Saturday 28 August, 2010

गनीमत है व्योम जी ने बंगाल को इस बार बख्सा !

कोलकाता के एक हिंदी कथाकार की भविष्यवाणियाँ पढते हुए कुछ समय बीत गया है. मुझे लगता है इस कथाकार की बातों को मित्रों के बीच रखा जाना चाहिए. लोगों को मज़ा आयेगा. हो सकता है इन बातों में अगर 'मेरिट' होगा (जिसे मुझ जैसा आदमी समझ नहीं पा रहा) तो लोग मुझे समझने में मदद करेंगे. ये महाशय नाम बदल बदल कर कभी राधेलाल तो कभी व्योम तो कभी दुबे बनकर अपने फ्यूचरिस्टिक सोच का प्रचार कर रहे हैं. बडी मेहनत कर रहे हैं पर हाय रे हिंदीवाले पूर्वांचली वे इन बातों को अभी तक ठीक से समझ नहीं सक रहे.
क्या हैं ये विचार. बातें तो उन्होंने बहुत घिनौने तरीके से भी कही हैं लेकिन ब्लॉग की गरिमा को ध्यान में रखते हुए एक ही छोटी टिप्पणी दे रहा हूं. आशा है लोग इस महान व्यक्ति के महान उद्गारों को समझने में मेरी मदद करेंमन भर आया,ग्लानि और पाप बोध के हिमालय के नीचे दबा पडा हूं। सचमुच हम औरत को ऐसे रखते हैं,दबा कर ,कुचल कर,बिस्तर और चादर की तरह…फिर अपने चारो ओर नजर दौडाई।


विश्वास के साथ कह सकता हूं कि ऐसा मैंने देखा नहीं-हो सकता है -वो नजर ही अल्लाह ने ना बख्शी हो। यह क्या प्रांत विशेष ,भाषा विशेष का सच हो सकता है,या भारत में यूनिवर्सल सच है। बिहार का सच पूरे भारत का सच नहीं है।पूरे हिंदी प्रदेश में भी साम्य नहीं है। कस्बे का सच महानगर का सच नहीं है। काम-काजी महिलाओं का सच सारी औरतों का सच ना हो?पढी लिखी होने के अपने पचडे हों,मह्त्वाकांक्षा क्या -क्या नहीं करवाती। महत्वाकांक्षा ना कह कर लालच-लोभ भी कह सकते हैं। अनप्रोडक्टिव महिला-पुरुष को कैरियर बनाने के लिये दुष्चक्र में फंसना पडता है। स्त्री थोडी ज्यादा वलनरेवल है ,पुरुष से। ये समस्या ‘गो पट्टी’ की ज्यादा है,मीडीया,कॉलेज,सरकारी नौकरी ,हिंदी,कस्बा,

(प्रदेश का नाम लेना ठीक नहीं होगा),ये सब मिल कर एक गोल बनाते हैं-जहां ये बीमारी महामारी का रूप ले चुकी है। बंगाल में ऐसा नहीं होता,शायद हरियाणा-राजस्थान,पंजाब में भी नहीं। दक्षिण भारत में भी नहीं । अब जिनके लिये अकादमिक कैम्पस ही भारत है,उनकी बात अलग है। जहां दूसरे रोजगार हैं,इटरप्योनोरशिप है ,उन्हें इस गलाजत के बगैर भी डिग्निटी सुलभ है। सरकारी नौकरी पाना जब लॉटरी लगने जैसा हो गया है,तो फिर लॉटरी की कीमत भी वसूली जाना घोर अपराध नहीं है। 5 साल जाने दीजिये सरकारी नौकरियों के लिये ‘सुपारी किलर’ तैनात होंगे। रेल मंत्रालय अगर गरीब मुल्क में 5-10 लाख मुवाअजा देने लगे तो लोग बाप -भाईयों-माता-बहनों को रेल से धक्का देकर हत्या पर उतारू होंगे। गरीब मुल्क है ना,खाई चौडी हो रही है,और पूरा समाज इस खाई में गिर कर मरेगा। :ps:सांसदों का वेतन पांच गुना बढ गया है,दुनिया के सरकारी चाकर एक हों।इंक्लाब जिंदाबाद

