Friday, 10 September 2010

आभासी हिंसा, आरोपित कामन सेंस, सामाजिक की प्लास्टिक सर्जरी और मीडिया (सन्दर्भ ज्याँ बोद्रोया)

आभासी हिंसा, आरोपित कॉमन सेंस और सामाजिक की प्लास्टिक सर्जरी
मीडिया के इमेज जिसमें सबकुछ दिखता है हिंसा के उन इलाकों को लेकर हमारे सामने खडा होता है जिसको देखते हुए हम हिंसा को तैयार करने के विरूद्ध सक्रिय जो मन की कोशिकाएं होती हैं वे स्ववमेय आरपार दिखती है. और दिखता है दिमाग के भीतर का वह केन्द्र जहाँ से हिंसा शुरू होती है. पर्दे की हिंसा हमारे ऊपर कोई आघात नहीं लाती, हम खून करते हुए, तडपते हुए आदमी को देखते हुए आराम से कोल्ड ड्रिंक्स पीते रह सकते हैं. यह हिंसा के आघात से हमारे मन को मुक्त रखते हुए हमें हिंसा को देखते झेलते रहने की उदासीनता प्रदान करता है. मैकलुहान ने लक्षित किया था कि माध्यम ही संदेश हो जाता है. मीडिया ने धीरे धीरे संदेश को गैर-जरूरी और कम महत्त्वपूर्ण बना दिया. इस अर्थ में पर्दे की हिंसा ही संदेश बन जाती है. हिंसा की सूचना से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाता है यह कि इसे कैसे पेश किया जा रहा है. जैसे संगीत की गुणवत्ता से ज्यादा जरूरी पर्दे पर यह हो गया है कि किस भव्यता से उस संगीत को पेश किया जा रहा है. बॉद्रिया ने संदेश और माध्यम के इस टकराहट से उत्पन्न कटुता या विषाक्तता (वरुलेंस) को हिंसा से भी अधिक खतरनाक मानते हैं. एक सीधी हिंसा में एक निदान होता है: एक ने दूसरे को किसी दुश्मनी के कारण मार डाला और मामला एक निर्णय पर पहुंच गया. लेकिन, अब इस तरह नहीं होता. अब निदान नहीं है. कोई किसी को दिन-दहाडे मारकर भी फाँसी पर नहीं लटक रहा. अगर वह फाँसी पर लटक जाए तो बात एक किनारे लग गई- हिंसा हुई और हिंसा करने वाले को दण्ड मिल गया. अब महीनों तक लोगों को बताया जाता रहेगा कि उसका वजन बढ रहा है, वह झूठ बोल रहा है, पाकिस्तानी वकील और सरकार क्या क्या कर रही है, वह अमिताभ बच्चन की फिल्में रोज देखता है, ज्यादा टेंशन में आने पर गाना गाने लगता है आदि आदि. इस तरह एक हिंसक घटना को लेकर सीधी और सच्ची रिपोर्टिंग के भीतर से ही वह वातावरण बनता है जहाँ करोडों भारतीय सप्रमाण इस तरह की बातों पर सोचते और बहसें करते हैं कि मुसलमान कितने देशद्रोही हैं, पाकिस्तान कैसे सिर्फ आतंकवादियों का देश है, भारतीय सरकार मुसलमानों के प्रति कितनी नरम है या दरअसल अमरीका की अनुमति के बिना भारत की कानून व्यवस्था कसब को फाँसी नहीं सुना सकती. और फिर लोग अनुमान करते रहते हैं कि कसब कब फाँसी पर चढाया जाएगा. आप यकीन कीजिए जब तक कसब को फाँसी होगी तब तक उसको फाँसी देने की बात का कोई मतलब रह ही नहीं जाएगा. रश्मी तौर पर मीडिया में यह खबर होगी कि आखिरकार दरिंदे को उसकी दरिंदगी की सजा मिल गई. फिर एक सवाल छोडा जाएगा- क्या आपको लगता है कि भारत की कानून व्यवस्था में कुछ परिवर्तन किए जाएं ताकि इस तरह के केसेज को उसकी परिणति तक पहुंचाने में इतना विलंब न हो!
इस संदर्भ में बोद्रिया का कथन है कि इस मीडिया की सीधी और सच्ची रिपोर्टिंग के बीच "यथार्थ का खून" हो जाता है. छवियों के असीमित जगत में सत्य के इस सतत प्रवाह का, सत्य के, निष्कर्ष के सतत फिसलते जाने के इस खेल में कितना आनंद और कैसा रहस्य है! कैनेडी को किसने मारा? क्यों मारा? इस रहस्य के इर्द गिर्द जो मीडिया जगत में सूचनाओं का अंबार लगा है और यह अभी भी चल रहा है उसकी तुलना में इंदिरा गांधी हत्याकांड के बारे में बहुत कम लिखा पढा गया . बोद्रिया यह भी बतलाते हैं कि इस प्रक्रिया में जो यथार्थ की दुनिया है वह नीरस, बेरंग और बेढब हो जाती हैं और लोग बाजार द्वारा चालित छवियों की दुनिया में चमत्कारिक, जादुई और तिलिस्मी छवियाँ ज्यादा प्रभावशाली होती जा रही है.
