Saturday, 22 August 2009

1857 का इतिहास : कुछ प्रसंग

इतिहासो के दौर में 1857; कुछ विचार


हितेन्द्र पटेल



इन दिनो 1857 को लेकर लगातार बहस हो रही ह। कुछ वर्षो पहले यू जी सी ने कालेजो आर विश्र्वविद्यालयो के लिए जब पाठयक्रम तयार किया था तो 1857 के विद्रोह को एक अलग अध्याय के रूप मे भी नही रखा गया था। आज भी बहुत सारे लोगो को लग रहा ह कि 1857 के विद्रोहियो के बारे मे इतनी बहस की क्या .जरूरत ह? पर, 1857 पर बहसो का दार थम ही नही रहा। निश्चित रूप से पिछले कुछ सालो मे एसा कुछ घटित हुआ ह जिससे 1857 के बारे मे लोग इतनी बड़ी सखा मे लेखन कर रहे ह।यह सही ह कि सरकार ने एक करोड़ रूपये एक सन्स्था को देकर इस बहस को बढाने मे मदद की ह लेकिन यह भी सही ह कि इन दिनो 1857 के विद्रोह पर जो बहस हो रही ह वह सब सरकारी मदद के कारण ही हो रही हो। दरअसल, इस बहाने इतिहास की पूरी धारणा, राष्ट्रवाद की धारणा, उन्नसवी सदी के बुद्धिजीवियो की विचारधारा, जातिवादी विमर्श मे एक गुणात्मक अन्तर इत्यादि विषयो को ध्यान मे रखने पर एसा लगता ह कि आधुनिक इतिहास लेखन की दिशा अब बदलने लगी ह। 1857 पर हो रहे विमर्शो ने कुछ एसे ही सन्केत दिये ह।

इतिहास होता भी है और बनाया भी जाता है। जो इतिहास है उसकी पुनर्प्राप्ति की आकांक्षा प्रयोजनीय है लेकिन उसकी उपलब्धि असंभव। कुल मिलाकर ऐतिहासिक विवरण का ध्येय है - ऐसे सवाल पूछना जिसमें ऐतिहासिक 'सच' ज्यादा साफ दिखाई दे, 'सत्य' के इर्द गिर्द की चीजों पर इस तरह से रौशनी पड़े कि जो 'सच' है वह दीखने लगे। इन्हीं मायनों में इतिहास में प्रवेश किसी सत्य का अनुसंधान नहीं है कुछ ऐसे प्रश्न पूछना है जिसमें इतिहास के इलाकों से ज्य़ादा से ज्य़ादा हिस्सा हमें दीखे। यहां यह दुहराने का प्रयोजन शायद अनावश्यक है कि हम चाहें या न चाहें अपने वर्त्तमान को भूतकाल पर प्रक्षेपित करते हैं। इतिहास वर्तमान से ज्य़ादा जुड़ा है भूतकाल से कम। भूतकाल सिर्फ तथ्य देते हैं। उन तथ्यों को किस प्रकार संयोजित करना है, कहां किसे कितनी प्रमुखता देनी है और इसके अन्त में क्या निष्कर्ष निकालने हैं यह सब बातें वर्तमान से ही तय होती हैं। कॉलिंगवुड को याद करें तो यह कि इतिहास मूलतः इतिहासकार के दिमाग़ में होता है। हेडेन व्हाइट ने एक बहुत सरल तरीके से इसकी व्याख्या की है : हम मानें कि तथ्य कुछ इस प्रकार हैं - ठ्ठ, ड, ड़, ड्ड, ड्ढ . . . । इसको इतिहासकर जब पूरी ईमानदारी के साथ भी रखेगा तो वह इस रूप में आयेगा - ठ्ठ ड क् ड्ड क . . . । किसी दूसरे इतिहासकार के लिए वह इस रूप में आ सकता है - ऋ ड ड़ क़् ड्ढ . . . । यानी यह इतिहासकार पर निर्भर है कि वह किस तथ्य को प्रमुखता देगा और किसे नहीं। इस सुविधा के कारण इतिहासकार ईश्र्वर हो जाता है। कहा जाता है कि इतिहासकार वह कर सकता है जो ईश्र्वर भी नहीं कर सकते - वह इतिहास बदल सकता है! पर ईश्र्वर का इतिहास एक कल्पना है जिसे उत्साही 'मुक्तिकामी', आधुनिक ज्ञान बोध ने मनुष्य की चेतना में संयोजित कर पाने की आकांक्षा प्रगट की। हेगेल का इतिहास वही पूरा इतिहास है, शायद ईश्र्वर का इतिहास है जो तीन भागों में विभक्त है - भूत, वर्त्तमान और भविष्य। इन तीनों को एक सूत्र में पिरोकर इतिहास की संकल्पना ने उन्नीसवीं सदी में इतिहास की धारणा को आकार दिया। बीसवीं सदी के अंत तक आते आते वह इतिहास दम तोड़ने लगा।