गे.
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Tuesday 10 August, 2010

विष्णु खरे की भडास और हिंदी की गरिमा का प्रश्न




विष्णु खरे ने जनसत्ता में 10 और 11 अगस्त को जो कुछ लिखा है उससे और कुछ हुआ हो या नहीं हिंदी की गरिमा को ठेस लगी है. लगभग अराजक तरीके से राय-कालिया प्रश्न को अतिरेकी वक्तव्यों के साथ पेश करते हुए वे यह कह बैठे कि यह महाभारत है और जो उनके (विष्णु 'कृष्ण'?) साथ नहीं हैं वे कौरव दल (राय 'दुर्योधन' ?) के हैं. बगैर सिर पैर के वाक्यों और दक्षिण एशिया के समाज के बारे में सरलीकरणों से लदे इन लेखों में व्यक्तिगत आक्षेपों की ऐसी झडी लगा दी गई है कि पाठक यह समझ ही नहीं पाता है कि मुद्दा क्या है. अब इस वाक्यों को देखिए- " ...कैरियर को गतिशील बनाने के लिए संपादकों, आलोचकों, सहधर्माओं, प्रकाशकों, प्राध्यापकों और निजी तथा सार्वजनिक साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों के बीच कुछ ज्यादा ही सक्रिय है- यद्यपि यदि पुरूष लेखक वैसा करते हैं तो स्त्रियां क्यों न करें, लेकिन दक्षिण एशिया में औरत होने की ऎसी ट्रेजिडी है नीच '- और मैं समझता हूं कि नारी गरिमा के लिए कहीं भी अशोभनीय है और नैतिक रूप से संदिग्ध है. महिला लेखक कम से कम पुरूष लेखकों के पतन का अनुकरण न करें."

आप सिर धुनते रह जायेंगे और आपको यह समझ में नहीं आयेगा कि इस कथन को राय के कथन से कितना अलगा कर देखा जा सकता है. अंतर है भी तो कितने का?

अगर इस कथन को उनके उस कथन से जोड कर देखा जाए जिसमें उन्होंने हिंदी के पूर्वांचल (बिहार-उत्तर प्रदेश) के युवा लेखकों के खिलाफ अपनी भडास निकाली है- " दुर्भाग्यवश अब पिछले दो दशकों से हिंदी के पूर्वांचल से अत्यंत महात्वाकांक्षी, साहित्यिक नैतिकता और खुद्दारी से रहित बीसियों हुडकूलल्लू मार्का युवा लेखकों की एक ऐसी पीढी नमूदार हुई है जिसकी प्रतिबद्धता सिर्फ कहीं भी और किन्हीं भी शर्तों पर छपने से है."

क्या बच जाता है कहने को?

यह बहुत अच्छी बात है कि खरे साहब को वेश्या गमन की जरूरत नहीं पडी लेकिन इस बात को इस प्रसंग में लाने का क्या कोई औचित्य है?

हिन्दी से जुडे तमाम संगठनों के बारे में उनकी राय भी अतिरेकी है- "दक्षिण एशिया के वर्तमान सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक पतन के लिए मुख्यत: हिन्दी भाषी समाज यानी तथाकथित हिन्दी बुद्धिजीवी जिम्मेदार और कसूरवार है."

और भी कई ऐसे मुद्दे हैं जिसकी चर्चा इस भडास निकालने वाले आलेख में हैं. हिंदी का आम पाठक इन चर्चाओं से व्यथित होगा. कहते हैं कि विभूति नारायण राय जब कपिल सिब्बल से मिलने गये तो उन्होंने सिब्बल साहब को याद दिलाया कि जब मंटो पर अश्लीलता का मुकदमा चलाया गया था तो सिब्बल के पिता ने उनका केस लडा था. मंत्री जी ने जो उत्तर दिया वह दिलचस्प था- "पर मंटो उपाचार्य नहीं थे."

विष्णु खरे एक पढे लिखे और सम्मानित पत्रकार-चिंतक हैं. एक आम हिंदी वाला जब यह कहता है कि हिंदी विभाग 'चकलाघर' और 'पुरूष-वेश्याओं' के अड्डे हो गये हैं तो उसकी झल्लाहट को, उसकी खीज को समझने की कोशिश की जा सकती है, लेकिन विष्णु खरे जब इस बात को कहते हैं तो उसके निहितार्थ होते हैं. यह अकारण नहीं है कि अशोक बाजपेयी से लेकर विष्णु खरे तक नामवर सिंह की चुप्पी का उल्लेख कर उसे 'शर्मनाक' घोषित करते हैं. जिस तरह की भाषा का प्रयोग विष्णु खरे ने जनसत्ता के संपादकीय पृष्ठ पर किया है उसे किसी भी तरह से भाषा का नैतिक प्रयोग नहीं कहा जा सकता है.

