हिन्दी के बुद्धिजीवी
मराठी या बंगाली बुद्धिजीवियों की तरह अपने समाज से जुडे हुए नहीं हैं. यह निष्कर्ष निकलता है एक सेमिनार का जिसमें हिन्दी समाज के चार बडे विद्वान हिस्सा लेते हैं. गौतम नवलखा का मत है कि "1998 से ही सरकार ने यह मान लिया है कि माओवादी आंदोलन सामाजिक समस्या नहीं बल्कि एक कानून और व्यवस्था की समस्या है! सरकार सुधार और दमन को एक साथ चला रही है. सरकार मानती है कि माओवादी आंदोलन को कमजोर करना दूसरे आन्दोलनों को कमजोर करने की पहली शर्त है. इस लिए सभी वाम ताकतों को सरकार के इस खेल को समझना चाहिए. आज मात्र एक आंदोलन के बल पर क्रांति नहीं हो सकती. जब सभी वाम पार्टियों का ‘विजन’ एक है तो सभी को मिल कर काम करना चाहिए. दूसरे वाम दलों को सोचने की जरूरत है कि यदि माओवादी आंदोलन कमजोर होता है तो देर सबेर उन पर भी संकट आएगा. सभी को अपनी अपनी कमजोरी को बांटना चाहिए. अपने अंतर्विरोधों को विचार विमर्श के जरिये हल करना चाहिए. मार्क्सवाद व्यवहार का सिद्धांत है. और हमें व्यवहार के जरिये काम को आगे ले जाना होगा."
समयांतर के सम्पादक और लेकिन दरवाजा के लेखक पंकज बिष्ट मानते हैं कि हिन्दी में एक भी लेखक नहीं है जो अपने समाज से जुडा है. सब बस सरकारी तंत्र के सामने भीख माँगने वाले याचक हैं. सारे लेखक- पत्रकार सरकार के द्वारा खरीदे जा रहे हैं. हिन्दी समाज में कोई भी तेंदुलकर जैसा जनता का आदमी नहीं है जो कह सके कि अगर उसके पास बंदूक होती तो वह मोदी को गोली मार देते. आनंद स्वरूप वर्मा के हिसाब से देश में 'रीकालॉनाइजेशन' की प्रक्रिया चल रही है. इस क्षेत्र के तमाम देशों में सिर्फ नेपाल है जहाँ औपनिवेशिक दबाव नहीं है. भाषा और संस्कृति का इलाका दक्षिणपंथियों के हवाले छोडकर वामपंथियों ने बडी गलती की है. गाँधीवादी हिमांशु कुमार के अनुसार - "गाँधी ने कहा था कि अंग्रेजियत चली जाये अंग्रेज रह जाये. यह उन्होंने इसलिए कहा था कि वे समझते थे कि अंग्रेजो का विकास का मॉडल गरीब जनता के खिलाफ है. वह मिडिल क्लास पैदा करता है जो श्रमजीवी किसान जनता पर बोझ होती है. अंग्रेजों के आने से पहले भारत में मिडिल क्लास नहीं था. गाँधी ने कहा कि विकास का अंग्रेजी मॉडल दूसरे देश की जनता का क़त्ल करता है. भारत देश किसका क़त्ल करेगा? लेकिन नेहरु ने उसी मॉडल को अपनाया. आज सेना बस्तर पहुँच गई है!"
मीडिया विशेषज्ञ दिलीप मंडल को लगता है कि कारपोरेट मीडिया में काम करने वाला बुद्धिजीवी जनता का बुद्धिजीवी नहीं हो सकता है. प्रशांत राही (उत्तराखंड के वामपंथी कार्यकर्त्ता) ने देश में दो विकास के मॉडलों- माओवादी और गाँधीवादी- की चर्चा की और कहा कि बुद्धिजीवी या तो राज्य के साथ रहे या जन-आन्दोलन के साथ.
इन विश्लेषणों में सच का एक हिस्सा तो है लेकिन इसमें पूरा विश्लेषण नहीं है. बुद्धिजीवी अगर विजय तेंदुलकर की तरह यह बोले कि अगर उनके पास बंदूक होती तो वे मोदी को गोली मार देते एक ऐसा वक्तव्य है जिसको एक बैचैन बुद्धिजीवी की एक परेशानी में दी गयी टिप्पणी के अतिरिक्त कुछ मानना युक्तिसंगत न होगा.
बुद्धिजीवी आखिर कौन है ? यह हमारे समाज में किस हैसियत में है? क्या हिन्दी का बुद्धिजीवी समाज में ऐसी हैसियत रखता है कि वह समाज का नेतृत्व कर सके ?