फूकोयामा को मानें तो यह इतिहास 'मर' गया है। बोद्रीया ने भी कहा कि इतिहास अपनी कक्षा से छिटक कर कहीं और चला गया है। इतिहास समय की पटरी से उतर गया है।फूकोयामा की जिस उक्ति को लगभग फूहड़ 'सिद्ध' किया जाता है उसका मर्म यही था कि इतिहास की हेगेलीय धारणा का अन्त हो गया है।

'इतिहास' के अन्त से ''इतिहासों'' का दौर शुरू हो गया है। दरअसल, गौर से देखा जाय तो इतिहास कभी भी इतिहासों से ज्य़ादा शक्तिशाली नहीं था। यह तो आधुनिक बुर्जुआ वर्ग का हठ था, ज्ञान तंत्र की पूरी संरचना पर उसका एकाधिकार था जो शास्त्रीय ज्ञान चर्चा में यह बात स्वीकार्य हो गयी कि उनका इतिहास 'सच' है और बाकी चीजें कल्पना।

एक विद्वान ने प्रस्तावित किया है कि यह जानना ज्य़ादा जरूरी है कि घटनाओं को लोगों ने किस रूप में अपने इतिहासों में देखा है। भले ही इन इतिहासों में इतिहास की प्रमाणिकता का अभाव हो। यह ज्य़ादा जरूरी है कि लोगों ने भूतकाल की घटनाओं का 'आत्म इतिहास' अपने तरीके से लिखने की कोशिश की। इन चेष्टाओं को इतिहास अगर खारिज कर दे तो इतिहास को इस प्रश्न का

उत्तर देना पड़ेगा कि आखिरकार ये 'आत्म-इतिहास' किन मानकों पर खारिज होंगे और इन मानकों को बनाने वाले कौन हैं?

यह इतना आसान मामला नहीं है। दरअसल, साठ के दशक के बाद से सारी दुनिया में यह बात लगातार कही जा रही है कि जिसे हम पूरे समाज का 'सच' और इतिहास मानकर चल रहे हैं वे विश्र्व साम्राज्यवाद के विस्तार के दौर में आधुनिक मध्यवर्गीय बोध से संचालित हुआ। यानि इतिहासबोध मध्यवर्गीय बोध का ही दूसरा रूप है। हां, यह बात भूलने की नहीं है कि मध्यवर्गीय बोध का एक ही रूप नहीं होता। उसके भीतर भी संघर्ष जारी रहता है।

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1857 का विपुल इतिहास उपलब्ध है। एक अनुमान है कि जितना 1857 को लेकर लिखा गया है उतना किसी भी भारतीय इतिहास के विषय में नहीं लिखा गया। प्रदीप सक्सेना ने दशकों तक 1857 के विद्रोह पर शोध किया है। उनका मानना है कि करीब डेढ़ लाख पृष्ठों की सामग्री उनकी जानकारी में है (सरकारी दस्तावेजों के अतिरिक्त)। निश्चय ही सरकार से करोड़ों की राशि प्राप्त करके इतिहासकारों के दलों ने जो देश के विभिन्न हिस्सें में 1857 से संबंधित तथ्यों पर लगातार बहस किया है उससे हजारों नये पृष्ठों की बढ़ोत्तरी हुई है। इतनी सामग्री जहां हो, इतने सारे इतिहासकार जहां लगे हों, वामपंथ से लेकर दक्षिणपंथ तक सभी धारा के लोग जिसे लेकर बहस करना चाहते हों उस विषय पर तो विषय का कोना-कोना उद्घाटित हो जाना चाहिए। ऐसा हुआ नहीं है। ऐतिहासिक मतभेद बने रहे हैं।