किसी भी लोकतंत्र में गलती करने और माफी मांगकर भूल सुधार करने का सुयोग होना चाहिए. सिर्फ मृत लोग गलतियां नही करते. जिस तरह से छिनाल शब्द के अनुचित प्रयोग के कारण विभूति नारायण राय और रवीन्द्र कालिया के विरूद्ध लोगों ने विरोध प्रगट किया वह प्रमाणित करता है कि सब लोग सब कुछ बर्दाश्त नहीं करेंगे. लेकिन, यह क्या कि इस ओट में आप एक संपादक को हटाने की और हिंदी के एक विश्वविद्यालय से सभी नैतिकता वाले हिंदी लेखकों के बायकॉट करने वालों का गिरोह तैयार कर लें. और वह भी भद्दे और कुत्सित भाषा में अभियान चलाकर.

जनसत्ता ने इस पूरे मसले पर विरोध का जो अभियान चलाया उसका औचित्य हो सकता है, लेकिन अब इस प्रसंग को सही परिप्रेक्ष्य देने की जरूरत है. इस प्रसंग का जिस तरह एक राजनेता लाभ लेने की सोच सकता है वैसे ही यह सोचना कि जो हमारे दल के साथ मत दे रहा है वही सही है. 'बाकी सब पर नजर रखा जाना चाहिए' वाला विष्णु खरे टाइप सोच अराजक और विध्वंसकारी प्रवृत्तियों को बढावा देगा. इस तरह के प्रचारात्मक लेखन से जनसत्ता की छवि को ठेस पहुंचती है.

[पुनश्च: खरे साहब को लगता होगा कि सिर्फ वही लोग इस प्रसंग में रवीन्द्र कालिया के 'पक्ष' में हस्ताक्षर करेंगे जिन्हें वर्धा का टिकट कटाना है या ज्ञानोदय में छपने की भूख है. मैंने इस भद्दे प्रकरण में हस्ताक्षर करने का निर्णय विष्णु खरे का आलेख (प्रथम भाग) पढने के बाद लिया. मैंने ज्ञानोदय में कभी अपना कुछ छपने नहीं भेजा. एक उपन्यास का ड्राफ्ट भेजा जो दो साल तक ज्ञानपीठ में पडा रहा. विचार भी नहीं किया गया. बाद में एक अन्य प्रकाशक ने इसे छापा. महात्मा गांधी विश्वविद्यालय मैं कभी गया नहीं. राय से मेरा कोई परिचय नहीं है. मैंने यह सिर्फ एक अन्यायपूर्ण तरीके से किए जा रहे अभियान का विरोध करने के लिए किया है. हिंदी में लोकतांत्रिक स्पेस बना रहे और लोग खुल कर बोल सकें, प्रतिवाद कर सकें ऐसी भावना रखता हूं. विष्णु खरे को विद्वान व्यक्ति और बडा कवि मानता हूं. मेरे इस प्रतिवाद का अर्थ उनका असम्मान करना नहीं है.]

हितेन्द्र पटेल इतिहास विभाग, रवींद्र भारती विश्वविद्यालय, 56 ए, बी टी रोड, कोलकाता 60.

माफी मांगें विष्णु खरे

विभूति नारायण राय ने तो माफी मांग ली अब देखना है विष्णु खरे क्या करते हैं

विभूति नारायण राय ने 'छिनाल' शब्द का आपत्तिजनक प्रयोग किया और उन्हें प्रतिवाद के सामने अंतत: माफी मांगनी पडी. जिसने भी वह इंटरव्यू ठीक से पढा होगा उन्हें यह पता होगा कि उस टिप्पणी का एक संदर्भ था, लेकिन उनके वक्तव्य से युवा लेखिकाओं की भावना को ठेस लगती है इस आरोप के कारण ही राय को प्रतिवाद के सम्मुखीन होना पडा. इस तर्क को अगर माना जाए तो विष्णु खरे के लेख से तो हिन्दी समाज के तमाम लोगों का ही अपमान करने की कोशिश की गयी है. जिस असभ्य तरीके से खरे ने पूर्वांचल के युवा लेखकों के बारे में एक आपत्तिजनक शब्द का प्रयोग किया है उसकी जितनी भी भर्त्सना की जाए कम है.



