Friday 17 September, 2010

रवींद्रनाथ की देश-चिंता

रवींद्रनाथ की देश-चिंता ; कुछ प्रसंग
हितेन्द्र पटेल एसोसिएट प्रोफेसर, इतिहास विभाग, रवींद्र भारती
विश्वविद्यालय, कोलकाता.


रवींद्रनाथ ठाकुर को इस देश में आधुनिक समय के सबसे विख्यात संस्कृति
पुरूष के रूप में स्वीकार किया जाता रहा है. लगभग सभी भारतीय भाषाओं के
लेखकों- पाठकों ने उन्हें सम्मान दिया है. गाँधी के बाद सबसे अधिक उन्हीं
के नाम से विभिन्न सरकारी और सार्वजनिक स्थलों के नाम भी रखे गये हैं.
ऐसी अनेक कविताएं और लेख भारत की विभिन्न भाषाओं में मिल जाते हैं जिसके
आधार पर यह कहना अनुचित न होगा कि पूरे भारत के साहित्यकारों ने पाठकों
को अपना कवि माना है. वे बंग्ला के कवि भले ही हों वे सही अर्थों में
पूरे आधुनिक भारतीय साहित्य के सबसे महान प्रतिनिधि माने गये हैं. नेहरू
का यह कथन कि उनके दो गुरू हैं- गांधी और रवींद्रनाथ इस बात के प्रमाण
हैं कि उन्हें सिर्फ साहित्यिक नहीं एक सांस्कृतिक पुरूष के रूप में
सम्मान दिया गया है.
इन सब बातों के आधार पर यह मान लिया जाना युक्ति-संगत नहीं होगा कि उनकी
सच्ची विरासत को लोगों के सामने उचित ढंग से रखा गया है. अधिकतर जगहों पर
उनके नाम का प्रयोग तो बहुत मिलता है लेकिन उनके विचारों के प्रति गहरा
सरोकार नहीं दिखता. आज वैश्वीकरण के युग में उन्हें ठीक से कितना पढते
हैं इसके बारे में बहुत उत्साह वर्द्धक टिप्पणी करना मुश्किल ही होगा. यह
कहना शायद ठीक होगा कि गाँधी की तरह उनके नाम का प्रयोग तो बहुत अधिक हुआ
है लेकिन उनके सरोकारों और उनके संघर्षों को भुला दिया गया. इस आलेख में
कुछ ऐसी बातों का उल्लेख किया गया है जिससे रवीन्द्रनाथ की सच्ची विरासत
को समझने में मदद मिल सके.
यह भ्रामक है कि रवीन्द्रनाथ अपने देश में अपने जीवन काल में सर्वप्रिय
थे. खुद उन्हीं के शब्दों में देखें. अपने एक लेख में वह कहते हैं -"
मेरे साहित्य के प्रति बहुत दिनों तक एक विरोध बना रहा. कुछ लोगों को
लगता था कि मेरी कविताएँ राष्ट्रीय हृदय से नहीं निकली हैं; कुछ लोगों ने
इसे समझ में नहीं आने वाली बतलाया और कइयों ने इन्हें अ-पूर्ण माना.
वास्तव में, मुझे अपने लोगों ने कभी भी पूरी तरह से स्वीकार नहीं
किया...". एक विद्वान ने एक दिलचस्प टिप्पणी की है जिसे ध्यान में रखा जा
सकता है. उनका एक सीधा सा प्रश्न था - रवीन्द्रनाथ अपनी उम्र के ही
विवेकानंद के साथ ही बडे हुए थे. दोनों के बीच के संबंध ऐसे थे कि लडकपन
में जब रवीन्द्रनाथ गाते थे तो विवेकानंद पखावज बजाते थे. दोनों के घर के
बीच आधा किलोमीटर से अधिक की भी दूरी नहीं थी. फिर उन दोनों महानों ने एक
दूसरे के बारे में इतना कम क्यों कहा. रवीन्द्रनाथ के एक-आध लेखों के
अलावा ज्यादा कुछ हमें नहीं मिलता. ऐसा क्यों था? इसके उत्तर में एक
सामान्य उत्तर होगा कि रवीन्द्रनाथ का परिवार ब्राह्म समाज का प्रचारक था
और विवेकानंद सनातनी वेदांती धारा के लोगों के साथ थे. पर यह व्याख्या
यथेष्ट नहीं. बंकिमचन्द्र भी हिंदूवादी मतादर्श के ही थे लेकिन उनके
प्रति रवीन्द्रनाथ ने बहुत ही आदर से लिखा. एक बार बंकिम की युवा
रवीन्द्रनाथ को फटकार ने भी रवीन्द्रनाथ के मन में बंकिम के प्रति आदर को
कम नहीं किया.
अपने एक प्रसिद्ध लेख 'कलाकार का धर्म' में रवीन्द्रनाथ ने उन्नीसवीं
शताब्दी के तीन आन्दोलनों को केन्द्रीय माना है. उनके अनुसार इन तीन
आंदोलनों ने बंगाल और पूरे देश को प्रभावित किया. ये आंदोलन थे- राजा
राममोहन राय द्वारा शुरू किया गया धार्मिक आन्दोलन, बंकिमचन्द्र
चट्टोपाध्याय द्वारा शुरू किया गया साहित्यिक आन्दोलन (जिसने अपने जादुई
छडी से सदियों से सोई हुई बंग्ला भाषा को जगा दिया) और राष्ट्रीय आंदोलन.
आमतौर पर रवींद्रनाथ को राष्ट्रवाद का विरोधी समझा जाता है लेकिन यह सही
नहीं है. यह सही है कि स्वदेशी आंदोलन के बाद उन्होंने उग्र राष्ट्रवाद
का विरोध किया था और अपने को स्वदेशी आंदोलन से एक तरह से अलग किया था.
अपने उपन्यासों में- खासकर घरे बाइरे में वे इसी रूझान को स्पष्ट करते
भी है. लेकिन वे राष्ट्रवादी आंदोलन को प्रतिक्रियावादी न मानकर
क्रांतिकारी मानते हैं जिसने अपने देश के इतिहास में देश के लोगों का
विश्वास पैदा किया और इस भ्रम को तोडा कि यूरोप की नकल में कोई मान है.
यह सब उसी लेख में स्पष्टत: लिखा है जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है.
रवीन्द्रनाथ के साहित्य के अध्ययन की एक समस्या यह रही है कि वे गाँधी की
तर्ह भाषा के भीतर गहरे अर्थों को लेकर चलते थे जिसके आधार पर उनकी बातों
के निहितार्थ को समझने के लिए उनके साहित्य में गहरे उतरना पडता है. थोडी
सी असावधानी से उनके साहित्य के भीतर से उल्टा अर्थ भी निकाला जा सकता
है. 'नेशनलिज्म' पर 1917 में लिखी उनकी पुस्तक के आधार पर बहुत सारे
विद्वान उन्हें राष्ट्रवादी न मानकर अंतर्राष्ट्रीय मनोभाव का कवि-विचारक
मानते हैं, लेकिन यह उनके विचारों का एक अधूरा पाठ है. रवींद्रनाथ हमेशा
अपने देश की संस्कृति, इतिहास और परंपरा को एक भारतीय दृष्टि से देखते
थे. इस भारतीय दृष्टि का एक नमूना वह लेख है जिसमें वे सभ्यता पर विचार
करते हैं. अपने एक लेख में कहा है कि उनके लिए यूरोप से आयातित
'सिविलाइजेशन' शब्द के लिए भारत में जो सबसे उपयुक्त शब्द है वह है धर्म.
यह धर्म उनके लिए कोई संगठित धर्म नहीं बल्कि वे मूल्य हैं जिसे व्यक्ति
अपने जीवन में लेकर चलता है. इस बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने एक
सुंदर उदाहरण दिया है. अपने एक अनुभव का उल्लेख करते हुए वे बताते हैं कि
एक बार कलकत्ता आते हुए रास्ते में उनकी मोटर में खराबी आ गयी और उसे फिर
से चलाने के लिए बार बार पानी की जरूरत थी. कुल सौ किलोमीटर की यात्रा
में कई बार गरीब लोगों ने उन्हें बहुत परिश्रम से पानी लाकर पानी दिया.
उसके बदले में किसी भी गरीब ने पैसे लेने से इंकार कर दिया. हालाँकि उन
गरीबों को पैसे की बहुत जरूरत थी. इस यात्रा में जब गाडी कोलकाता के
नज़दीक पहुंची जहाँ पानी देना सुलभ था वहाँ इसके बदले में आदमी ने पैसे
माँगे. रवींद्रनाथ ने लिखा है कि अगर गरीब लोग पानी का व्यवसाय करते तो
उनको बहुत फायदा होता लेकिन किसी प्यासे को पानी पिलाना या जरूरत-मंद को
पानी देकर या खाना खिलाकर उसके बदले पैसे लेना ये गरीब धर्म के विरूद्ध
समझते हैं. इन लोगों की दुनियावी जरूरत और उनके धर्म के बीच के इस संबंध
को रखते हुए रवींद्रनाथ कुछ टिप्पणियाँ करते है. वे कहते हैं कि जीवन के
सहज रूप में जो मूल्य लोग अपने भीतर लिए हुए चलते है (इसके लिए 'सस्टेन'
शब्द का प्रयोग किया गया है) उसकी प्राप्ति बहुत कठिन है. इस धर्म के बोध
को ही रवींद्रनाथ सभ्यता कहते हैं. (देखें- उनका प्रसिद्ध लेख-
'सिविलाइजेशन एंड प्रोग्रेस', बाउंडलेस स्काई, कोलकाता, 1964,
पुनर्मुद्रित 2006).
