प्रो. गिरीश मिश्र ने इस बहस में एक जरूरी मोड दिया है. यह बात कई जगहों से आने लगी है कि हिन्दी में विमर्श का स्तर ठीक नहीं है और साहित्यकार अपने समय के सवालों से टकराने का जोखिम नहीं उठाते, घिसी पिटी लीक पर चलते रहते हैं. यह एक तरह से सही प्रतीत होता है. लेकिन, इसका दूसरा पक्ष यह है कि हिन्दी समाज के समाज शास्त्री जोला के समाज के समाज शास्त्रियों की तरह का आचरण नहीं करते. हिन्दी समाज के समाज शास्त्री एक ग्रंथि पाले हुए हैं. वे समाज के विमर्श को विदेशी विमर्शों के आधार पर फिट करते रहते हैं और उम्मीद करते हैं कि हिन्दी के विद्वान उनका अनुसरण करते रहें. नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव जैसे लोगों ने इस सन्दर्भ में भी एक ख्याति अर्जित कर ली है यह बात समाज शास्त्री ठीक से हजम नहीं कर पाते. क्या यह प्रश्न पूछ्ना गिरीश मिश्र को बिपन चन्द्र से जरूरी नहीं लगता कि स्वातंत्रोत्तर भारत का इतिहास इतना सतही क्यों लिखा जाता है? चौधरी चरण सिंह के सुधार के बाद के समाज के परिवर्तनों पर उपन्यास की मांग वाजिब है लेकिन क्या इतिहास है इस दौर का? कृपया दीपंकर गुप्ता आदि के एक दो लेखों का और कुछ इ पी डब्ल्यू में छपे लेखों का हवाला देकर इतिहासकार अपने दायित्वों से मुक्ति न पा ले. जो उदाहरण गिरीश मिश्र ने गिनाये हैं वे उन देशों से आये हैं जहां के समाज शास्त्री अपने देश का 'टोटल' इतिहास भी लिखना चाह रहे थे. कहा भी जाता है कि शीशे के घरों में रहने वाले दूसरों पर पत्थर नहीं फेंका करते. पहले एक लेख इरफान हबीब, बिपन चन्द्र आदि के बारे में लिखें और बताएं कि मार्क ब्लाक, फेब्रे, ब्रादेल, डूबी और लादुरी आदि के देश में ही इस तरह की अपेक्षा साहित्यकारों से की जा सकती है कि वे तत्कालीन समाज के बारे में पेरेक जैसे साहित्यकार पैदा कर सकें जो तत्कालीन समाज की तस्वीर खींच सकें.
दरअसल, हिन्दी में लिखे हर काम को छोटा बनाकर उसकी सीमा को रेखांकित करके कुछ भी नहीं होगा. अभी अभी अरूंधती राय ने यह कहकर सबकी वाहवाही लूटी है कि आदिवासी पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों में कोई भी उनकी भाषा नहीं जानता. क्या बडे लोग, जो बडे मंचों पर काबिज हैं उस आदमी के लिखे को देखने की जहमत उठाते हैं जो हिन्दी में, क्षेत्रीय स्तर पर उन आवाजों को पेश करने की कोशिशें करते हैं? जिस देश में समाजशास्त्र की भाषा अंग्रेजी हो उस देश के साहित्य से अगर मांग हो तो उसे अंग्रेजी साहित्य से मांग रखनी चाहिए. मिश्र जी जांच करें कि अंग्रेजी के लोग कैसा नावेल लिख रहे हैं और फिर इस तरह की टिप्पणियां करे. इस तरह की टिप्पणी का हमें इंतजार रहेगा.
Aalekh sochne ko majboor karta hai.
ReplyDelete