जब से विभूति नारायण राय का इंटरव्यू आया है एक मुहिम जनसत्ता से लेकर तमाम जगहों में शुरू हो गयी है. साहित्य में प्रमाद 1 (जनसत्ता 10 अगस्त) के आते आते यह स्पष्ट हो गया है कि हिन्दी के कुछ लोग अपने राग-द्वेष को छुपाकर अपनी कुंठाओं को व्यक्त करने का ऐसा मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते. विष्णु खरे को एक प्रखर बुद्धिजीवी के रूप में जानने वालों के लिए 'साहित्य में प्रमाद' प्रसंग 'छिनाल प्रसंग' से कम कुत्सित नहीं लगेगा. खरे ने जिस अराजक सोच के साथ विभूति नारायण राय प्रसंग को अपनी कुंठाजनित सोच से जोडा है उसके भौंडे प्रदर्शन को इस लेख में देखकर हिन्दी के एक कवि के ऐसे घोर पतन पर रोया ही जा सकता है. जिस भाषा का प्रयोग उन्होंने हिन्दी के यशस्वी विद्वानों के लिए किया है वह उनकी कुंठाओं को सामने लाने वाला है. खरे ने अंग्रेज़ी की किताबें पढी हैं और यूरोपीय ज्ञान से जुडने के बाद बहुत सारे लोगों को अपने देश के लोग गंवार और अपनी भाषा के विद्वान 'मीडियाकर' लगने लगते हैं. उन्हें मन ही मन इस बात की कचोट रहती है कि उन्हें हिन्दी समाज के लोग वो सब कुछ क्यों नहीं दिलाते जो अंग्रेज़ी वालों को इस देश में मिलता है. मेरा अनुमान है कि विष्णु जी रामविलास शर्मा को बहुत ही 'ओवरैस्टिमेटेड मीडियॉकर' से ज्यादा नहीं मानते होंगे. खरे साहब का यह हाल है कि वे 'विनाश काले विपरीत बुद्धि' तक भी यूनान की कहावत से आते हैं. पता नहीं कैसे खरे इस बात से अपनी बात शुरू करने का दंभ दिखाते हैं कि उन्होंने अपने 'पूर्वाग्रहों ' के कारण विभूति नारायण राय के सानिध्य से बचे ! वह यह बतलाना चाहते हैं कि वे कितने पाक दामन हैं. हिंदी की सारी दुनिया फंतासियों में जीने वाली, कल्पनातीत अपात्र वेतनमान के साथ यौनशोषण को बढावा देने वाली दिखलाई पडती है. यहीं तक नहीं वे मानते हैं कि अनेक हिन्दी विभागों को पुरूष वेश्याओं के चकले बन गये हैं ! हिन्दी की अनैतिक साहित्यिक सत्ता प्रकरण पर आने के पहले वे रामचन्द्र शुक्ल से लेकर सुधीश पचौरी जैसे "अकादमिक बौने छुटभैयों" का उल्लेख करना नहीं भूलते. खरे साहब इस बात के लिए याद किए जाने चाहिए कि उन्हें इस बात का अहसास है कि "दक्षिण एशिया के वर्तमान सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक पतन के लिए मुख्यत: हिन्दी भाषी समाज यानी तथाकथित हिन्दी बुद्धिजीवी जिम्मेदार और कसूरवार है." जिस थाली में खाओ उसी में छेद करो के ऐसे उदाहरण कम ही मिलेंगे.

मुझे लगता है कि विष्णु खरे की सबसे महत्त्वपूर्ण टिप्पणी यह है - " दुर्भाग्यवश अब पिछले दो दशकों से हिंदी के पूर्वांचल से अत्यंत महात्वाकांक्षी, साहित्यिक नैतिकता और खुद्दारी से रहित बीसियों हुडकूलल्लू मार्का युवा लेखकों की एक ऐसी पीढी नमूदार हुई है जिसकी प्रतिबद्धता सिर्फ कहीं भी और किन्हीं भी शर्तों पर छपने से है."

यह कैसे क्षम्य है, इसका जवाब खरे से मांगा जाना चाहिए. यह टिप्पणी कैसे राज ठाकरे की टिप्पणी से गुणात्मक रूप से भिन्न है, और इस टिप्पणी के लिए क्यों विष्णु खरे को माफी नहीं मांगनी चाहिए?

