Tuesday 10 August, 2010

माफी मांगें विष्णु खरे

विभूति नारायण राय ने तो माफी मांग ली अब देखना है विष्णु खरे क्या करते हैं

विभूति नारायण राय ने 'छिनाल' शब्द का आपत्तिजनक प्रयोग किया और उन्हें प्रतिवाद के सामने अंतत: माफी मांगनी पडी. जिसने भी वह इंटरव्यू ठीक से पढा होगा उन्हें यह पता होगा कि उस टिप्पणी का एक संदर्भ था, लेकिन उनके वक्तव्य से युवा लेखिकाओं की भावना को ठेस लगती है इस आरोप के कारण ही राय को प्रतिवाद के सम्मुखीन होना पडा. इस तर्क को अगर माना जाए तो विष्णु खरे के लेख से तो हिन्दी समाज के तमाम लोगों का ही अपमान करने की कोशिश की गयी है. जिस असभ्य तरीके से खरे ने पूर्वांचल के युवा लेखकों के बारे में एक आपत्तिजनक शब्द का प्रयोग किया है उसकी जितनी भी भर्त्सना की जाए कम है.



जब से विभूति नारायण राय का इंटरव्यू आया है एक मुहिम जनसत्ता से लेकर तमाम जगहों में शुरू हो गयी है. साहित्य में प्रमाद 1 (जनसत्ता 10 अगस्त) के आते आते यह स्पष्ट हो गया है कि हिन्दी के कुछ लोग अपने राग-द्वेष को छुपाकर अपनी कुंठाओं को व्यक्त करने का ऐसा मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते. विष्णु खरे को एक प्रखर बुद्धिजीवी के रूप में जानने वालों के लिए 'साहित्य में प्रमाद' प्रसंग 'छिनाल प्रसंग' से कम कुत्सित नहीं लगेगा. खरे ने जिस अराजक सोच के साथ विभूति नारायण राय प्रसंग को अपनी कुंठाजनित सोच से जोडा है उसके भौंडे प्रदर्शन को इस लेख में देखकर हिन्दी के एक कवि के ऐसे घोर पतन पर रोया ही जा सकता है. जिस भाषा का प्रयोग उन्होंने हिन्दी के यशस्वी विद्वानों के लिए किया है वह उनकी कुंठाओं को सामने लाने वाला है. खरे ने अंग्रेज़ी की किताबें पढी हैं और यूरोपीय ज्ञान से जुडने के बाद बहुत सारे लोगों को अपने देश के लोग गंवार और अपनी भाषा के विद्वान 'मीडियाकर' लगने लगते हैं. उन्हें मन ही मन इस बात की कचोट रहती है कि उन्हें हिन्दी समाज के लोग वो सब कुछ क्यों नहीं दिलाते जो अंग्रेज़ी वालों को इस देश में मिलता है. मेरा अनुमान है कि विष्णु जी रामविलास शर्मा को बहुत ही 'ओवरैस्टिमेटेड मीडियॉकर' से ज्यादा नहीं मानते होंगे. खरे साहब का यह हाल है कि वे 'विनाश काले विपरीत बुद्धि' तक भी यूनान की कहावत से आते हैं. पता नहीं कैसे खरे इस बात से अपनी बात शुरू करने का दंभ दिखाते हैं कि उन्होंने अपने 'पूर्वाग्रहों ' के कारण विभूति नारायण राय के सानिध्य से बचे ! वह यह बतलाना चाहते हैं कि वे कितने पाक दामन हैं. हिंदी की सारी दुनिया फंतासियों में जीने वाली, कल्पनातीत अपात्र वेतनमान के साथ यौनशोषण को बढावा देने वाली दिखलाई पडती है. यहीं तक नहीं वे मानते हैं कि अनेक हिन्दी विभागों को पुरूष वेश्याओं के चकले बन गये हैं ! हिन्दी की अनैतिक साहित्यिक सत्ता प्रकरण पर आने के पहले वे रामचन्द्र शुक्ल से लेकर सुधीश पचौरी जैसे "अकादमिक बौने छुटभैयों" का उल्लेख करना नहीं भूलते. खरे साहब इस बात के लिए याद किए जाने चाहिए कि उन्हें इस बात का अहसास है कि "दक्षिण एशिया के वर्तमान सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक पतन के लिए मुख्यत: हिन्दी भाषी समाज यानी तथाकथित हिन्दी बुद्धिजीवी जिम्मेदार और कसूरवार है." जिस थाली में खाओ उसी में छेद करो के ऐसे उदाहरण कम ही मिलेंगे.

