जगदीश्वर चतुर्वेदी का अपराध यह है कि वे हिन्दी जगत में कुछ ऐसे प्रश्न उठाने की कोशिश कर रहे हैं जिसके लिए हिन्दी जगत तैयार नहीं दिखलाई पडता. हर मामला अगर व्यक्तिगत बनाकर छोड दिया जायेगा तो बहस का जो स्वरूप होगा वही हो जाता है. जगदीश्वर इस चिट्ठे में जो बुनियादी सवाल उठा रहे हैं वह है पाठ और उसके अर्थ का. यहां किस प्रोफेसर ने किसका शोषण किया इस बात को लाने का प्रयोजन ?
राजेन्द्र यादव समेत बहुत सारे बुजुर्ग लेखक नामवर सिंह की लोकप्रियता और उनके विवादों के केन्द्र में रखने की क्षमता के सामने अक्षम हो जाते हैं. ऐसे में वे जाति के नाम पर बहुत ही शानदार हथियार लेकर सूरमा बन बैठे हैं. वे इतिहास मूर्ख हैं यह कहना ठीक नहीं लेकिन जिस आधार पर वे ब्राह्मणों के विशेष गुण – अमूर्त को व्यक्त /साधने की क्षमता आदि- के कायल हो जाते हैं. इस बहाने वे तमाम गैर ब्राह्मण कवियों को हथियार दे देते हैं. अब कोई बडा कवि नहीं बनता है तो सीधा सा कारण है कि वह ब्राह्मण नहीं है और बैठे बैठे निठल्ला चिंतन करने वाली श्रेणी से नहीं आता.
महाराज, कम से कम यह तो सोचा होता कि दूसरे देशों के जो कवि हैं उनपर यह लाजिक क्यों नहीं लगता? क्या भारत की मिट्टी में ऐसा कुछ है कि यह लाजिक सिर्फ यहीं चलता है?
सोशियालाजी में एक फंक्शनलिस्ट स्कूल हुआ करता है जो यह मानता है कि कोई चीज अगर किसी समाज में है तो उसके कारण हैं (वाजिब कारण ). इस दृष्टि के प्रभाव को समझने के लिए यह देखिए कि खुद जगदीश्वर ने यह लिख दिया है कि वेद ब्राह्मणों ने लिखा है! जब वेद लिखे गये थे ब्राहमण कहां थे? वेद व्यास, आदि क्या दुबे चौबे के पूर्वज थे? क्या ऋग वेद कालीन समाज में ब्राहमण जन्म के आधार पर होते थे? कम से कम हमलोग यह नहीं मान सकते कि भारत के समस्त प्राचीन ग्रंथों के रचयिता ब्राहमण लोग थे. कृपया उन्नसवीं सदी में प्राचीन भारत की खोज पर फिर से विचार करिए. (बर्नार्ड कोन से लेकर उपिंदर सिंह की पुस्तकें इस मामले में सहायक हो सकती हैं). ब्राहमण जाति के भीतर जो समय के हिसाब से परिवर्तन हुए हैं दुर्भाग्य से इस पर बहुत सोचा नहीं जाता. बिहार के सबसे बडे जमींदार ब्राहमण थे इस बात को भी याद रखिए और बी पी मण्डल (यादव) बहुत बडे जमींदार परिवार के थे. हजारों ऐसे उदाहरण दिए जा सकते हैं जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि जाति परिवर्तन शील है. जाति का क्रिस्टिलाइजेशन औपनिवेशिक कालीन परिघटना है. पर इस ओर जाने से बहुत पढना लिखना पडेगा. कौन जाये. क्यों न सीधे सीधे पहचान को जाति से जोडो और लाठी लेकर कूद पडो. डेमोक्रेसी है, संख्या बल हमारे साथ है जीत हमारी होगी. एडवर्ड सईद का हवाला कई बार दिया जाता है लेकिन आपको याद हो कि खुद सईद ने भारत आने पर अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि ‘आइडेंटिटी बोर्स मी’. इतना तंग आ गये थे उनकी बात को पक़ड कर पहचान के प्रश्न के स्थूलीकरण से !