आशिस नंदी ने अपनी पुस्तक राष्ट्रवाद बनाम देशभक्ति में लिखा है कि
रवींद्रनाथ को डर था कि भारतीय राष्ट्र का विचार कहीं भारतीय सभ्यता पर
प्राथमिकता न प्राप्त कर ले. वे नहीं चाहते थे कि भारतवासियों की जीवन
शैलियों का आकलन केवल भारत नामक राष्ट्र-राज्य की कसौटियों पर हो. नंदी
दिखलाते हैं कि कैसे रवींद्रनाथ राष्ट्रवादी विचारधारा से असहमत होते चले
गये. उनके अनुसार रवींद्रनाथ राष्ट्रभक्ति नहीं देशभक्ति को आधार बना कर
चले थे. उनके जीवन में नंदी अलग अलग समय पर तीन तरह की प्रवृत्तियों की
चर्चा करते हैं. उनके अनुसार रवींद्रनाथ युवावस्था में हिंदू राष्ट्रवाद
से प्रभावित थे, वयस्क होने पर वे ब्राह्मणवादी-उदार-मानवतावाद से
प्रभावित हुए और जीवन के अंतिम वर्षों में राज्य-विरोधी होने तक पहुंच
गये. यह स्थापना रवींद्रनाथ को एक ऐसे विचारक के रूप में प्रस्तुत करती
है जो निरंतर अपने विचारों को अपने जीवनानुभवों और सभ्यता-विवेक से
परिष्कृत करने वाले विचारक के रूप में प्रस्तुत करता है. एक दार्शनिक ने
गाँधी के सन्दर्भ में उनके युग-धर्म के पालन को केन्द्रीय महत्त्व दिया
है. अगर रवींद्रनाथ के संदर्भ में किसी चीज को केन्द्र में रखकर देखने के
लिए उनके सभ्यता विवेक को प्रस्तावित किया जाये तो शायद गलत नहीं होगा.
यह उनका सभ्यता-विवेक ही था जो उन्हें राष्ट्रवाद के खिलाफ खडे होने की
शक्ति प्रदान करता था. यह सर्वविदित है कि जब बंगाल का विभाजन हुआ और
बंगाल के बुद्धिजीवी कर्जन की बंगाल को बाँटकर राष्ट्रवादी शक्तियों को
कमजोर करने के इस प्रयास का विरोध शुरू हुआ रवींद्रनाथ ने इस आंदोलन की
अगुवाई की थी. उनका गीत 'आमार सोनार बांग्ला' उस समय आंदोलन का गीत बन
गया था. लेकिन, रवींद्रनाथ ने स्वदेशी आंदोलन के दौरान के अपने अनुभवों
और भारतीय सभ्यता के प्रति अपनी दृष्टि के कारण यह देख लिया कि इस
विचारधारा में क्या दोष है. वे पश्चिमी इतिहास पर आधारित राष्ट्रवाद की
अवधारणा को भारतीय संदर्भ में दोषयुक्त मानते थे. इसी कारण से वे
गरमपंथियों के आदर्शों से सहमत नहीं थे. उनके इस कथन पर ध्यान दिया जाना
चाहिए- " जिन लोगों को उनकी राजनीतिक आजादी मिल गयी है, वे जरूरी नहीं कि
आजाद ही हों. वे तो केवल ताकतवर भर हैं. उनका बेलगाम आवेश स्वाधीनता के
धोखे में गुलामी को बढावा दे रहा है." (नेशनलिज्म , 1917, पुनर्मुद्रण,
मद्रास: मैकमिलन, 1985, पृ. 68. यह अनुवाद अभय कुमार दुबे का है) यह
रवींद्रनाथ के विचार का वह महत्त्वपूर्ण बिन्दु है जहाँ वह भारतीय
राष्ट्रवाद की उस निर्मिति के विरूद्ध खडे होने का जोखिम उठाते है जिसे
आकार देने में दयानंद, विवेकानंद, अरविंद घोष और तिलक जैसे लोगों का
योगदान था. इस निर्मिति को रवींद्रनाथ अस्वीकार करते हैं. उन्हें लगता है
कि भारत के शिक्षित लोग " अपने पूर्वजों द्वारा दी गयी नसीहतों के विपरीत
इतिहास से कुछ सबक लेने की कोशिश कर रहे हैं."(नेशनलिज्म, पृ. 64)
समकालीन इतिहास के इस दबाव के सामने खडे होने के रवींद्रनाथ के इस साहस
की प्रशंसा करनी पडती है. जब राष्ट्रवाद का जोर बढ रहा हो उनमें यह विवेक
था कि वे पूछ सकें- " क्या वह (भारत) अपनी विरासत बेच कर की गई कमाई के
बदले समकालीन इतिहास की चमक-दमक भरी क्षणभंगुर निर्मितियों को खरीदेगा?"
रवींद्रनाथ के लिए भारत की असली समस्या सामाजिक है, राजनैतिक नहीं. वे
मानते थे कि भारत में राष्ट्रवाद वास्तविक अर्थ में कभी था ही नहीं. वे
30 दिसंबर 1916 को कहते हैं कि " आज हमारे देश के लोग पुरखों की दी हुई
शिक्षा के विपरीत जा रहे हैं. पूरब आज इतिहास का वह पाठ पढ रहा है" जो
उसके अपने सांस्कृतिक अनुभवों से नहीं "जन्मा है". वे जापान की तरक्की को
भी नकली मानते हैं और कहते हैं कि उसने अपने को "भीतर से विकसित नहीं
किया है." (इस महत्त्वपूर्ण वक्तव्य के लिए देखें 'नेशनलिज्म इन इंडिया'
(संक्षिप्त), 30 दिसंबर , 1916, प्रमोद शाह संकलित एवं संपादित थॉट्स ऑन
रिलिजियस पॉलिटिक्स इन इंडिया वॉल्यूम 1, कोलकाता, 2009, पृ. 283-88).
रवींद्रनाथ जिस ओर 1916 के बाद लगातार बढ रहे थे वह था मानवतावाद की एक
वैश्विक समझ. अपने उसी वक्तव्य में वे कहते हैं कि दुनिया में सिर्फ मानव
का इतिहास है और सभी देशों का इतिहास उस इतिहास के छोटे-छोटे अध्याय भर
हैं. हीरेन मुखर्जी ने 'रवींद्रनाथ और उनकी मानवतावाद की धारणा' नामक
आलेख में महान कवि के भीतर के मानवतावाद की व्याख्या सरल शब्दों में की
है जिसमें मनुष्य के भीतर प्रेरणा के उत्स को समझने के कवि प्रयास की
अभिव्यक्ति हुई है. मुखर्जी के अनुसार रवींद्रनाथ मानते थे कि हर मनुष्य
के भीतर मानव और महामानव दोनों का वास होता है. व्यक्ति मानव की
अभिव्यक्ति है और जाति उसी व्यक्ति के भीतर के महामानवोचित अंश की
अभिव्यक्ति है. व्यक्ति नश्वर है और जाति अमर. जाति व्यक्तियों का कुल
योग नहीं है. अकस्मात व्यक्ति अपने भीतर इस महामानव के सत्य का दर्शन
करता है और उस सत्य के लिए अपने प्राणों तक की परवाह नहीं करता.
रवींद्रनाथ के शब्दों में - " एक व्यापक चित्त है जो व्यक्तिगत नहीं,
विश्वगत है, जिसका परिचय अकस्मात होता है. एक दिन आह्वान आता है, अकस्मात
मानुष-सत्य के लिए प्राण देने के लिए उत्सुक होता हूँ" व्यक्ति जब इस
आह्वान को सुन पाता है तभी वह लोगों को ईश्वर समझ कर उसकी सेवा के लिए
तत्पर हो उठता है. इसी भाव का विस्तार उनके विश्वविद्यालय की परिकल्पना
में है जो विश्व के छंद पर नृत्य करना सिखलाने के लिये वे बनाना चाहते
थे. (देखें- हीरेन मुखर्जी, 'रवींद्रनाथस कॉस्पेशन ऑन
ह्यूमेनिज्म'रवींद्र भारती पत्रिका वॉल्यूम 11, 2008)
सभ्यता और प्रगति के संबंध में रवींद्रनाथ की दृष्टि बहुत ही सूक्ष्म
विश्लेषण की मांग करती हैं. वे पश्चिम की वैज्ञानिक प्रगति और उसकी
समृद्धि के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण नहीं रखते. अपने एक लेख 'द
चैलैंजिंग एज' में वे पश्चिम के उस शक्तिशाली बौद्धिक प्रकाश के महत्त्व
को समझाते हैं जिसने दुनिया को जीत लिया. इस आलोक के 'बिजली के झटके' से
कैसे भारत ने समझा कि नैतिकता और न्याय का एक मानवोचित आधार होना चाहिए
जिसमें मानव मानव के भेद को मिटा दिया. कम से कम नैतिक धरातल पर इस देश
ने पहली बार जाना कि जाति चाहे जो हो न्याय और नैतिकता के नियम सबके लिए
एक ही होंगे. इस पश्चिम के आने से ही इस देश में एक आदर्श नैतिक मानदंड
तैयार हो सका. इसके लिए वे पश्चिम की प्रशंसा करते हैं. साथ ही वे लिखते
हैं कि पश्चिमी साहित्य, खासकर अंग्रेज़ी साहित्य के सम्पर्क में आकर
हमलोगों ने न सिर्फ भावना के गहरे संसार को जानना-समझना सीखा बल्कि
मनुष्य को मनुष्य के शोषण से मुक्त करने की भावना का भी विकास किया. अपने
सत्तरवे वर्ष में लिखे इस आलेख में (यानि 1931 ई. में) वे स्पष्ट रूप से
कहते हैं कि यह युग "यूरोप के साथ आंतरिक (इनवार्ड) सहयोग का युग है".