अंग्रेज इतिहासकारों की दृष्टि में यह विद्रोह सिपाही विद्रोह था जिसे आम जनता का समर्थन नहीं था। चूंकि यह सैनिक विद्रोह था जैसे ही सरकार ने बेहतर तकनीक और तैयारी के साथ इसका मुकाबला किया इसका दमन हो गया। लेकिन विद्रोह के दमन के पूर्व सिपाहियों ने नृशंसता और बर्बरता का परिचय दिया और असंख्य निर्दोष अंग्रेजों की हत्याएं की। बर्बर सिपाहियों के बीच आपसी तालमेल नहीं था और कोई योजना भी नहीं थी। कुछ जगहों पर विद्रोह हुए और कुछ बागी नेताओं ने उनका नेतृत्व किया। दो-तीन जगहों पर बागी सैनिकों को सफलता भी मिली। लकिन, बागियों की पराजय असंदिग्ध थी। वे हारी हुई लड़ाई लड़ रहे थे। विद्रोह के चरित्र पर इस ऐतिहासिक दृष्टि का मत रहा है कि ब्रिटिश कम्पनी शासन ने भारत में आधुनिकीकरण की जो प्रक्रिया शुरू की थी उससे पुरातनपंथी, पारम्परिक रूप से शक्तिशाली वर्ग के लोगों में असंतोष था। जो लोग ब्रिटिश हुकूमत के असंतुष्ट थे उन्होंने एकजुट होकर ब्रिटिश शासन के खात्में के लिए इस विद्रोह में भाग लिया। चूंकि उन्हें एक बड़े प्रतीक की जरूरत थी उन्होंने कम.जोर और वृद्ध मुगल बादशाह - बहादुर शाह .जफर को नेतृत्व संभालने के लिए बाध्य किया। एक बार अंग्रेजी कम्पनी के हाथों पराजित होकर विद्रोही शक्तियां मिटती चली गयीं और पुनः आधुनिकपंथी ब्रिटिश हुकूमत कायम हो गया। इस विद्रोह के दौरान के अनुभवों ने ब्रिटिश शासन के चरित्र में कुछ परिवर्त्तन किए। अब तक ब्रिटेन की ओर से भारत को सुधारने के लिए, आगे बढ़ाने के लिए चेष्टाएं चल रही थी। उस सुधारवादी दौर का अन्त हो गया और ब्रिटिश शासन (जो कम्पनी के हाथों से निकलकर अब सीधे 'क्राउन' के हाथों संचालित था) ने यहां के जमींदारों के साथ मिलकर शासन करना शुरू किया। यानि, 1857 की क्रान्ति का नुकसान यह हुआ कि भारत की प्रगति बाधित हुई और प्रगतिशील शक्तियां कम.जोर हुईं।

