पराजय के इस दौर में
हितेन्द्र पटेल
भारतीय समाज इतना वैविध्यपूर्ण और जटिल है कि इसे सांख्यिकीय आधार पर नहीं समझा जा सकता. पर, अगर नीयत साफ हो तो इस समाज में व्याप्त सामाजिक और आर्थिक विषमता और इस समाज की आंतरिक शक्ति को समझने के लिए साक्षात्कार ही काफी है. गाँधी और रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे मनीषियों ने इस समाज को समझने और इसमें परिवर्तन हेतु कभी भी सरकारी सर्वेक्षण और रिपोर्टों की जरूरत महसूस नहीं की. विवेकानंद , गाँधी, जयप्रकाश, विनोबा आदि लोगों के लिए देश को जानने समझने के लिए लोगों से देशाटन के दौरान मिलना ही यथेष्ट था. यह आधुनिक यूरोपीय बोध से जन्मा कॉमन सेंस है कि संख्या और सांख्यिकी से ही समाज को समझा और उसकी प्रगति के लिए सरकारी नीति बनायी जा सकती है. नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह या निलकेनी तक संख्या और सांख्यिकी की इस सत्ता और औचित्य को लेकर सहमति है. इस लॉजिक को मान लेने के बाद सब कुछ संख्या-बल और राजनीति पर ही केन्द्रित हो सकती थी और वही बात आज भारत में हो रही है. यह एक दिलचस्प बात है कि जिस आधार पर भारतीय राष्ट्रवाद की 'खोज' या प्रतिष्ठा हुई थी उसी को नकारने के लिए आज होड मची हुई है. राष्ट्रवाद को लेकर कांग्रेस के भीतर भी एक गुणात्मक परिवर्तन हुआ है. 2001 में जब जाति के आधार पर गणना की बात चली तो इस दल ने विरोध किया. अब 2011 में अन्य दलों के साथ कांग्रेस भी इस पक्ष में हो गई है कि जाति के आधार पर जनगणना जरूरी है! यानि पिछले दस सालों में ऐसा कुछ हुआ है जिसके कारण यह बात मान ली गयी कि जाति की गणना सरकारी नीति निर्धारण के लिए आवश्यक है. यानि वर्ग नहीं वर्ण के आधार पर भारतीय समाज को समझा जा सकता है. यह बात भारतीय राजनीति में लोहिया ने अपने जीवन के अंतिम दशक में राजनैतिक दबाव के कारण प्रतिष्ठित की. (उनके चिंतन में इस विषय पर मौलिक और विषद चिंतन है जिसमें लोग उतरना नहीं चाहते) लेकिन, इस बात को वास्तविक रूप से पिछले दो दशकों में बहुत भोंडे ढंग से प्रचारित किया गया. जाति अब राजनीति का धर्म के साथ एक मान्य अस्त्र बन गया. कोई भी पार्टी अब इस बात के ऊपर नहीं उठ सकती. ऐसे में सबको लग रहा है कि जाति के आधार पर जनगणना से बात साफ हो जाएगी और सरकार को नीति निर्धारण के लिए एक स्पष्ट आधार मिल जाएगा. कुछ सवर्ण दल और राष्ट्रवादी विचार के लोग इसका विरोध नीतिगत कारणों से कर रहे हैं, लेकिन कुल मिलाकर देश में यह बात स्वीकृत सी हो गई है कि जातियों के संख्या निर्धारण में कोई हर्ज़ नहीं है. यह आधुनिक इतिहास की एक विडंबना ही कही जायेगी कि जाति को मिटाते मिटाते देश की सरकार के नीति निर्धारक आधार के रूप में जाति को स्वीकार कर लिया गया है! आज समय आ चुका है जब लोग गाँधी को बनिया, रवीन्द्रनाथ को ब्राह्मो -ब्राह्मण, जयप्रकाश को कायस्थ, सहजानंद को भूमिहार, अंबेडकर को महार कहकर सोचें कि इसमें बुराई क्या है! इस तरह की सोच अब और शक्तिशाली होने वाले हैं. यह औपनिवेशिक आधुनिक यूरोपीय सोच की जीत और उदार भारतीय राष्ट्रवादी सोच के पराजय की सूचना देने वाले समय की शुरूआत है.