इतना कहने के बाद रवींद्रनाथ उस ओर जाते हैं जहाँ से वे इस पश्चिम के
शक्ति-जनित सभ्यता का दूसरा चेहरा भी दिखलाते है. वे इस पश्चिम के नैतिक
धरातल से गिरने को विश्वयुद्ध से जोडते हैं. वे कहते हैं कि विश्वयुद्ध
के बाद ऐसा लगता है कि यूरोप ने अपनी शुद्धता और सभ्यता का विवेक
('सैनिटी) को खो दिया है. वे एक सूत्र देते हैं जो मानो रवींद्रनाथ का
संदेश हो उन सबके लिए जो समाज में परिवर्त्तन के पक्षधर हैं. वे कहते हैं
कि हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि जो सबसे शक्तिशाली हैं उनका
दायित्त्व भी सबसे ज्यादा है. उनका अपराध ही सबसे घृणित है. वे यूरोप की
इस शक्तिशाली सभ्यता के पतन को अपरिहार्य मानते हुए भारतवासियों को
प्रगति के यूरोपीय मॉडल को न मानने की सलाह देते हैं. वे कहते हैं कि
उनका हृदय दु:ख से भर उठता है जब वे देखते हैं कि इस देश के पढे-लिखे लोग
बडे, शक्तिशाली, और तेजी वाली चीजों के प्रति आकर्षण देखते हैं. प्रगति
का जो आदर्श आंतरिक आदर्श से नहीं जुडता और हमें अपने दायित्व के प्रति
सचेत नहीं करता. यह हमें अधर्म की ओर ले जाता है. यह अधर्म हमें तेजी से
शक्तिशाली तो बना सकता है जिससे हम शत्रु को परास्त भी कर सकते हैं.
लेकिन, यह हमें भीतर से नष्ट कर देता है. वे कहते हैं - " इस धन और शक्ति
में विनाश के बीज हैं. पश्चिम में इस सम्पत्ति को मानव-रक्त से सींचा गया
है जिसकी फसल अभी लहलहा रही है." वे इस खुशहाल, शक्तिशाली पश्चिम की नकल
को भारत जैसी सभ्यता में जन्मे-पले लोगों द्वारा ललचाई निगाह से देखने को
दुर्भाग्यपूर्ण मानते थे. ईश्वर ने जिसे आंतरिक शक्ति से लबालब, आनंद से
भरपूर, फूल और सितारों के संगीत से भर रखा हो उसे क्या लालच से भरकर उस
रास्ते पर चलना चाहिए जिसमें वस्तु से शून्य (थिंग टू नथिंग) की यात्रा
होती हो?
रवींद्रनाथ का स्मरण उनकी पूजा करते हुए, विनाशकारी पश्चिम की अनैतिकता
फैलाती प्रगति की ओर दौड लगाते हुए करना उस महान सभ्यता विवेक और देशज
नैतिकता-बोध से भरे संस्कृति पुरूष का उपहास करना ही है. आज जरूरत इस बात
की है कि गांधी के साथ हम रवींद्रनाथ की दृष्टि के साथ अपने भीतर के
व्यक्ति और महामानव के बीच से महामानवोचित आदर्श का वरण करें. यही
रवींद्रनाथ को उनके 150वें वर्ष में हमारा संकल्प होना चाहिए. किसी खंडित
दृष्टि को रखकर, जैसा कि कई सम्प्रदायवादी और क्षेत्रवादी विचार सरणियों
से जुडे लोग करते हैं, या सर्वग्रासी प्रगति की ओर अंधाधुंध दौड लगाने
वाले लोग रवींद्रनाथ का नाम तो बहुत लेंगे लेकिन उनके विचारों से उनका
दूर दूर का रिश्ता नहीं होगा. रवींद्रनाथ की दृष्टि की व्यापकता का एक
उदाहरण देकर इस संक्षिप्त आलेख का समापन ठीक होगा.
आज रवींद्रनाथ को बंगाली जातीयता के महानायक बनाकर देखने का चलन है.
अन्नदाशंकर राय ने अपने संस्मरण में रवींद्रनाथ से जुडी एक बात का उल्लेख
किया है. प्रशासनिक परीक्षा में उत्तीर्ण होकर अन्नदाशंकर रवींद्रनाथ से
मिलने गए और यह बतलाया कि वे चाहते तो भारत के किसी भी भाग में जाकर
नौकरी कर सकते थे लेकिन, अपने बंग-माटी के प्रेम के कारण, उसे और समझने
के लिए उन्होंने इसी राज्य में सेवा करने का निश्चय किया. उन्हें लगा कि
इस बात से प्रसन्न होकर रवींद्रनाथ उनके बंगाल प्रेम को सराहेंगे लेकिन,
हुआ ठीक उल्टा. रवींद्रनाथ ने कहा कि यह ठीक नहीं हुआ. उन्होंने कहा कि
बंगाल तो उसका घर है इसलिए इसको तो वे कभी भी, देर-सवेर जान ही लेते
लेकिन देश के अन्य भाग को जानने समझने का, अपने देश के दूसरे हिस्से की
सेवा करने का, उससे जुडने का ऐसा मौका उन्हें नहीं चूकना चाहिए था !

Friday 10 September, 2010

आभासी हिंसा, आरोपित कामन सेंस, सामाजिक की प्लास्टिक सर्जरी और मीडिया (सन्दर्भ ज्याँ बोद्रोया)

आभासी हिंसा, आरोपित कॉमन सेंस और सामाजिक की प्लास्टिक सर्जरी
मीडिया के इमेज जिसमें सबकुछ दिखता है हिंसा के उन इलाकों को लेकर हमारे सामने खडा होता है जिसको देखते हुए हम हिंसा को तैयार करने के विरूद्ध सक्रिय जो मन की कोशिकाएं होती हैं वे स्ववमेय आरपार दिखती है. और दिखता है दिमाग के भीतर का वह केन्द्र जहाँ से हिंसा शुरू होती है. पर्दे की हिंसा हमारे ऊपर कोई आघात नहीं लाती, हम खून करते हुए, तडपते हुए आदमी को देखते हुए आराम से कोल्ड ड्रिंक्स पीते रह सकते हैं. यह हिंसा के आघात से हमारे मन को मुक्त रखते हुए हमें हिंसा को देखते झेलते रहने की उदासीनता प्रदान करता है. मैकलुहान ने लक्षित किया था कि माध्यम ही संदेश हो जाता है. मीडिया ने धीरे धीरे संदेश को गैर-जरूरी और कम महत्त्वपूर्ण बना दिया. इस अर्थ में पर्दे की हिंसा ही संदेश बन जाती है. हिंसा की सूचना से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाता है यह कि इसे कैसे पेश किया जा रहा है. जैसे संगीत की गुणवत्ता से ज्यादा जरूरी पर्दे पर यह हो गया है कि किस भव्यता से उस संगीत को पेश किया जा रहा है. बॉद्रिया ने संदेश और माध्यम के इस टकराहट से उत्पन्न कटुता या विषाक्तता (वरुलेंस) को हिंसा से भी अधिक खतरनाक मानते हैं. एक सीधी हिंसा में एक निदान होता है: एक ने दूसरे को किसी दुश्मनी के कारण मार डाला और मामला एक निर्णय पर पहुंच गया. लेकिन, अब इस तरह नहीं होता. अब निदान नहीं है. कोई किसी को दिन-दहाडे मारकर भी फाँसी पर नहीं लटक रहा. अगर वह फाँसी पर लटक जाए तो बात एक किनारे लग गई- हिंसा हुई और हिंसा करने वाले को दण्ड मिल गया. अब महीनों तक लोगों को बताया जाता रहेगा कि उसका वजन बढ रहा है, वह झूठ बोल रहा है, पाकिस्तानी वकील और सरकार क्या क्या कर रही है, वह अमिताभ बच्चन की फिल्में रोज देखता है, ज्यादा टेंशन में आने पर गाना गाने लगता है आदि आदि. इस तरह एक हिंसक घटना को लेकर सीधी और सच्ची रिपोर्टिंग के भीतर से ही वह वातावरण बनता है जहाँ करोडों भारतीय सप्रमाण इस तरह की बातों पर सोचते और बहसें करते हैं कि मुसलमान कितने देशद्रोही हैं, पाकिस्तान कैसे सिर्फ आतंकवादियों का देश है, भारतीय सरकार मुसलमानों के प्रति कितनी नरम है या दरअसल अमरीका की अनुमति के बिना भारत की कानून व्यवस्था कसब को फाँसी नहीं सुना सकती. और फिर लोग अनुमान करते रहते हैं कि कसब कब फाँसी पर चढाया जाएगा. आप यकीन कीजिए जब तक कसब को फाँसी होगी तब तक उसको फाँसी देने की बात का कोई मतलब रह ही नहीं जाएगा. रश्मी तौर पर मीडिया में यह खबर होगी कि आखिरकार दरिंदे को उसकी दरिंदगी की सजा मिल गई. फिर एक सवाल छोडा जाएगा- क्या आपको लगता है कि भारत की कानून व्यवस्था में कुछ परिवर्तन किए जाएं ताकि इस तरह के केसेज को उसकी परिणति तक पहुंचाने में इतना विलंब न हो!
