समय, इतिहास और साहित्य
उत्तर औपनिवेशिक भारतीय सन्दर्भ में कुछ नोट्स
हितेन्द्र पटेल
[कम से कम 1960 के दशक के बाद से पाठ और इसके अर्थ के बीच के सम्पर्कों पर हुई लगातार बहसों में यह बात दोहराई जाती रही है कि हमारे पाठ और हमारे द्वारा पाये गये अर्थ के बीच का रिश्ता बहुत ही जटिल है. पाठक या श्रोता के रूप में हम उपभोक्ता हैं या उत्पादक हैं यह बहुत ही बुनियादी प्रश्न बन गया है जिसमें जाए बिना साहित्य या इतिहास के बदलते स्वरूप पर विचार करना संभव नहीं. बातचीत की सुविधा के लिए हम कह सकते हैं कि संरचनावाद और उत्तरसंरचनावाद के विमर्शों के बाद हम बहुलतावादी दृष्टि की तरफ बढे हैं. अब इतिहास या समय इतिहासों और समयों के रूप में देखा जा सकता है. प्रस्तुत आलेख में साहित्य और इतिहास के सन्दर्भ में समय की धारणा के कुछ पहलुओं पर विचार किया गया है.]
‘समय’ बदलता है या सबकुछ ‘समय’ में बदलता है? समय संबंधी दीर्घकालीन चिंतन के इस केन्द्रीय प्रश्न पर कोई एक आम सहमति नहीं है. इतिहास के दार्शनिक आर. जी. कॉलिंगवुड ने 1925 में अपने भाषणों में इस सम्बन्ध पर विचार करते हुए समय को एक ‘मेटाफर’ बताया है जिसे कुछ लोग एक ही गति से लगातार चलने वाले प्रवाह (स्ट्रीम) के रूप में लेते हैं और कुछ इसे एक सरल रेखा के रूप में. समय की गति को समझने के लिए एक अन्य समय की कल्पना जरूरी है जिसके सापेक्ष समय के प्रवाह को समझा जा सके. अगर अन्य समय को स्थिर माना जाए तो ही समय के बदलाव को रेखांकित करना संभव है. दूसरी ओर, जो लोग समय को एक सरल रेखा के रूप में देखते हैं उनके लिए जो जाना हुआ है (वर्तमान) उसके पहले का समय भूत और जिसे जाना जाना है उसे भविष्य के रूप में देखा गया है. चूंकि, हम सिर्फ वर्तमान को जानते हैं या जान सकते हैं भूत और भविष्य की सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं हर कल्पना का वास्तविक आधार वर्तमान ही होकर रह जाता है. कालिंगवुड की इस धारणा को स्पष्ट करते हुए दासेन (Dussen) ने लिखा है कि उनके अनुसार वास्तविक सिर्फ वर्तमान है लेकिन यह दो कल्पनाओं (Ideals) से बना है- भूत (वर्तमान के लिए आवश्यक) और भविष्य़ (संभावना). भूत और भविष्य दोनों वर्तमान के गर्भ में ही पैदा होते हैं (‘germinating in the present’). यानि, इतिहास को एक ‘आईडिया’ के रूप में ही देखने की बात कालिंगवुड करते हैं जो इतिहासकार के दिमाग में होता है.
समय को लेकर चलने वाले विमर्श में लेवी स्त्रॉस जैसे संरचनावादियों ने भी समय की अवधारणा को ध्यान में रखकर उन समाजों को समझने की कोशिश की जिन्हें लिखित स्रोतों से समझने का सुयोग नहीं है. इन समाजों में लिखित दस्तावेज नहीं थे, अत: इनके समाज के लिए इतिहास और साहित्य की सारी संभावनाएं समाप्त थी. इन समाजों को असभ्य समाज कहा गया. लेवी स्त्रॉस और अन्य नृतत्त्वविज्ञानियों ने माना कि सिर्फ वर्तमान ही वह दस्तावेज है जहां से भूत के बारे में धारणा बनाई जाती है. जब समय की एक खास धारणा दुनिया के सभी समाजों के लिए प्रयुक्त होती है तो दरअसल जो ‘स्पेस’ का अंतर होता है वह ‘समय’ के अंतर के रूप में देखा जाने लगता है; जिसे पिछडा समाज कहा जाता है वे भी इतिहास में आते हैं लेकिन समय के पिछडे पडाव में अवस्थित होकर. यानि, यह मान ही लिया गया है कि समय, साहित्य और इतिहास में हर समाज को अपने को रखना ही पडेगा. यह वह आग्रह है जिसने समय, साहित्य और समाज के सम्पर्क को समग्रता से देखने समझने में बडी बाधा खडी कर दी है. यह एक ‘हिस्टोरिसिस्ट’ विचारधारात्मक समझ है जिसे ऐतिहासिक ज्ञान के रूप में देखने की प्रवृत्ति का स्त्रास विरोध करते है. इस तरह के सोच के अनुसार इतिहासकारों को बहुलतावादी दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति का विकास करना चाहिए, धारावाहिकता और क्रमिकता की धारणा से अलग हटकर अनेकरूपता और वैविध्य को समझने की कोशिश करनी चाहिए. इसे इतिहासकार की तरह ही साहित्यकार को भी समझने की जरूरत है. आधुनिक विश्व में साहित्य की पूरी अवधारणा जिस समय को लेकर चलती है वह भी इसी क्रमिक समय को ही अपने पार्श्व में रखकर संयोजित होती है. साहित्य के प्राक आधुनिक स्वरूपों में समय को लेकर दूसरी तरह की धारणा थी इसमें संदेह नहीं, लेकिन उन समयों को साहित्य भूल चुका है. साहित्य का पाठक अब क्रमिक समय का आदी है. उसे ही समय समझता है.
लेवी स्ट्रॉस
मनुष्य समाज में रहता है और सामुदायिक जीवन जीता है. तमाम कोशिशों के बाद भी व्यक्तिवादी भाव ने सामुदायिकता की भावना को नष्ट करने में सफलता नहीं पायी. समाज, समुदाय, व्यक्ति, परिवेश, प्रकृति सबकुछ समय के जिस बोध को विभिन्न स्तरों पर बनाए रखते हैं उसके फलस्वरूप इतिहास के सर्वमान्य समय का स्वीकार सर्वत्र संभव नहीं. जब यह कहा जाता है कि एक ही समय में भारत जैसे देश में अठारहवीं से इक्कीसवीं सदी चल रही है तो कुछ गलत नहीं कहा जाता. आखिरकार, ये सदियां तो एक धारणा ही तो हैं.
यह बात अब लगभग सर्वमान्य हो गयी है कि संपूर्ण इतिहास लिखना संभव नहीं. वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठ इतिहास लेखन के ‘पॉजिटिविस्ट’ दबाव से इतिहास मुक्त हो चुका है और फर्नांद ब्रादेल जैसे ‘टोटल हिस्ट्री’ के हिमायती भी अंतत: स्वीकार करते हैं कि उनकी सबसे बडी समस्या यह रही कि वे यह समझने और समझाने में सफल नहीं हो सके कि समय भिन्न भिन्न गति से आगे बढता है. पाल रिकार (Paul Ricoer) ने ब्रादेल की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक द मेडिटरेनियन , जिसे संपूर्ण इतिहास लेखन का एक उदाहरण माना जा रहा था, अन्य सभी इतिहास पुस्तकों की तरह इतिहासकार के द्वारा समय सापेक्ष वृत्तांत (‘नरेटिव’) ही माना है. 2003 में एक बातचीत में किसी एक अन्य संदर्भ में वे प्रामाणिक इतिहास की संभावना के बारे में कहते हैं कि शायद भविष्य में कोई ऐसा समय आये जिसमें जो लोग किसी घटना से प्रभावित हुए हो वे सब मर जायें और कोई महान इतिहासकार पैदा हो और प्रभावित सभी लोगों का प्रामाणिक इतिहास लिख सके. पर यह समय आज का समय नहीं है. वे यह राय एक ऐसी घटना के सन्दर्भ में दे रहे थे जिसके बारे में असंख्य दस्तावेज़ उपलब्ध थे और जिसके प्रत्यक्षदर्शी जीवित थे.