निवेदन है कि इस बात को देखें कि मूल प्रश्न यह है कि रचना का अर्थ रचना में है या पाठेतर संदर्भों में?
मैं जगदीश्वर चतुर्वेदी से इस बात में सहमत नहीं हूं कि पाठ का अर्थ प्राप्त करने के लिए पाठ से बाहर जाना अनिवार्य है. पाठ के अध्ययन की कई प्रविधियां हैं और आप पाठ को खोलकर उसके अर्थों की एक श्रृंखला पा सकते हैं. मुझे इस सन्दर्भ में एक निवेदन अन्य विद्वान मित्रों से करना है कि सवालों को देखें सवाल करने वाले कभी कभी सही सवाल को थोडे अटपटे ढंग से भी रखें तो भी सवाल को ही महत्त्वपूर्ण मानें, सवाल करने वाले को नहीं. जगदीश्वर एक साथ उन महानों की महानता के सामने प्रश्न खडे कर रहे हैं जो सामने मंच पर भिडते दिखाई पडते हैं लेकिन आपस में उनके बीच एक गहरा रिश्ता है. क्या कारण है कि हिन्दी में अभी भी ये सत्तर अस्सी पार के लोग एजेंडा सेट कर रहे हैं और वो भी बगैर ज्यादा मशक्कत के?
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Friday, 4 September 2009
Thursday, 20 August 2009
साम्प्रदायिकता, राष्ट्रवाद और साहित्य
बिहार में साम्प्रदायिकता, राष्ट्रवाद, साहित्य और जातिवाद
हिन्दी प्रदेश के इतिहासलेखन की एक बडी समस्या यह है कि इसे समाज के इतिहास को इसके अपने साहित्य और इस भाषा के स्रोतों की सहायता से कम और इतिहासलेखन के पाश्चात्य अकादमिक मानदंडों के आधार पर अधिक लिखा गया है. इस कारण से इस समाज के इतिहास के दो संस्करण हमें उपलब्ध होते हैं; एक ऐसा इतिहास जिसे हिन्दी प्रदेश के साहित्य और पत्रकारों ने राष्ट्रीय दृष्टि से सोचते हुए निर्मित किया और दूसरा जो इतिहास की अकादमिक समझ से निर्मित किया गया है. इन दोनों इतिहासों का लगभग स्वतंत्र सा अस्तित्व बना रहा है. एक विद्वान ने कहा है कि हिन्दी प्रदेश के दो इतिहास हैं- एक जो साहित्यिक दृष्टि से लिखा गया और दूसरा ऐतिहासिक दृष्टि से. दोनों को एक साथ रखकर कम विचार किया गया है. [1] इस पुस्तक को लिखने का उद्देश्य इन दोनों दृष्टियों को पास लाकर एक ऐसे इतिहास को तीन विचारधाराओं- राष्ट्रीय, साम्प्रदायिक और जातिवादी के विकास और अंतर्संपर्कों पर विचार करना है.
