Sunday 24 January, 2010

हिन्दी उपन्यास और स्त्री प्रश्न 2

वेश्याओं के धिक्कार सुहागिनों के महिमामंडन दोनों को एक दूसरे के सामने खड़ा कर पितृसत्तात्मक शोषक विचारधारा ने स्त्री को एक और स्तर पर विभाजित कर दिया। दोनों स्त्रियाँ समाज के वर्चस्ववादी शोषण का शिकार हैं किन्तु अपने वास्तविक शत्रु को भूल एक दूसरे के विरुद्ध खड़ी हैं। इस विचारधारा ने सती बनाम वेश्या का प्रपंच खड़ा किया। सती को वेश्या का ''घृणित'' चेहरा दिखा-दिखाकर बार-बार उसके महात्म्य के प्रति आश्र्वस्त किया - सुमन वेश्या भाली बाई को अपने धर्माचरण से हराना चाहती है, वह उस अभाव से उबर कर सात्विकता के उच्च आसन पर बैठना चाहती है किन्तु भोली को मंदिर में गाते देख उसे आघात लगता है - ''भोली के सामने केवल धन ही सिर नहीं झुकाता, धर्म भी उसका कृपाकांक्षी है। धर्मात्मा लोग भी उसका आदर करते हैं। वही वेश्या जिसे मैं अपने धर्म-पाखण्ड से परास्त करना चाहती हूँ - यहाँ महात्माओं की सभा में
ठाकुर जी के पवित्र निवास स्थान में आदर और सम्मान का पात्र बनी हुई है और मेरे लिये कहीं खड़ने होने की जगह नहीं।''३ सचेतन सुमन घर जाकर धर्म के उपादानों की गठरी बाँधकर रख देती है। सती और वेश्या की इस मुठभेड़ के पश्चात्‌ प्रेमचंद समस्या समाधान की ओर व्यवस्थित उन्मुख होते हैं। इनमें पहला पड़ाव है - उन्हें शहर से बाहर बसाना। इन्हें शहरवासियों से दूर रखने के सम्बन्ध में प्रेमचंद तर्क देते हैं - ''हमने वेश्याओं को शहर से बाहर रखने का प्रस्ताव इसलिये नहीं किया कि हमें उनसे घृणा है। हमें उनसे घृणा करने का कोई अधिकार नहीं है। यह उनके साथ घोर अन्याय होगा। यह हमारी ही कुवासनाएँ, हमारे ही सामाजिक अत्याचार, हमारी ही कुप्रथाएँ हैं जिन्होंने वेश्याओं का रूप धारण किया। यह दालमंडी हमारे ही जीवन का कलुषित प्रतिबिंब, हमारे पैशाचिक अधर्म का साक्षातद्व स्वरुप है। हम किस मुँह से उनसे घृणा करें। उनकी अवस्था बहुत शोचनीय है। हमारा कर्त्तव्य है कि हम उन्हें सुमार्ग पर लायें, उनके जीवन को सुधारें और यह तभी हो सकता है, जब वे शहर से बाहर दुर्व्यसनों से दूर रहें। हमारे सामाजिक दुराचार अग्नि के समान हैं और अभागिन रमणियाँ तृण के समान। अगर अग्नि को शांत करना चाहते हैं तो तृण को उससे दूर कर दीजिये; तब अग्नि आप-ही-आप शांत हो जायेगी।''४ पदमसिंह इसकके साथ म्युनिसिपट बोर्ड में प्रस्ताव भी रखते हैं कि वेश्याओं को मुख्य शहर से बाहर बसाने के साथ, शहर के मुख्य सैर के स्थानों और पार्कों में उनका आना निषिद्ध किया जाये, उनके नृत्य पर भारी टैक्स लगाए जायें आदि आदि।