समय और सत्य के बीच के सम्पर्क की एक अवधारणा का विकास यूरोप में नवजागरणकालीन समय में हुआ जिसका प्रसार कालांतर में विश्व के विभिन्न हिस्सों में हुआ. कुल मिलाकार समय को एक ऐसी काल्पनिक इकाई के रूप में देखा समझा जाने लगा जो हमारे पूरे अस्तित्व को अपने भीतर समेट लेता है. यानि, हम और हमारा पूरा अतीत सबको समय की वृहत्तर चौहद्दी में समेट लिया गया. विज्ञान की जो न्यूटनियन समझ है वह यही है कि भूत और भविष्य के बीच एक ‘सिमेट्री’ है. इस धारणा के हिसाब से सबकुछ एक सनातन वर्तमान (इटरनल प्रजेंट) में विद्यमान होता है. इतिहास इस इटरनल प्रजेंट के एक हिस्से भूत के समय का एक अकादमिक बखान बन कर हमारे सामने आता है. इतिहास समय में कैद है. वैसे तो मानव समाज का पूरा बोध ही समय में कैद है लेकिन इतिहास बोध तो समय की धारणा के साथ पूरी तरह से आबद्ध है ही. इतिहास का यह समय मूलत: एक क्रमिक प्रगतिशील समय है. आधुनिकता का पूरा विमर्श समय की इसी प्रगतिशील धारणा पर आधारित है. मानव समाज के क्रमिक विकास की धारणा पर आधारित समय बोध के सहारे ही इतिहास का ताना बाना तैयार हुआ और पश्चिमी ‘मेटा-फिजिक्स’ का विकास हुआ. यही विज्ञान का युग है, इतिहास का युग है, आधुनिकता का युग है, यही मध्यवर्ग का युग है, यही पूंजीवाद का युग है और यही साम्राज्यवाद और समाजवाद का भी युग है. विभिन्न विचारधाराओं में चाहे जितने भी मतभेद हों, लेकिन समय की इस धारणा को लेकर मतैक्य है. समय मानो पाताल से आसमान तक फैला हुआ एक स्पेस है जिसमें हम अतीत, वर्तमान और भविष्य को बांटकर अपने बोध को तैयार करते हैं. यह स्पेस अगर अनंत हो तो वह आधुनिक बोध की विश्लेषण क्षमता से बाहर हो जायेगा जिसकी गुंजाईश आधुनिक बोध की वैज्ञानिक समझ में नहीं है, अत: इस स्पेस को मापने, बांटने की कोशिश की गई. इस स्पेस को इस रूप में बांटा गया कि आप एच. जी. वेल्श के साथ चल कर ‘टाईम मशीन’ के सहारे सुदूर अतीत से लेकर भविष्य की शताब्दियों की यात्रा कर सकते है!
आधुनिकता की यह जययात्रा बहुत अच्छी तरह से चल रही थी कि अचानक इसे चुनौतियां मिलने लगी और इन्हीं के अस्त्रों से इस जययात्रा की पोल खुलने लगी. इस बात को छोड भी दिया जाए कि धार्मिक स्पेस में समय की इस इकहरी व्याख्या को कभी भी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया गया. भारत जैसे देशों की बात तो छोड ही दें, यूरोप में भी नहीं. लेकिन, प्रगतिशील और निश्चित समय और स्पेस का प्रभाव सारी दुनिया में अठारहवीं, उन्नसवीं और बीसवीं शताब्दियों में बडी तेजी से फैला. हर चीज को मापा, समझा और व्यक्त किया जा सकता है इस आग्रह के साथ ही विज्ञान आगे बढा, आधुनिकता बढी. अगर आज किसी चीज़ को मापा नहीं जा सकता, समझा नहीं जा सकता तो भविष्य में ऐसा किया जा सकेगा यह विश्वास बना रहा. जन्म से मृत्यु, प्रारंभ से अंत सब कुछ विज्ञान हमें समझाने लगा. समय को विज्ञान ने माप लिया, स्पेस को मापने का तंत्र विकसित होता रहा. इस पूरे सन्दर्भ में यह बात बहुत ध्यान में रखने की है कि भारत समेत दुनिया के बडे हिस्से में यह आधुनिक बोध औपनिवेशिक काल में आया और इस बोध के बनने में एक यूरोपीय आरोपण था. जब संस्कृति, इतिहास और समय का बोध बना उस समय इसके बनने के यूरोपीय बोध की भूमिका निर्णायक सिद्ध हुई. इन सबका यूरोपीय पाठ ही स्वीकृत पाठ बना. इस बोध के स्वीकार होते ही यह कहना और मानना शुरू हो गया कि भारत के महान अतीत में कालबोध था ही नहीं और वे इतिहास के महत्त्व से अनभिज्ञ थे. निश्चित तिथि 327 ई. पू. (सिकन्दर के आगमन का वर्ष) मानो भारत में इतिहास का आगमन था. इसके पूर्व का पूरा समय एक तरह से प्राक इतिहास बन गया. लिखित पाठ और समय (क्रमिक अर्थ में) का दबाव इतना अधिक था कि अब भी रोमिला थापर इस बात को लेकर लगातार लिख रही हैं कि प्राचीन भारतीयों में एक तरह का समय बोध था. इसके समर्थन में वे पुराणों के हवाले से बडे सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करती हैं.
हम अगर गौर करें तो देख सकते हैं कि विज्ञान और दर्शन के अलगाव पर ही समय के आधुनिक बोध का आधार तैयार हुआ. विज्ञान की धारणा के पीछे दो आधार हैं- न्यूटोनियन धारणा (जिसका उल्लेख पहले किया गया है) और कार्टेशियन द्वैध (डुआलिज्म). विज्ञान और दर्शन एक थे जिसे इस द्वैध ने अलगा दिया. इस द्वैध ने यह माना कि प्राकृतिक और सामाजिक जगत के बीच एक बुनियादी अंतर है. पदार्थ और मन दोनों की संस्कृति अलग है. एक की प्रकृति ऐसी है कि इसका एक निश्चित ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है. दूसरे तरह का ज्ञान कल्पना पर आधारित माना गया जिसका निश्चित ज्ञान या नियम नहीं हो सकता है. पहले तरह के निश्चित ज्ञान को विज्ञान और दूसरे प्रकार के कल्पना पर आधारित ज्ञान को दर्शन आदि में बांट दिया गया. इसके साथ ही अठारहवीं शताब्दी में ज्ञान का विषयीकरण (डिसिप्लिनराईजेशन) हुआ और विश्वविद्यालय केन्द्रिक अकादमिक ज्ञान का आगमन हुआ. उन्नसवीं शताब्दी में यह भेद और स्पष्ट हुआ. धीरे धीरे ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी , इटली और अमरीका के विश्वविद्यालयों में अर्थशास्त्र, समाज विज्ञान, राजनीति शास्त्र, और अंथ्रोपोलाजी के साथ इतिहास भी समाज विज्ञान के रूप में पढाया जाने लगा. साहित्य का अध्ययन कैसे विश्वविद्यालयों में एक विषय के रूप में आया उसके बारे में यह बतलाना ही काफी है कि ब्रिटेन के विश्वविद्यालय भी बीसवीं शताब्दी के शुरूआती दशकों से ही साहित्य को पढाने लगे. यह जो अकादमिक साहित्य था वह दरअसल साहित्य के आधुनिक बोध से ही संचालित था. इतिहास और साहित्य का अकादमिक ज्ञान शुरू से ही आधुनिक बोध की क्षत्रछाया में रहा.