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इतने बडे हिन्दी प्रदेश में इतिहास लेखन के प्रति एक उदासीनता का भाव रहा है. एक बड़ा कारण यह है कि स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालयों में इतिहास के बारे में जो कुछ पढाया जाता है उसके साथ अध्ययनकर्ताओं का कोई लगाव होना मुश्किल है. जिस इतिहास बोध से भारतीय महान इतिहासकारों ने लिखा है वह मूलत: भारत को एक आधुनिक, पश्चिमी, अकादमिक दृष्टि से लिखा गया है और लगभग हर स्तर पर पश्चिमी ऐतिहासिक दृष्टि को वरियता प्रदान करती है. राष्ट्रवाद, सामुदायिकता, आधुनिक भाषा आदि का जिस रूप में विकास पश्चिमी देशों में पिछले तीन चार शताब्दियों में हुआ उसके आधार पर सामाजिक परिवर्तनों को समझने का जो माडल बना उसे ही आधार बनाकर भारतीय समाज को समझने की कोशिश होती रही है. ऐसा क्यों है और किस प्रकार औपनिवेशिक विचारधाराएं स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात भी सक्रिय और प्रभावी रही हैं इसकी विस्तृत चर्चा यहां संभव नहीं. यहां इस ओर सिर्फ संकेत भर किया जा सकता है कि भारत में प्रभावी तीनों तरह की दृष्टियां- राष्ट्रवादी, औपनिविशिक और मार्क्सवादी आधुनिक विचारधारा से प्रभावित हैं और इन तीनों दृष्टियों ने आधुनिकता को लाने वाली शक्तियों की तरफ से ही अपने अपने हिसाब से ऐतिहासिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है. इन तीनों के लिए औपनिवेशिक भारत में आती हुई प्रगतिशील आधुनिकता और प्रतिक्रियावादी सामाजिक शक्तियों ( धार्मिक शक्तियां समाहित) के बीच के संघर्ष को ध्यान में रखा गया है.
इतिहास दृष्टि
सामान्य प्रवृत्तियां
भारतीय सामाजिक विकास में मुख्य बाधाएं
नये भारत के भविष्य के प्रति दृष्टिकोण्
औपनिवेशिक दृष्टि
भारतीय समाजों को विभाजित मानना, अंग्रेज़ी शासन को आधुनिक शक्तियों द्वारा चालित मानना, भारतीय मध्यवर्ग को पाश्चात्य शिक्षा से दीक्षित होने के बाद अपने स्वार्थ के लिए अंग्रेज विरोधी मानना आदि
जातिवाद, धार्मिक अंधविश्वास, भारतीय समाज की जडता, आधुनिक शिक्षा और विज्ञान के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण, विकसित देशों से सीखने के बजाय उनके खिलाफ षडयंत्रकारी दृष्टिकोण आदि
भारत एक स्वंप्रभु राष्ट्र बनने में अक्षम और भीतरी विभाजनकारी शक्तियों के आपसी संघर्षों के कारण इसका एक राष्ट्र राज्य के रूप में विकास कठिन.
मार्क्सवादी दृष्टि
औपनिवेशिक दृष्टि की सभी प्रमुख प्रवृत्तियों को मानते हुए औपनिवेशिक युग को आर्थिक रूप से शोषणकारी मानना और इसके खिलाफ श्रमिकों और किसानों के संगठन को महत्त्व देना, इस क्रम में कांग्रेस द्वारा चलाए जा रहे राष्ट्रीय आन्दोलन को अपर्याप्त मानना क्योंकि ये अंतत: बुर्जुआ स्वार्थों की ही वकालत करते थे.
औपनिवेशिक दृष्टि की सभी प्रवृत्तियों को मानते हुए औपनिवेशिक शासन को भी इसके लिए जिम्मेदार मानना. हिन्दू साम्प्रदायिकता के प्रति ये कठोर थे और उन्हें ये समाज में अलगाव पैदा करने वाले और औपनिवेशिक शासकों के सहयोगी के रूप में देखते थे.
बुर्ज़ुआ गणतंत्र के रूप में इसका विकास विरोधाभासों को लेकर चलने के कारण ज्यादा टिकाऊ नहीं और समाजवादी भविष्य के लिए मार्ग प्रशस्त करने के लिए किसानों और मजदूरों के संगठन के साथ ही प्रतिक्रियावादी सांप्रदायिक और जातिवादी शक्तियों के विरूद्ध लगातार संघर्ष ज़रूरी.
उदारवादी राष्ट्रवादी दृष्टि
औपनिवेशिक दृष्टि की सभी प्रमुख प्रवृत्तियों को मानते हुए औपनिवेशिक युग को आर्थिक रूप से शोषणकारी मानना और इसके खिलाफ पूरे राष्ट्र को संगठित होने को सकारात्मक मानना.