जो कुछ टी वी पर दिखलाया जाता है उसकी सामाजिकता के रूप को उद्घाटित करते हुए बोद्रिया का मानना है कि यह आभासी सामाजिकता का पर्दे पर निर्माण जिन छवियों को रचता है उसमें सबकुछ रच कर इस तरह परोस दिया जाता है कि सब कुछ सामने दिखला दिया जाए. किस तरह हवाई जहाज आया, किस तरफ से टक्कर लगी, कैसे लोग चीखे, कैसे भागे... . इन अनंत छवियों के सच के बीच दो सच को रखा जाए. प्रथम, कितने लोग मरे थे 9/11 के इस भयानक आक्रमण में? दूसरा प्रश्न , उस जहाज का सच क्या था जिसे व्हाइट हाउस के आदेश पर उडा दिया गया जिसमें 259 लोग सवार थे? यह जहाज व्हाइट हाउस की ओर बढ रहा था और स्पष्टत: यह व्हाइट हाउस को भी उडाने के लिए टकराने वाला था. पहले प्रश्न का उत्तर हर कोई देगा- बहुत सारे लोग . पर कितने? किसी को ठीक से पता नहीं. एक व्यक्ति ने बी बी सी पर अपने इंटरव्यू में बताया था कि कुल मृतकों की संख्या हजार से कम थी और उसके पास एक लिस्ट थी. उसने चुनौती दी कि कोई नया नाम नहीं जोड सकता. किसी के पास उस चुनौती का कोई उत्तर नहीं था. यानि कुल मृतकों की संख्या हजार से कम थी. दूसरे प्रश्न का उत्तर इस बात में निहित है कि किसी ने भी इसपर कभी भी कोई रिपोर्ट शायद ही पढी देखी हो (भारत में) जिसमें उस जहाज के लोगों के परिवार वालों के दर्द को दिखलाया गया हो.
मीडिया का एक और काम है जिसे बोद्रिया 'सिंथिटिक इमेज ऑव द बनालिटी' कहते हैं. आप सारे दिन करवा चौथ, पूजा पाठ, प्रलय की खबरें, श्री लंका में रावण की गुफा से सीधा प्रसारण, मौसम की पहली बारिश में भीगते झूमते दिल्ली वासी को देखते हुए बरसों बिता देते हैं. बोद्रिया इस सन्दर्भ को एक रोचक ट्विस्ट देते हुए सवाल करते है- क्या कोई सिक्सुअल व्यॉरिज्म भी है क्या? इसका उत्तर देते है कि कोई सेक्सुअल सीनरी है ही नही! वे सेक्स के खुले और सीधे दिखाए जाने में सेक्स के अंत की भी बात करते है. वे अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि रोज की बेहूदा घिसी पिटी जिंदगी को देखने और दिखलाने के इस मीडियाई खेल में अंतत: दर्शक अपने को सबकुछ देख चुकने के बाद कुछ नहीं कह पाने की सी मन:स्थिति में पाता है. इसे वे "ज़ीरो डिग्री" जीना कहते हैं, रोलाँ बार्थ के "ज़ीरो डिग्री लेखन" की तर्ज पर!
भारतीय मीडिया पर यह कितनी दिलचस्प टिप्पणी है कि 'इंडिया टीवी' की दर्शक संख्या इस समय सबसे ज़्यादा है.

2 comments:

  1. विमर्श के नए आयाम खोलने वाला लेख. टिप्पणी की अगली किश्त जल्दी भेजूंगा.

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  2. निश्चित तौर पर मिडिया (प्रिंट, इलेक्ट्रोनिक, इन्टरनेट, एनिमेशन, और रेडियो ) की शक्ति बढ़ी है . सर्वशक्तिमान होने का आभास भी होता है. पर यह याद रखना जरूरी है की मीडिया शून्य में कार्यरत नहीं हो पाता. हमारी प्रतिबद्धता और संवेदना के माध्यम से ही छवियाँ बनती हैं. कुरान को जलाने की धमकी पर अनेक क्षेत्रों में हलचल मची परन्तु बामियान में बुद्ध की मूर्ति ध्वंस के उपरांत जनसंवेदना विचलित नहीं हुई थी.

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