दर्शन के क्षेत्र में ज्ञान के इस तरह के आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान पर दर्शन के क्षेत्र में लगातार संदेह व्यक्त किया जाता रहा. क्रीकगार्द, नीत्शे, हुर्सेल, हाईडेगर से लेकर फूको और देरिदा तक बहुत सारे दार्शनिकों ने इस तरह की व्याख्याओं की सीमाओं को अपने अपने तरीके से व्यक्त किया लेकिन फिर भी आधुनिक समय के दो विषय- साहित्य और इतिहास ने इन संकेतों को दर्ज तो किया लेकिन उसे आत्मसात करने की कोशिश नहीं की. ज़रूरी नहीं था कि उसे स्वीकार ही कर लिया जाता लेकिन उससे जुडकर, भिडकर अगर साहित्य और इतिहास आगे बढता तो आज जैसे संकट में ये दोनों विषय खडे दिखाई दे रहे हैं वैसे नहीं दिखाई देते. भारतीय सन्दर्भ की बात करें तो समाज इन दोनों विषयों के अकादमिक ज्ञान की अनदेखी करता हुआ ही दिखलाई पडता है. यह एक भयावह स्थिति है. हम धीरे धीरे इतिहास विहीन समूहों में बदलते जा रहे है. ऐसा लगता कि आज साहित्यिक मूल्यों और बोध की हमें शायद ज़रूरत नहीं है. अगर समय और बोध की बहुस्तरीयता का प्रसंग हम उठायें और समाज के भीतर पनपने वाले विविध स्वरों, आकाक्षाओं, स्मृतियों को हम पहचानने की कोशिश शुरू करें तो संभव है कि हम साहित्य और इतिहास की एक अलग और बेहतर समझ विकसित कर सकें. यह लाजिमी है कि इतिहास और साहित्य जैसा है वैसा नहीं रहेगा. यह एक ज़रूरी बात है कि हम सामाजिक स्मृतियों का एक नया संसार अपने इतिहास और साहित्य में आने दें जो हमारी समझ को और व्यापक बनाएगा. अभी जो स्थिति है उसमें हम कहें या न कहें जो इतिहास और साहित्य हम पढते हैं वह दरअसल आधुनिक इतिहास और आधुनिक साहित्य ही है जिसमें आधुनिक समय बोध ही त्रिकालों- भूत, भविष्य और वर्तमान, पर प्रक्षेपित होता रहता है. यह एक कैद आधुनिक समय बोध है जो आधुनिक वर्गों की हित चिंता और विवेक से आगे जाने के लिए तैयार नहीं होता.
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औपनिवेशिक काल के बाद जब विभिन्न जातियों, समूहों और भौगोलिक इकाईयों ने आगे बढ कर अपने इतिहास को ढूँढना शुरू किया तो उन्हें इतिहास में अपना चेहरा दिखलाई नहीं पडा. अब जो नया स्पेस रचा जा रहा था उसमें एक अलग समय, इतिहास और साहित्य की मांग उभर रही थी. ये मांगें भूगोल से, सामाजिक जीवन से उठकर आ रही थी, और इन मांगों को लोकतंत्रीय समाजार्थिक और राजनैतिक व्यवस्था में अधिक दिनों तक परम्परा और इतिहास या साहित्य की शास्त्रीय कसौटी पर रखकर दबाया जाना संभव नहीं था. 1950 के दशक में एक ओर नेतागण और दूसरी ओर साहित्यकार मनुष्य और समाज के बारे में “ झिलमिल बातें” कर रहे थे. इस सन्दर्भ की सटीक पडताल करते हुए एक आलोचक ने लिखा है : “ नेहरू सामंती ढांचे को तोडे बिना, एक आधुनिक पूंजीवादी ढांचे को खड़ा करना चाहते थे, अज्ञेय भारतीय दार्शनिक भाववाद से लडे बिना आधुनिकताबोध , बुद्धिवाद और व्यक्ति स्वातंत्र्य को स्थापित करना चाहते थे. घालमेल की यह कोशिश भारतीय राजनीति और नयी कविता आंदोलन – दोनों ही जगह एक अंतविर्रोधों को एक चकाचौंध द्वारा ढंक लेना चाहती थी.” साठ का दशक भारत में इन तमाम समकालीन सरोकारों को उठाने की कोशिश तो कर रहा था लेकिन उस समय राजनैतिक रूप से सक्रिय ऐसा कोई संगठित तबका नहीं था जो इन मांगों को लगातार बनाए रखे. फिर भी इसमें संदेह नहीं कि मुक्तिबोध, राजकमल चौधरी, धूमिल, नागार्जुन आदि कवि जिन तीखे सवालों को उठा रहे थे वे पिछले काल-खंड में कम ही उठाए गये थे. रेणु के उपन्यासों में मैला आँचल, परती परिकथा, सतीनाथ भादुडी का ढोराई चरित मानस आदि उपन्यास कुछ ऐसे उदाहरण दिए जाते हैं जो चालीस और पचास के दशक के दस्तावेज हैं, लेकिन गौरतलब है कि रेणु का ही जुलूस और दीर्घतपा कुछ नई बातों की ओर भी ले जा रहे थे. ये नये समय के समकालीन सवालों के दस्तावेज बने दिखलाई पडते हैं. राजकमल चौधरी की लम्बी कविता की बेचैनी को उस दशक का सबसे प्रतिनिधि स्वर माना जा सकता है. यह वह समय था जब एक नया पर्सपेक्टिव बना जिसे हम सुविधा के लिए साठ का पाराडाईम कह सकते हैं. सारी दुनिया में एक नये तरह का सोच अपने अपने हिसाब से बदल रहा था. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के वर्षों में वैचारिक मंथन का एक दौर शुरू हुआ. विश्व युद्ध का प्रभाव तो था ही साथ ही वामपंथी खेमों में भी 1956 से सोवियत रूस के राजनैतिक आचरण से बहुत असुविधा होने लगी थी. इसी दौर में बडी संख्या में वामपंथी बुद्धिजीवी कम्युनिस्ट पार्टी छोडकर वाम के नये विजन की ओर अग्रसर हुए. ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी से जुडे इतिहासकार पार्टी छोडकर हट गये और वाम के नये विजन की खोज करने लगे. पैरी एंडरसन और एडवर्ड थामसन ऐसे ही इतिहासकारों में थे. न्यू लेफ्ट रिव्यू और हिस्ट्री वर्कशाप इसके बाद अस्तित्व में आये.
भारत में 1950 के दशक का इतिहास उपेक्षित रहा है. यह जांच का विषय है कि कैसे साठ के दशक में भारतीय समाज में लोकतांत्रीकरण की एक नयी प्रक्रिया ने हमारे समाज में ‘नया समय’ तैयार किया. आदर्शों के नवीकरण के इस युग में समकालीन सवालों से नये सोच के साथ संवाद शुरू हुआ. साहित्य में नये स्वर आये जो समाज के विभिन्न सवालों से नये प्रकार के सोच के साथ संवाद कर रहे थे. राजनीति में यह वह दौर था जब जाति का प्रश्न जोर पकडने लगा, अंग्रेजी विरोध बढने लगा था और कांग्रेस के सामने अब ऐसी पार्टियां मुकाबले में खडी हो रही थी जो क्षेत्रीय, सामुदायिक स्पेस को लेकर लामबंदी कर रही थी. हर समय के पाराडाईम की तरह इस 1960 के दशक के समय में भी बहुत भिन्न भिन्न शक्तियां सक्रिय थीं लेकिन कुल मिलाकर ये सभी शक्तियां इस नये समय में नये सवाल खडे कर रही थीं. इस समय के राजनीतिज्ञ, साहित्यकार और इतिहासकार पिछले समय (जिसे मोटे तौर पर 1920 के दशक के पाराडाईम में देखा जा सकता है) से गुणात्मक रूप से भिन्न थे. ये अपने समय और समाज को भिन्न तरीके से देख रहे थे.
