्रियों के आधार पर अधिकतर विद्वानों ने यह दिखलाने का प्रयास किया है कि साम्प्रदायिकता राष्ट्रवाद के साथ साथ एक विचारधारा के रूप में विकसित होती गयी. इसकी शुरूआत दो आन्दोलनों- हिन्दी आन्दोलन (या नागरी लिपि आन्दोलन) और गौरक्षा आन्दोलन के माध्यम से हुई.[3]
[1] वसुधा डालमिया
[2] राजेन्द्र प्रसाद, इंडिया डिवाइडॆड ( बम्बई: हिंद किताब, 1946), 17.
[3] ज्ञान पाण्डेय, वसुधा डालमिया, किंग, आलोक राय ...