प्रेमचंद 'वेश्यावृत्ति' को किसी ''विशेष दुर्गुण'' की कोटि में न रख अन्य दुर्वृत्तियों जैसा ही पतित बताते हैं - ''हमें वेश्याओं को पतित समझने का कोई अधिकार नहीं है, यह हमारी परम धृष्टता है। हम रात-दिन जो रिश्र्वतें लेते हैं, सूद खाते हैं, दीनों का रक्त चूसते हैं, असहायों का गला काटते हैं, कदापि इस योग्य नहीं हैं कि समाज के किसी अंग को नीच या तुच्छ समझें। ... जिस समाज में अत्याचारी जमींदार, रिश्र्वती राज्य-कर्मचारी, अन्यायी महाजन, स्वार्थी बंधु आदर और सम्मान के पात्र हों वहाँ दालमंडी क्यों न आबाद हो?''५
इस प्रकार कुँवर अनिरुद्ध सिंह इन मीनाबाजारों को 'हराम के धन का परिणाम' बताते हुए वेश्याओं को शहर के बाहर बसाने का विरोध किया।
प्रेमचंद सेवासदन में कुछ विसंगतियों जैसे, 'तृण को अग्नि से बचाने के लिये शहरबदर कर देना पर अग्नि शहर से बाहर न जाये इसकी कोई पक्की व्यवस्था न होना, वेश्याओं के पुनर्वास और आजीविका का प्रबन्ध न होना को अनुत्तरित छोड़ वेश्याओं की कन्याओं के लिये 'सेवासदन' बनाते हैं। सुमन से सुमनबाई और अब सुधर का इस सेवासदन की संचालिका सुमन इन कन्याओं के भविष्य के बारे में अनिश्चित है - उनके विवाह के प्रश्न पर सुमन कहती है - ''यह तो टेढ़ी खीर है। हमारा कर्त्तव्य यह है कि इन कन्याओं को चतुर गृहिणी बनने के योग्य बना दें। उनका आदर समाज करेगा या नहीं, मैं नहीं कह सकती।''६
स्त्री प्रश्न 'हिन्दू स्त्री' और 'मुस्लिम स्त्री' के प्रश्नों में बँट चुका था। स्त्री उद्धार साथ पुनरुत्थानवादी, राष्ट्रवादी और उदारवादी सभी चेहरे जुड़ रहे थे। राष्ट्रवादियों के सामने राष्ट्र निर्माण का प्रश्न था तो पुनरुत्थानवादी इसे धर्म और जाति से जोड़कर देख रहे थे। वेश्या प्रश्न इससे कैसे अछूता रहता! सेवासदन का विठ्ठलदास, जिसके कान भरने पर सुमन का पति उसे घर से निकाल
देता है, सुमन के पतन को हिन्दू धर्म का पतन मानता है। हिन्दू धर्म में भी यदि ब्राह्मण जाति की स्त्री वेश्या बन जाये तो हिन्दुओं को पतन के गर्त्त से बचाना असंभव है। विठ्ठलदास द्वारा धिक्कारे जाने पर सुमन बा.जार में अनेकों ब्राह्मणियों और मुजरा सुनने वाले हिन्दू सज्जनों का हवाला देती है। प्रत्युत्तर में विठ्ठल दास हिन्दू नारी की महिमा समझाते हुए ब्राह्मणियों को ''नीच जाति'' की कुलटाओं का अंतर समझने के लिये कहता है - ''सुमन तुम सच कहती हो, बेशक हिन्दू जाति अधोगति को पहुँच गयी और अब तक वह कभी की नष्ट हो गई होती, पर हिन्दू स्त्रियों ही ने अभी तक उसकी मर्यादा की रक्षा की है। उन्हीं के सत्य और सुकीर्ति ने उसे बचाया है। केवल हिन्दुओं की लाज रखने के लिये लाखों स्त्रियाँ आग में भस्म हो गई हैं। यही वह विलक्षण भूमि है जहाँ स्त्रियाँ नाना प्रकार के कष्ट भोगकर, अपमान और निरादर सहकर पुरुषों की उनमानुषीय क्रूरताओं को चित्त में न लाकर हिन्दू