अस्सी और नव्बे के दशक में परिस्थितियां और बदलीं और समाज में उन शक्तियों का प्रभुत्व बढा जिसे 1960 के दशक के दौर में उभरने का मौका मिला था. मंझोली जातियों का जो राजनैतिक उभार साठ के दशक में होना शुरू हुआ वह अब राजनैतिक मुख्यधारा को नियंत्रित करने लगा. साथ ही दलितों का उभार होने लगा और एक तरह से नये सोच का विकास होने लगा. यह वही दौर है जब इतिहास लेखन में सबाआल्टर्न धारा ने सबाआल्टर्न आवाजों को इतिहास के अध्ययन के केन्द्र में ला खड़ा किया. हिन्दी साहित्य में इस अंतर को हम सबसे अधिक हंस पत्रिका और राजेन्द्र यादव के उदाहरण से समझ सकते हैं. हंस किसी भी तरह से एक श्रेष्ठ साहित्य पत्रिका नहीं थी और इसके संपादक राजेन्द्र यादव लगभग एक चुके हुए साहित्यकार थे. लेकिन चूंकि हंस ने नयी आवाजों को सहानुभूतिपूर्वक अपने यहां जगह दी और इसे एक खुला मंच बनाया यह हिन्दी जगत की सबसे महत्त्वपूर्ण पत्रिका बन गयी. राजेन्द्र यादव में चाहे जितनी भी कमियां हों लेकिन वे इन नयी आवाजों के एक नये नेता के रूप में उभरे. खुद राजेन्द्र यादव का जो रचनात्मक संसार है उसे देखने से साठ के दशक के पाराडाईम और बाद के समय (जिसे हम नव्बे के दशक का पाराडाईम कह सकते हैं) के बीच के अंतर को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं. यादव के कथा साहित्य में साठ का दशक बोलता है. लेकिन उनके संपादकीय में बाद के समय के सरोकार प्रभावी हैं.
इन दोनों समयों ने औपनिवेशिक युग के नवजागरण, परम्परा बोध और इतिहास बोध से थोडा अलग होकर अपने जीवन और भूगोल से अपने वर्तमान की चुनौतियों को स्वीकारा था. साठ के दशक की तुलना में बाद के समय – नव्बे का दशक इन दबावों से ज्यादा मुक्त समय और स्पेस को लेकर चल रहा था.
इस सन्दर्भ में विभिन्न जातियों के अपने इतिहासों के इतिहास का प्रसंग लाना भी उचित होगा. जिसे हम निम्न जाति का इतिहास कहते हैं वे 1920, 1960 और 1990 के दशकों में भिन्न भिन्न प्रकार से लिखे और माने गये थे. पहले निम्न जातियों ने अपने इतिहासों को इस तरह से लिखा कि उन जातियों को इतिहास के आधार पर श्रेष्ठ दिखलाया जा सके. बाद में इन इतिहासों की श्रेष्ठता के बोध को बचाते हुए समाज में अन्यायपूर्ण तरीके से पीछे किए जाने के कारण उनके आरक्षण पाने को सही करार दिया गया. बाद में इन इतिहासों को ही सही मानने की प्रवृत्ति सामने आयी. इन इतिहासों की खास बात यह है कि यहां भूत और वर्तमान मिले हुए थे. उपेक्षित समुदायों के पास अपने किस्म का आंतरिक इतिहास था उसे कोई भी इतिहास मानने को तैयार नहीं था. सिर्फ वही उसे मान रहे थे जो उनके अपने स्वजातीय लोग थे. जैसे जैसे इन उपेक्षित जातियों का राजनैतिक सामाजिक प्रभुत्व बढा इन इतिहासों को मानने वाले बढने लगे!
उत्तर औपनिवेशिक भारतीय समाज के इतिहास और साहित्य को समझने की एक दृष्टि यह हो सकती है कि इसे दो ‘शिफ्टों’- 1960 और 1990 के दशक के शिफ्टों को ध्यान में रखकर देखें. हाल में कुछ युवा और समकालीनता से जुडने का आग्रह दिखाने वाले आलोचकों ने इसे रेखांकित किया है. साहित्य का नया सौंदर्य शास्त्र नामक पुस्तक में शामिल आलोचकों के लेखों के आधार पर यह कहा जा सकता है. इस पुस्तक की भूमिका में संपादक ने इस शिफ्ट को मंडल कमीशन के बाद उभरे दलित साहित्य और क्षेत्रीय आन्दोलनों की राजनीतिक प्रक्रियाओं एवं सामाजिक संघर्षों को इसके लिए महत्त्वपूर्ण माना है.
बद्रीनारायण ने इस प्रसंग में समय की सामाजिक निर्मिति का एक प्रसंग तैयार किया है जिसमें वे फेबियन के हवाले से इस बात पर बल देते हैं कि हम एक ही समय में रहते हुए अनेक समय स्पेस में जीते हैं. यहां नोट करने की बात है – “ रहते हुए” और “ जीते” का प्रयोग. भाषा का यह प्रयोग हमें अनायास हाईडेगर के ‘बीईंग’ से जोडता है. इस महान दार्शनिक ने 1926 में लिखी अपनी पुस्तक में ‘अस्तित्ववाद’ की एक नई व्याख्या प्रस्तुत की थी. वे मानते थे कि हमारी ‘होना’ चलती चाक पर फेंक दिए गए मिट्टी के लोंदे के होने जैसा है जो जन्म और मृत्यु के दो बिन्दुओं के बीच ‘होता’ है. यह ‘होना’ ही ‘जीना’ है. अगर इस बोध को रचनात्मक स्तर पर लिया जाए तो आधुनिक बोध को ठेस लगेगी. प्राक आधुनिक रचनात्मकता इससे एक सम्पर्क भले ही बना ले. हाईडेगर ‘बीईंग’ और ‘ट्रुथ’ के बीच जिस तरह बात को रखते है उससे किनारा करके साहित्य और इतिहास निकल सकते हैं लेकिन साठ के दशक के उत्तर-संरचनावादियों (विशेष कर फूको और देरिदा) की अनदेखी करना साहित्य और इतिहास दोनों के लिए मुश्किल है. यह दिलचस्प है कि साठ का दशक कई मायनों में विभाजक रेखा के रूप में उभरता है. उत्तर साम्राज्यवादी यूरोपीय देश और उत्तर औपनिवेशिक भारत दोनों के लिये साठ का दशक युगांतकारी परिवर्तनों को रेखांकित करता है. यह वह दौर है जो फ्रांस में अल्थूसेर को (या फूको को) महान सार्त्र से और भारत में राममनोहर लोहिया को महान नेहरू से अधिक समकालीन बनाता है. शायद यह कहना सही होगा कि इस काल खंड के ‘एपिस्टेमा’ के लिए नये समकालीन नायकों की ज़रूरत थी. यह दिलचस्प है कि फूको इस दौर में सार्त्र को दार्शनिक मानने को भी तैयार नहीं थे ! फूको की एक और उक्ति तो और भी चौंकाने वाली है जिसमें वे मार्क्सवाद को उन्नसवीं शताब्दी के तालाब की मछली मानते हैं !!
इतिहास लेखन के क्षेत्र में भी 1960 के दशक में गुणात्मक परिवर्तन हुए जिसकी चर्चा बाद में की जाएगी.