यह दृष्टि कमोबेश सभी आधुनिक पंथी विचारकों में दिखाई देती है। जो लोग उन्नीसवीं शताब्दी के नव जागरण के इतिहास से परिचित हें वे जानते हैं कि हिन्दी, बंगला, मराठी समेत सभी भारतीय भाषाओं के आधुनिकता के अग्रदूतों ने या तो 1857 के विद्रोह का समर्थन किया या फिर चुप्पी साध ली। यह एक विचारणीय तथ्य है कि हिन्दी साहित्य और और पत्र-पत्रिकाओं में 1857 को लेकर 1920-22 तक जो छपता रहा वह कहीं से भी 1857 के विद्रोह को समर्थन नहीं करता। बंगाल के विद्वानों की अंग्रेज भक्ति के उदाहरण तो हमें लज्जित कर देते हैं। ऐसा नहीं है कि नवजागरण के पुरोधाओं में स्वदेश प्रेम नहीं था या फिर वे अंग्रेजी राज्य से सर्वथा प्रसन्न थे। देश के हर हिस्से के बौद्धिक धीरे-धीरे अंग्रेजी राज्य के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि का विकास कर रहे थे और अपने असंतोष को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूपों में प्रगट कर रहे थे। हिन्दी साहित्य के प्रसंग में रामविलास शर्मा, भगवानदास माहौर, कर्मेन्दु शिशिर, कृष्ण बिहारी मिश्र, अर्जुन तिवारी, शंभुनाथ, रूपा गुप्ता इत्यादि के शोध यह बताने के लिए यथेष्ट हैं कि हिन्दी में नवजागरण के दौर में शुरू से ही अंग्रेजी राज्य के अन्तर्गत भारतीयों की हो रही दुर्दशा के प्रति हिन्दी के लेखक संवेदनशील थे। लेकिन, इस आलोचनात्मक दृष्टि में 1857 के प्रति जो दृष्टिकोण उभरकर आता है वह यही है कि 1857 के विद्रोहियों ने 'कुपथ' पर चलकर 'विनाश' को निमंत्रण दिया। लाखों लोगों की हत्याएं हुई और देश पर बड़ी विपत्ति आ गयी। 1857 एक 'भूल का समय' था। एक लेखक ने तो कहा ही है कि इस समय की हवा 'पगली हवा' थी जिसने लोगों को दीवाना बना दिया था। इस तरह के भाव ने ही कमोवेश 1920-22 तक अपना प्रभाव बनाए रखा। हालांकि यह भी सही है कि इक्का दुक्का ही सही लेखक-कवियों और पत्रकारों ने कभी-कभार एक दो ऐसी बातें कह दीं जिससे लगता है कि विद्रोहियों को वे सहानुभूति पूर्वक देखते हैं। यहां तक कि कलकत्ता के एक पत्रकार ने भी 1857-58 के दौरान एक लेख लिखा जिसमें बलवाइयों के प्रति सहानुभूति थी। इस लेखक को प्रताड़ित किया गया, उसे सरकारी कोपभाजन का शिकार होना पड़ा और 20 हजार रूपये जमानत देकर अपनी रिहाई करवानी पड़ी। 1870 में अमृतबाजार पत्रिका में भी एक पत्र छपा जिसमें 1857 के विद्रोह को स्वाधीनता संग्राम के रूप में देखा गया। बिहार के यशस्वी पत्रकार, केशवराम भट्ट के 1874 में लिखे गये नाटक, - सज्जाद सम्बुल (उर्दू) जिसको 'बिहार बन्धु' (हिन्दी) में छापा गया, में भी 1857 के प्रति अलग नजरिये के दर्शन होते हैं। लेकिन, इन्हें अपवाद ही माना जाता चाहिए। भारतेन्दु युगीन और महावीर प्रसाद द्विवेदी युगीन हिन्दी साहित्य में 1857 के प्रति दृष्टिकोण पर कर्मेन्दु शिशिर के ये विचार सही हैं - ''डा0 रामविलास शर्मा ने भारतेन्दु और उनके सहयोगियों के लेखन पर विचार करते हुए हिन्दी नवजागरण का नाभि नाल रिश्ता 1857 से जोड़ा।... उनके दिए साक्ष्य अपर्याप्त थे, और उसी आधार पर भारतेन्दु योग को 1857 से जोड़ने का निर्णय उचित नहीं माना जा सकता।''

बंगला साहित्य में 1857 का इतिहास लिखा गया, उनके वीरों पर विस्तृत चर्चा की गयी, उपन्यास भी लिखे गये लेकिन कुल मिलाकर 1907-08 तक 1857 को सिपाही विद्रोह ही माना गया, राष्ट्रीय विद्रोह नहीं। यह कहना गलत नहीं होगा कि 'युगान्तर' पत्रिका के दौर में, 1906-08 के बीच बंगाल में 1857 को स्वाधीनता संग्राम के रूप में देखने की शुरूआत हुई।