जाति का मुख उज्ज्वल करती थीं। यह साधारण स्त्रियों का गुण था और ब्राह्मणियों का तो पूछना ही क्या? . . . सोचो तो कितने खेद की बात है कि जिस अवस्था में तुम्हारी लाखों बहनें हँसी-खुशी जीवन व्यतीत कर रही हैं, वही अवस्था तुम्हें इतनी असह्य हुई कि तुमने लोक-लाज, कुल मर्यादा को लात मारकर कुपथ ग्रहण किया। . . . सुमन तुम्हारे इस कर्म ने ब्राह्मण जाति ही का नहीं, समस्त हिन्दू जाति का मस्तक नीचा कर दिया।''७
माथा नीचा किये सजल नेत्रों से लज्जित सुमन सुधरने को तैयार हो जाती है।
अंग्रे.जों ने वेश्यावृतित नियमन क़ानून के विरोध की प्रतिक्रिया में इस देश में होने वाले हर प्रकार के सार्वजनिक नृत्यों पर रोक लगा दी थी। राष्ट्रवादियों ने इसके सुधारात्मक पक्ष को ग्रहण किया। प्रेमचंद के कई उपन्यासों में इस प्रवृत्ति के प्रमाण मिलते हैं।
इसी तरह अंग्रेज सिपाहियों द्वारा हिन्दू स्त्रियों के बलात्कार को स्त्री के विरुद्ध हिंसा के बजाय साम्राज्यवादी पशुता से जोड़ दिया गया। प्रेमचंद के उपन्यास 'कर्मभूमि' का विशद मुन्नी प्रसंग इस तथ्य की पुष्टि करता है।
भारतीय राजनीति में गाँधी जी के आने के बाद राष्ट्रीय आंदोलन में स्त्रियों की सहभागिता बड़ी तेजी से बढ़ी। ये सभी वर्गों की स्त्रियाँ थीं। अपने दक्षिण अफ्रीका के आंदोलन से ही गाँधी जी स्त्रियों की सहन शक्ति से अत्यन्त प्रभावित थे। कस्तूरबा को उन्होंने असहयोग आंदोलन की कला में अपना गुरु माना था। स्त्रियों की प्रशस्ति में गाँधी जी ने कहा - ''मैंने इन कॉलमों में सुझाव दिया है कि स्त्री अहिंसा का अवतार है। अहिंसा का अर्थ है अपरिमित प्यार जिसका दूसरा अर्थ है पीड़ा सहने की असीम क्षमता। स्त्री, पुरुष की माँ के अलावा इतना बड़ा कष्ट सहने की क्षमता भला और किसी में दिखाई पड़ती है।''८
स्त्रियों की प्रशंसा में ऐसे कसीदे पहले भी लोगों ने काढ़े थे, खूब बढ़-चढ़ कर काढ़े थे। गाँधी जी की प्रशंसा भिन्न थी। स्त्री की घर में विशेष भूमिका की बात कहते हुए भी उन्होंने स्त्री
को सार्वजनिक जीवन में उतारा। यद्यपि उन्होंने महिलाओं के कार्य सीमित ही रखे किन्तु सार्वजनिक क्षेत्र में उतरी लज्जावंती, बेगम शाहनवा.ज और सरोजिनी नायडू आदि ने आरक्षण, विनियुक्ति आदि प्रस्तावों को ठुकरा कर भारतीय स्त्रियों को समान राजनैतिक दर्जा देने की माँग की। गाँधी जी को इस बात की खूब समझ थी कि स्त्रियों को खादी पहनाए बिना न स्वदेशी का मंत्र चल सकता है और विदेशी वस्त्रों की होली जल सकती है।