हिन्दी में साहित्य इतिहास से मीलों आगे रहा है. हिन्दी समाज में इतिहास लेखन की जो परंपरा 1947 के पहले थी वह आधुनिक इतिहास लेखन के प्रभावशाली होने के साथ ही खत्म हो गई. आज हिन्दी में इतिहास लिखने वाले कुछ अपवादों को छोडकर अंग्रेज़ी आधुनिक इतिहास लेखन के भोदे अनुवाद भर हैं. बाद के दो दशकों में भारतीय समाज में जो बदलाव आये वे 1960 के दशक के कालखंड के विस्तार और 1990 के निर्णायक दशक की पूर्व पीठिका के रूप में देखे जा सकते हैं. 1990 में जो ‘पाराडाईम शिफ्ट’ हुआ उसने सारी दुनिया में एक नये बोध को जन्म दिया. इस नये बोध को बहुत सारे लोग विचारों की दुनिया में उत्तरआधुनिकता की विजय के रूप में देखते हैं. यह सही भी है और गलत भी. आधुनिकता वादी विमर्श को चुनौती देने वाले दार्शनिकों, चिंतकों को एक साथ रखकर उत्तरआधुनिक कहने के कारण सभी उत्तरसंरचनावादी चिंतकों को उत्तरआधुनिक कह दिया जाता है. अगर इस विभाजन को मान लिया जाए तो यह सही है कि 1990 के दशक ने उत्तरआधुनिकतावादियों को सही प्रमाणित कर दिया. लेकिन, यह गलत विभाजन है. आधुनिकतावादी सर्वग्रासी आख्यान की सीमाओं को चिह्नित करने वाले चिंतक विभिन्न दिशाओं से आए थे और उनमें से बहुत सारे चिंतक मार्क्सवादी थे. कम से कम फ्रेंकफुर्त स्कूल के दिनों से होर्खाईमर, अडोर्नो इत्यादि चिंतक आधुनिकता के दबावों की तार्किक प्रस्तुतियां पेश कर रहे थे और मार्कूज़ के वन डाईमेंशनल मैन तक के इस सफर को किसी भी तरह से संरचनावादी और उत्तर संरचनावादी आन्दोलनों से सीधे सीधे जोडना ठीक नहीं. खुद फूको और देरिदा अपने को उत्तर आधुनिक नहीं मानते. इस सन्दर्भ में भारतीय चिंतक आशीष नंदी का जिक्र किया जा सकता है. लोग उन्हें भी उत्तरआधुनिक मानते हैं जबकि वे खुद को एंटी माडर्निस्ट कहलाना पसंद करते हैं. सबाअल्टर्न इतिहास धारा से जुडे तमाम इतिहासकारों को उत्तर आधुनिक कहना सही नहीं है. इस प्रकार 1990 के दशक ने किसी उत्तर आधुनिक धारा की विजय को चिह्नित नहीं किया. हां, यह कहना उचित होगा कि विश्वराजनीति और विचारधारा के दो ध्रुवों में से एक ध्रुव – समाजवादी राज्य सोवियत के पतन ने इतिहास की प्रगति को धक्का पहुंचाया. बोद्रिला ने लिखा कि बीसवीं सदी के अंतिम दशक में ‘इतिहास अपने कक्ष (आर्बिट) से छिटक गया है’. वे इस दौर में एक और रोचक टिप्पणी करते हैं कि अब यथार्थ (रीयलिटी) की जगह आभासी यथार्थ (वर्चुअल रियलिटी) ने ले ली है और यही लोगों को निर्देशित करती है. यानि लोग सच की जगह माने हुए सच को महत्त्व देंगे. इस सच को मनवाने के जितने अस्त्र है (यथा- मीडिया) वे सब अब अर्थ के उत्पादन, उसके प्रसारण और उसके विलुप्तीकरण की प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं.
इस ओर कम ध्यान दिया जाता है कि नव्बे के दशक में जो ‘शिफ्ट’ हुआ उसके लिए 1980 के दशक के वे तमाम तरह के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिवर्तनों ने निर्णायक भूमिका अदा की जिसके फलस्वरूप एक नये किस्म का समाज पूरी दुनिया में बनने लगा. याद किया जाना चाहिए कि 1984 के बाद जब भारत जैसे देश के युवा प्रधानमंत्री ने नये भारत की तस्वीर रखी तो एक नये प्रकार का मंथन इस देश में भी शुरू हुआ. कम्प्यूटर का आना, रीबॉक के जूते और रे बेन के चश्मे को पहने भारत के प्रधानमंत्री का एक नये प्रकार के लोगों को देश के भविष्य की रूपरेखा तैयार करने के लिए आमंत्रण आदि कुछ ऐसी बातें लोगों को याद होंगी जिसने इस देश में एक नये प्रकार का समाजार्थिक परिवेश तैयार किया. यह वही दौर था जब इस देश में नवधनाढ्यों का जोर बढा और बडी संख्या में लोग शेयर बाजार की ओर बढे. यह एक नये समय के आने का दौर था जिसमें गांधी-नेहरू तो दूर इंदिरा गांधी भी पुरानी लगने लगी थीं. अब कईयों को लगने लगा कि असली आज़ादी तो अब आयी है जब हमारे समाज से लालफीताशाही और समाजवादी दुराग्रहों से मुक्ति मिली. अब तेजी से एक नया वर्ग उभरा जिसके बारे में पवन वर्मा और गुरूचरन दास जैसे लोगों ने बहुत विस्तार से लिखा है. इस सम्बन्ध में सबसे अच्छी तरह से विचार करने वालों में अशोक मित्र का नाम उल्लेखनीय है जो हर्षद मेहताओं के उभरने के युग में इस प्रक्रिया के अंतर्विरोधों को समझ रहे थे. यह तो मानना ही पडेगा कि 1984 से 1991 के बीच भारतीय सोच में एक गुणात्मक बदलाव आया. जयप्रकाश ने सही लक्षित किया है कि “ इस दौर में उदारीकरण और वैश्वीकरण की शक्तियां हमारे समाज में दाखिल हुईं और उन्होंने यथार्थ का अन्यथाकरण – उसमें तोडफोड करना शुरू कर दिया. अब प्रतिबद्धता की बनिस्पत समाज सजगता बड़ा काव्यमूल्य बन गई.” चूंकि इस दौर में ही चीन में तियनमन स्क्वायर की घटना, सोवियत रूस समेत पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों में काबिज समाजवादी शक्तियां धराशायी हुईं और ऐसा लगा कि सारी दुनिया का जो चेहरा था वह बदल गया है. अब सब ओर उदारनीतिकरण को ही एकमात्र विकल्प बनाया गया. आप चाहे या न चाहे वैश्वीकरण के इस नये दबाव के चलते अब आपको बाजार के सामने राज्य को छोटा नियामक मानना होगा और तेजी से विकास करना होगा ताकि लोग खुल कर जी सकें और स्वतंत्रता का उपभोग कर सकें . सारी दुनिया एक होने वाली है, सीमाएं टूटनी चाहिए और अब बस सबकी प्रगति तय है. ऐसे नये समय के सबसे बडे प्रतीक के रूप में हम बर्लिन के दीवार को गिरते हुए देखने लगे.
जाहिर है, इन व्यापक परिवर्तनों का प्रभाव सोच पर भी हुआ. गौर से देखा जाए तो ये परिवर्तन अब उतने अप्रत्याशित नहीं लगते जितने तब लगे थे. जिस समय से रीगन और मार्ग्रेट थैचर के बीच एक समझौता हुआ और पूंजीवादी अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों ने बाजार के सामने राज्य के छोटे होने को ‘टिना’ (देयर इज नो अल्टरनेटिव) के सिद्धांत के तहद स्वीकृति दे दी समाजवादी शक्तियों के लिए नये समय में विश्वबाजार से जुडने की बाध्यता बढने लगी. देखा जाए तो पेरेस्त्रोईका के आने के बाद समाजवादी विश्वव्यवस्था को तिलांजलि दे दी गयी. समाजवादी व्यवस्था के अपने अंतर्रविरोधों की अनदेखी करना उचित नहीं लेकिन सोवियत रूस आदि के पतन के कारण वैश्विक संकट में भी अंतर्निहित हैं इसमें संदेह नहीं.