हिन्दी का पूर्वांचल कहां है और कौन कौन से लोग खरे को दिखलाई पड रहे हैं जो हिन्दी के अन्य क्षेत्रों की तुलना में नैतिकता विहीन हैं.

एक बार अगर यह मान भी लिया जाए कि हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि-पत्रकार विष्णु खरे ने अपनी बात दर्द से अपनों से तीखे ढंग से की है तो भी इन वक्तव्यों के पीछे छिपी कुठाएं हमें यह बतलाती हैं कि वे बौखलाए हुए दंभी दिल्ली के ऐसे बुद्धिजीवी हैं जिन्हें इस बात की खबर नहीं है कि ऐसे चालाक-चतुर सठिया गये होने का अंदाजा नहीं है.

हिन्दी विभाग और हिन्दी से जुडी संस्थाएं सबकुछ ठीक से कर रही हैं ऐसा मानने वाला कोई नहीं होगा लेकिन क्या हिंदी के जुडते ही कोई विभाग, कोई संस्थान, कोई राज्य या कोई बुद्धिजीवी घटिया और नैतिकताविहीन हो जाता है? मैकॉले और नीरद चौधरी की संतानें ऐसा कहें तो हम समझ सकते हैं लेकिन एक ऐसे व्यक्ति की कलम से इस तरह के भाव का आना हमें व्यथित करता है.

जनसत्ता में इस तरह के लेख का छपना बगैर प्रतिवाद के नहीं जाना चाहिए. विभूति नारायण राय के प्रसंग में जनसत्ता के साथ चलकर विष्णु खरे अपने अतिवादी अराजक सोच को भी उसके साथ नत्थी करने की जो कोशिश कर रहे हैं वह निंदनीय है. उन्हें माफी मांगनी चाहिए.

Sunday 1 August, 2010

जगदीश्वर चतुर्वेदीद्वारा ‘डिजिटल’ मनमोहन सिंह का मूल्यांकन

मनमोहन सिंह जब से प्रधानमंत्री बने हैं। वे मीडिया और विशेषज्ञों की आलोचना में नहीं आते। उन्हें प्रधानमंत्री बने 6 साल से ज्यादा समय हो गया है। मीडिया में ममता बनर्जी,शरद पवार ,प्रफुल्ल पटेल ,डी.राजा ,कांग्रेस के क्षेत्रीय नेताओं ,कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों आदि की आलोचना दिखेगी लेकिन मनमोहन सिंह की आलोचना नहीं मिलेगी। ऐसा क्यों हो रहा है कि आलोचना के केन्द्र से मनमोहन सिंह गायब हैं। आकाश छूती मंहगाई है लेकिन प्रधानमंत्री पर न तो मीडिया हमला कर रहा है और न विपक्ष। असल में मनमोहन सिंह डिजिटल हो गए हैं। उनका डिजिटल इमेज में रूपान्तरण कर दिया गया है। डिजिटल इमेज और राजनीतिक व्यक्तित्व की इमेज में यही अंतर होता है। राजनीतिक इमेज को पकड़ सकते हैं लेकिन डिजिटल इमेज को पकड़ नहीं सकते।

मनमोहन सिंह ने जब पहलीबार ‘यूपीए -1’ के प्रधानमंत्री का दायित्व संभाला तो उस समय दो महत्वपूर्ण बातें घटित हुईं, पहली, सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इंकार किया और मनमोहन सिंह का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया।

दूसरी बड़ी घटना यह हुई कि मनमोहन सिंह सिख थे, नव्य-उदारतावादी नीतियों के निर्माता थे। इनमें उनका सिख होना बेहद महत्वपूर्ण माना गया। यह भी कहा गया कि कांग्रेस कितनी महान पार्टी है कि उसने एक औरत को पार्टी का अध्यक्ष बनाया और एक सिख को प्रधानमंत्री बनाया। ये दोनों ही बातें तथ्य के रूप में सही हैं लेकिन सिख और औरत के नाते सही नहीं हैं। सोनिया को औरत के नाते अध्यक्ष नहीं बनाया गया। मनमोहन सिंह सिख के नाते प्रधानमंत्री नहीं बने। इन दोनों का औरत और सिख वाला रूप सिर्फ प्रतीकात्मक है। असल तो राजनीति है और राजनीतिक इमेज है जिसने इन्हें अध्यक्ष और प्रधानमंत्री बनाया। राजनीति में एक ही अस्मिता होती है वह है राजनीतिज्ञ की। समस्त अस्मिताएं इसमें समा जाती हैं या फिर अप्रासंगिक हो जाती हैं।