इस संदर्भ में बोद्रिया का कथन है कि इस मीडिया की सीधी और सच्ची रिपोर्टिंग के बीच "यथार्थ का खून" हो जाता है. छवियों के असीमित जगत में सत्य के इस सतत प्रवाह का, सत्य के, निष्कर्ष के सतत फिसलते जाने के इस खेल में कितना आनंद और कैसा रहस्य है! कैनेडी को किसने मारा? क्यों मारा? इस रहस्य के इर्द गिर्द जो मीडिया जगत में सूचनाओं का अंबार लगा है और यह अभी भी चल रहा है उसकी तुलना में इंदिरा गांधी हत्याकांड के बारे में बहुत कम लिखा पढा गया . बोद्रिया यह भी बतलाते हैं कि इस प्रक्रिया में जो यथार्थ की दुनिया है वह नीरस, बेरंग और बेढब हो जाती हैं और लोग बाजार द्वारा चालित छवियों की दुनिया में चमत्कारिक, जादुई और तिलिस्मी छवियाँ ज्यादा प्रभावशाली होती जा रही है.
जो कुछ टी वी पर दिखलाया जाता है उसकी सामाजिकता के रूप को उद्घाटित करते हुए बोद्रिया का मानना है कि यह आभासी सामाजिकता का पर्दे पर निर्माण जिन छवियों को रचता है उसमें सबकुछ रच कर इस तरह परोस दिया जाता है कि सब कुछ सामने दिखला दिया जाए. किस तरह हवाई जहाज आया, किस तरफ से टक्कर लगी, कैसे लोग चीखे, कैसे भागे... . इन अनंत छवियों के सच के बीच दो सच को रखा जाए. प्रथम, कितने लोग मरे थे 9/11 के इस भयानक आक्रमण में? दूसरा प्रश्न , उस जहाज का सच क्या था जिसे व्हाइट हाउस के आदेश पर उडा दिया गया जिसमें 259 लोग सवार थे? यह जहाज व्हाइट हाउस की ओर बढ रहा था और स्पष्टत: यह व्हाइट हाउस को भी उडाने के लिए टकराने वाला था. पहले प्रश्न का उत्तर हर कोई देगा- बहुत सारे लोग . पर कितने? किसी को ठीक से पता नहीं. एक व्यक्ति ने बी बी सी पर अपने इंटरव्यू में बताया था कि कुल मृतकों की संख्या हजार से कम थी और उसके पास एक लिस्ट थी. उसने चुनौती दी कि कोई नया नाम नहीं जोड सकता. किसी के पास उस चुनौती का कोई उत्तर नहीं था. यानि कुल मृतकों की संख्या हजार से कम थी. दूसरे प्रश्न का उत्तर इस बात में निहित है कि किसी ने भी इसपर कभी भी कोई रिपोर्ट शायद ही पढी देखी हो (भारत में) जिसमें उस जहाज के लोगों के परिवार वालों के दर्द को दिखलाया गया हो.
मीडिया का एक और काम है जिसे बोद्रिया 'सिंथिटिक इमेज ऑव द बनालिटी' कहते हैं. आप सारे दिन करवा चौथ, पूजा पाठ, प्रलय की खबरें, श्री लंका में रावण की गुफा से सीधा प्रसारण, मौसम की पहली बारिश में भीगते झूमते दिल्ली वासी को देखते हुए बरसों बिता देते हैं. बोद्रिया इस सन्दर्भ को एक रोचक ट्विस्ट देते हुए सवाल करते है- क्या कोई सिक्सुअल व्यॉरिज्म भी है क्या? इसका उत्तर देते है कि कोई सेक्सुअल सीनरी है ही नही! वे सेक्स के खुले और सीधे दिखाए जाने में सेक्स के अंत की भी बात करते है. वे अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि रोज की बेहूदा घिसी पिटी जिंदगी को देखने और दिखलाने के इस मीडियाई खेल में अंतत: दर्शक अपने को सबकुछ देख चुकने के बाद कुछ नहीं कह पाने की सी मन:स्थिति में पाता है. इसे वे "ज़ीरो डिग्री" जीना कहते हैं, रोलाँ बार्थ के "ज़ीरो डिग्री लेखन" की तर्ज पर!
भारतीय मीडिया पर यह कितनी दिलचस्प टिप्पणी है कि 'इंडिया टीवी' की दर्शक संख्या इस समय सबसे ज़्यादा है.

पराजय के इस दौर में (सबलोग, जून 2010)

पराजय के इस दौर में
हितेन्द्र पटेल

भारतीय समाज इतना वैविध्यपूर्ण और जटिल है कि इसे सांख्यिकीय आधार पर नहीं समझा जा सकता. पर, अगर नीयत साफ हो तो इस समाज में व्याप्त सामाजिक और आर्थिक विषमता और इस समाज की आंतरिक शक्ति को समझने के लिए साक्षात्कार ही काफी है. गाँधी और रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे मनीषियों ने इस समाज को समझने और इसमें परिवर्तन हेतु कभी भी सरकारी सर्वेक्षण और रिपोर्टों की जरूरत महसूस नहीं की. विवेकानंद , गाँधी, जयप्रकाश, विनोबा आदि लोगों के लिए देश को जानने समझने के लिए लोगों से देशाटन के दौरान मिलना ही यथेष्ट था. यह आधुनिक यूरोपीय बोध से जन्मा कॉमन सेंस है कि संख्या और सांख्यिकी से ही समाज को समझा और उसकी प्रगति के लिए सरकारी नीति बनायी जा सकती है. नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह या निलकेनी तक संख्या और सांख्यिकी की इस सत्ता और औचित्य को लेकर सहमति है. इस लॉजिक को मान लेने के बाद सब कुछ संख्या-बल और राजनीति पर ही केन्द्रित हो सकती थी और वही बात आज भारत में हो रही है. यह एक दिलचस्प बात है कि जिस आधार पर भारतीय राष्ट्रवाद की 'खोज' या प्रतिष्ठा हुई थी उसी को नकारने के लिए आज होड मची हुई है. राष्ट्रवाद को लेकर कांग्रेस के भीतर भी एक गुणात्मक परिवर्तन हुआ है. 2001 में जब जाति के आधार पर गणना की बात चली तो इस दल ने विरोध किया. अब 2011 में अन्य दलों के साथ कांग्रेस भी इस पक्ष में हो गई है कि जाति के आधार पर जनगणना जरूरी है! यानि पिछले दस सालों में ऐसा कुछ हुआ है जिसके कारण यह बात मान ली गयी कि जाति की गणना सरकारी नीति निर्धारण के लिए आवश्यक है. यानि वर्ग नहीं वर्ण के आधार पर भारतीय समाज को समझा जा सकता है. यह बात भारतीय राजनीति में लोहिया ने अपने जीवन के अंतिम दशक में राजनैतिक दबाव के कारण प्रतिष्ठित की. (उनके चिंतन में इस विषय पर मौलिक और विषद चिंतन है जिसमें लोग उतरना नहीं चाहते) लेकिन, इस बात को वास्तविक रूप से पिछले दो दशकों में बहुत भोंडे ढंग से प्रचारित किया गया. जाति अब राजनीति का धर्म के साथ एक मान्य अस्त्र बन गया. कोई भी पार्टी अब इस बात के ऊपर नहीं उठ सकती. ऐसे में सबको लग रहा है कि जाति के आधार पर जनगणना से बात साफ हो जाएगी और सरकार को नीति निर्धारण के लिए एक स्पष्ट आधार मिल जाएगा. कुछ सवर्ण दल और राष्ट्रवादी विचार के लोग इसका विरोध नीतिगत कारणों से कर रहे हैं, लेकिन कुल मिलाकर देश में यह बात स्वीकृत सी हो गई है कि जातियों के संख्या निर्धारण में कोई हर्ज़ नहीं है. यह आधुनिक इतिहास की एक विडंबना ही कही जायेगी कि जाति को मिटाते मिटाते देश की सरकार के नीति निर्धारक आधार के रूप में जाति को स्वीकार कर लिया गया है! आज समय आ चुका है जब लोग गाँधी को बनिया, रवीन्द्रनाथ को ब्राह्मो -ब्राह्मण, जयप्रकाश को कायस्थ, सहजानंद को भूमिहार, अंबेडकर को महार कहकर सोचें कि इसमें बुराई क्या है! इस तरह की सोच अब और शक्तिशाली होने वाले हैं. यह औपनिवेशिक आधुनिक यूरोपीय सोच की जीत और उदार भारतीय राष्ट्रवादी सोच के पराजय की सूचना देने वाले समय की शुरूआत है.
