आज टी वी पर नदिया के पार को देखते हुए लग रहा था कि हमारे देश के फिल्म निर्मात्ताओं को हम कितना कम श्रेय देते हैं. इस तरह की फिल्में क्या साहित्य से कम प्रभावी हैं? एक एक फ्रेम में यह झलकता है कि इस देश के ग्रामीण समाज की कितनी समझ इस फिल्म के निर्माता-निर्देशकों को रही है. आज जब चारों ओर यह समझाया जा रहा है कि सब तरफ बस अंग्रेजी और पश्चिमी ज्ञान के बिना कुछ बनना बनाना संभव नहीं हमें चाहिए कि हम मुड कर देखें कि स्वदेशी भाव-बोध के लोगों ने कैसे अपना काम किया था. इस देश के मनोरंजन मीडिया पर अंग्रेजीदाँ लोगों का ऐसा वर्चस्व है कि वे अपने वर्ग विशेष के लोगों को पूरे समाज के लिए मनवाने की कोशिश करते हैं. आज व्ही शांताराम, मनोज कुमार और ताराचंद बरजात्या आदि का जिक्र कितना कम होता है ! इन लोगों की चर्चा करते हुए हम एलिटों के विचारधारात्मक प्रभाव को थोडा कम कर सकते हैं.
ताराचन्द बरजात्या का जन्म 10 मई, 1914 को राजस्थान में हुआ था. उन्होंने कोलकाता के विद्यासागर कॉलेज से स्नातक की परीक्षा पास करके 19 वर्ष की आयु में 1933 में मोतीमहल थियेटर में बिना किसी वेतन के एक प्रशिक्षु के रूप में काम करने लगे कडी मेहनत और लगन से उन्होंने अपने मालिक के लिए सफलता अर्जित की. उनकी आर्थिक मदद से ही 14 साल बाद 15 अगस्त 1947 में उन्होंने राजश्री पिक्चर्स प्रा. लिमिटेड की स्थापना की और कम लागत, देशी कलेवर, नये कलाकारों और सार्थक मूल्यों के सहारे फिल्में बनाने लगे. आर्थिक रूप से उन्हें इस बात का लाभ मिला कि उन्होंने जिन फिल्मों के वितरण का अधिकार मिला उनमें अधिकतर खूब चलीं. जिन फिल्म निर्माता निर्देशकों ने उनपर पूरा भरोसा किया उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण नाम मनमोहन देसाई का था जिन्होंने अपनी कई सफल फिल्मों -अमर अकबर अंथोनी ,परवरिश, धरमवीर, कुली आदि फिल्मों के वितरण का अधिकार उन्हें सौंपा. जिन सफल फिल्मों से उन्हें सबसे अधिक लाभ मिला उनमें शोले, , जुगनू,, रोटी, कपड़ा और मकान और विक्टोरिया नं 203 प्रमुख हैं. बडजात्या का एक बड़ा अवदान यह भी है कि उनके माध्यम से दक्षिण भारतीय फिल्म जगत से हिंदी समाज ज्यादा जुड पाया. अपने दक्षिण भारत के फिल्म निर्माण क्षेत्र में अनुभवों के आधार पर उन्हें लगा कि इन क्षेत्रीय फिल्मों को राष्ट्रीय आधार मिलना चाहिए. उन्हें विश्वास था कि दक्षिण भारतीय भाषाओं की सफल फिल्मों को हिन्दी क्षेत्र के दर्शक जरूर पसंद करेंगे. शुरू में जेमिनी, ए वी एम, प्रसाद जैसे बडे निर्माताओं को यह भरोसा नहीं था लेकिन जब ताराचन्द बरजात्या ने उन्हें भरोसा दिलाया और वितरण में मदद का वादा किया तब उन्हें भरोसा हुआ. इस क्रम में हिंदी में चन्द्रलेखा, मिलन, संसार , जीने की राह , ससुराल, राजा और रंक और खिलौना जैसी सफल फिल्में बनी. 1962 में ताराचंद ने अपना स्वतंत्र प्रोडक्शन शुरू किया. इसके बाद एक के बाद एक सफल फिल्मों का सिलसिला शुरू हुआ. आरती (1962) से शुरू हुआ सफर दोस्ती, जीवन-मृत्यु, उपहार, पिया का घर, सौदागर, गीत गाता चल, तपस्या, चितचोर, दुल्हन वही जो पिया मन भाए, अँखियों के झरोखे से, तराना, सावन को आने दो, नदिया के पार, सारांश से होता हुआ मैंने प्यार किया तक चलता रहा. 1992 में उनका देहांत हो गया.
अपनी फिल्मों में वे मानवतावादी भारतीय मूल्यों के प्रति संवेदनशील दिखे. उन्हें लगता था कि देश की भाषा, देशी संगीत और देशी भाव-बोध अगर सार्थक रूप में लोगों के सामने लाया जाए तो लोगों की सराहना मिलेगी. बिल्कुल ऐसा ही हुआ.
एक दूसरी प्रमुख बात यह थी कि वे नये कलाकारों और संगीतकारों को सदैव प्रोत्साहित करते रहे. उन्होंने जिन लोगों को पहला बड़ा ब्रेक दिया उनमें ये नाम शामिल हैं- राखी,जया भादुडी, सारिका, रंजीता, रामेश्वरी, सचिन, अनुपम खेर, अरूण गोविल, माधुरी दीक्षित, सत्येन बोस, बासु चटर्जी, सुधेन्दु राय, लेख टंडन, हीरेन नाग, रवींद्र जैन, बप्पी लाहिडी, उषा खन्ना, येसुदास, हेमलता, सुरेश वाडेकर, शैलैन्द्र सिंह, कविता कृष्णमूर्ति, अनुराधा पौडवाल , उदित नारायण और अलका याज्ञनिक.
अपनी फिल्मों में वे भारतीय समाज के सकारात्मक पक्ष को ज्यादा दिखलाने की कोशिश करते थे. हिंदी का प्रयोग वे शुरू से आखिर तक करते रहे और उनकी फिल्मों में जो नाम दिखलाए जाते थे वे भी हिंदी में ही होते थे.
आज भी उनके पुत्र सूरज बडजात्या हिंदी फिल्म जगत के विरल लोगों में हैं जो स्क्रीन-प्ले हिंदी में तय्यार करवाते हैं.
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