अंग्रेज़ी शासन के दौरान जो भारत के संबंध में धारणा बनी उसके मूल में यह बात थी कि भारतीय समाज मूलत: धर्म और जाति पर आधारित समाज है जो बदलाव को नहीं स्वीकारता. स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान जो प्रधान विचारधारात्मक संघर्ष उभर कर सामने आया वह यही था कि एक प्रकार की शक्तियाँ इन धर्म और जातीय पहचानों को केन्द्रीय मानती थी (जिसमें साम्प्रदायिक दल, ब्रिटिश हुकूमत और पुनरूत्थानवादी शक्तियाँ एक ओर थी और कांग्रेस एवं वामपंथी समूह (समाजवादी और साम्यवादी) दूसरी ओर. भारतीय पहचान के विकास के दौर में , कम से कम 1890 से 1935 तक , यह ध्रुवीकरण कुछ इस तरह होता रहा कि यह संभावना बनने लगी कि भारत भी अन्य विकसित समाजों की तरह इन प्राक-आधुनिक सामाजिक बंधों की जगह राष्ट्रीय पहचान की ओर बढेगा. धीरे-धीरे यह जाति का जोर खत्म होगा और लोग आधुनिक पहचान के साथ सामाजिक जीवन व्यतीत करेंगे. 1931 के बाद जाति के आधार पर जनगणना भी नहीं हुई और अभी भी किस जाति के कितने लोग हैं इसे जानने के लिए या अनुमान करने के लिए 1931 की जनगणना को ही आधार बनाया जाता है. समस्या का नया सन्दर्भ तब बना जब स्वतंत्रता के बाद सरकार के नीति निर्धारण के लिए जातीय आधार को रखा गया. संकट यह था कि नीति निर्धारण के मामले में जाति को आधार बनाए रखा गया और जातीय आँकडे जनगणना के साथ उपलब्ध करने को देश की एकता के लिए खतरा माना गया ! यह एक विडंबनापूर्ण स्थिति थी.
जाति और उसका समाज में स्थान भारत में परिवर्तनशील रहा है. कौन 'ऊँची' और कौन 'नीची' जाति है इसको लेकर कभी भी एकमत नहीं रहा. एक ही जाति के भीतर सैकडों उपजातियाँ रही हैं जिनमें आपस में रोटी-बेटी का संबंध सहज नहीं था. ब्राह्मण, राजपूत के अतिरिक्त किसी भी जाति को देश भर में ऊँची जाति के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता था. कौन जाति के किस पायदान पर है इस बात को तूल जिस समय से दिया जाने लगा उसी समय से जाति का प्रश्न बडा प्रश्न बन गया. इतिहासकारों ने पिछले तीस वर्षों में बहुत विस्तार से इसका विश्लेषण किया है कि कैसे 1871 और 1881 के बाद जनगणना ने जातियों के बीच अपनी जाति के संगठन और अधिकारों के प्रति सचेतनता के दायित्त्व बोध को बढाया और इन पहचानों को स्थानीय सन्दर्भ से उठाकर राज्य और राष्ट्रीय सन्दर्भ प्रदान किया. जाति का प्रश्न इतना उलझा हुआ रहा है कि लगभग हर गणना करने वाले ने इस काम को करने में बहुत समस्याओं का सामना किया. हर टेबुल के साथ अन्य जातियाँ, जिन जातियों के नाम नहीं है आदि नाम से टेबुल बनाए जाते थे. कई जगहों पर जाति पूछने पर लोग अपने काम को बताते थे ! यह निश्चित है कि इस देश के बहुत सारे लोगों को अपनी जाति बताने में कठिनाई थी. पर, सरकार का आदेश था कि हर किसी की एक जाति होनी ही चाहिए इसलिए एक आदमी के साथ एक जाति का उल्लेख जरूरी थी. 1917 के बाद संकट और गहराया जब पिछडी जातियों के समूहों को एक साथ लाकर सरकारी हस्तक्षेप की शुरूआत हुई. माँटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार ने इसको वैधानिक आधार दिया और 1935 के एक्ट ने इसपर मुहर लगा दी. इस बीच दक्षिण के राज्यों में हुए दलित जातियों के आन्दोलनों, फूले, अंबेडकर एवं नायकर आदि के प्रयत्नों ने इसको सामाजिक और राजनैतिक वैधता दी. कहा जा सकता है कि अंग्रेजों ने फूट डालो और शासन करो की नीति के तहद इस तरह के विखंडनकारी सोच को बढाया और कांग्रेस के नेतृत्व में जारी राष्ट्रीय आन्दोलन की हवा निकालने की कोशिश की. लेकिन, सच्चाई यह भी है कि जिस तरह के हालात थे उसमें किसी भी सरकार के लिए निम्न जातियों के लोगों के लिए अलग व्यवस्था की बात करना उचित ही था.