अंग्रेज़ी शासन के दौरान जो भारत के संबंध में धारणा बनी उसके मूल में यह बात थी कि भारतीय समाज मूलत: धर्म और जाति पर आधारित समाज है जो बदलाव को नहीं स्वीकारता. स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान जो प्रधान विचारधारात्मक संघर्ष उभर कर सामने आया वह यही था कि एक प्रकार की शक्तियाँ इन धर्म और जातीय पहचानों को केन्द्रीय मानती थी (जिसमें साम्प्रदायिक दल, ब्रिटिश हुकूमत और पुनरूत्थानवादी शक्तियाँ एक ओर थी और कांग्रेस एवं वामपंथी समूह (समाजवादी और साम्यवादी) दूसरी ओर. भारतीय पहचान के विकास के दौर में , कम से कम 1890 से 1935 तक , यह ध्रुवीकरण कुछ इस तरह होता रहा कि यह संभावना बनने लगी कि भारत भी अन्य विकसित समाजों की तरह इन प्राक-आधुनिक सामाजिक बंधों की जगह राष्ट्रीय पहचान की ओर बढेगा. धीरे-धीरे यह जाति का जोर खत्म होगा और लोग आधुनिक पहचान के साथ सामाजिक जीवन व्यतीत करेंगे. 1931 के बाद जाति के आधार पर जनगणना भी नहीं हुई और अभी भी किस जाति के कितने लोग हैं इसे जानने के लिए या अनुमान करने के लिए 1931 की जनगणना को ही आधार बनाया जाता है. समस्या का नया सन्दर्भ तब बना जब स्वतंत्रता के बाद सरकार के नीति निर्धारण के लिए जातीय आधार को रखा गया. संकट यह था कि नीति निर्धारण के मामले में जाति को आधार बनाए रखा गया और जातीय आँकडे जनगणना के साथ उपलब्ध करने को देश की एकता के लिए खतरा माना गया ! यह एक विडंबनापूर्ण स्थिति थी.
जाति और उसका समाज में स्थान भारत में परिवर्तनशील रहा है. कौन 'ऊँची' और कौन 'नीची' जाति है इसको लेकर कभी भी एकमत नहीं रहा. एक ही जाति के भीतर सैकडों उपजातियाँ रही हैं जिनमें आपस में रोटी-बेटी का संबंध सहज नहीं था. ब्राह्मण, राजपूत के अतिरिक्त किसी भी जाति को देश भर में ऊँची जाति के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता था. कौन जाति के किस पायदान पर है इस बात को तूल जिस समय से दिया जाने लगा उसी समय से जाति का प्रश्न बडा प्रश्न बन गया. इतिहासकारों ने पिछले तीस वर्षों में बहुत विस्तार से इसका विश्लेषण किया है कि कैसे 1871 और 1881 के बाद जनगणना ने जातियों के बीच अपनी जाति के संगठन और अधिकारों के प्रति सचेतनता के दायित्त्व बोध को बढाया और इन पहचानों को स्थानीय सन्दर्भ से उठाकर राज्य और राष्ट्रीय सन्दर्भ प्रदान किया. जाति का प्रश्न इतना उलझा हुआ रहा है कि लगभग हर गणना करने वाले ने इस काम को करने में बहुत समस्याओं का सामना किया. हर टेबुल के साथ अन्य जातियाँ, जिन जातियों के नाम नहीं है आदि नाम से टेबुल बनाए जाते थे. कई जगहों पर जाति पूछने पर लोग अपने काम को बताते थे ! यह निश्चित है कि इस देश के बहुत सारे लोगों को अपनी जाति बताने में कठिनाई थी. पर, सरकार का आदेश था कि हर किसी की एक जाति होनी ही चाहिए इसलिए एक आदमी के साथ एक जाति का उल्लेख जरूरी थी. 1917 के बाद संकट और गहराया जब पिछडी जातियों के समूहों को एक साथ लाकर सरकारी हस्तक्षेप की शुरूआत हुई. माँटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार ने इसको वैधानिक आधार दिया और 1935 के एक्ट ने इसपर मुहर लगा दी. इस बीच दक्षिण के राज्यों में हुए दलित जातियों के आन्दोलनों, फूले, अंबेडकर एवं नायकर आदि के प्रयत्नों ने इसको सामाजिक और राजनैतिक वैधता दी. कहा जा सकता है कि अंग्रेजों ने फूट डालो और शासन करो की नीति के तहद इस तरह के विखंडनकारी सोच को बढाया और कांग्रेस के नेतृत्व में जारी राष्ट्रीय आन्दोलन की हवा निकालने की कोशिश की. लेकिन, सच्चाई यह भी है कि जिस तरह के हालात थे उसमें किसी भी सरकार के लिए निम्न जातियों के लोगों के लिए अलग व्यवस्था की बात करना उचित ही था.
यह बात आज कुछ विद्वान कह रहे हैं कि अगर जाति के आधार पर अगर जनगणना हुई तो देश में फूट पडेगी और लोगों में जातीयता की भावना और बढेगी. यह सही ही है. देश का हर नागरिक अगर बाध्य हो कि उसे अपनी जाति के साथ अपनी पहचान को नत्त्थी करना पडे तो यह बात सही ही होती है कि अगर सब कुछ करके भी अंतत: इसका उत्तर देना पडे कि आपकी जाति क्या है, तो हमने क्या किया?
आज की बदली परिस्थिति में जाति को लेकर हुई लोहिया युग की राजनीति का सकारात्मक पक्ष भी नहीं है. लोहिया ने जो जाति को आधार बना कर कांग्रेस विरोध की राजनीति को मजबूती दी थी उसमें आरक्षण का प्रश्न और पिछडों का उभार केन्द्रीय था. लोहिया की दृष्टि भारतीय राजनीति की दिशा को समझ रही थी और वे देश को लोकतांत्रिकीकरण के अगले चरण के लिए तैयार कर रहे थे जिसमें पिछडे भी शक्तिशाली हो रहे थे. सही विश्लेषण और नीति से शुरू हुए पिछडावाद का बाद में जो पतन लालूवाद और मुलायमवाद में हुआ उसको ध्यान में रखने पर एकबारगी यह भय तो होता ही है कि इन नेताओं के हाथों अगर जाति की संख्या का खेल नामक गोटी आ जाये तो ये देश में मार-काट मचा देंगे. लेकिन, सौभाग्य से यह अतिपिछडावाद अब उतना गैर-जिम्मेदार नहीं रह सकता. कुछ उलट फेर के बाद अब लोगों में जिस प्रकार की अपेक्षा का वातावरण तैयार हो चुका है उसको देखते हुए यह नहीं लगता कि अब फिर से अंध-पिछडावाद राजनीति पर हावी हो सकेगा. सौभाग्य की बात यह भी है कि पिछडों के नेताओं में 'विकास' और जनोन्मुखता की भावना जोर पकड रही है. फिर भी नीतिश कुमार जैसे नेताओं को कब पासवान और लालू मिलकर पटखनी दे दें कोई नहीं बता सकता. फिर भी यह तो लगता ही है कि अगर लालू जी की पार्टी आ भी गयी तो भी वो पुराने दिनों वाली निश्चिंती उन्हें नहीं प्राप्त होगी. यह एक शुभ संकेत है कि झारखंड में भी आदिवासी राजनैतिक क्षितिज पर कई नेता उभर रहे हैं. उसी तरह पिछडों में भी नेताओं की अब कोई कमी नहीं है.