१९१९ के रॉलट एक्ट कानून और जालियाँवाला बाग ने राष्ट्रीय आंदोलन में तेजी ला दी। गाँधी जी के आह्वान पर १९२० के दशक में बड़ी संख्या में महिलाएँ बाहर आईं। उनकी भूमिका विदेशी वस्त्र बहिष्कार, विदेशी दवा और शराब की दुकानों पर धरना और पिकेटिंग आदि तक सीमित थी। १९३० के दशक में गाँधी ने उन्हें नमक आंदोलन से जोड़ा। नागरिक अवज्ञा आंदोलन में उनकी भूमिका की प्रशंसा करते हुए गाँधी जी ने कहा - ''भारतीय स्त्रियों ने पर्दा फाड़कर फेंक दिया और राष्ट्र के काम के लिये बाहर आ गईं। उन्होंने महसूस किया कि देश उनकी घरेलू देखभाल की जिम्मेदारी के अलावा कुछ और अधिक करने की माँग कर रहा था . . .।''९
गाँधी जी की आदर्श कार्यकर्ता 'स्वैच्छिक विधवा' थी और उनके लिये 'सती' वह नारी थी जो अपने त्याग, बलिदान स्नेह से परिवार और देश का भाग्य बदल दे।
सार्वजनिक क्षेत्र में स्त्रियों की सहभागिता बढ़ने पर उनके मातृ रूप के साथ उनके 'पत्नी' रूप की भी चर्चा बढ़ी। प्रेमचंद कालीन पूरा साहित्य पत्नी के संगिनी रूप को रेखांकित करता है। प्रेमचंद का अपना साहित्य पत्नी की सहभागिता का विराट दस्तावे.ज है। धनिया, सुखदा, जालपा और विद्या सभी पत्नियाँ अपने पति के जीवन संग्राम और उत्थान में सहायक हैं, आधुनिक स्त्री माँ से पत्नी बनने की अपनी यात्राओं में (उल्टी यात्रा में) अपने मानवी होने का अर्थ तलाशने लगी। मध्यवर्गीय स्त्री के प्रश्नों की धारा की एक दिशा को जैनेन्द्र गाँधी वादी स्पर्श सहित सम्बोधित कर रहे थे।
सन्‌ १९३० के अंत में भारतीय राजनैतिक परिदृश्य में साम्यवादियों का पदार्पण हुआ। इस साम्यवादियों और क्रान्तिकारियों के यहाँ भी औरत का प्रवेश निषेध था। उसके निर्णय की स्वतंत्रता व अधिकार कमोवेश यहाँ भी पुरातनपंथियों की ही तर्ज पर थे। स्त्री विवाह कर स्वतंत्र हो सकती थी। तब स्वतंत्र नारी कौन है? बौद्ध भिक्षु व्याख्यायित कर चुके थे - वेश्या! यशपाल ने इस विषय पर अपना प्रसिद्ध उपन्यास दिव्या (१९४५ ई.) लिखा। प्रेमचंद के 'सेवासदन' की सुमन की तरह दिव्या भी द्विजकन्या है। यशपाल ने जाति व्यवस्था और धार्मिक नियमों साथ ही सामन्ती शासन में पिसती स्त्री व्यथा का अत्यन्त सटीक और मार्मिक चित्रण किया। उन्होंने बौद्धों द्वारा वेश्या को स्वतंत्र घोषित करने (इसी आधार पर गौतम बुद्ध ने वेश्या को दीक्षा दी थी।) की विसंगतियों को भी उद्घाटित किया। यशपाल की दिव्या से छूट गए प्रश्नों को अमृतलाल नागर ने 'सुहाग के नूपुर' में सम्बोधित किया।
नारी देह के प्रति पुरुष की तीव्र और उच्छृंखल कामना ने वेश्यावृत्ति जैसी जिस हृदयहीन व्यवस्था को जन्म दिया; जिस नारीत्व के कारण स्त्री वेश्या बनी उस वेश्या के नारीत्व के पददलित और उत्पीड़ित होने की मार्मिक कथा 'सुहाग के नूपुर' का उल्लेख किये बिना अधूरी रह जायेगी।
