Wednesday, 22 December 2010

अंग्रेजी का बढता दबाव और हिन्दी समाज के बौद्धिकों का दायित्व

बातचीत अंग्रेज़ी में गांधीजी पर हो रही थी. इतिहासकार शाहिद अमीन ने अपना मत रखा कि गांधीगिरी का प्रयोग उचित नहीं है और इस बात के समर्थन में वे एक पुराने गाने से 'दादागिरी नहीं चलने की यहां का उदाहरण दे रहे थे, अचानक गांधी के तुनुकमिज़ाज प्रपौत्र तुषार गांधी भडक गये. तुषार गांधी को शांत करने के लिए अंतत: बरखा दत्त हिन्दी में बोलीं- तुषार, उनको अपनी बात कहने दें. दत्त के हिन्दी में बोलने का सुयोग लेकर शाहिद अमीन हिन्दी में बोलने लगे और माहौल को सामान्य करने के लिए बाबा रामदेव आदि की बातें करने लगे. बातचीत का पूरा माहौल बदल गया. अब तक जो बातचीत एक कॉंवेंटी माहौल में हो रही थी वहां एक पल के लिए सहज वातावरण बन गया. इस तरह के अनुभवों के बाद यह सोचने का मन होता है कि क्या इस देश में यह बातचीत हिन्दी के सहज भाषाई परिवेश में नहीं हो सकती. अगर नहीं तो क्यों? क्यों इस देश के बडे लोग एक दूसरे से अंग्रेजी में इस तरह बातचीत करते हुए दिखाई पडते हैं. टी वी चैनलों पर हम क्यों ऐसा परिवेश तैयार करते हैं कि अधिकतर लोग असहज हो जाएं. देश के बडे लोग भी (राजनेता समेत) जब अंग्रेजी बोलने की कोशिश में असहज होते दिखलाई पडते हैं और धीरे धीरे वे तमाम लोग जो अंग्रेजी में सहज नहीं थे अब अंग्रेजी सीखने के लिए विवश हुए और अब अंग्रेजी में साक्षात्कार देते है तो यह प्रश्न मन में आता ही है कि हम इस देश में ऐसी संस्कृति को क्यों बढावा दे रहे हैं जिसमें इस देश के लोग अपने लोकप्रिय जन-माध्यम में इतना असहज हो जाता हो और इंग्लैण्ड और अमरीका का आदमी पूरी सहजता से भारत के जनमाध्यम में बोलता दिखलाई पडता हो.
हर समय का अपना एक कॉमन सेंस बनता है या बनाया जाता है जिसे उस समय के शक्तिशाली प्रभुवर्ग निर्मित करते हैं. 1990 के बाद से जब से इस देश में वैश्वीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है यह बात मान्य होने लगी है कि अंग्रेजी का ज्ञान हमारे लिए एक वरदान है और जो लोग दुनिया में आगे बढने की कोशिश करना चाहते हैं उनके लिए अंग्रेजी का ज्ञान आवश्यक है. यह एक दुष्प्रचार का परिणाम है कि पश्चिम बंगाल की सी पी एम सरकार सहयोगी दलों के विरोध के बावजूद अब सरकारी स्कूलों में अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा देने की नीति पर अमल कर रही है. अंग्रेजी के बढते वर्चस्व के इस दौर में एक प्रकार की असहजता हर उस नागरिक में लक्षित की जा सकती है जो अंग्रेजी का प्रयोग अपने दैनिक जीवन में करने का अभ्यस्त नहीं है. जिस तरह से अंग्रेजी स्कूलों का जोर बढा है और देश की तमाम नौकरियों के लिए अंग्रेजी को जरूरी सा बनाने की सांस्थानिक कोशिशें तेज हुई हैं उसे देखते हुए इस देश में इस देश में यह एक बहस का मुद्दा बनना चाहिए कि इस युग में शिक्षित भारतीय क्या हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं के बदले अंग्रेजी को इस देश में राजकाज, शिक्षा और दैनिक जीवन में तरजीह देने के लिए तैयार होने की दिशा में बढ रहा है या नहीं.
अंग्रेजी विरोध के आन्दोलन का युग बीत गया लगता है. जिस तरह हमारे सामाजिक जीवन के तीन क्षेत्रों - शिक्षा, मनोरंजन और राजकाज की भाषा के रूप में अंग्रेजी का वर्चस्व बढा है वह एक विचारणीय प्रश्न है. इस बिन्दु पर बहुधा लोग कुछ अतिप्रचलित उदाहरणों, उद्धरणों का प्रयोग करते हैं. जैसे- " कह दो गांधी को वह अंग्रेजी नहीं जानता", " मातृभाषा में ही हमारा स्वस्थ विकास हो सकता है " आदि आदि. इस तरह की बातों को दुहराते हुए, हिन्दी दिवसों का पालन करते हुए इसे अब झुठलाया नहीं जा सकता है कि इस देश में भाषा का मुद्दा एक खतरनाक मोड पर पहुंच गया है.