मराठी साहित्य में 1857 पर जिन दो पुस्तकों का हवाला दिया जाता है वे हैं - गोडसे का 'मांझा प्रवास' (1907) और दत्तात्रेय बलवंत पारसनिस द्वारा लिखित लक्ष्मीबाई की जीवनी। 'मांझा प्रवास' 1880 के आसपास तक लिख ली गयी थी और शायद पारसनिस ने लक्ष्मीबाई पर अपनी किताब लिखने में इससे मदद ली थी। लेकिन, कहीं भी यह पता नहीं चलता कि ये लेखक 1857 को राष्ट्रीय विद्रोह मानते थे या फिर उसे स्वाधीनता संग्राम के रूप में देखकर विद्रोहियों के प्रति आदरभाव रखते थे। पारसनिस की पुस्तक में बंगला जीवनीकारों की तरह लक्ष्मीबाई की वीरता के प्रति आदरभाव है लेकिन उसे गलत माना गया है। राय बहादुर पारसनीस ने लक्ष्मीबाई के अतिरिक्त एक अन्य रानी की जीवनी भी लिखी है - जिसने तमाम कष्टों औन अन्यायों के बावजूद अंग्रेजी शासन का विरोध नहीं किया।

स्पष्टतः लक्ष्मीबाई की वीरता तो प्रशंसनीय है लेकिन जिस उद्देश्य के लिए वह लड़ रही थी वह सही नहीं था! धीरे-धीरे 1857 के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्त्तन हुआ और तिलक की 'केसरी' पत्रिका, 'युगान्तर' (बंगाल), सावरकर की पुस्तक (1907), गदर पार्टी के द्वारा 1857 को लेकर प्रचार आदि के कारण 1920-22 तक 1857 के प्रति भाव में गुणात्मक परिवर्तन हो गया था। 1920 के दशक की हिन्दी पत्रिकाओं-खासकर 'प्रभा' में छपे लेखों को आधार बनाया जाय तो कहना पड़ेगा कि 1857 के प्रति दृष्टिकोण बदल चुका था। हालांकि, यह लक्षणीय है कि हिन्दी में प्रकाशित 1857 के प्रथम इतिहास पुस्तकों का प्रकाशन जब 1922 में हुआ 1857 के विद्रोहियों के प्रति समर्थन नहीं था। ईश्र्वरी प्र0 शर्मा की पुस्तक के कुंवर सिंह वाले प्रसंग को छोड़कर अन्यत्र इतिहासकारों ने 1857 के बागियों के प्रति सहानुभूति का भाव नहीं है। यह कहना गलत नहीं होगा कि पं0 सुदरलाल की पुस्तक के प्रकाशन के बाद और हिन्दूपंच के बलिदान अंक के बाद 1857 के प्रति हिन्दी लेखकों का दृष्टिकोण बदला है। गुणात्मक रूप से 1857 के प्रति हिन्दी साहित्य में सहानुभूति पूर्वक विचार 1920 के दशक के अंत तक ही स्पष्ट रूप से सामने आ सका। इस प्रसंग में हिन्दी साहित्य पर 1857 के प्रभाव का प्रामाणिक दस्तावेज पेश करने वाले भगवानदास माहौर का वक्तव्य उद्धृत करना उचित होगा - ''महात्मा गांधी के अहिंसात्मक सत्याग्रह के पूर्व तक हिन्‌ी के प्रकाशित साहित्य में वह जान नहीं आयी थी कि वह 1857 के अपने स्वाधीनता संग्राम को अभीष्ट रूप में खुलकर प्रस्तुत कर सके।''

शैलेन्द्रधारी सिंह ने 1930 के दशक में हिन्दी रचनात्मक लेखन में 1857 के प्रति आये इस परिवर्त्तन पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि इसी दौर में 1857 संबंधी साम्राज्यवादी कल्पना का राष्ट्रीय जवाब तैयार हुआ। बहुत सारी पुस्तकें लिखी गयी जिसमें 1857 के नायकों को गौरवान्वित किया गया। यह कैसे हुआ और यह कितना निर्णायक सिद्ध हुआ इसे हिन्दी साहित्य के एक उदाहरण से समझा जा सकता है। यह उदाहरण इस आलेख के मुख्य विचार - इतिहास का एक हिस्सा 'होता है' और एक हिस्सा निर्मित होता चलता है, का समर्थन करता है।