[ऐसी परिस्थिति में जाति की गणना की तरफ अगर अंतत: जाना ही पडे तो कम से कम दो तीन सावधानियों को ध्यान में रखा जाए. सबसे पहले यह ध्यान देना चाहिए कि जाति की गणना के दौरान मीडिया और राजनेताओं को सावधान होकर काम करना होगा. मीडिया अगर इस बात को गलत तरीके से पेश करने लगे तो सरकार को अपना दायित्व पालन करना होगा. इस देश का अंग्रेज़ी मीडिया ही देश में सबसे ज़्यादा संशय का वातावरण बनाता आया है. आपको याद होगा प्रणय राय आदि ने जब चुनाव विश्लेषण को फैशनेबुल बनाया तो वे जाति के आधार पर वोट पैटर्न को समझने और समझाने लगे थे. धीरे धीरे इस तरह के लैपटॉपी लोगों ने चुनाव परिणामों के बारे में भविष्यवाणी करने के 'वैज्ञानिक' विश्लेषण को करोडों का कारोबार बना दिया. पूरी संभावना है कि अंग्रेज़ी मीडिया इस नये मुद्दे पर बाबा लोगों को बिठाकर बहस करके देश को यह संदेश देंगे कि यह सब कुछ इस लिए हो रहा है क्योंकि सरकार जानना चाहती है कि किस जाति के कितने लोग हैं और सरकार उनको लेकर क्या नीति निर्धारित कर सकती है. सबकुछ इतना सरकार पर आधारित होता जा रहा है कि समाज के मत पर कोई ध्यान नहीं देना चाहता. हिन्दी मीडिया कुल मिलाकर अंग्रेज़ी मीडिया का भदेस संस्करण बनता जा रहा है और वैकल्पिक मीडिया का भविष्य तय नहीं हो पा रहा है. ऐसे में इस विषय पर तमाम बहसों के बाद की तय राय वही होगी जो सरकार चाहेगी. ]
इस निराश कर देने वाली बात को रखते हुए एक बात कहना चाहूंगा. तृतीय विश्व के देशों के लिए यह एक चुनौती है कि वे दिखलायें कि वे भी अन्य सभी समाजों की तरह विकल्प और परिवर्तन को स्वीकार करते हैं. धर्म के मामले में कम से कम धर्मांतरण करके या अपने को नास्तिक घोषित करके एक नागरिक एक विकल्प ढूंढ सकता है. जाति के मामले में क्या विकल्प है? और फिर जिस परिवार में एक से अधिक जातियाँ आ जुटी हैं वे क्यों एक जाति में ही अपनी पहचान ढूढने के लिए राज्य द्वारा अभिशप्त हों? कोई भी व्यक्ति किसी जाति में जन्म लेकर श्रेष्ठ या निम्न नहीं होता. इस बात को अगर हम मान लें तो फिर जाति को तो सिर्फ मिटाए जाने की सोचना चाहिए. आधुनिक भारत में जाति को कमजोर करने और उसे कम प्रभावी बनाने के लिए साठ बरस का चालीस साल का समय 'ऊँची' जातियों को मिला लेकिन वे अपने दंभ और मूर्खता के कारण यह नहीं समझ पाए कि अब समय पिछडों को आगे लाने का है. मंडल कमीशन के बाद जिस तरह से जातिवादी राजनीति को बल मिला उसके कारण ही भारतीय होने की पहचान कमजोर हुई और अपनी जाति की पहचान शक्तिशाली हुई. इस परिणाम के लिए तथाकथित ऊँची जातियों का औद्धत्य (औडासिटी) जिम्मेदार है जिसने लंठ पिछडावाद को राजनैतिक रूप से शक्तिशाली बना दिया. सिर्फ नयी रौशनी की एक आदर्शवादी उम्मीद अब बची है जो देश के किसी किसी कोने से कभी कभी दिखलाई पडती है. भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति लोगों में आस्था अगर सच्ची होगी तो इन प्रयासों को जन समर्थन मिलेगा . नहीं तो जाए भैंस पानी में ... .
[Sablog, June 2010]

हिंसा से प्रभावित होने वालों को भी हिंसक होने का अधिकार नहीं

"हिंसा से प्रभावित होने वालों को भी हिंसक होने का अधिकार नहीं."
प्रश्न: हिंसा में जिस वृद्धि की बात की जा रही है, उसे कौन बढा रहा है?
उत्तर : इस प्रश्न का उत्तर देने के पहले मैं कुछ बातों पर पाठकों का ध्यान दिलाना चाहूंगा. हिंसा एक हद तक बुखार की तरह है. जैसे बुखार अपने आप कोई रोग नहीं है बल्कि एक संकेत है किसी बीमारी का. जैसे ही वह बीमारी ठीक होगी बुखार अपने आप उतर जाएगा. हिंसा को समाज में व्याप्त बुराई के संकेत के रूप में भी देखा जा सकता है. समस्या तब अधिक हो जाती है जब इस प्रश्न पर राज्य-सत्ता जैसे संस्थान को जोडकर इस पर विचार किया जाता है. राज्य प्रभुत्त्वशाली वर्ग के हितों के हिसाब से ही काम करता है. इस राज्य को एक विशेषाधिकार प्राप्त है. यही वह चीज है जिसके कारण यह सबसे शक्तिशाली है. वह अधिकार है 'हिंसा का अधिकार'. सभी संस्थाओं में सिर्फ इसे यह अधिकार है कि यह हिंसा कर सकती है. आधुनिक युग में, जिसमें राज्य-सत्ता के अधिकार सबसे व्यापक हैं, किसी को आत्महत्या का भी अधिकार नहीं है. सामान्यत: यह माना जाता है कि राज्य उस देश के समस्त नागरिकों की सामूहिक इच्छा का प्रतिनिधित्त्व करता है. समस्या तब होती है जब राज्यसत्ता अपनी वैधता को खो दे, यानि जब राज्य अपनी शक्ति का दुरूपयोग करके नागरिकों की सामूहिक इच्छा का अनादर करके शासन करने की कोशिश करे. विख्यात वामपंथी चिंतक फ्रांज फेनन मानते थे कि 'उपनिवेशवाद हिंसा है अत: इसके खिलाफ हिंसा का प्रयोग सर्वथा उचित है". दुनिया के तमाम क्रांतिकारी विचारकों का मत भी यही है कि जब राज्य जनता का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहा हो और अपने को बचाने के लिए उसके पास उपलब्ध शक्ति- हिंसा का सहारा लेने लगे तो वह अपने शासन के अधिकार को खो देता है. ऐसे में राज्य सत्ता के खिलाफ हिंसा का प्रयोग वैध है. युद्ध में शत्रु के द्वारा प्रयुक्त अस्त्र के हिसाब से ही युद्ध किया जाता है. अत: अनुचित राज्य सत्ता को अपदस्थ करने के लिए हिंसा का रास्ता ही सही रास्ता है. इसी तर्क के कारण फेनन अल्जीरिया के क्रांतिकारियों द्वारा औपनिवेशिक शासन के खिलाफ हिंसा का प्रयोग बिल्कुल सही मानते हैं.
इस के विपरीत गाँधी जैसे विचारक हैं जो हिंसा को हर रूप में गलत मानते हैं. उनकी दृष्टि में अगर औपनिवेशिक शक्तियाँ हिंसा का प्रयोग करती हैं तो इसका उत्तर प्रति हिंसा से देने का अर्थ है पहली शक्ति द्वारा हिंसा के प्रयोग का औचित्य सिद्ध करना. अगर हम हिंसा का विरोध अहिंसा से करेंगे तो हिंसा करने वाला या तो बदलेगा या उसके बल प्रयोग की नैतिकता खत्म होगी. इस प्रकार का अनैतिक बल प्रयोग चल नहीं सकता.
मुझे लगता है गाँधी की बात बहुत गहरी है और इसे ठीक से समझने की जरूरत है. देखा जाए तो जब से लोकतंत्रात्मक व्यवस्था दुनिया में आयी है, किसी भी देश की राज सत्ता अपने देश की आम जनता की इच्छा के विरूद्ध नहीं जा सकती. सिर्फ तानाशाही और फासिस्ट राज्य सत्ता ही जनता की इच्छा का अनादर करने का जोखिम उठाती है. अगर इस बात को मान लिया जाए तो गाँधी का कहा हुआ बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है. यह ज्यादा कारगर तरीका है. हालाँकि यह भी कहना पडेगा कि किसी और औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ गाँधी का अहिंसात्मक आन्दोलन इतना प्रभावी नहीं भी हो सकता था. आप बर्मा का उदाहरण भी ले सकते हैं. चाहे तो तिब्बत का भी उदाहरण ले सकते है जिसमें गाँधीवादी प्रकार के राजनैतिक आन्दोलनों को वह सफलता नहीं मिली जो भारत में संभव हो सकी.