उपन्यास के दो नारी पात्र - सती कन्नगी और वेश्या माधवी। क्या अंतर है दोनों में! माधवी की दासी प्रश्न करती है, 'छोटी स्वामिनी ने भी एकपुरुषव्रत साधा है। फूल-हाट में कुलवधुओं के समान संस्सकारों वाली अनेक महिलाएँ हैं। भला उनमें और कुलवधुओं में क्या अंतर है?''१० इस प्रश्न में वेश्या नारी के अन्तर्मन की पीड़ा ही नहीं पुरुष द्वारा स्त्री में एकपुरुषगामिनी ही बने रहने की भावना का खूँटा भी गाड़ देना है। स्त्री समाज का विभाजन अपने भोग की सुविधानुसार, उसकी सुविधा को इस विभाजन से और बल वृद्धि मिलती है। नारी समाज आपस में उस ''मर्यादा, सतीत्व
और उच्च पदों के लिये आपसी प्रतिद्वन्द्विता में उलझ पुरुष समाज के षडयंत्र से अनभिज्ञ ईर्ष्या की उस भस्मकारी अग्नि की आहुति बनता है जो भीतर-बाहर दोनों से जलाती है। पुरुष ने ''सती'' को मिथ्या अधिकारों का ऐसा टोकरा पकड़ा दिया है जिसके खालीपन को वेश्या नहीं देख पाती और उसकी मर्यादा से आहत होती है। यद्यपि 'वेश्या' की स्वतंत्रता और उच्छृंखलता 'सती' को आकृष्ट नहीं करती किन्तु वह अपने 'सुहाग' के छिन जाने पर जो पीड़ा भोगता है उसका कारण इस वेश्या को ठहराती है जबकि दोषी पुरुष है। माधवी के प्रति तीव्र मोह और श्र्वसुर कुल की अकूत संपत्ति की लालसा, साथ ही कन्नगी के शीतल रूप के प्रति आकृष्ट कोवलन अपने विवाह की प्रथम रात्रि को अपनी सती पत्नी को वेश्या के द्वार पर ला खड़ा करता है। माधवी के मन में अपने प्रिय कोवलन के विवाहोत्सव में कन्नगी के सामने नाचने की फाँस गड़ी हुई है, ''परसों अपने विवाह के उत्सव में स्वर्णसिंहासन पर मेरे प्राण-पति के साथ बैठकर नई सेठानी ने अपने पिता की कोठी में मेरा नृत्य देखा था। आज मेरे कोठे पर सेठानी नृत्य करेंगी और मैं अपने प्रिय के साथ बैठकर देखूँगी।''११ इस विडम्बना से अनभिज्ञ कि उसके पैरों में घुघरूँ बाँध उसे जिस-तिस के सामने नचाने वाली कन्नगी नहीं है, वह कन्नगी को नचाना चाहती है। कन्नगी के पास भी पुरुष का दिया हुआ वह सम्मान है जिससे वह माधवी को आहत कर सकती है - ''बहन! मेरे देवतुल्य पतिकुल ने सुहाग के नूपुरों से मेरे पैरों को बाँध दिया है। ये घुँघरू तुम्हारे ही पैरों में शोभा पाएँगे।''१२ नूपुर हों या घुँघरू, सती हो वेश्या-बँधे स्त्री के ही पैरों में हैं। नूपुर को चाहे तबले की थाप पर न बजना हो पर उसका गति संचालन है पुरुषों के ही हाथों में। घुँघरू? वे तो स्त्री के लिये सबसे बड़ी गाली हैं। इसलिये सुहागवती कन्नगी का यह पुरुष प्रदत्त ''सौभाग्य'' माधवी के इस सम्मन के लिये लालायित मन पर पत्थर सी चोट करता है - '' 'सुहाग के नूपुर' शब्द मन के अभाव-खड्ड में ऐसे पड़े मानो भारी बोझ की गठरी कुएँ में पानी में छपाका मार स्रोत के तल में जा लगी हो।''१३