यह उदाहरण है - लक्ष्मीबाई के इतिहास का। सुभद्रा कुमारी चौहान ने 22 साल की उम्र में लक्ष्मीबाई पर जो कविता लिखी उसने मानो लक्ष्मीबाई का इतिहास ही बदल दिया। 'खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी' पारसनीस की रानी से भिन्न थी पारसनीस और उनके समकालीनों की यह मान्यता कि रानी लक्ष्मीबाई के साथ जो अन्याय हुआ उससे रानी बाध्य होकर लड़ीं, अब बदल गयी। रानी स्वतंत्रता का संदेश देने वाली एक ऐसी वीरांगना में परिणत हो गयी थी जो देश के लिए लड़ रही थी खुद अपने लिए नहीं। बुंदेले के हरबोलों के मुख सुनी कहानियों के आधार पर यह लक्ष्मीबाई का नया इतिहास था जिसे राष्ट्रवादी साहित्यिक मन नये सिरे से तैयार कर रहा था। इस नयी राष्ट्रीय छवि के उद्देश्य स्पष्ट थे। रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब, तात्या टोपे, कुंवर सिंह, अजीमुल्ला, पीर अली, बहादुरशाह इत्यादि सभी एक दूसरे से राष्ट्रीय सूत्र में बंध गये थे। यह प्रमाणित किया जाने लगा कि 1857 में बैरकपुर से शुरू हुआ विद्रोह दरअसल गलत समय पर शुरू हो गया। इसके बहुत पहले से देशव्यापी राष्ट्रीय विद्रोह की तैयारियां चल रही थी।

नाना साहब इस तैयारी के सूत्रधार थे। जब से अजीमुल्ला यूरोप से लौटकर आये थे जहां उन्होंने क्रीमिया का युद्ध देखा, यह समझ लिया कि अंग्रेजों की असली शक्ति है भारत पर अधिकार, तब से इस भारतव्यापी विद्रोह की तैयारियां शुरू हो गयी। गैरीबाल्डी, और रूस के शासकों से भी अजीमुल्ला का सम्पर्क हुआ था। गैरीबाल्डी तो अपनी सेना लेकर भारतीय विद्रोहियों की मदद के लिए चलने ही वाला था कि उसे सूचना मिली कि विद्रोह समाप्त हो गया। इस तरह की तमाम बातों को सुभद्र कुमारी चौहान से लेकर ऋषभ चरण जैन इत्यादि के विवरणों में देखा-महसूस किया जा सकता है। चौहान की ओजस्वी कवित्त शक्ति ने लक्ष्मीबाई का जो इतिहास रूप रचा वही असली लक्ष्मीबाई के रूप में हिन्दी साहित्य में स्वीकृत हो गया। इसी स्वीकृति पर प्रामाणिकता की मुहर तब लगी जब दशकों की शोध-यात्रा के बाद वृन्दावनलाल वर्मा ने लक्ष्मीबाई की जीवनी औपन्यासिक रूप में 1946 में प्रकाशित की।

लगभग इसी तरह की कहानियाँ तात्या टोपे, नाना साहब और कुंवर सिंह की भी है। ये सभी लोग पहले बाध्य होकर लड़ने वालों के रूप में इतिहास में वर्णित थे लेकिन राष्ट्रवादी उभार के दौर में उनकी ऐतिहासिक छवियाँ पुनर्निर्मित हुईं और उनके जीवन के आधार पर साहित्यिक-ऐतिहासिक कृतियां सामने आयीं। कौन भूल सकता है आरसी प्रसाद सिंह की वह ओजस्वी कविता जिसमें वे कहते हैं - ''अस्सी बरस की हड्डी में जागा जोश पुराना था, सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था।'' कुंवर सिंह का जो उपलब्ध इतिहास हमारे पास है ये कथाएं, कविताएं उनकी छवि को उससे दूर ले जाती हैं, बहुत ज्य़ादा प्रभावी बनाती हैं और शायद इतिहास से निकलकर ये छवियां इतिहासों में तब्दील हो जाती है।

