कांग्रेसी नेता मानस भुइयां ने हिन्दी भाषी समाज के लिए एक बडा काम किया है. पत्रकार कृपाशंकर चौबे ने सूचित किया है कि कांग्रेस के इस नेता ने स्वीकार किया है कि बंगाल में हिन्दी भाषी जनता की जनसंख्या एक करोड है. उन्होंने इस मांग का समर्थन किया है कि महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की एक शाखा कोलकाता में भी खुलनी चाहिए. यह बात भी गौरतलब है कि वामफ्रंट सरकार ने अपने 32 वर्ष के शासन के बाद हिन्दी को अल्पसंख्यक भाषा का दर्जा देना स्वीकार किया है. ऐसे में बंगाल की उपेक्षित हिन्दी भाषी जनता के लिए उत्साह का वातावरण तैयार हुआ है. बर्सों से हिन्दी भाषी छात्रों के लिए हिन्दी में प्रश्न-पत्र के लिए आन्दोलन किया जाता रहा है, लेकिन सरकार आंख मूंदे हुए है. चौबे ने कई अन्य बातों का खुलासा किया है. 1998 से शब्दकर्म पत्रिका ने लगातार कई लेख हिन्दी भाषी जनता की मांगों को लेकर छापे थे. जिन लेखकों ने हिन्दी भाषी जनता के पक्ष को रखकर गुहार लगाई थी उनमें सम्पादक हितेन्द्र पटेल के अलावा अनय, कृपाशंकर चौबे, के के सिंह, अमरनाथ आदि लोग शामिल थे. यह बात बार बार दोहराई गयी थी कि हिन्दी भाषी जनता के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की जाए और शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में लगातार की जा रही उनकी उपेक्षा को बंद किया जाए. सैकडों सालों से हिन्दी प्रदेश के लोगों ने बंगाल में आकर अपने श्रम से यहां की धरती सींची है. इस बंगाल के निर्माण में हिन्दी भाषी लोगों का खून-पसीना भी लगा है. वाम पंथी सरकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वे मेहनतकश जनता के लिए लडेंगे, लेकिन अभी तक तो लगता है यह अपने पूर्ववर्ती शासन से भी ज्यादा निष्ठुर है. चौबे ने लिखा है कि वामपंथी सरकार ने यहां के हिन्दी भाषी सफाई कर्मचारियों की जगह पर बंगाली सफाई कर्मचारियों को चुनने की नीति अपनायी है. अगर आप यहां की नौकरियों के विज्ञापनों को देखें तो साफ समझ में आएगा कि यहां हिन्दी भाषी लोगों को नौकरी मिलना कितना कठिन होता जा रहा है. इस राज्य में जाति प्रमाण पत्र उन्हें ही दिया जाता है जो बंग्ला भाषी हैं यह बात जाति प्रमाण पत्र के लिए लगातार सरकारी दफ्तर के चक्कर लगाता कोई भी बोल देगा.
चौबे ने एक और बात पर उंगली रखी है. यहां एक हिन्दी अकादमी है जिसे पांच बरस से बंद सा रखा गया है. सरकार का पूरा ध्यान बंग्ला अकादमी पर है और ये उर्दू अकादमी तक को पैसे देती है लेकिन हिन्दी अकादमी पर इसका ध्यान नहीं है.
हिन्दी भाषी बुद्धिजीवियों से अपील है कि वे इन बातों पर ध्यान दें और जनता की भलाई के लिए सोचें. एक संकीर्ण मन से बंगाली -बिहारी, बंगाली-अबंगाली के समीकरण से नहीं बल्कि खुले मन से, ताकि आम आदमी को उसका संवैधानिक अधिकार मिल सके.
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