यह बात आज कुछ विद्वान कह रहे हैं कि अगर जाति के आधार पर अगर जनगणना हुई तो देश में फूट पडेगी और लोगों में जातीयता की भावना और बढेगी. यह सही ही है. देश का हर नागरिक अगर बाध्य हो कि उसे अपनी जाति के साथ अपनी पहचान को नत्त्थी करना पडे तो यह बात सही ही होती है कि अगर सब कुछ करके भी अंतत: इसका उत्तर देना पडे कि आपकी जाति क्या है, तो हमने क्या किया?
आज की बदली परिस्थिति में जाति को लेकर हुई लोहिया युग की राजनीति का सकारात्मक पक्ष भी नहीं है. लोहिया ने जो जाति को आधार बना कर कांग्रेस विरोध की राजनीति को मजबूती दी थी उसमें आरक्षण का प्रश्न और पिछडों का उभार केन्द्रीय था. लोहिया की दृष्टि भारतीय राजनीति की दिशा को समझ रही थी और वे देश को लोकतांत्रिकीकरण के अगले चरण के लिए तैयार कर रहे थे जिसमें पिछडे भी शक्तिशाली हो रहे थे. सही विश्लेषण और नीति से शुरू हुए पिछडावाद का बाद में जो पतन लालूवाद और मुलायमवाद में हुआ उसको ध्यान में रखने पर एकबारगी यह भय तो होता ही है कि इन नेताओं के हाथों अगर जाति की संख्या का खेल नामक गोटी आ जाये तो ये देश में मार-काट मचा देंगे. लेकिन, सौभाग्य से यह अतिपिछडावाद अब उतना गैर-जिम्मेदार नहीं रह सकता. कुछ उलट फेर के बाद अब लोगों में जिस प्रकार की अपेक्षा का वातावरण तैयार हो चुका है उसको देखते हुए यह नहीं लगता कि अब फिर से अंध-पिछडावाद राजनीति पर हावी हो सकेगा. सौभाग्य की बात यह भी है कि पिछडों के नेताओं में 'विकास' और जनोन्मुखता की भावना जोर पकड रही है. फिर भी नीतिश कुमार जैसे नेताओं को कब पासवान और लालू मिलकर पटखनी दे दें कोई नहीं बता सकता. फिर भी यह तो लगता ही है कि अगर लालू जी की पार्टी आ भी गयी तो भी वो पुराने दिनों वाली निश्चिंती उन्हें नहीं प्राप्त होगी. यह एक शुभ संकेत है कि झारखंड में भी आदिवासी राजनैतिक क्षितिज पर कई नेता उभर रहे हैं. उसी तरह पिछडों में भी नेताओं की अब कोई कमी नहीं है.