नाना साहब और तात्या टोपे का प्रसंग भी कम दिलचस्प नहीं। ऋषभ चरण जैन का 1932 में छपा उपन्यास 'गदर' स्वाधीनता संग्राम पर प्रकाशित हिन्दी का पहला ग्रन्थ है जिसमें दृढ़ता से 1857 के विद्रोहियों को राष्ट्रीय नायकों का दर्जा दिया गया। उपन्यास का नायक अ.जीमुल्ला एक सुदर्शन व्यक्तित्व का मालिक है जो अपने स्वामी नाना साहब की पुत्री से प्रेम करता है। नाना साहब की पुत्री को चार्ल्स नामक अंग्रेज कलंकित करता है। नाना साहब असली मराठा का कर्त्तव्य पालन करते हुए अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए अंग्रेजों की सेना को चीरते हुए चार्ल्स तक पहुंचते हैं और उसकी हत्या करते हैं और उसका खून पीते हैं! यह वह बिन्दु है जो हमें राष्ट्रीय कल्पना और औपनिवेशिक कल्पनाके बीच एक सूत्र को दर्शाता है। दिल्ली पर आक्रमण के बाद बहादुरशाह .जफ़र हार जाते हैं और पुत्र समेत उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है। उनके पुत्रों की हत्या उनके सामने कर दी जाती है ओर हडसन नामक जनरल मुगल राजकुमारों का रक्त पान करता है। घृणा और विद्वेष की चरम अभिव्यक्ति के रूप में शत्रु को मारकर उसके रक्त को पीना यह एक मध्ययुगीन बर्बरता के उदाहरण-सा लगता है जिसे आधुनिक हडसन अंजाम देता है। ऋषभ चरण जैन के विवरण में यह कृत्य एक वीरोचित कर्म है और, ख्वाजा हसन के वृत्तांत में यह अत्याचार और दमन का प्रतीक है।

'गदर' में जैन ने दिखलाया है कि किस प्रकार कई विदेशी भाषाओं के जानकार, आधुनिक ज्ञान से युक्त अ.जीमुल्ला लंदन जाकर नाना साहब की पेंशन के लिए पैरवी करते हैं। वे असफल होते हैं और यूरोप प्रवास के दौरान अन्य यूरोपीय शक्तियों से ब्रिटेन विरोधी संभावित विद्रोह के लिए समर्थन पाने की चेष्टा करते हैं। तीस के दशक में कई ऐसे उपन्यास लिखे गये जिसमें राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत लेखकों ने 1857 का एक राष्ट्रीय इतिहास लिखा। इस राष्ट्रीय इतिहास में कल्पना का तत्त्व कितना प्रभावी था इसे भी ध्यान में रखना चाहिए। एक उपन्यासकार ने यह दिखलाया कि तात्या टोपे को फांसी देने के क्रम में तात्या की जगह कोई और देशभक्त फांसी पर तात्या बनकर चढ़ गया। तात्या हिमालय चले गये। अंग्रेज चूंकि तात्या को पहचानते नहीं थे इसीलिए वे यही समझते रहे कि उन्होंने तात्या को फांसी दे दी। एक अन्य उपन्यास में लक्ष्मीबाई को भी बाद तक जीवित दिखलाया गया और बताया गया कि जो लक्ष्मीबाई बनकर अंत में शहीद हुई वह कोई और थी। लक्ष्मीबाई हिमालय चली गयी और 80 वर्ष तक जीवित रही।

साहित्य में उपस्थित यह इतिहास 1857 के अध्येताओं के लिए चुनौती है। क्या इसे कपोल-कल्पना मानकर इतिहास के अध्ययन क्षेत्र से बाहर रखा जाय या इसे भी इतिहास का ही एक अंग मानकर चला जाये? हेडेन व्हाइट पर फिर से लौटकर देखना उचित होगा। वे मानते हैं कि इतिहास से प्रश्न किस तरह से पूछा जाये कि इतिहास अधिक प्रामाणिकता के साथ उपस्थित हो समझने के लिए रचनात्मक लेखन से तकनीक सीखना चाहिए। क्या क्या वर्णित होता है और इन वर्णनों में किस तरह की प्रवृत्तियां काम कर रही हैं, किन-किन प्रकार की छवियां काम कर रही हैं यह सब कुछ इतिहास की वृहत्तर सीमा ('मेटा हिस्ट्री') में समाहित हो जाता है। इस दृष्टि से विचार करने पर इतिहास सतत परिवर्त्तनशील आख्यानों में परिवर्त्तित हो जाता है। इन सतत परिवर्त्तनशील आख्यानों को मध्यवर्गीय इतिहासबोध से संचालित इतिहास के बरक्स रखकर देखने से एक दो बातें उभरकर सामने आती है जिसे एक उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है।