औपनिवेशिक दृष्टि की सभी प्रवृत्तियों को मानते हुए औपनिवेशिक शासन को भी इसके लिए जिम्मेदार मानना. मार्क्सवादी दृष्टि से अंतर यह है कि इस दृष्टि के केन्द्र में उभरता हुआ मध्यवर्ग है जो पाश्चात्य ज्ञान से दीक्षित होकर, नये सोच को आत्मसात करके उदार समाज के प्रति सचेष्ट थे. हिन्दू मुसलमान सम्पर्क के बारे में इस दृष्टि के अनुसार अलगाव हाल के वर्षों में आया है और दोनों धर्मों के मानने वालों के बीच कोई वैमनष्य नहीं है.
राष्ट्र-राज्य के रूप में उदारवादी नेतृत्व में देश में एक शक्तिशाली राष्ट्र राज्य का निर्माण ज़रूरी.
जाहिर है कि इन सभी दृष्टियों कुछ बुनियादी अंतर होने के बावजूद एक बड़ा साम्य यह दिखलाई पडता है कि ये सभी एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में भारत के उभरने को एक सही मानते हैं और देश के भीतर जातिवादी और साम्प्रदायिक शक्तियों को देश की प्रगति के मार्ग में एक बडी बाधा मानते हैं.
बिहार के महान नेता राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी पुस्तक में यह माना है कि 1906-07 तक साम्प्रदायिकतावाद कोई बुरा शब्द नहीं था और लोग अपने को हिन्दू या मुसलमान कहने में किसी प्रकार की असुविधा का अनुभव नहीं करते थे. उस समय तक गांधीवाद का ‘सुपर कम्युनल’ राष्ट्रवादी विचारधारा का विकास हिन्दुओं में नहीं हुआ था.[2] राष्ट्रवाद, साम्प्रदायिकता और जातिवाद के अंतर्संपर्क की ऐतिहासिक व्याख्याओं में बिहार अब तक उपेक्षित सा रहा है. अब तक के अध्ययनों में पूरा ध्यान बनारस, इलाहाबाद आदि से प्रकाशित सामग्रियों के आधार पर अधिकतर विद्वानों ने यह दिखलाने का प्रयास किया है कि साम्प्रदायिकता राष्ट्रवाद के साथ साथ एक विचारधारा के रूप में विकसित होती गयी. इसकी शुरूआत दो आन्दोलनों- हिन्दी आन्दोलन (या नागरी लिपि आन्दोलन) और गौरक्षा आन्दोलन के माध्यम से हुई.[3]
[1] वसुधा डालमिया
[2] राजेन्द्र प्रसाद, इंडिया डिवाइडॆड ( बम्बई: हिंद किताब, 1946), 17.
[3] ज्ञान पाण्डेय, वसुधा डालमिया, किंग, आलोक राय ...
हिन्दी प्रदेश के इतिहासलेखन की एक बडी समस्या यह है कि इसे समाज के इतिहास को इसके अपने साहित्य और इस भाषा के स्रोतों की सहायता से कम और इतिहासलेखन के पाश्चात्य अकादमिक मानदंडों के आधार पर अधिक लिखा गया है. इस कारण से इस समाज के इतिहास के दो संस्करण हमें उपलब्ध होते हैं; एक ऐसा इतिहास जिसे हिन्दी प्रदेश के साहित्य और पत्रकारों ने राष्ट्रीय दृष्टि से सोचते हुए निर्मित किया और दूसरा जो इतिहास की अकादमिक समझ से निर्मित किया गया है. इन दोनों इतिहासों का लगभग स्वतंत्र सा अस्तित्व बना रहा है. एक विद्वान ने कहा है कि हिन्दी प्रदेश के दो इतिहास हैं- एक जो साहित्यिक दृष्टि से लिखा गया और दूसरा ऐतिहासिक दृष्टि से. दोनों को एक साथ रखकर कम विचार किया गया है. [1] इस पुस्तक को लिखने का उद्देश्य इन दोनों दृष्टियों को पास लाकर एक ऐसे इतिहास को तीन विचारधाराओं- राष्ट्रीय, साम्प्रदायिक और जातिवादी के विकास और अंतर्संपर्कों पर विचार करना है.