[ऐसी परिस्थिति में जाति की गणना की तरफ अगर अंतत: जाना ही पडे तो कम से कम दो तीन सावधानियों को ध्यान में रखा जाए. सबसे पहले यह ध्यान देना चाहिए कि जाति की गणना के दौरान मीडिया और राजनेताओं को सावधान होकर काम करना होगा. मीडिया अगर इस बात को गलत तरीके से पेश करने लगे तो सरकार को अपना दायित्व पालन करना होगा. इस देश का अंग्रेज़ी मीडिया ही देश में सबसे ज़्यादा संशय का वातावरण बनाता आया है. आपको याद होगा प्रणय राय आदि ने जब चुनाव विश्लेषण को फैशनेबुल बनाया तो वे जाति के आधार पर वोट पैटर्न को समझने और समझाने लगे थे. धीरे धीरे इस तरह के लैपटॉपी लोगों ने चुनाव परिणामों के बारे में भविष्यवाणी करने के 'वैज्ञानिक' विश्लेषण को करोडों का कारोबार बना दिया. पूरी संभावना है कि अंग्रेज़ी मीडिया इस नये मुद्दे पर बाबा लोगों को बिठाकर बहस करके देश को यह संदेश देंगे कि यह सब कुछ इस लिए हो रहा है क्योंकि सरकार जानना चाहती है कि किस जाति के कितने लोग हैं और सरकार उनको लेकर क्या नीति निर्धारित कर सकती है. सबकुछ इतना सरकार पर आधारित होता जा रहा है कि समाज के मत पर कोई ध्यान नहीं देना चाहता. हिन्दी मीडिया कुल मिलाकर अंग्रेज़ी मीडिया का भदेस संस्करण बनता जा रहा है और वैकल्पिक मीडिया का भविष्य तय नहीं हो पा रहा है. ऐसे में इस विषय पर तमाम बहसों के बाद की तय राय वही होगी जो सरकार चाहेगी. ]
इस निराश कर देने वाली बात को रखते हुए एक बात कहना चाहूंगा. तृतीय विश्व के देशों के लिए यह एक चुनौती है कि वे दिखलायें कि वे भी अन्य सभी समाजों की तरह विकल्प और परिवर्तन को स्वीकार करते हैं. धर्म के मामले में कम से कम धर्मांतरण करके या अपने को नास्तिक घोषित करके एक नागरिक एक विकल्प ढूंढ सकता है. जाति के मामले में क्या विकल्प है? और फिर जिस परिवार में एक से अधिक जातियाँ आ जुटी हैं वे क्यों एक जाति में ही अपनी पहचान ढूढने के लिए राज्य द्वारा अभिशप्त हों? कोई भी व्यक्ति किसी जाति में जन्म लेकर श्रेष्ठ या निम्न नहीं होता. इस बात को अगर हम मान लें तो फिर जाति को तो सिर्फ मिटाए जाने की सोचना चाहिए. आधुनिक भारत में जाति को कमजोर करने और उसे कम प्रभावी बनाने के लिए साठ बरस का चालीस साल का समय 'ऊँची' जातियों को मिला लेकिन वे अपने दंभ और मूर्खता के कारण यह नहीं समझ पाए कि अब समय पिछडों को आगे लाने का है. मंडल कमीशन के बाद जिस तरह से जातिवादी राजनीति को बल मिला उसके कारण ही भारतीय होने की पहचान कमजोर हुई और अपनी जाति की पहचान शक्तिशाली हुई. इस परिणाम के लिए तथाकथित ऊँची जातियों का औद्धत्य (औडासिटी) जिम्मेदार है जिसने लंठ पिछडावाद को राजनैतिक रूप से शक्तिशाली बना दिया. सिर्फ नयी रौशनी की एक आदर्शवादी उम्मीद अब बची है जो देश के किसी किसी कोने से कभी कभी दिखलाई पडती है. भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति लोगों में आस्था अगर सच्ची होगी तो इन प्रयासों को जन समर्थन मिलेगा . नहीं तो जाए भैंस पानी में ... .
[Sablog, June 2010]
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