दोनों स्त्रियाँ अपने किसी भी अस्तित्व से अपरिचित अपनी अन्य कैसी भी पहचान से अंजान नारी जीवन की एक ही सार्थकता और उपयोगिता से परिचित हैं, पुरुष को रिझाना और उससे इसका प्रमाण पत्र लेना - ''हाँ सुना है कि इन बहुमुल्य नूपुरों के कारण तुम नगर-भर की सुहागिनों के लिये ईर्ष्या की वस्तु बन गई हो। पर इनसे अपने सौभाग्य देवता को न रिझा सकोगी गुइयाँ! वह शक्ति मेरे ही घुँघरुओं में है।''१४
अपने अपने नूपुरों और घुँघरुओं की निरर्थकता का भान नहीं है दो तेजस्वी नारियों को। उनमें आपस में संशय, द्वेष, डाह और जानलेवा घृणा है और पुरुष? इस सर्वविनाशिनी घृणा के घात-प्रतिघात से आनन्दित है - ''मैं आनन्द ले रहा हूँ। मेरे सामने स्त्री के दो रूप आ रहे हैं। सुहागरात में यह अनुभव भला कितने सौभाग्यशालियों को मिलता है।''१५ मदिरा में मस्त हँसता हुआ कोवलन, पुरुष समाज इससे अनभिज्ञ है या बना रहना चाहता है कि इस अग्नि की तपिश उसके कामातुर तन-मन को भी जलायेगी, चाहे कम ही सही।
'सुहाग के नूपुर' उपन्यास अपने दुर्गुणों से प्रेरित पुरुष द्वारा निर्मित समाज की विडम्बनाओं को परत-दर परत खोलता है। स्थानाभाव के कारण इस उपन्यास का यहाँ विशद विवेचन संभव नहीं है। उसकी वर्चस्ववादी व्यवस्था सभी को उनकी नारकीय स्थितियों में कैद रखती है। मुक्ति के मार्गों को उसकी उद्दाम लालसा रोके खड़ी है। इसलिये राज्य व्यवस्था द्वारा अन्त में ''वेश्या'' ही बना दी
जाती है। सती कन्नगी से वेश्या माधवी हार जाती है, हरा दी जाती है। राजपुरुष आदेश देता है - ''कोटपाल! आज से नगर की कोई वेश्या दान, धर्म और वाणिज्य की आड़ लेकर सतियों को त्रस्त न कर सकेगी और यदि कभी एक क्षण के लिये भी ऐसा हुआ तो मैं इस नगर की सर्वश्रेष्ठ वेश्या इस माधवी को भरे चौराहे पर श्र्वपच-चंडालों के मनोरंजनार्थ नचाऊँगा।''१६ हारने के बाद, हरा दिये जाने के बाद भी वेश्याएँ रहेंगी क्योंकि उन्हें पुरुषों का मनोरंजन करना है बल्कि एक और गुरुतर कार्यभार है उन पर - ''कुलवधुओं की प्रतिष्ठा के लिये समाज को नगरवधुओं की आवश्यकता रहेगी, केवल उन्हें उनकी मर्यादा में बाँध दो।''१७ अपनी-अपनी मर्यादाओं में बँधी स्त्रियाँ ही पुरुष समाज के भोग और मोक्ष दोनों कार्यों को सिद्ध कर सकेंगी। इस महत्‌ कार्य को साधने में उसकी अपनी जो चाहे दशा हो।
उपन्यास के अंत में एकपुरुषव्रता उससे प्रेम करने वाली माधवी, अंततः वेश्या बनने पर बाध्य माधवी, अपनी संतान को भद्र वंशावली में स्थान दिलवा पाने में नाकाम माधवी, सुहाग के नूपुर पहन वेश्या से सती पद पाने को प्राणांतक वेदना से व्याकुल माधवी, भयंकर वृष्टि से सब संतान सम्पत्ति सर्वस्व गँवा बैठी पगली माधवी कहती है - ''सारा इतिहास सच-सच ही लिखा है देव! केवल एक बात अपने महाकाव्य में और जोड़ दीजिये - पुरुष जाति के स्वार्थ और दंभ भरी मूर्खता से ही सारे पापों का उदय होता है। उसके स्वार्थ के कारण ही उसका अर्धांग - नारी जाति - पीड़ित है। एकांगी दृष्टिकोण से सोचने के कारण ही पुरुष न तो स्त्री को सती बनाकर सुखी कर सका और न वेश्या बनाकर। इसी कारण वह स्वयं भी झकोले खाता है और खाता रहेगा। नारी के रूप में न्याय रो रहा है महाकवि! उसके आँसुओं में अग्निप्रलय भी समाई है और जलप्रलय भी।''