यह आकस्मिक नहीं है कि फुकोयामा की ‘इतिहास के अंत’, को व्यापक स्वीकृति इसी दौर में मिली और वैश्विक पूंजी के वर्चस्व के इस दौर में एक नया समय उभरा जिसे कुछ लोग उत्तर आधुनिक समय कहते हैं, कुछ लोग यथार्थ से आभासी सत्य की ओर बढने का युग कहते है और कोई इसे विखंडन का युग मानते हैं –ऐसा युग जिसमें ‘टेक्स्ट’ और ‘कांटेक्स्ट’ के बीच का सम्पर्क बदल गया, सत्य (यथार्थ) और सत्यों (आभासी यथार्थ) के बीच एक अनिर्णीत लड़ाई का दौर शुरू हो गया. यह एक नया युग था जब अपनी अपनी बात को लेकर चीख पुकार करने वालों का दौर अचानक शुरू हो गया. हिन्दी में एक प्रचलित कहावत है- ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ . यह मानों नये युग को ‘सम अप’ कर रहा हो. यानि जिसके पास शक्ति उसके पास सत्य!
भारत में यह दौर बहुत ही दिलचस्प और निर्णायक सिद्ध हो रहा है. चीज़ें इस तरह से उलट पुलट गयी हैं कि वर्तमान तो नये समय की लाठी नियंत्रित कर ही रही है यह उन तमाम धारणाओं को भी उलट कर देख रही है. इस नाजुक दौर में, भारतीय भाषाओं में लिखने वाले रचनाकारों ने निश्चित ही नये भाव बोध की रचना की है. बांग्ला की लेखिका महाश्वेता देवी को पहले श्रेष्ठ रचनाकार नहीं माना गया किंतु इस बदले हुए समय में जिस तीव्रता से उनके पात्र अपने समस्त आवेग से उपस्थित होते हैं उसे अनदेखा किया नहीं जा सकता . सामाजिक –सांस्कृतिक संक्रमण की प्रक्रिया की पीडा को ‘शनीचरी’ कहानी में जिस तरह व्यक्त किया गया है उसकी ओर हिन्दी के आलोचकों का ध्यान गया है. नामदेव ढसाल की कविता ‘ डा. आम्बेडकर 1986’ में इन पंक्तियों को देखें- “ ... मैं जानता हूं हो गया है मेरे युग का सवेरा/...अब हमारे दरवाजों के सामने झूलते हैं सफेद हाथी/...नये इतिहास की रचना होगी/... पानी की एक एक दीवार टूट रही है/मुझे होने दे तेरे सभी बच्चों में से सबसे सुंदर /... इंतजार कर रहा हूं तुम्हारे आदेश का / अब इस/ ज्वालामुखी की बेल को कहां लगाऊं मैं?’
इन परिवर्तनों के बीच यह स्वाभाविक है कि इतिहास लेखन का स्वरूप भी प्रभावित हुआ है. इतिहास लेखन की दो धाराएं रही हैं- प्रथम धारा के अंतर्गत जो इतिहास लेखन होता है उसमें इतिहास तथ्यों की प्रामाणिक उपस्थिति को महत्त्व देकर ऐतिहासिक रूप से मान्य सत्य का वृत्तांत तैयार करता है. दूसरी धारा के अंतर्गत इतिहास लेखन को एक प्रकार के लेखन के रूप में देखा जाता है जिसमें एक प्रकार का सच निकल कर आता है जिसे इतिहासकार प्रतिष्ठित करना चाहता है. जिस तरह का समय 1990 में उपस्थित हुआ उसमें दूसरी तरह की धारा ज़्यादा लोकप्रिय सिद्ध हो रही है. लोग इतिहास की जगह इतिहासों में दिलचस्पी दिखा रहे हैं और एक नये प्रकार के समय बोध के साथ इतिहास लेखन हो रहा है. यह सब कुछ इतना ज़्यादा हो रहा है कि आलोचक कहने लगे हैं कि इतिहास पर अब अकादमिक इतिहासलेखकों का एकाधिकार समाप्त हो रहा है और अब अधिकतर इतिहास ऐसे लोग लिख रहे हैं जो इतिहासकार के रूप में विश्वविद्यालयों में दीक्षित नहीं हैं.
साहित्य में भी इसी तरह के संकेत मिल रहे हैं. साहित्य के क्षेत्र में शास्त्रीयता के दबाव के साथ जो कुछ लिखा समझा जा रहा है वह कुल मिलाकर “गिरोहों का आंतरिक संवाद” ही है. आलोचना तो छोड ही दें रचनात्मक विधाओं में भी ताजगी का अभाव है. यह संकट सिर्फ हिन्दी का नहीं है. जब तक यह समझा नहीं जायेगा कि दुनिया आधुनिकता के आग्रहों से बहुत आगे निकल चुकी है लोग लकीर के फकीर ही बने रहेंगे. आप किसी भाषा के विद्वानों का एक सर्वेक्षण करें जिसमें कुछ लोग 60-65 के हों और कुछ लोग 40-45 के. आप देखेंगे कि वरिष्ठ लोग एक ही तरह की बातें, एक ही तरह के विचार और एक ही तरह के लोगों की पैरवी कर रहे होंगे और उन्हें सर्वत्र घोर पतन दिखलाई दे रहा होगा. दूसरी और 40-45 के समूह के लोग ज़्यादा समकालीन सवालों को उठा रहे होंगे और उनकी बातें एक सी नहीं होंगी. परम्परा और शास्त्रीयता के डंडे से इन नये लोगों को पीटने वाले लोगों में अद्भुत किस्म का एका होता है. और कुछ नहीं तो पात्रता का प्रश्न उठाकर, नये लोगों को हडबडी में बताकर यह कहने का अधिकार तो ये वरिष्ठ ले ही लेते हैं कि आजकल लोग तपस्या करने के लिए तैयार नहीं हैं, उन्हें तो बस जैसे हो फौरन ही फल मिलना चाहिए. दस बरस जाने दीजिये, ये जो कम शास्त्रीय समकालीन लोग हैं वे ज़्यादा सही लग रहे होंगे. यह अकारण नहीं है. दरअसल, 1990 के दशक ने विचारधारा के दबाव को कम किया, समाज में नये स्वरों को वैधता प्रदान की और शास्त्रीयता और परम्परा के दबावों को भी कम किया. यह एक तरह से नये युग की शुरूआत थी. यह हमारे विचार का एक मुद्दा होना चाहिए कि आज जो लोग हिन्दी में सबसे समकालीन सरोकारों को साहित्य में स्वर प्रदान कर रहे हैं उन्हें “ठीक से” हिन्दी लिखने नहीं आती, वे व्याकरणगत अशुद्धियां करते हैं.