मुझे लगता है कि विष्णु खरे की सबसे महत्त्वपूर्ण टिप्पणी यह है - " दुर्भाग्यवश अब पिछले दो दशकों से हिंदी के पूर्वांचल से अत्यंत महात्वाकांक्षी, साहित्यिक नैतिकता और खुद्दारी से रहित बीसियों हुडकूलल्लू मार्का युवा लेखकों की एक ऐसी पीढी नमूदार हुई है जिसकी प्रतिबद्धता सिर्फ कहीं भी और किन्हीं भी शर्तों पर छपने से है."

यह कैसे क्षम्य है, इसका जवाब खरे से मांगा जाना चाहिए. यह टिप्पणी कैसे राज ठाकरे की टिप्पणी से गुणात्मक रूप से भिन्न है, और इस टिप्पणी के लिए क्यों विष्णु खरे को माफी नहीं मांगनी चाहिए?

हिन्दी का पूर्वांचल कहां है और कौन कौन से लोग खरे को दिखलाई पड रहे हैं जो हिन्दी के अन्य क्षेत्रों की तुलना में नैतिकता विहीन हैं.

एक बार अगर यह मान भी लिया जाए कि हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि-पत्रकार विष्णु खरे ने अपनी बात दर्द से अपनों से तीखे ढंग से की है तो भी इन वक्तव्यों के पीछे छिपी कुठाएं हमें यह बतलाती हैं कि वे बौखलाए हुए दंभी दिल्ली के ऐसे बुद्धिजीवी हैं जिन्हें इस बात की खबर नहीं है कि ऐसे चालाक-चतुर सठिया गये होने का अंदाजा नहीं है.

हिन्दी विभाग और हिन्दी से जुडी संस्थाएं सबकुछ ठीक से कर रही हैं ऐसा मानने वाला कोई नहीं होगा लेकिन क्या हिंदी के जुडते ही कोई विभाग, कोई संस्थान, कोई राज्य या कोई बुद्धिजीवी घटिया और नैतिकताविहीन हो जाता है? मैकॉले और नीरद चौधरी की संतानें ऐसा कहें तो हम समझ सकते हैं लेकिन एक ऐसे व्यक्ति की कलम से इस तरह के भाव का आना हमें व्यथित करता है.

जनसत्ता में इस तरह के लेख का छपना बगैर प्रतिवाद के नहीं जाना चाहिए. विभूति नारायण राय के प्रसंग में जनसत्ता के साथ चलकर विष्णु खरे अपने अतिवादी अराजक सोच को भी उसके साथ नत्थी करने की जो कोशिश कर रहे हैं वह निंदनीय है. उन्हें माफी मांगनी चाहिए.

2 comments:

  1. विष्णु खरे असंतुलित हो गए हैं . वे अपनी मन की कुंठा और भड़ास निकाल रहें हैं. खरे जी ने कालिया और राय के प्रसंग को भटकाकर एक नयी लडाई शुरू कर दी. जनसत्ता में छपा उनका पूरा बयांन बेहद अपमानजनक अश्शील और समस्त हिंदी समाज और पूर्वांचल की समस्त युवा चेतना और प्रतिभा का अपमान है.
    वागर्थ के संपादक पर अपनी वर्षों से रखी खीझों को जबरन आरोप बनाकर जिस तरह की बे- सिर पैर की टिप्पणी खरे जी ने की है उसका रहस्य जानने के लिए अप्रैल २०१० का वागर्थ देखना चाहिए. बहरहाल खरे जी ने मुद्दे को जिस तरह मचाया है उससे मूल मुद्दे को काफी रहत मिल गयी है. ashwani kumar, kolkata

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  2. "खरे ने अंग्रेज़ी की किताबें पढी हैं और यूरोपीय ज्ञान से जुडने के बाद बहुत सारे लोगों को अपने देश के लोग गंवार और अपनी भाषा के विद्वान 'मीडियाकर' लगने लगते हैं."

    जहाँ तक उनके यूरोपीय ज्ञान की बात है, मूल अंग्रेज़ी से अनुवाद तो अच्छे हैं लेकिन विष्णुजी जर्मन के घटिया अनुवादक हैं, मीडियॉकर होना तो छोड़िए। सार-संसार में क्योंकि अधिकतर रचनाएँ जर्मन की छपती हैं, और उनकी ख़ासियत को धूमिल करती हैं, इसलिए यह पत्रिका उनके निशाने पर रहती है। उनकी कुंठा के दर्शन इस लेख में भी हो जाएँगे, और इसीके नीचे एक टिप्पणी में भी। और जिस Translating Alien Cultures नाम के लेख का ज़िक्र आया है उसका अनुवाद इधर है।

    --विकास यादव

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