हिन्दी का भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में "राष्ट्रीय" बनना एक विचारधारात्मक संघर्ष का परिणाम था. कम से कम जब से गांधी जी नेतृत्व में आये थे हिन्दी राष्ट्रीय आन्दोलन की भाषा बन गयी थी. एक बार बाल गंगाधर तिलक कलकत्ता के मछुआ बाज़ार में भाषण देने आए. गांधीजी हिन्दी में बोल चुके थे और तिलक को लगा कि अगर वे अंग्रेजी में बोलेंगे तो जनता पर अपेक्षित प्रभाव पैदा नहीं होगा. वे सार्वजनिक जीवन में पहली बार हिन्दी में बोले और इसका बहुत अच्छा प्रभाव पडा. इसके बाद तिलक हिन्दी में ही बोलने लगे. यह गांधी का ही प्रभाव था. कलकत्ता के शिक्षित लोग एक बार गांधीजी के सोदपुर आने पर उनसे आग्रह करने लगे कि वे हिन्दी में न बोलें. गांधीजी ने उनलोगों को फटकार लगाई और हिन्दी में बोले. वह एक बेहद दिलचस्प अध्याय है जिसमें 1927 में गांधी हिन्दी के पक्ष में इस तरह बोले कि आज का हिन्दी वाला भी शर्मा जाए. अपने आचरण से भी गांधी ने हिन्दी को बहुप्रचारित किया. गोविन्द बल्लभ पंत अल्मोडा में अंग्रेजी माध्यम से पढे थे और वे अंग्रेजी में गांधी को पत्र लिखते थे जिसका उत्तर गांधी हिन्दी में देते थे. शर्म आने पर पंत भी उन्हें हिन्दी में पत्र लिखने लगे. इस तरह के ढेरों उदाहरण दिए जा सकते हैं लेकिन गांधी की भाषा पर कम विचार किया जाता है. इसे विडंबना ही कहना चाहिए कि गांधी के भाषणों और पत्रों का जो संकलन गांधी समग्र में आया है उनमें से अधिकतर पहले छपे अंग्रेजी वाड्गमय के हिन्दी अनुवाद है. मूल रूप से ये भाषण हिन्दी में दिए गए थे!
इन बातों को पुराने युग के कॉमन सेंस में इस लिए स्वीकृत माना गया था क्योंकि उस समय राष्ट्रीय स्वप्न और विचारधारा का जोर था जिसमें एक राष्ट्र, एक भाषा की बात को समर्थन था. सुदीप्त कविराज यह स्मरण कराते हैं कि इस देश में राष्ट्रीय स्वप्न ने भारतीय भाषाओं ने अपना स्वरूप तैयार किया था न कि अंग्रेजी में. उत्तर औपनिवेशिक भारत में अंग्रेजी बनी रही और वैश्वीकरण के दौर में तो यह संभावना व्यक्त की जा रही है कि यह नये 'इंडिया' की भाषा बन जायेगी.
इस ग्लोबल युग में किसी को संदेह नहीं होना चाहिए कि इस देश में शासन और शिक्षा की असली भाषा अंग्रेजी ही है. आकडों को दिखला कर यह कहना कि इस देश में शिक्षा की भाषा भारतीय भाषाएं हैं एक छलावा ही है. जिसे हिन्दी माध्यम का स्कूल कॉलेज कहा जाता है वहां हिन्दी के अलावा सबकुछ अंग्रेजी में तैयार पाठ्यक्रमों का अनुवाद ही पढाया जाता है. दो तीन दशक पहले तक शिक्षकों की कोशिशों से कुछ प्रयत्न होते थे कि अन्य विषयों को भी हिन्दी में उचित तरीके से पढाया जाए पर अब सब कुछ मानो अंग्रेजी की नकल पर ही होने लगा है. लगभग हर समाजविज्ञान के क्षेत्र में सभी राष्ट्रीय संस्थाएं अंग्रेजी में काम करती हैं. तकनीकी क्षेत्रों की बात छोड ही दें जहां हिन्दी में काम करने में अपेक्षाकृत रूप में कठिनाई है. इसे क्या कहा जाए कि इतिहास अध्ययन के क्षेत्र में वार्षिक अधिवेशन में कोई भी पर्चा हिन्दी में नहीं छप सकता जबकि विकल्प देने पर कम से कम पचास फीसदी से ज्यादा पर्चे हिन्दी में प्रस्तुत किए जाएंगे. एक बार फ्रांस से पी एच डी किए लाल बहादुर वर्मा हिन्दी में पर्चा पढने लगे