१८ और यह पूछे जाने पर कि क्या वह माधवी है, पगली कहती है, ''मैं नारी हूँ - मनुष्य समाज का व्यथित अर्धांग।''१९
भारतीय संस्कृति ने अपनी आधी आबादी को यौन शुचिता से ऐसा जोड़ा कि बाद की आधुनिकता भी इसी प्रवृत्ति के साथ पनपी। स्त्री की यौन शुचिता और नारी के सतीत्व से पितृसत्तात्मक विचारधारा की सम्बद्धता दो-चार महानगरों में कम हुई हो तो हुई हो अन्यथा यह विषबेल अभी भी फलती-फूलती अवस्था में है। इस सतीत्व निर्वाह और इस पर तनिक भी शंका हो जाने पर इसे सिद्ध करने का पूरा भार सीता ने ही उठा लिया था। मर्यादा पुरुषोत्तम का महात्म्य पत्नी परित्याग में भी है। उनके पुरुषोत्तम होने के कारणों में एक महत्तम कारण धोबी के कहने पर महारानी का त्याग भी है। (शायद बहुतमत सीता के विरुद्ध नहीं था!) पुरुष मानस में पुरुषोत्तम की यह भावना सदैव बनी रही है। विवाहित स्त्री का सतीत्व और अविवाहिता का कौमार्य आधुनिक समाज के पुरुष की संस्कारबद्ध जड़ता की भी माँग कर रहे हैं। अपनी होने वाली पत्नी की अक्षुण्ण योनि की तीव्र आकांक्षा और अक्सर उसके प्रति उसके संदेह के कीड़ ने कितने दाम्पत्य जीवनों को नरक बना दिया होगा, इसका अनुमान ममता कालिया के 'बेघर (१९७१) उपन्यास से लगाया जा सकता है।
परमजीत का संजीवनी से इसलिये विवाह न करना कि वह 'कुँआरी' नहीं, परमजीत उसकी जिंदगी में 'पहला पुरुष नहीं और फिर पारम्परिक विवाह मार्ग से झगड़ालू और फूहड़ पत्नी रमा के साथ जीवन-निर्वाह जितना दर्दनाक है उससे अधिक दर्दनाक है संजीवनी द्वारा स्वयं को भ्रष्ट समझना। संजीवनी स्वयं इस 'अप्रिय व छोटी सी दुर्घटना' के लिये अपराध-बोध से मुक्त नहीं हो पाती। उसकी
अपनी अस्थि मज्जा में यह बात गहरे तक समाई हुई है कि वह अपवित्र है।
इस अपवित्रता के कारण त्याज्य होने के भय ने स्त्री-पुरुष में स्वाभाविक संवाद-सूत्र कायम नहीं होने दिया। परिणामतः स्त्री-पुरुष का यह सहज सम्पर्क बड़े रहस्य के रूप में परिणत होता गया। नारी देह से जुड़े आधारहीन मिथकों का निराकरण संभव न हो सका। स्त्री को देवी पद पर आसीन कर उसे धक्का दे कर गिराने की दुर्घटना से नारी विश्र्व इतना आक्रान्त रहा है कि उसने भेद बनाए रखने में अपनी कुशलता समझी।
