Sunday, 18 October 2009

राहुल सिंह की हारिल पुस्तक पर टिप्पणी

अरसे बाद, एक बैठक में पढ़ जाने वाली पुस्तक हितेन्द्र पटेल की ‘हारिल’ मिली। फ्लैप पर कहे गए ‘‘सरल गति के कारण बेहद रोचक और पठनीय तथा प्रौढ़ मगर सहज लेखकीय निर्वाह’’ की पुष्टि पहले पेज से होने लगती है और आखीर तक निभ जाती है। ‘मैं’ के अहम् का अहिंसक स्तर भी इसका कारण है लेकिन अनाक्रामकता के बावजूद बाकर साहब को दिए लम्बे उत्तर में उसकी अस्मिता झलक जाती है। निरपेक्षता, उसे अधिकतर आउटसाइडर तो बनाए हुए है पर विसंगत नहीं और यह महज संयोग भी हो सकता है कि पहला ‘उपन्यास’ होने के बावजूद फ्लैप लेखे में लेखक का परिचय तो है लेकिन चित्र नहीं और यह भी नहीं कि जन्म कहां हुआ। यह कृति के ‘मैं’ और उपन्यासकार को (जेनुइन) घनिष्ट बनाता है।
रचनाओं के ‘मैं’ पर अक्सर, लेखक की छवि लद कर पठनीयता बोझिल करती है। वह ‘मैं’ सुदर्शन, बौद्धिक, संवेदनशील, सर्वगुणसम्पन्न हुआ करता है। जैसे नाटक अथवा फिल्मों में लेखक-कलाकार या निर्देशक-अभिनेता हो तो किसी दृश्य या ‘डायलाग’ में नायक पर कोई हावी नहीं हो सकता, वही सबको ‘तत्व-ज्ञान’ बांटता है, निरुत्तर करता है और उसके सामने पड़ने वाला यों पराजित हो, जैसे यही परिणिति हो, विधि का विधान हो, लेकिन यहां तकरीबन सभी पात्रों और विशेषकर समीर बाबू, कालिया साहब और जामिनी के हिस्से के वक्तव्य, संवाद और प्रश्न ‘मैं-प्रशांत’ पर भारी पड़ते रहते हैं, ऐसी लेखकीय उदारता कम मिलती है, जो यह भी साबित करती है कि लेखक प्रथम पुरुष में ही नहीं, अन्य पुरुष में समान रूप से विद्यमान है। इस मायने में भी यह रचनाकार की प्रौढ़ता का परिचायक है।
आखिर में जरूर प्रशांत का नायकत्व उभरने लगता है और अंतिम पृष्ठ पर स्थापित भी हो जाता है। अंत में ‘‘ऐसा क्या कि हमारी सारी मेधा, सारी तपस्या, सारे आदर्श तभी बचें जब हमें शक्तिशाली लोगों की बैसाखी मिले’’ सवाल पर अशांत प्रशांत को अपना चुनाव करना है। सवाल का यह दोराहा अब मैं-प्रशांत के रूप में लेखक का नहीं, पाठक के सामने है। ऐसा नहीं कि यहां जवाब नहीं आ सकता था लेकिन आता तो लेखक की निजता से व्याख्यायित हो कर। सवाल अनुत्तरित है, क्योंकि शायद अपना जवाब अपने तईं सबको खुद खोजना है या इसलिए कि सवाल का बना रह जाना भी चेतना को जागृत रखने में सहायक होता है, जो जवाब से कीमती हासिल हो सकता है।
बहरहाल एक सुझाव है- चुनौतियों का चयन कर सुविधानुसार मुकाबला या उनसे बचते जाना दुनियावी और सोच के स्तर पर अन्जाने ही पंगु करता जाता है। हम मौके और जरूरत के अनुरूप नहीं बल्कि मरजी और सुविधा से अपनी मनो-मुद्राओं में सदैव खुद को औचित्यपूर्ण ठहराते हैं। महत्वाकांक्षाएं और उद्यम बेमेल हों फिर भी स्वयं परीक्षक बनकर अपने को हर बार पूरा नंबर देते हैं, ऐसा कितनी दूर तक चल सकता है फलस्वरूप एक सीमा के बाद प्रश्नाकुल होने लगते हैं। दूसरी ओर जिसने चुनौतियों का न सिर्फ सम्मान और सामना किया बल्कि आमंत्रित कर स्वागत भी किया उसे बैसाखियों की जरूरत नहीं होती।
(बिना रिश्वत या कमीशन के रिजर्वेशन कन्फर्म करा लेने जैसे आदर्शों की रक्षा के लिए ऐसा पद या प्रभार हासिल करने की ख्वाहिश, जिससे भ्रष्टाचार का आरोपी मातहत बना रहे और आपके आदर्श की रक्षा होती रहे या महकमे वाले से घनिष्टता की तसल्ली और गर्व कि वह इमरजेंसी, एच-क्यू कोटे की सुविधा दिला सकने में सक्षम है, अंततः बैसाखी के लिए विवश करेगी।)
इसके अलावा दो-तीन छोटी बातें। कभी अपनी आजादी (स्वच्छंदता) से, सघन सभ्य परिवेश से तो कई बार, घबराहट होती है। प्रशान्त के संस्कारित आदिम में यह होगा ऐसा लगता है, लेकिन वह दोनों से सहज ही निपट लेता है। इसमें भी उसका बेगाना बना रहना सहायक होता है। भाई, पिता और मां का संक्षिप्त और जिस तरह से जिक्र है वह नायक के थोड़े अलग-से चरित्र को सहज विश्वसनीय बनाता है। कभी ऊब तो कभी परिस्थिति से विस्थापित पात्रों में घनी मोह-माया और सामाजिकता, उनके बेगानेपन को तदर्थ बनाती है। पात्र, मिलते ही रिश्ते की लय बिठाने के स्थायी भाव युक्त हैं। यह जड़ से जुड़े, स्थापित, उपस्थित रह कर भी असम्बद्ध रखे गए पात्र (चरित्र नहीं) लड़का-मोनू के विपर्यास से अधिक उजागर होता है। रचना, उपन्यास नहीं बल्कि ज्यादातर लंबी कहानी है। घटनाक्रम, वार्तालाप और चरित्रों का विकास-निर्वाह भी औपन्यासिक कम लेकिन कथ्य अनुकूल है। ‘हारिल’, हारा हुआ है या पक्षी हरियल ? शीर्षक का यह शब्द पुस्तक में तो शायद कहीं दुहराया नहीं है।
मांग या आग्रह पर नहीं बल्कि स्वस्फूर्त, जहां तुरंत प्रतिक्रिया बनी सिर्फ वही टिप्पणियां हैं इसलिए अन्य हिस्से-पक्ष छूट रहे हैं। पुस्तक के लिए और भी जरूरी बातें हैं, जो चर्चा के लायक हैं लेकिन आपस में बैठ कर आमने-सामने की गोष्ठी में या फिर कभी। इतने से भाव तो बन ही गया जान पड़ रहा है, फिर भी शब्द जरूरी हों तो हारिल का स्वागत और हितेन्द्र को बधाई।
राहुल कुमार सिंह, फोन-09425227484, ई-मेल rahulks58@yahoo.co.in

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