अब आपके प्रश्न के उत्तर की ओर जाया जाए. आपने विषय को प्रस्तावित करते हुए बहुत ही सही लक्षित किया है कि "मनोरचना में विवेक और कल्याण का दायरा सिकुडता जा रहा है." यही वह बात है जिससे बात शुरू की जा सकती है. यह क्यों हो रहा है? क्या इससे इतर कुछ और हो सकता था? मुझे लगता है आधुनिक सोच इससे इतर कुछ और कर ही नहीं सकता था. अपने देश में इस संबंध में ज्यादा चर्चा नहीं होती कि आखिरकार आधुनिक यूरोपीय सोच के दायरे में इस देश की सोच को क्यों 'रिड्यूस' किया जाता रहा है. यूरोप में सौ से भी ज्यादा सालों से यह बात समझी जाती रही है कि आधुनिकता के भीतर भयानक विध्वंसकारी तत्त्व हैं जो हमारे मन को 'वेस्टलैंड' में बदल देंगे और विवेकशील मनुष्य एक उपभोक्ता 'बायो मास' में तब्दील हो जाएगा. यूरोप या पश्चिम विश्व नहीं है लेकिन वही मान लिया गया है. आज साहित्य से लेकर आर्थिक,-राजनैतिक, सामाजिक सांस्कृतिक, वैचारिक-भाषिक, धार्मिक-आध्यात्मिक, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, परिवार पडोस, राष्ट्र-राज्य , चेतन-अवचेतन, मीडिया-फिल्म, लोक-विश्व, न्याय-नैतिकता आदि सभी क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा जारी है. यह प्रतिस्पर्द्धा ही तो हमें अपने आंतरिक विवेक से विच्छिन्न करके हमसे वही करवाती है जिसे करते हुए हम अपने लिए ही 'अजनबी' बन जाते हैं. हमारी सारी लडाई हमारे अपने भीतर एक हिंसा का अनंत सिलसिला रचती है जिसमें हम जन्म से लेकर मृत्यु (और उसके बाद भी) टँगे रहते हैं. मार्टिन हाइडेगर की कई स्थापनाओं से असहमत होते हुए भी मुझे लगता है उनके सोच ने आधुनिक मनुष्य की विडंबना को ठीक से पकडा है. जिसे सार्त्र 'नथिंगनेस' कहते हैं वही तो हमारे आधुनिक की नियति है. आप फ्रैंकफुर्त स्कूल के विद्वानों को पढते हुए महसूस करेंगे कि आधुनिक 'मैकेनिकल' मनुष्य के प्रति पश्चिम में भी चिंता रही है. जब मार्कुज 'वन डायमेंशनल मैन' लिखते हैं तो इस बात का पूरा विवरण हमारे पास उपलब्ध हो जाता है कि यही पश्चिमी मनुष्य को होना था. राम मनोहर लोहिया ने इस बात पर बहुत ही सुंदर टिप्पणी की थी. लेकिन, इन सबके बावजूद भारत समेत पूरी दुनिया वही खेल खेल रही है. प्रतिस्पर्द्धा को अवगुण मानने की दृष्टि हमारी भारतीय सोच का प्रधान तत्त्व रहा है इसका स्मरण कराना भी अब इस देश में पिछडेपन का चिह्न माना जाता है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है. दुनिया भर में शांति के इस दौर में करोडों लोग हिंसा का शिकार हो रहे हैं और सब कुछ आधुनिक बनने और आगे बढने के लिए अपरिहार्य माना जा रहा है. आधुनिक पश्चिमी सोच का वैश्विक वैचारिक वर्चस्व इस जगत की भयानक हिंसा के मूल में है.
2. हिंसा किसके हित में है?
उत्तर: हिंसा करने वाला समझता है कि वह अपने हित में हिंसा कर रहा है लेकिन यह भ्रामक है. एक स्थूल उदाहरण लें. स्टालिन ने, हिटलर ने, सद्दाम हुसैन ने, बुश ने जो हिंसा की वह अपने लोगों के हित में की है. उनका हाल क्या हुआ. जिसके लिए किया उनका क्या हुआ? इतिहासकार एरिक हॉब्सबाम पूरी दुनिया के बीसवीं सदी के इतिहास का एक यथासंभव सटीक विश्लेषण करके इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि दुनिया में निकट भविष्य में शांति की कोई संभावना नहीं है. वे जो आंकडे देते हैं वे चौंकाने वाले हैं. वे कहते हैं कि आधुनिक "बीसवीं शताब्दी आज तक की सबसे हिंसक शताब्दी रही है. युद्ध से संबंधित हिंसा में कुल 18 करोड 70 लाख लोग मारे गये हैं... इस शताब्दी में युद्ध अनवरत चलता रहा है. ... द्वितीय विश्वयुद्द का कोई समापन नहीं हुआ (जैसा कि अमूमन युद्ध के बाद होता है). जाहिर है, युद्ध द्वारा किसी भी स्थाई समाधान नहीं हुआ है. किसी अफगानिस्तान या इराक तक को युद्ध की हिंसा के द्वारा सबक नहीं सिखाया जा सका. किसी का हित सधा हो, लगता नहीं है. जिन संगठनों ने हिंसा के द्वारा अपनी जनता के लिए अपनी सरकारों से हिंसा के द्वारा मुकाबला किया है उनसे भी कुछ नहीं बन पडा. नेपाल से लेकर श्री लंका तक के नजदीकी उदाहरण यही संदेश देते हैं कि इस तरह के हिंसक राजनैतिक प्रयास फौरी सफलताएं भले ही पा लें, इसके दूरगामी परिणाम शुभ नहीं होते. अफ्रीका में विभिन्न देशों में हिंसात्मक गतिविधियों से जुडे संगठनों का हाल तो और भी भयानक है. वहाँ लाखों लोग मर रहे हैं और किसी का कोई भला नहीं हो रहा है. क्या इस बात की चर्चा की ज़रूरत है कि लश्करे तोईबा और अन्य इस्लामिक हिंसा में विश्वास करने वाले संगठनों से सबका (विशेषकर मुसलमानों का) कितना अहित किया है? वामपंथी हिंसा में विश्वास करने वालों से भी किसी का हित नहीं हुआ है.
3. हर क्षेत्र में केंन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति ने हिंसा को नहीं बढाया है?
उत्तर: इसमें कोई संदेह नहीं है. इसको समझने के लिए दो उदाहरणों को पास पास रखकर समझा जा सकता है. कश्मीर में जिस तरह से केन्द्र ने शांति बहाल करने की कोशिश की और आतंकवादी गतिविधियों को समाप्त करने की कोशिश की उसमें सफलता तभी मिलनी शुरू हुई (जितनी भी मिली है) जब स्थानीय राजनैतिक प्रक्रिया शुरू की गई. केन्द्र अपने बूते यह नहीं कर पाया. सख्ती करके भी नहीं. पंजाब में भी यही हुआ. आज खालिस्तान आन्दोलन जैसा खतरनाक आन्दोलन खत्म हुआ जब स्थानीय लोगों ने इसमें पहल की. असम में भी यही हुआ. केन्द्र के बल से किसी भी आन्दोलन को दबाना बहुत मुश्किल है. बाहरी ताकत लगाकर दबाव तो बनाया जा सकता है लेकिन स्थायी रूप से प्रभावी समाधान नहीं दिया जा सकता. अमरीका ने अफगानिस्तान और इराक के उदाहरण से यह पाठ सीखा है.
4. हिंसा की कितनी जरूरत राष्ट्र-राज्य को है?
उत्तर: मैं पहले भी कह चुका हूँ कि राज्य का अस्तित्व हिंसा के बल पर ही है. यह अकारण नहीं है कि तोलस्तोय और गाँधी समेत बहुत सारे शांतिप्रिय नेताओं और चिंतकों ने राष्ट्र-राज्य को जरूरी नहीं समझा. वे अगर इसके नाश के लिए तैयार न भी हुए हों तो भी यह तो चाहते ही थे कि इसका दखल लोगों के जीवन में कम से कम हो.
वैसे देखा जाए तो राष्ट्र राज्य जानबूझ कर नहीं मजबूरी में हिंसा करता है. पर यह मजबूरी ऐसी है कि इसके बिना उसका कोई औचित्य रहेगा ही नहीं. आम वामपंथी दृष्टि के अनुसार राज्य का प्रधान दायित्व है 'हैव्स" को " हैव नाट्स" से बचाना और यथास्थिति को बनाए रखना. उदारनैतिक दृष्टि के अनुसार राज्य का दायित्व है नागरिकों की स्वतंत्रता की, उसकी संपत्ति की रक्षा करना और जहाँ तक संभव हो कम से कम हस्तक्षेप करना. सीमा पर रक्षा, पुलिस और डाक व्यवस्था के अलावा किसी भी मामले में राज्य की उपस्थिति को उदारवादी नापसंद करते हैं. कुल मिलाकर फासिस्ट और अन्य प्रकार के तानाशाहों ने ही राज्य की जरूरत को जरूरी समझा है.
राज्य है तो हिंसा है और एक हद तक राज्य की हिंसा को तब तक सही माना जाता है जब तक राज्य को आम जनता की ओर से वैधता प्राप्त है. अगर राज्य कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए या देश की सीमा की सुरक्षा के लिए या फिर किसी गंभीर आंतरिक खतरे का मुकाबला करने के लिए हिंसा का सहारा लेती है तो जनता उस हिंसा को उचित मान लेती है. श्री लंका की वर्तमान सरकार द्वारा जिस हिंसक तरीके से एल टी टी का जाफना से सफाया किया गया उसका श्री लंका की जनता ने समर्थन किया.
5. संगठित हिंसा की समाप्ति किस संगठित विचार या प्रयास से संभव है?