इस संदर्भ में १७९२ में मेरी कोल्सनक्राफ्ट का यह कथन कितना सटीक है - ''दरअसल स्त्री उत्कृष्टता की भ्रान्त धारणाएँ स्त्रियों को इतना नीचे गिरा देती हैं कि यह कृत्रिम निर्बलता उनमें शक्ति की स्वाभाविक विरोधी चालाकी को जन्म देती है, जो उन्हें ऐसी घृणित बचकानी अदाएँ दिखाने की ओर ले जाती हैं जो देखने वालों में कामना भले ही जगाती हों, पर स्त्रियों की गरिमा घटाती ही है। ऐसे पूर्वग्रहों को पोषित मत करिये और वे जीवन में अधीनस्थ ही सही, पर सम्मानजनक स्थिति अर्जित कर लेंगी।''२०
इस ''सम्मानजनक'' स्थिति को प्राप्त करने के लिये औरत चाहे कितनी दूर की यात्रा कर लेउसे कमोवेश वही पुरुष मन मिलता है जो औरत को अपने अधीनस्थ देखना चाहता है। वह औरत से अपने मन की करवाना चाहता है। इसलिये मृदुला गर्ग के उपन्यास 'कठगुलाब' की स्मिता का चाहे जीजा हो पति जिम दोनों को कठपुतलियाँ चाहिये। जीजा मुँह नहीं खोलने देता और जिम हर बात पर कहता है ''वी नीड टु टॉक''। दोनों औरत से केवल अपने मन की बात सुनना चाहते हैं। वे आत्मविश्र्वास से इतने भरे हुए हैं कि उन्हें किसी की बात नहीं सुननी। तिस पर औरत की बात!
अमेरिका के प्रगतिशील समानधर्मा लगने वाले क़ानून भी आत्माभिमानी स्त्री की बात नहीं सुनना चाहते। मारियान इस क़ानून पर टिप्पणी करती है - ''यही तो शान है, हमारे समानधर्मा क़ानून की। औरत के हर फरेब में वह मददगार रहता है। हाँ फेमिनिन वाइल्स से मुक्त हो, सिर ऊँचा करके, अपने हाथों अपने जीवन की रूपरेखा तैयार करने की कोशिश कीजिये, फिर देखिये, वही क़ानून कैसे आपको पटखनी देता है।''२१
प्रेम दीवानी मारियान कभी कुछ न लिखने वाले लेखक इर्विंग से विवाह कर लेती है, ''औरत का काम कभी खत्म नहीं होता'' इस मुहावरे को अपनी जीवन में घटित होते हुए, कुछ ज्य़ादा ही घटित होते हुए देखती है, हर औरत की तरह खूब थकी रहती है, इर्विंग के कहने पर अपना गर्भपात करवा लेती है, अपनी माँ बनने की इच्छा .जमीन में गहरे दफ़ना देती है पर उस दिन वह अपने को बेतहाशा छला हुआ अनुभव करती है जिस दिन उसके दस वर्षों की अनथक मेहनत का परिणाम उसका जरनल इर्विंग अपने नाम से छपवा लेता है। इस बेशर्म चोरी पर तड़पती मारियान से इर्विंग कहता है - ''चीखो मत . . . मैंने कोई कपट नहीं किया। तुमने अपनी मर्जी से अपना जरनल मुझे दिया था। और कोई अनोखी बात नहीं की तुमने। डी.एच. लारेंस, स्कॉट फिटजैरल्ड और भी कितने लेखकों ने उपन्यास लिखते हुए अपनी बीवियों के जरनल इस्तेमाल किए थे। जेल्डा फिटजैरल्ड ने तो अपनी मर्जी से दिया भी नहीं था। बिला सोचे-समझे चल दी थी कोर्ट में, एतराज दर्ज करने, आधी पागल जो थी। हुआ क्या? कोर्ट ने कानूनन फिटजैरल्ड को जेल्डा के जरनल का इस्तेमाल करने की इजा.जत दे दी थी। साहित्य का इतिहास जानती भी हो कि खामखां चिल्लाए जा रही
हो।''

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