तो एक ख्यात हिन्दी भाषी इतिहासकार ने जिस तरह उन्हें घूरा और हतोत्साहित किया उसे वर्मा 'जीवन में न भूलने वाला अनुभव' मानते हैं. दरअसल, हिन्दी पर हमला कई तरह से किया जाता है. इस मुद्दे पर इस देश के एलिट समुदाय में अद्भुत एका है. हिन्दी में लिखे लेखों और पुस्तकों को दर्ज ही नहीं किया जाता. इस बार इंडियन हिस्टॉरिकल इंसटीच्यूट के मुंबई वार्षिक अधिवेशन में अर्चना ढेरे (जो मराठी साहित्य की प्राध्यापिका हैं ) ने एक अविस्मरणीय बीज वक्तव्य हिन्दी में दिया. यह तय मानिए कि इस वक्तव्य को हिन्दी में दिए जाने के कारण कभी भी प्रमुखता से कहीं भी छापा नहीं जाएगा. संभव है इस तरह के वक्तव्य हिन्दी में देने वाले लोग अपवाद के रूप में भी न दिखें. अंग्रेजी एलिट में हिन्दी के विरूद्ध जो एका है उसे समझकर हिन्दी भाषी बौद्धिकों ने तैयारी करने की सख्त जरूरत है. यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस देश में हर भाषा के सम्मान के लिए सबसे ज्यादा तत्पर उस समाज के उदार लोग नहीं हैं. ये उन्नत सोच वाले उदार लोग अंग्रेजी के साथ हैं.
शिक्षा और राजकाज के अतिरिक्त जो इलाका अंग्रेजी की दखल में चला जा रहा है वह इस दौर के सांस्कृतिक संकट को सबसे अच्छी तरह से स्पष्ट करता है. वह क्षेत्र है मनोरंजन का. इस देश में हिन्दी फिल्म और क्रिकेट बहुत लोकप्रिय है. इन दोनों क्षेत्रों में अंग्रेजी ने चोर दरवाजे से अपना वर्चस्व बनाया है. हिन्दी फिल्म का लगभग हर शख्स फिल्म के अलावा बाकी सब जगहों पर अंग्रेजी में बोलता है या बोलना चाहता है. सिर्फ बंगाल में आनंद बाजार ग्रुप की नीतियों के कारण फिल्म जगत के लोग बांग्ला भाषी जनता के लिए हिन्दी में बोलते हैं ! लता मंगेशकर, आशा भौंसले आदि कुछ गायकों को छोडकर कोई छोटी बडी फिल्मी हस्ती हिन्दी में बोलती दिखाई नहीं देती. क्रिकेट की कमेंट्री अब अंग्रेजी में ही होती है. भला हो दूरदर्शन की पुरानी नीतियों का कि एक कोने में एक टी वी दे दिया जाता है जिसे देखकर सुशील दोषी जैसे हिन्दी के यशस्वी कमेंट्रेटर हिन्दी में कमेंट्री करते हैं. यह बात गौर करने की है कि आज भी सुशील दोषी साफ सुथरी हिन्दी में बेहतरीन कमेंट्री करते हैं. हमें उनका कृतज्ञ होना चाहिए. जिन लोगों ने हिन्दी में कमेंट्री की शुरूआत की थी, मसलन अरूण लाल, मोहिन्दर अमरनाथ, मनिंदर सिंह आदि वे सब अब अंग्रेजी में कमेंट्री करने लगे. कपिलदेव जैसे लोग हिंदी कमेंट्री के लिए तैयार नहीं. वे अंग्रेजी कमेंट्री करना चाहते है जिसके लिए चैनल वाले तैयार नही ! हम सब मिलकर अब नहीं चेते और इस तरह के तर्क देते रहे कि बाज़ार तो हिन्दी के साथ है और भले ही अंग्रेजी में बोला जाता हो लेकिन अर्थ ग्रहण हिन्दी में होता है, हम भूल कर रहे हैं. खतरा यहां तक बढ गया है कि हिन्दी के लोग भी अंग्रेजी शैली में सोचने विचारने के अभ्यस्त होने लगे हैं, अपनी हिन्दी छवि को छुपाने लगे हैं. जो लोग हिन्दी के अध्यापक हैं वे जब अंग्रेजी में या अंग्रेजीनुमा हिन्दी में बोलने दिखने की होड में दिखते हैं तो उन तमाम नौजवानों को बेहद निराशा होती है जो इस संकट के दौर में भी अपनी भाषा में काम करना चाहते हैं. हिन्दी समाज के प्रबुद्ध लोगों को इस दिशा में काम करने की संभावनाओं को बढाने की कोशिश करनी चाहिए. तभी वह सहज माहौल हम जन माध्यमों में पाएंगे जो हिन्दी के आते ही सहज ही टी वी के पर्दे पर आ जाता है. पर इस सांस्कृतिक माहौल को हम अपनी भाषा के प्रति दायित्वशील होकर ही हासिल कर सकते हैं.

