[ रूस में उन्नीसवीं शताब्दी के दो पीढियों के बीच के अंतर को ऐतिहासिक रूप से महत्त्वपूर्ण मानते हुए बताया गया है 1840 के दशक ले लिबरल और 1860 के दशक के लिबरल के बीच का अंतर ही है जिसने रूस में नये चिंतन के परिवेश को जन्म दिया. जो लोग 40 के दशक में रैडिकल थे वे 60 के दशक में दकियानूसी लगने लगे थे. तुर्गनेव ने अपने उपन्यास पिता और पुत्र में इस अंतर को बहुत खूबसूरती से दिखलाया है. इस तरह के अंतर को एक ही जीवन में भी देखा जाता है. 1870 के दशक के बंकिमचन्द्र (जो 'साम्य' जैसे लेख लिखते हैं और 1890 के बंकिम में भी गुणात्मक अंतर है. खुद रवीन्द्रनाथ में इतिहासकार रणजीत सेन ने दिखलाया है कि शुरूआती दशकों में उनपर हिंदूवादी सोच का कितना प्रभाव था (वे सती के समर्थक थे !) और बाद में वे उदार मानवतावाद के प्रस्तावक बने. इस तरह के असंख्य उदाहरण दिए जा सकते हैं. इस संक्षिप्त आलेख में एक विवादास्पद व्यक्ति - ग्रीनबर्ग के उस प्रसंग को उठाया गया है जहाँ वे कला में इतिहास और समाज दोनों के महत्त्व को स्वीकार करने वाले के रूप में भी उभर कर आते हैं. ]
उत्तर संरचनावाद का उद्भव द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के वर्षों में हुआ जिसने व्यक्ति द्वारा विश्व को समझने के दावे को झुठलाया. रोलां बार्थ (1915-1980), मिशेल फूको (1926-1984) और जॉक देरिदा (1930-2004) आदि फ्रांसीसी चिंतकों ने मानवतावादी चिंतन धारा की सीमाओं को समझाकर यह कहा कि अर्थ, लेखक, इतिहास आदि जिस सत्य, अर्थ आदि की धारणा को लेकर चल रहे थे अब बेमानी हो चुके हैं- अर्थ बदलता रहता है और किसी भी 'टेक्स्ट' के भीतर का अर्थ को जानने का जो तरीका था- लेखक के बहाने अर्थ तक की यात्रा का- वह अमान्य है. लेखक के उद्देश्य (इंटेशन) को जाना नहीं जा सकता, खोया हुआ इतिहास पुनर्प्रस्तुत नहीं हो सकता, और टेक्स्ट के भीतर अर्थ बाहर से आता है. लेखक नहीं, पाठक अर्थ की रचना करता है और फिर अगला पाठक इसकी पुनर्रचना करता है. यह सिलसिला लगातार चलता रहता है. इस प्रक्रिया में अर्थ के भीतर अर्थों की अनंत श्रृंखला तैयार होती है. इस प्रकार ये चिंतक जीनियस, कला की धारणा आदि का निषेध करते हैं.
इस नये प्रकार के मानवतावादी चिंतन विरोधी धारा ने अमरीका के चार्ल्स पियर्स (Pierce) और फर्नांद सस्यूर के भाषा संबंधी चिंतन से उत्पन्न बौद्धिक प्रविधि का उपयोग दर्शन और और 'मैटेरियल कल्चर' को विश्लेषित करने में किया. मॉरिस मर्ले पोंटी जैसे दार्शनिकों ने व्यक्ति की तुलना में पाठ और इमेज को अध्ययन के केन्द्र में रखा और धीरे धीरे यह धारणा तैयार हुई कि अब लेखक को पाठक/ पाठकों ने ध्वस्त कर दिया है.
कला के इतिहास को बचाने के लिए भी प्रयत्न होते रहे और इस संरचनावादी और उत्तर-संरचनावादी चुनौती का मुकाबला करने के लिए नये प्रकार के कला के सामाजिक इतिहास की माँग रखी. इस प्रकार के नये सामाजिक कला इतिहास में इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीति आदि से जोडकर कला के इतिहास पर बल दिया गया. टिमोथी जे. क्लार्क ने मई 1974 में टाइम्स लिटररी सप्लीमेंट में एक लेख में इस तरहे के नये कला-इतिहास की जरूरत को रेखांकित किया. इस नये सामाजिक मानवतादी कला इतिहास में एक तरफ तो कला और विचारधारा के सम्बन्ध पर जोर था तो दूसरी और कला उत्पादन की सामाजिक परिस्थितियों और सम्बन्धों से जोडकर कला के इतिहास को समझने का प्रयास शामिल था.