उत्तर: कुछ वर्ष पूर्व विख्यात दो दार्शनिकों -देरिदा और हैबरमास ने इस पर विचार किया था. उसके आधार पर एक विद्वान ने यह सुझाव दिया कि जो शोषित हैं उन्हें भी हिंसा का अधिकार नहीं है. हैबरमास कहते हैं कि इस बात को समझने की जरूरत है कि " बीइंग द सब्जेक्ट ऑव वायलेंस गिव्स अस नो राइट टू बी वायलेंट इन रिटर्न'. यह एक उपयोगी टिप्पणी है. स्पष्ट है कि यह मत गाँधी के विचारों के बहुत निकट है. कई लोगों को यह बात कुछ अटपटी लग सकती है. हम अपने सहज बोध से जानते हैं कि हिंसा आत्म-रक्षार्थ भी किया जाता है और अपने अधिकार के लिए भी कभी कभी हिंसा होती है. भारतीय संदर्भ में हाल ही में अरूंधती राय ने जन-जातियों के साथ राज्य द्वारा किए जा रहे अन्यायों के सन्दर्भ में जन-जातियों द्वारा किए गये हिंसा को उचित ठहराया है. देश के विभिन्न हिस्सों में माओवादियों द्वारा किए जा रहे हिंसक आन्दोलनों के समर्थन में भी कुछ लोगों ने लिखा है. इस बात को केन्द्र में रखकर विचार करना उचित होगा. हैबरमास एक अन्य बात को भी इस सन्दर्भ में जोडते हैं जो उनके पूरे वक्तव्य को स्पष्ट करता है. वे कहते हैं- "हिंसा के परित्याग के लिए यह जरूरी है कि लोग यह समझें कि कहीं भी किसी के ऊपर हो रही हिंसा को वे अपने ऊपर हो रहे आघात के लिए लें". [इस संबंध में और विस्तार के लिए देखें- एल. जी. बोरादरी (Borradori), फिलासफी इन ए टाइम ऑव टेरर :डायलॉग विद जुर्गेन हैबरमास एंड जॉक देरिदा (2003)] हैबरमास इस सन्दर्भ में दो बातों का उल्लेख करना नहीं भूलते; उनके अनुसार आधुनिक समाज ने पारंपरिक समाज को ध्वस्त तो कर दिया लेकिन उसका विकल्प तैयार नहीं किया. आतंकवाद आधुनिकता का निगेटिव पक्ष है जिसका उदय इस कारण से हुआ है क्योंकि आधुनिकता ने जो दर्द पैदा किया उसकी दवा का इंतजाम नहीं किया. आतंकवाद एक आधुनिक युग की समस्या है. यह प्राक आधुनिक युगों की हिंसा से भिन्न है. पहले हिंसा का खत्म होना तय था चाहे वह जितना भी भयावह हिंसा क्यों न हो. आज आतंकवाद की हिंसा से भी ज्यादा समस्या पैदा करने वाली बात यह है किसी भी समय फिर से हो सकने वाली हिंसा की आशंका है. 9/11 के बाद अमरीका जितनी भी व्यवस्था कर ले वह इस भय से मुक्त नहीं हो सकता कि ऐसी घटना कभी भी कहीं भी घट सकती है. यह बात और भी भुलाना कठिन है कि अमरीका ने ही ओसामा बिन लादेन को शीत युद्ध के दौरान ट्रेनिंग दी थी और 9/11 के आतंकियों ने पश्चिमी देशों में ही जहाज उडाने की ट्रेनिंग ली थी.
मुझे लगता है हैबरमास की इन बातों से संगठित हिंसा की समाप्ति की ओर एक जरूरी पहल संभव है.
इसमें संदेह नहीं कि जन-जातियों के साथ अन्याय लगातार हुए हैं और इस अन्याय में राज्य की भी भूमिका रही है. जिस प्रकार अमानवीय तरीकों से जन-जातियों को उनके वास-स्थानों से विस्थापित किया जाता रहा है और जिस प्रकार उनकी गरीबी बढी है उसे देखते हुए कई लोगों को लगता है कि उनका प्रतिवाद- चाहे हिंसक हो तो भी समर्थन योग्य है. दूसरी ओर एक अन्य प्रकार की परिस्थिति में बंगाल के कुछ इलाकों में राज्य समर्थित शासक दल द्वारा चलाए जा रही संगठित हिंसा का जिस तरह प्रतिवाद हुआ है उसके संदर्भ में भी यह कहा जा सकता है कि एकमात्र हिंसक तरीके से ही शासक दल के अत्याचार और वैज्ञानिक तरीके से चलाए जा रहे दलीय आतंकवाद का डटकर मुकाबला किया जा सकता था. इस प्रसंग में दो तीन बातों का उल्लेख जरूरी है. बंगाल के जंगल महल इलाके में आज से 30 बरस पहले सभी दलों के समर्थक थे. कुछ कांग्रेसी थे कुछ समाजवादी थे और कुछ कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थक थे. पिछले दिनों यह पता चला कि अब इस इलाके में एक ही दल है -सी पी एम बाकी सबको खत्म कर दिया गया है. पता चला है कि येन केन प्रकारेण- छल-बल-कौशल से लेकर क्रूर हिंसा तक के प्रयोग द्वारा यहाँ सी पी एम के विरोधियों का सफाया कर दिया गया. सी पी एम का दबदबा इतना बढ गया था कि कुछ लोकप्रिय विरोधी दल के नेताओं का खून कराने के बाद भी पार्टी के नेताओं का कुछ नहीं हुआ. लोगों में पार्टी का भय इतना अधिक हो गया था कि लोग डर के मारे मुंह नहीं खोलते थे. ऐसे में धीरे धीरे एक विरोध जन जातियों में पैदा हुआ और जब मौका मिला सी पी एम के नेताओं और समर्थकों का सफाया शुरू हुआ. अब बदले हुए माहौल में सी पी एम के समर्थकों ने पहली बार जाना कि जान का भय क्या होता है. इस भय ने धीरे धीरे सी पी एम विरोधियों में साहस पैदा किया और विभिन्न इलाकों में सी पी एम के आतंक पैदा करने वाले दलीय आतंकवाद को हिंसक तरीके से चुनौती दी. अब इस प्रकार की हिंसा को कैसे देखा जाए?
इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि इस व्याख्या में दम है. आज सी पी एम बंगाल में रक्षात्मक मुद्रा में दिखलाई पड रही है तो इसका बडा कारण सी पी एम की न दिखलाई पडने वाली हिंसा (जिसने विरोधियों को आतंकित कर रखा था) का वैसा ही जवाब दिया जाना है. इन जन जातियों के नेताओं के प्रति सहानुभूति रखते हुए भी यह कहना पडेगा कि इस रास्ते से न कोई समाधान होगा और न ही जन जातियों को कोई राहत ही मिलेगी. होना यह चाहिए कि किसी मजबूरी में हिंसात्मक आन्दोलनों में आए लोगों को जैसे ही सुयोग मिले लोकतांत्रिक पद्धति की प्रक्रियाओं से जोड लिया जाना चाहिए. ऐसे उदाहरण दुनिया में बहुत हैं जिसमें हिंसा का रास्ता छोडकर लोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जुडे हैं. मिश्र से लेकर फिलिस्तीन तक ऐसे उदाहरण देखे जा सकते हैं. इस देश में पिछले वर्षों में नक्सलवादी आंदोलन का बहुत विस्तार हुआ है. आज सरकार इस तरह के आंदोलनों को देश की सुरक्षा के लिए बडा खतरा मान रही है और युद्ध स्तर पर इसका मुकाबला करने के लिए अपनी फौज को इस काम में लगाए हुए है. आए दिन नक्सली और सेना के बीच की मुठभेडों में दोनों ओर से मारे गये लोगों की तस्वीरें अखबारों में दिखलाई पडती हैं. ऐसे में कभी कभी लगता है कि अब इस देश के एक बडे हिस्से में राज्य और नक्सली अपने अपने अधिकार के लिए खूनी लडाईयाँ चलती रहेंगी. यह हो भी सकता है. लेकिन, यह अंतत: राज्य के द्वारा नक्सलियों के दमन में ही समाप्त होगा. इस बात को अगर ठीक से समझ लिया जाए तो संभव है देश के शांति प्रिय नेताओं की पहल का लाभ लेकर नक्सली लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल हों और अपना राजनैतिक आंदोलन चलाते रहें. अगर ऐसा नहीं हुआ तो सैकडों- हजारों पुलिसकर्मी और नक्सली इस हिंसा की भेंट चढ जायेंगे.
निश्चित ही राज्य को भी इसमें पहल करनी पडेगी. इतिहासकार हॉब्सबाम बताते हैं कि दुनिया के बहुत सारे देशों में राज्य सत्ता के समानांतर कई सत्ताएं उभर गयी हैं जो राज्य की सामरिक शक्ति से होड लेती हैं. उनका दमन राज्य कर ही ले यह जरूरी नहीं, जब तक ऐसा नहीं होता शांति बहाल नहीं हो सकती. राज्य अगर सिर्फ दमन करने के इरादे से काम करेगा तो संभव है यह कठिन प्रमाणित हो. ऐसे में दोनों ओर से पहल होनी चाहिए. मीडिया और संस्कृतिकर्मियों का भी यह दायित्व है कि वह हिंसा के मार्ग को एक विकल्प के रूप में देखने प्रवृत्ति का विरोध करे और लोगों में यह जागरूकता पैदा करे कि हिंसा से स्थायी राजनैतिक समाधान संभव नहीं. साथ ही राज्य पर भी दबाव बनाए कि हर तरह की हिंसा को आपराधिक हिंसा न माने और ऐसा सामाजिक माहौल बनाए जिसमें भय और अविश्वास कम हो. एक आधुनिक दृष्टि रखने वाली सरकार और आधुनिक बनने की होड में पिली जनता में यह विवेक तभी आ सकता है जब इस समाज और संस्कृति के उदात्त तत्त्वों के प्रति लोगों की जागरूकता बढे. चाहे जितना भी कठिन हो यह याद रखा जाना चाहिए कि इसी देश में सौ साल पहले एक अहिंसक राजनैतिक आंदोलन हुआ था जो विश्व का सबसे बड स्वाधीनता संग्राम था