मनमोहन सिंह का व्यक्तित्व अनेक गुणों से परिपूर्ण है। वे बेहद विनम्र हैं, सुसंस्कृत है,शिक्षित हैं। नव्य -उदार नीतियों का उन्हें विश्व में बेहतरीन विशेषज्ञ माना जाता है। उन्होंने अपनी नीतियों के कुफल और सुफल दोनों से प्रभावित किया है। मीडिया में मनमोहन सिंह के बारे में न्यूनतम बातें छपती हैं। संभवतः मीडिया में उन्हें सबसे कम कवरेज वाले प्रधानमंत्री के रूप में याद किया जाएगा।



सवाल यह है कि डिजिटल युग में मनमोहन का कोड क्या है ? मनमोहन कोड को खोले बिना उनकी डिजिटल युग की छायाओं की सही भाषा को समझने में मदद नहीं मिलेगी। पहली समस्या है कि क्या मनमोहन कोड जैसी कोई चीज है ? हमारे देश में विद्वानों की कमी नहीं है जो इस तरह के किसी भी कोड की उपस्थिति को अस्वीकार करें।

भारत में सन् 1980 के दौर में पंजाब में जिस तरह का आतंकी दौर था और ब्लू स्टार ऑपरेशन हुआ,श्रीमती गांधी की एक सिख के हाथों हत्या हुई और बाद में संगठित सिख जनसंहार हुआ, उसे देखते हुए मनमोहन सिंह का क्रमशः सत्ता के शिखर पर पहुँचना निश्चित ही बड़ी बात है। लेकिन इस प्रक्रिया में कहीं से भी उनका सिख होना कारक या समस्या नहीं था।

भारत की बहुलतावादी संरचनाएं इतनी ताकतवर हैं कि उन्होंने जाति और धर्म के आधार को कमजोर कर दिया है। धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक संस्कृति का तानाबाना जिस तरह विकसित हुआ है उसने आधुनिक सोच और आधुनिक व्यवहार की मजबूत नींव रखी है। भारत में धार्मिक और साम्प्रदायिक पहचान का वर्चस्व खत्म हुआ है। अब मनमोहन सिंह के पास सिख के नाम पर दाढ़ी और पगड़ी ही चिह्न के रूप में बची है।

सवाल उठता है क्या मनमोहन सिंह को सिख अस्मिता के रूप में देखें ? या फिर उनकी शिक्षा-दीक्षा, उनके जीवनानुभवों की कहानियों, माइथोलॉजी,इमेज,संवेदना,वैज्ञानिक विमर्श आदि को भी देखें। क्या इतनी चीजों को मिलाकर देखने से मनमोहन सिंह का सिखभाव बचा रहेगा ?

क्या मनमोहन के दृश्य और अदृश्य जीवन की इमेजों के आधार पर उनके सिख को परिभाषित कर सकते हैं ?क्या उससे सिख निकलेगा ?मूल समस्या यह है कि क्या मनमोहन सिंह सिख हैं ? इसबार के लोकसभा चुनाव में पंजाब के सिखों ने कांग्रेस को ज्यादा संसदीय सीटें जीताकर दीं। क्या इस तरह की जीत को सिख मनमोहन के व्यक्तित्व से जोड़कर देख सकते हैं ?

कांग्रेस ने अपने प्रचार में सोनिया-मनमोहन और राहुल गांधी के त्रिगुट की इमेज का इस्तेमाल किया था। इस त्रिमूर्ति की विजुअल इमेज किसी भी तरह के नस्ल संबंधी संकेत का प्रचार नहीं करती। लेकिन इस त्रिमूर्ति की इमेज का डिजिटल रूपों में जिस तरह प्रचार किया गया उसमें एक नए किस्म का स्पेस -टाइम संबंध उभकर आया है। नई डिजिटल इमेज एक ही साथ मिथकीय और ऐतिहासिक होती है। अतीतपंथी और भविष्योन्मुखी होती है। तकनीकीपरक और धार्मिक होती है।