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अब इतिहास के सन्दर्भ में 1960 और 1990 के दशक को दूसरे तरह से देखने की कोशिश की जाए. यह पहले भी कहा गया है कि 1960 के दशक में इतिहास लेखन के क्षेत्र में एक गुणात्मक परिवर्तन हुआ था. यह परिवर्तन दो स्तरों पर देखा जा सकता है. संरचनावादी और उत्तर संरचनावादी प्रभाव के कारण जो सोच में एक गुणात्मक परिवर्तन हुआ वह तो बहुत विश्लेषित है, लेकिन भारत जैसे देश में उच्च शिक्षा का जो विस्तार हुआ उसकी ओर कम ध्यान दिया जाता है. अचानक कालेज विश्वविद्यालयों की बाढ सी आ गयी और इन विश्वविद्यालयों में साहित्य और इतिहास को पढने-पढाने वाले लोग इतने बढ गये कि उच्च शिक्षा का मान कम हो गया. न तो उतने उच्च शिक्षित और दक्ष अध्यापकों की फौज तैयार थी और न ही सुचारू रूप से यह कोशिश की गई कि अध्ययन –अध्यापन का पूर्ववर्ती मान बना रहे. उच्च शिक्षा के नये केन्द्र बनने लगे, राजनैतिक हस्तक्षेप बढने लगा और एक तरह से उच्च शिक्षा का लोकतांत्रीकरण हुआ. भारत में इस तरह के लोकतांत्रीकरण की सराहना भी हुई और इससे हुए परिवर्त्तनों को रेखांकित भी किया गया. पार्थसारथी गुप्ता के शब्दों में 1966 में लिखे इस मूल्यांकन को देखें:
“ भारत के आज के अकादमिक स्तर और विद्वता के मान को देखने पर हमें यह मानना पडता है कि संख्या के विस्तार के एवज में और गैर अकादमिक दबावों के कारण गुणवत्ता की बलि दी गयी है.”
इस तरह के विकास सिर्फ भारत जैसे देशों में ही नहीं हुए बल्कि दुनिया के तमाम देशों में उच्च शिक्षा के केन्द्रों की संख्या में बहुत बढोत्तरी हुई. यह वह दौर था जब पुराने दौर के महान लोगों को लगता था कि अब ‘मीडियाक्रेसी’ का युग आ गया है. जिन लोगों ने 1920 के दौर में अपनी ट्रेनिंग पायी थी उनके लिए 1960 का दशक मीडियाकरों द्वारा नियंत्रित था. यह कितना अजीब लगता है कि हाइडेगर चिंतन के क्षेत्र में 1960 के दशक में सर्वत्र मीडियाक्रेसी के वर्चस्व से बहुत व्यथित होते थे! यह बात और है कि 1960 के दशक के बौद्धिक हस्तक्षेप को आज बहुत मान दिया जाता है जिसने सोच की दुनिया में दो टर्न- दार्शनिक और लिंग्विस्टिक को जन्म दिया. पूरा आधुनिक बोध, इतिहास, विज्ञान, साहित्य सबकुछ संदेह के घेरे में आ गया और पुनर्विवेचन की मांग करने लगा. यह युगांतकारी दशक था. कुछ मायनों में यह पूर्व के युग का रचनात्मक विस्तार था; आखिर फूको, देरिदा इत्यादि लोग हाइडेगर की धारणाओं को ही और पुष्ट कर रहे थे. फिर भी, 1960 के इस युग से पूर्ववर्ती युग के नायकों को बहुत सारी शिकायतें रही. कोई जरूरी नहीं है कि संरचनावादी, उत्तरसंरचनावादी ‘उत्तरआधुनिक’ विमर्शों के विचारों को स्वीकार कर लिया जाए लेकिन इन वैचारिक प्रयासों में ऐसा बहुत कुछ था जो नये समय के सवालों से जुडने के लिए साहित्यकारों और इतिहासकारों के लिए उपयोगी हो सकता था. मार्क्सवादी आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने 1992 में इस विषय पर अपने एक साक्षात्कार में बडी गहराई से विचार किया था. दुर्भाग्य से इस तरह से इस विषय पर सोचा नहीं गया. हिन्दी में इस विषय पर जो स्थिति है उसके बारे में राजेश्वर सक्सेना का कथन है: “ हिन्दी के वर्तमान परिदृश्य पर उत्तर आधुनिक की छाया मंडरा रही है और हिन्दी जगत इसे नहीं समझ पा रहा है.”
भारत में इतिहास लेखन में 1960 का दशक तो और भी महत्त्वपूर्ण है. इसी दौर में सही मायने में आधुनिक भारतीय इतिहासलेखन का एक मुकम्मल ढांचा तैयार हुआ. रामशरण शर्मा, इरफान हबीब, बिपनचन्द्र जैसे लोग नये महान इतिहासकारों के रूप में जाने जाने लगे. अगर रोमिला थापर, सुमित सरकार आदि को जोड लिया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अगले दो तीन दशकों तक जो अकादमिक इतिहास लेखन की मुख्य धारा रही उसके निर्माताओं ने 1960 के दशक में दीक्षा ली थी.
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इतिहास लेखन के क्षेत्र में कुछ नये सवाल उभरे. चिंतकों को लगने लगा कि संस्कृति का प्रश्न भी इतिहासलेखन का एक बड़ा सरोकार होना चाहिए. फ्रांसीसी इतिहास लेखन की सबसे शक्तिशाली धारा- एनाल्स स्कूल ने भी 1960 के आसपास अपने सरोकारों को परिवर्त्तित किया. जिसे एनाल्स स्कूल की तृतीय धारा कहा जाता है उसे मेंटलिटी इतिहासकारों की धारा भी कहा जाता है. अब फर्नांड ब्रादेल और लेबरास के भौगोलिक आर्थिक इतिहास की जगह पर दूबी, लादुरी, फिलिपे एरिस इत्यादि का प्रभाव ज़्यादा होता दिखलाई पडता है जो छपाई, पुस्तक, बचपन, मृत्यु, विवाह जैसे विषयों का इतिहास लिख रहे थे. इन इतिहासों में पारंपरिक ऐतिहासिक स्रोतों के स्थान पर लोक स्मृति, लोक-विश्वास, मौखिक इतिहास के तमाम तरह के नये स्रोतों को लाया गया था. यह एक नया युग था. फिल्मों में भी इस दौर की फिल्में आधुनिकता के दबावों से मुक्त होने की छटपटाहट दिखला रही थी. इंगमार बर्गमैन की उस फिल्म के उस दृश्य को याद करें जिसमें फिल्म का नायक मृत्यु के देवता के साथ समुंदर के किनारे शतरंज खेल रहा है. सत्तर के दशक में कार्लास चिपोला की अमर फिल्म ग़ाडफादर ने तो मानो आदर्शों का नवीकरण ही कर दिया. इस फिल्म को विशेषज्ञों ने तीस के दशक की क्लासिक कृति ग़ान विद द विंड का सत्तर के दशक का ज़वाब माना. यह वही दौर था जब अडार्नो जैसे लोग संस्कृति उद्योग पर विचार कर रहे थे और ज्ञान के उत्पादन की प्रक्रिया को समझने की कोशिश कर रहे थे. यह नये समय और नये मूल्यों के निर्माण का काल था.
इन परिवर्तनों से लगभग अनभिज्ञ रहकर भी एक किस्म का ज्ञान महत्त्वपूर्ण बना रहा जो परम्परा और प्रगतिशीलता का एक ऐसा पाठ तैयार कर रहा था जो तत्त्वत: ‘इक्लेक्टिक’ था लेकिन वह बाहर से वामपंथी था. हिन्दी के सन्दर्भ में यह परंपरा और प्रगतिशीलता का एक मिला जुला पाठ था जो हर शिफ्ट को नकारने की कोशिश करता था. साठ के दशक में रामविलास शर्मा की अस्तित्ववाद पर लिखी एक पुस्तक इसी तरह की पुस्तक थी जो 1960 के दशक में 1920 और 1930 के दशकों के बोध को लेकर चल रही थी. उन तमाम पाठकों के लिए जो शिफ्ट के लिए तैयार नहीं थे यह एक असाधारण पुस्तक है और जो साठ की समकालीनता के साथ थे उनके लिए यह पुरानी पड चुकी ( डेटेड) किताब थी. दुर्भाग्य से 1990 के शिफ्ट को रेखांकित करने का वैचारिक प्रयास हिन्दी में देखने में नहीं आया है. कुल मिलाकर 1990 के शिफ्ट को हिन्दी में दर्ज करने की कोशिश नहीं होती है. कुछ आलोचक इस शिफ्ट को अमरीकी साम्राज्यवादी षडयंत्र मानते हैं और थियरी के आने को, फ्रेगमेंट्स की चर्चा को सोवियत रूस के पतन के साथ जोड कर देखते हैं. उनके लिए यह शिफ्ट एक प्रायोजित विमर्श है जो अमरीकी पैसे से चल रहा है. सबआल्टर्न इतिहास चर्चा से लेकर एडवर्ड सईद तक सब के सब अमरीकी सहयोग से नकली विमर्श तैयार कर रहे हैं ! इस तरह की सोच डेटेड है और 1990 के दशक को समझने के लिए नाकाफी है.