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इतने बडे हिन्दी प्रदेश में इतिहास लेखन के प्रति एक उदासीनता का भाव रहा है. एक बड़ा कारण यह है कि स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालयों में इतिहास के बारे में जो कुछ पढाया जाता है उसके साथ अध्ययनकर्ताओं का कोई लगाव होना मुश्किल है. जिस इतिहास बोध से भारतीय महान इतिहासकारों ने लिखा है वह मूलत: भारत को एक आधुनिक, पश्चिमी, अकादमिक दृष्टि से लिखा गया है और लगभग हर स्तर पर पश्चिमी ऐतिहासिक दृष्टि को वरियता प्रदान करती है. राष्ट्रवाद, सामुदायिकता, आधुनिक भाषा आदि का जिस रूप में विकास पश्चिमी देशों में पिछले तीन चार शताब्दियों में हुआ उसके आधार पर सामाजिक परिवर्तनों को समझने का जो माडल बना उसे ही आधार बनाकर भारतीय समाज को समझने की कोशिश होती रही है. ऐसा क्यों है और किस प्रकार औपनिवेशिक विचारधाराएं स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात भी सक्रिय और प्रभावी रही हैं इसकी विस्तृत चर्चा यहां संभव नहीं. यहां इस ओर सिर्फ संकेत भर किया जा सकता है कि भारत में प्रभावी तीनों तरह की दृष्टियां- राष्ट्रवादी, औपनिविशिक और मार्क्सवादी आधुनिक विचारधारा से प्रभावित हैं और इन तीनों दृष्टियों ने आधुनिकता को लाने वाली शक्तियों की तरफ से ही अपने अपने हिसाब से ऐतिहासिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है. इन तीनों के लिए औपनिवेशिक भारत में आती हुई प्रगतिशील आधुनिकता और प्रतिक्रियावादी सामाजिक शक्तियों ( धार्मिक शक्तियां समाहित) के बीच के संघर्ष को ध्यान में रखा गया है.
इतिहास दृष्टि
सामान्य प्रवृत्तियां
भारतीय सामाजिक विकास में मुख्य बाधाएं
नये भारत के भविष्य के प्रति दृष्टिकोण्
औपनिवेशिक दृष्टि
भारतीय समाजों को विभाजित मानना, अंग्रेज़ी शासन को आधुनिक शक्तियों द्वारा चालित मानना, भारतीय मध्यवर्ग को पाश्चात्य शिक्षा से दीक्षित होने के बाद अपने स्वार्थ के लिए अंग्रेज विरोधी मानना आदि
जातिवाद, धार्मिक अंधविश्वास, भारतीय समाज की जडता, आधुनिक शिक्षा और विज्ञान के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण, विकसित देशों से सीखने के बजाय उनके खिलाफ षडयंत्रकारी दृष्टिकोण आदि
भारत एक स्वंप्रभु राष्ट्र बनने में अक्षम और भीतरी विभाजनकारी शक्तियों के आपसी संघर्षों के कारण इसका एक राष्ट्र राज्य के रूप में विकास कठिन.
मार्क्सवादी दृष्टि
औपनिवेशिक दृष्टि की सभी प्रमुख प्रवृत्तियों को मानते हुए औपनिवेशिक युग को आर्थिक रूप से शोषणकारी मानना और इसके खिलाफ श्रमिकों और किसानों के संगठन को महत्त्व देना, इस क्रम में कांग्रेस द्वारा चलाए जा रहे राष्ट्रीय आन्दोलन को अपर्याप्त मानना क्योंकि ये अंतत: बुर्जुआ स्वार्थों की ही वकालत करते थे.