मनमोहन सिंह ने अपने प्रचार में बार-बार समृद्ध भारत और समर्थ भारत की बात की है। बार-बार विकासदर को उछाला है। अपने को समृद्धि के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया है। खासकर पूंजीपति,ह्वाइट कॉलर और मध्यवर्ग के साथ जोड़ा है। इस क्रम में उन्होंने मजदूरों-किसानों की राजनीति को हाशिए पर ड़ालने में सफलता अर्जित की है।

मनमोहन सिंह भारत के अकेले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने कभी मजदूरों-किसानों को सम्बोधित नहीं किया है। मनमोहन की इमेज से मजदूरों-किसानों का दूर रहना जितना दृश्य है उससे भी ज्यादा दृश्यगत है उनका किसानों का ऋण माफ करना। यह ऐसा पैसा था जो डूब गया था,जिसकी वसूली संभव नहीं थी, अतः उसे माफ करके उन्होंने पूंजीवाद के हित में बड़ा कदम उठाया। इस फैसले से किसानों को कम और बैंकों को ज्यादा लाभ पहुँचा है।

मनमोहन कोड की विशेषता है कि उसने गरीबी के यथार्थ विमर्श को वायवीय बना दिया है। गरीबी और अभाव को एकसिरे से अपदस्थ कर दिया है। मनमोहन कोड ने गरीबी और अभाव को अप्रत्यक्ष दानव में रूपान्तरित कर दिया है। जिसके बारे में आप सिर्फ कभी-कभार सुन सकते हैं। मनमोहन कोड के लिए गरीबी और अभाव कभी महान समस्या नहीं रहे। उनके लिए वे ठोस सामाजिक वर्ग भी समस्या नहीं रहे जिनके कारण गरीबी और अभाव कम होने की बजाय बढ़ रहे हैं। मनमोहन कोड ने देश की एकता और अखंडता के लिए सबसे खतरनाक शत्रु के रूप में माओवाद को प्रतिष्ठित किया है। जबकि माओवाद भारत विभाजन या सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा नहीं है।

मनमोहन कोड की काल्पनिक सृष्टि है माओवाद और आतंकी हिन्दू। यह जादुई-मिथकीय शत्रु है। मनमोहन कोड के अनुयायी और प्रचारक माओवाद के बारे में तरह-तरह की दंतकथाएं, किंवदन्तियां आदि प्रचारित कर रहे हैं। मीडिया में माओवाद एक मिथकीय महामानव है। इसी तर्ज पर आरएसएस के नाम पर बहुत सारे आतंकी हिन्दू महामानव पैदा कर दिए गए हैं। ये सारे मनमोहन कोड से सृजित वर्चुअल सामाजिक शत्रु हैं। ये आधे मानव और आधे दानव हैं।

माओवाद और हिन्दू आतंकवाद की रोचक डिजिटल कहानियां आए दिन सम्प्रेषित की जा रही हैं। इन्हें सामाजिक विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। आप जरा गौर से माओवादी नेता किशनजी की कपड़ा मुँह पर ढ़ंके इमेज और हिन्दू आतंकी के रूप में पकड़े गए संतों को ध्यान से देखें तो इनमें आप आधे मनुष्य और आधे प्राचीन मनुष्य की इमेज के दर्शन पाएंगे।

कारपोरेट मीडिया माओवादी और हिन्दू आतंकी की ऐसी इमेज पेश कर रहा है गोया कोई फोरेंसिक रिपोर्ट पेश कर रहा हो। वे इनके शरीर की ऐसी इमेज पेश कर रहे हैं जिससे ये आधे मनुष्य और आधे शैतान लगें। इससे वे खतरे और भय का विचारधारात्मक प्रभाव पैदा कर रहे हैं।

मनमोहन सिंह मीडिया में उतने नजर नहीं आते जितना इन दिनों डिजिटल दानवों (माओवाद और हिन्दू आतंकी) को पेश किया जा रहा है। हमें इस कोड को खोलना चाहिए। यह तकरीबन वैसे ही है जैसे अमेरिका ने तालिबान और विन लादेन की इमेजों के प्रचार-प्रसार के जरिए सारी दुनिया को तथाकथित आतंकवाद विरोधी मुहिम में झोंक दिया और तबाही पैदा की गयी। सामाजिक अस्थिरता पैदा की गयी। घृणा का वातावरण पैदा किया गया। ठीक यही काम मनमोहन कोड अपने डिजिटल शत्रुओं के प्रचार-प्रसार के नाम पर कर रहा है। हमें जागरूक रहने की जरूरत है।