इन बदले हुए वैचारिक परिदृश्य में फ्रॉयड के मनोवैज्ञानिक चिंतन का प्रभाव भी कला के इतिहास में प्रभावी हुआ. इसी समय ग्रिसेल्डा पोलॉक जैसी नारीवादी कला चिंतकों का प्रभाव भी बढा. 1970 के दशक के शुरूआती दिनों से नारीवादी कला चिंतन का प्रभाव बढा. [1]इस बीच अमूर्त कला, आधुनिकतावाद आदि को लेकर तीखी बहस 1936 से ही लगातार जारी थी जब न्यूयार्क के म्यूजियम ऑव मॉडर्न आर्ट ने क्यूबिज्म एंड एब्सट्रैक्ट आर्ट (क्यूरेटर अल्फ्रेड बर्र) प्रदर्शनी लगाई थी. इस प्रदर्शनी ने विगत अर्ध-शताब्दी की कला को स्वायत्तता की बात की थी और कला और समाज के बीच के अंतर्संबंधों से कला को अलगाने की बात की थी. 1937 में मेयर शेपिरो (Schapiro) ने इस धारणा को खंडित करते हुए समाज और कला के बीच के सम्बंध को महत्त्वपूर्ण माना.[2]
शेपारिओ ने कहा कि अमूर्त कला में भी एक ऐसा तत्त्व होना चाहिए जो कला का अतिक्रमण करे क्योंकि कला अंतत: आधुनिक जगत के साथ उसकी तमाम जटिलता के साथ सम्बंध बनाने की कोशिश करता है.
बाद में, 1961 में क्लेमेंट ग्रीनबर्ग ने 'मॉडर्निस्ट पेंटिंग' लेख में चित्रकला को अन्य कलाओं के प्रभाव से मुक्त होने की बात की. अन्य कलाओं में वर्णन तत्त्व जैसी चीजें आती हैं जिससे चित्रकला को मुक्त होना है. ग्रीनबर्ग के कला चिंतन को उनके पुराने लेखों में व्यक्त विचारों के आलोक में देखा जाना चाहिए. 1939 से ही ग्रीनबर्ग ने किश्च (Kitsch) नामक सांस्कृतिक परिघटना के साथ कला के संपर्क पर गहराई से विचार किया था.[3] यह किश्च की उत्पत्ति के पीछे औद्योगिक क्रांति थी जिसने पश्चिम यूरोप और अमरीका के लोगों का शहरीकरण किया और वैश्विक साक्षरता को जन्म दिया. इसी के कारण आमजनता (मासेज) की संस्कृति का जन्म हुआ और इसने लोकप्रिय, व्यवसायिक कला और साहित्य को महत्त्वपूर्ण बनाया. इस फ्रेमवर्क के अंतर्गत कलाकार का दायित्व बनता था कि वह इस किश्च संस्कृति द्वारा प्रचारित कला का विरोध करे और बेहतर कला की रक्षा करे. यह अवाँ गार्द आन्दोलन का एक पक्ष था कि इसने उन राज्यसत्ताओं के द्वारा इस किश्च संस्कृति के पोषण के विरूद्ध उठ खडे होने के लिए कलाकारों को प्रेरित किया. ग्रीनबर्ग के अनुसार कलाकार को एक बेहतर इतिहासबोध के साथ एक अवाँगार्द संस्कृति के निर्माण की कोशिश करनी चाहिए. 1967 तक गीनबर्ग इस तरह के कलाचिंतन के साथ सक्रिय रहे. वे 1967 में इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि कला कला संबंधी निर्णय फौरी (इमीडियेट), इंट्यूटिव , अनायास (इन डेलिब्रेट ) होती हैं और इस संबंध में कोई मानक, नियम या धारणा के लिए कोई जगह नहीं है. कला आलोचना के बारे में ग्रीनबर्ग ने यह भी कहा कि वस्तुनिष्ठ आलोचना वही है जो सहमति तैयार करे. यह सहमति उनके बीच बने जो कला के लिए सबसे अधिक चिंताशील हैं. इसमें संदेह नहीं कि अपनी प्रसिद्ध किताब आर्ट एंड कल्चर (1961) से वह अमूर्त कला और आधुनिकता के सबसे बडे समालोचक थे.
यह स्पष्ट है कि 1940 के ग्रीनबर्ग और 1960 के ग्रीनबर्ग के बीच बहुत अंतर है. इस समय तक आते आते इतिहास और समाज दोनों कला में आ जाते हैं और वे मानने लगते हैं कि कला अपने युग में पैदा होती है.
[1] इस सम्बन्ध में विस्तार के लिए देखें- ग्रिसेल्डा पोलॉक, फ्रेंच फेमिनिज्म : आर्ट एंड द वुमेंस मूवमेंट , 1970-1985, न्यूयार्क , 1987.
[2] मेयर शेपिरो, मॉडर्न आर्ट : नाइंटींथ एंड ट्वेंटीथ सेंचुरिज , न्यूयार्क, 1978, पृ. 185-211.
[3] 'अवां गार्द एंड किश्च', पार्टिजन रिव्यू, 1939.
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