औपनिवेशिक दृष्टि की सभी प्रवृत्तियों को मानते हुए औपनिवेशिक शासन को भी इसके लिए जिम्मेदार मानना. हिन्दू साम्प्रदायिकता के प्रति ये कठोर थे और उन्हें ये समाज में अलगाव पैदा करने वाले और औपनिवेशिक शासकों के सहयोगी के रूप में देखते थे.
बुर्ज़ुआ गणतंत्र के रूप में इसका विकास विरोधाभासों को लेकर चलने के कारण ज्यादा टिकाऊ नहीं और समाजवादी भविष्य के लिए मार्ग प्रशस्त करने के लिए किसानों और मजदूरों के संगठन के साथ ही प्रतिक्रियावादी सांप्रदायिक और जातिवादी शक्तियों के विरूद्ध लगातार संघर्ष ज़रूरी.
उदारवादी राष्ट्रवादी दृष्टि
औपनिवेशिक दृष्टि की सभी प्रमुख प्रवृत्तियों को मानते हुए औपनिवेशिक युग को आर्थिक रूप से शोषणकारी मानना और इसके खिलाफ पूरे राष्ट्र को संगठित होने को सकारात्मक मानना.
औपनिवेशिक दृष्टि की सभी प्रवृत्तियों को मानते हुए औपनिवेशिक शासन को भी इसके लिए जिम्मेदार मानना. मार्क्सवादी दृष्टि से अंतर यह है कि इस दृष्टि के केन्द्र में उभरता हुआ मध्यवर्ग है जो पाश्चात्य ज्ञान से दीक्षित होकर, नये सोच को आत्मसात करके उदार समाज के प्रति सचेष्ट थे. हिन्दू मुसलमान सम्पर्क के बारे में इस दृष्टि के अनुसार अलगाव हाल के वर्षों में आया है और दोनों धर्मों के मानने वालों के बीच कोई वैमनष्य नहीं है.
राष्ट्र-राज्य के रूप में उदारवादी नेतृत्व में देश में एक शक्तिशाली राष्ट्र राज्य का निर्माण ज़रूरी.
जाहिर है कि इन सभी दृष्टियों कुछ बुनियादी अंतर होने के बावजूद एक बड़ा साम्य यह दिखलाई पडता है कि ये सभी एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में भारत के उभरने को एक सही मानते हैं और देश के भीतर जातिवादी और साम्प्रदायिक शक्तियों को देश की प्रगति के मार्ग में एक बडी बाधा मानते हैं.
बिहार के महान नेता राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी पुस्तक में यह माना है कि 1906-07 तक साम्प्रदायिकतावाद कोई बुरा शब्द नहीं था और लोग अपने को हिन्दू या मुसलमान कहने में किसी प्रकार की असुविधा का अनुभव नहीं करते थे. उस समय तक गांधीवाद का ‘सुपर कम्युनल’ राष्ट्रवादी विचारधारा का विकास हिन्दुओं में नहीं हुआ था.[2] राष्ट्रवाद, साम्प्रदायिकता और जातिवाद के अंतर्संपर्क की ऐतिहासिक व्याख्याओं में बिहार अब तक उपेक्षित सा रहा है. अब तक के अध्ययनों में पूरा ध्यान बनारस, इलाहाबाद आदि से प्रकाशित सामग्रियों के आधार पर अधिकतर विद्वानों ने यह दिखलाने का प्रयास किया है कि साम्प्रदायिकता राष्ट्रवाद के साथ साथ एक विचारधारा के रूप में विकसित होती गयी. इसकी शुरूआत दो आन्दोलनों- हिन्दी आन्दोलन (या नागरी लिपि आन्दोलन) और गौरक्षा आन्दोलन के माध्यम से हुई.[3]
[1] वसुधा डालमिया
[2] राजेन्द्र प्रसाद, इंडिया डिवाइडॆड ( बम्बई: हिंद किताब, 1946), 17.
[3] ज्ञान पाण्डेय, वसुधा डालमिया, किंग, आलोक राय ...
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