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यदि यह मान लिया जाए कि 1990 के समय के नये प्रश्नों के सन्दर्भ में नये साहित्य और नये इतिहास की जरूरत है तो दो प्रश्न उठते हैं- प्रथम, ये नये प्रश्न किस प्रकार के हैं और द्वितीय, नये प्रश्नों से जुडने के लिए किस तरह की बौद्धिक प्रविधि की जरूरत है. यह प्रस्तावित करना गलत नहीं होगा कि 1990 के दशक में समय गुणात्मक रूप से बदला है. कुछ लोग इसे समाजवादी स्वप्न के अवसान के बाद सारी दुनिया में छाए वैचारिक बेचैनी में वित्तीय पूंजीवाद और सैन्यवाद के विजय की शताब्दी मानते हैं जिसने सारी दुनिया में अमरीकी पूंजी का वर्चस्व कायम करना शुरू किया. इस दृष्टि से अब दुनिया के तमाम समय और सभ्यताओं को सर्वशक्तिमान अमरीकी समय और सभ्यता के साथ कदमताल करना था वरना उसका हश्र वही होगा जो अफगानिस्तान, इराक आदि का हुआ और ईरान का हो सकता है. अब इस ग्लोबल समय में सबकुछ को बदलना है, पुराने आदर्शों को टूटना है, समाज के ढांचे को बदलना है और नये ग्लोबल समाज की नींव रखी जानी है. पूरी दुनिया में पिछले दशकों में शहरीकरण तेज हुआ है, कृषि की तुलना में उद्योगों पर ज्यादा बल दिया जाने लगा है और बडी मात्रा में लोगों के अपने पूर्ववर्ती स्थानों से नयी जगहों पर जाना हुआ है. बेनेडिक्ट एंडरसन कहते हैं कि कुछ समय पहले तक किसी देश के नागरिक के लिए उसका पहचान पत्र राशन कार्ड हुआ करता था, अब पासपोर्ट हो गया है. इस बदले हुए समय में अपनी मिट्टी, अपने गांव, अपने शहर, अपनी भाषा जैसे प्रश्नों और आदर्शों को चलने वाले समय को ग्लोबल समय से ताल मेल बैठाना होगा. यह वह समझ है जिसने हमारे देश में एक अद्भुत दृश्य हमें दिखलाया जो हमारे इस संकट के समय में हुए परिवर्तनों को समझने में सहायक हो सकता है. पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने जिसने ‘पिछले समय’ में किसानों के लिए संघर्ष का एक इतिहास रचा था अपने यहां एक पूंजीपति के कार बनाने वाली कम्पनी की खातिर किसानों पर बर्बरता से गोली चलवायी. पूरे देश में इस घटना ने खलबली मचाई और वामपंथियों के बीच एक बडी बहस को जन्म दिया. सुमित सरकार जैसे इतिहासकार और महाश्वेता देवी जैसे साहित्यकारों ने जिन शब्दों में वामपंथी सरकार की आलोचना की वह सबको पता है. आखिरकार इस समय में वामपंथी क्या करें? इस संकट से निकलने का एक राजनैतिक समाधान यह ढूढा गया कि मायावती के बहुजन समाज के साथ गठबंधन कर लिया जाए. एक वामपंथी और एक दलितवादी पार्टी के बीच के इस गठबंधन को कैसे देखा जाए? यह नया समय है.
दूसरी ओर यह स्पष्ट हो चला है कि पूंजीवाद अब खुद महासंकट में है. इस संकट से निकलने की कोई सूरत न पश्चिम में दिखलाई दे रही है और न ही एशियाई देशों- चीन या भारत में दिखलाई पड रही है. स्वराज पाल जैसे लोग जोर जोर से कह रहे हैं कि बाजारवाद (पूंजीवाद) बुरी तरह से विफल हो गया है, सत्यम जैसी कम्पनियां जिसने नये भारतीय स्वप्न को आकार दिया था अब बतला रही हैं कि वह तो घाटे में चल रही थी. प्राईवेट एयरलाइंस के चिकने चुपडे चेहरों वाले ट्रेड यूनियनिज्म के शिकार हो रहे है.... और तो और खुद अमरीका में मंदी है और इस मंदी का कारण है वह नकली ग्रोथ जो सारी दुनिया से इंश्योरेंस कम्पनियों में जमा पैसे से अमरीका के लैंड इस्टेट में लगाकर दिखलाया जा रहा था. अब यह नकली मांग (जिसे आज की भाषा में लिक्विडिटी कहा जाता है) आंखों में धूल झोंकने में विफल है और कम्पनिया दिवालिया हो रही हैं. इस आलेख में इस मंदी पर विस्तार से विचार करने की गुंजाईश नहीं है इसकी ओर सिर्फ संकेत भर किया जा सकता है.
अब इस नये समय में समय की मांग यह है कि मनुष्यता की मूलभूत समस्याओं की ओर ध्यान दिया जाए. मनुष्य अपनी बुनियादी भौतिक जरूरतों के बाद समाज में सम्मान के साथ, प्रेम पूर्वक रहना चाहता है. उसकी कुछ जैविक जरूरतें भी होती हैं जिसकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता. पिछला समय यह देने में असफल होता है तो सामाजिक तनाव बढेंगे ही और समाज में नया समय आयेगा ही. हर युग में एक ही समय उपस्थित होता है- वर्तमान. भूत को जानने की जरूरत वर्तमान को व्यवस्थित करने के लिए ही होती है. वर्तमान के सामाजिक थ्योरिस्ट वर्तमान के इस रूप को याद रखने की सलाह देते हैं. इस अर्थ में वर्तमान के समीकरण इतिहास के समीकरण हो जाते हैं. इस बात को स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण के साथ अपनी बात समाप्त करूंगा. 1857 के विद्रोह के 150 साल के इतिहास में भारतीय समाज में दो तीन विचारधाराओं का जोर रहा. पहले औपनिवेशिक विचारधारा के वर्चस्व के दौर में यह बलवा था जिसमें बलवाईयों ने बहुत खूनखराबा किया. फिर राष्ट्रवादी विचारधारा के वर्चस्व के युग में यह राष्ट्रीय विद्रोह बना जिसमें महान विद्रोहियों ने जनआकाक्षाओं को व्यक्त करते हुए अपनी आहुति दी. अब दलितवादी विचारधारा का जोर बढा है तो इस विद्रोह की जो व्याख्या हो रही है उसमें पुराने महानायकों की जगह दलित महानायकों की प्रतिष्ठा हो रही है!
साहित्य और इतिहास लेखन इन समय के सवालों से अपने को अलग नहीं कर सकता. बदलते समय के जटिल सवालों को रचनात्मक साहित्य पुराने समय के साहित्यिक औजारों से कैसे व्यक्त कर सकता है? जो संकेत अभी मिल रहे हैं वे यही बता रहे हैं कि इस नये समय में नयी इतिहास दृष्टि की जरूरत है जो हमारे साहित्य और इतिहास लेखन को समृद्ध और उपयोगी बनाएगी. [ आलोचना, अक्टूबर-दिसम्बर 2009]
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