4 comments:

  1. अपनी एक टिप्‍पणी यहां दुहरा रहा हूं-
    'हम में से अधिकतर बच्‍चों के सिर्फ अंगरेजी ज्ञान से संतुष्‍ट नहीं होते बल्कि उसकी फर्राटा अंगरेजी पर पहले चमत्‍कृत फिर गौरवान्वित होते हैं. चैत-बैसाख की कौन कहे हफ्ते के सात दिनों के नाम और 1 से 100 तक की क्‍या 20 तक की गिनती पूछने पर बच्‍चा कहता है, क्‍या पापा..., पत्‍नी कहती है आप भी तो... और हम अपनी 'दकियानूसी' पर झेंप जाते हैं. आगे क्‍या कहूं'.

    ReplyDelete
  2. तिलक और गाँधी का प्रसंग आप ने अच्छा बताया है .मुझे मालूम नहीं था.हिंदी पर गर्व के साथ जोर दिया जाना जरूरी है,कमजोरी छुपाने वाले अंदाज में नहीं .

    ReplyDelete
  3. bahut hi sarthak post hai aapki
    sundar chintan
    aapse puri tarah sahmat hain

    aabhaar
    shubh kamnayen

    ReplyDelete
  4. Hitendra ji namaskar
    aapka lekh sachmuch bahut aacha hai. aapse main prafulla chaki ke bare main or bhi jankari chahta hoon ho sake to unka photo or details muje mail kar de .main aapse sampark karna chahta hoon agar sambhv ho to apna phone number de .
    main mokama se hoon janha prafulla chaki saheed hue the ..
    aapke meassage ka intjar rahega...
    Basuki Nath
    09990436770
    basuki2k2@gmail.com

    ReplyDelete