हिन्दी समाज में सबसे अधिक जनता के साथ खडे होने का श्रेय उस समय के बुद्धिजीवियों को है जिन्हें हम भारतेन्दु युग कहते हैं. जिस निष्ठा के साथ कठिन परिस्थितियों में लेखक पत्रकारों ने काम किया वह अतुलनीय है. लेकिन हुआ समाज से उन्हें समर्थन नहीं मिला. आप देख लीजिए किस तरह वे लोग गये. कुछ लोग तो फटेहाली में मरे. गाँधी युग में बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञों के पीछे या साथ साथ चलने वाले लोग ही बने रह सके. उनमें से भी जो लोग रैडिकल थे वे पीछे छूट गये. आपने से कईयों ने राधामोहन गोकुल जी का नाम सुना होगा. उनके बारे में पढते हुए इस हिन्दी समाज के संपन्न और संस्कृतिहीन लोगों की कृतघ्नता का पता चलता है. जब तक राजनेताओं ने किसी की सुध न ली कोई लेखक सम्मान का अधिकारी न हुआ. स्वामी सहजानंद का उदाहरण सामने आता है. उनसे बड़ा जनता का आदमी शायद ही कोई हुआ हो. लगभग अप्रासंगिक हो गये. भला हो उनकी जाति के नेताओं का जिन्होंने उन्हें जिलाए रखा.
आज़ादी के बाद हिन्दी का बुद्धिजीवी हाशिए पर ही रहा. समाज का नेतृत्व नेताओं के पास ही रहा. बुद्धिजीवी समाज के द्वारा पोषित हों तब तो वे वैसा कुछ कर सकें जिसकी उनसे अपेक्षा की जाती है. बंग्ला समाज अपने बुद्धिजीवियों के प्रति संवेदनशील रहा है. शमशेर के स्तर का कोई कवि बंग्ला में इतनी परेशानी में कभी नहीं रहेगा. मुक्तिबोध की बात न ही करें. आज आलोक धंवा घनघोर संकट में हैं. उनको जब लटकने के लिए एक रस्सी मिली तो उन्हें न जाने क्या क्या कहा जाने लगा. पूरे समाज में वही बुद्धिजीवी सामान्य तरीके से रह पाया जिसके पास कोई नौकरी हो या वह किसी बडे परिवार से आता हो. ऐसे में बुद्धिजीवी पर ठीकरा फोडना एक तरह से अनुचित है. समाज के नेतागण, बडे लोग इसके लिए जिम्मेदार हैं. कैसा समाज है हमारा ? बंगाल के हर घर ने टैगोर, बंकिम और शरत से लेकर जीवनानंद तक को सँजोया. महाश्वेता देवी आसमान से नहीं टपकीं. वे जब नवयुवती थी तब झाँसी जाकर लक्ष्मीबाई पर शोध कर सकती थीं. ऐसा समाज उन्हें मिला. और अपना हिन्दी समाज ? ज्यादा न ही बुलवायें .
बुद्धिजीवी सॉफ्ट टारगेट हैं . इसलिए जिसको जो मन में आता है वह उनपर जो चाहे बोल सकता है.
अब वापस उस जगह लौटा जाए जहाँ से बात शुरू हुई थी. इस देश में एक अतिवाम धारा है जिसके लिए बुद्धिजीवी की भूमिका तय है. वह यह आशा करते हैं कि बुद्धिजीवी सडकों पर उतरें, कंधे पर बंदूकें हों और वे हर उस कृत्य का समर्थन करें जिसे इस धारा की मुक्ति वाहिनी कर रही है. जो भी ऐसा नहीं करें वे बुद्धिजीवी नहीं सत्ता के हाथों बिके हुए हैं. इस धारा की धार को अर्द्ध -शताब्दी तक देखने-झेलने के बाद जनता उनके साथ जाने को तैयार नहीं. इसकी जिम्मेदारी किसकी ? निश्चित रूप से बुद्धिजीवी की ! वे ही नहीं समझते कि दरअसल माओवादी जनता के लिए लड रहे हैं और राज्य के खिलाफ उनका हर खूनी संघर्ष जायज है, जरूरी है. लेखक की किताब नहीं खरीदी जाती तो उसके लिए लेखक दोषी है. ऐसी किताबें क्यों नहीं लिखता जिसे जनता खरीदे ? विकास के मॉडल में माओवादी और गाँधीवादी मॉडल (पता नहीं यह बायनरी कैसे बनती है) के बीच बुद्धिजीवी को सीधे सीधे माओवाद के समर्थन में उतर जाना चाहिए. कार्पोरेट के लोग झूठे हैं (संरचनात्मक कारणों से !) और दक्षिण एशिया के तमाम देशों में एक ही आदर्श देश है जो औपनिवेशिकता के सांस्कृतिक दबावों से मुक्त है और वह है नेपाल !! इस तरह के जन-ज्वार में बहते हुए प्रबुद्धों के साथ हिन्दी के बुद्धिजीवी न बहें तो धिक्कार है उनपर !
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