लक्ष्मीबाई के जीवन पर 1890 के दशक में एक अंग्रेज लेखक ने एक नाटक लिखा। इसमें दिखलाया गया था कि कामातुर लक्ष्मीबाई ने एक अंग्रेज अफसर को अपने मोहमाश में बांधना चाहा। कर्त्तव्यपरायण अंग्रेज अफसर ने रक्तपिपासिनी रानी के अधम प्रस्ताव को जान की परवाह न करके ठुकरा दिया। लगभग इसी तरह का एक नाटक 1930 के दशक में एक अंग्रेज द्वारा लिखा गया। 1890 के दशक में नाटक का विरोध न हुआ लेकिन 1930 के दशक में तीव्र राष्ट्रवादी विरोध के फलस्वरूप प्रकाशक को विवादित अंश हटाने पड़े और माफी मांगनी पड़ी। यहां शैलेन्द्रधारी सिंह ने ठीक ही कहा है कि 1857 ने ब्रिटेन के साम्राज्यवादियों को, उसके गर्वीले राष्ट्रवादियों को अपनी जाबांजी और मर्दानगी को प्रदर्शित करने का, अपना गौरव गान करने का मौका प्रदान किया। अंग्रेजों ने बहुत सारे ग्रन्थ लिखे जिसमें 1857 की घटनाओं को पार्श्र्व में रखकर अंग्रेजों के जय की, उनकी

महानता का आख्यान निर्मित किया। डा0 सिंह ने यह ईशारा भी किया है कि यह देखना दिलचस्प होगा कि राष्ट्रवादी उभार के दौर में जब इस आख्यान का प्रतिवादी आख्यान निर्मित हुआ किस तरह की कल्पनाओं ने इतिहास से मिलकर ऐतिहासिक आख्यान को तैयार किया।(दुर्भाग्य से डा0 शैलेन्द्रधारी सिंह को यह मौका नहीं मिला। पटना में उनके आवास पर कुछ लोगों ने उनकी हत्या कर दी।) अर्थात्‌, 1930 की राष्ट्रीय ऐतिहासिक कृतियों को अगर राष्ट्रवादियों का आत्म इतिहास मानकर देखा जाये तो?

यह एक प्रसिद्ध उक्ति है कि इतिहास में तथ्यों के आलावा सब झूठ होता है और साहित्य में तथ्यों के अलावा सब कुछ सच होता है। यानि इतिहास से तथ्य लिये जायें और साहित्य से तथ्येतर विवरण। यानि, इतिहास का सच न तो इतिहास के पास है और न ही साहित्य के पास। 'सच' शायद वह मरीचिका है जिसकी ओर जितना बढ़ेंगे वह उतना ही दूर होता जायेगा। हाइडेगर से लेकर मिशेल फूको तक बहुत सारे दार्शनिकों ने इतिहास की पूरी धारणा पर जिस संरचनात्मक दबाब को दिखाया हे उसमें यही बात प्रधान है कि काल विशेष में प्रभावी सोच-पद्धति (ड्ढद्रत्द्मद्यड्ढथ््रठ्ठ) ही वह प्रभावी माध्यम है जो हमें विशेष तरह से सोचने के लिए बाध्य करता है। एक कालखण्ड में उस कालखण्ड में प्रभावी सोच-पद्धति यह निर्धारित करती है कि हम क्या सोच सकते हैं और क्या नहीं। हम क्या सोच सकते हैं और क्या नहीं यह हमारे वर्त्तमान समय द्वारा ही तय होता है। हेडेन व्हाइट ने भी दिखलाया है कि एक लेखक अपने समय के 'ट्रोप' (च््रद्धदृद्रड्ढ) पर ही अवस्थित होता है।

1857 के संदर्भ से निकलकर जो नये-नये आख्यान हाल के वर्षों में उभरकर सामने आ रहे हैं उन्हें ध्यान से देखने पर यह स्पष्ट हो जायेगा कि 1857 का इतिहास हमारे वर्त्तमान से ही नियंत्रित होता है। लक्ष्मीबाई के साथ-साथ झलकारी बाई की कहानी को भी देखा जाने लगा है। झलकारी बाई पर जो एक ऐतिहासिक ग्रन्थ मोहनदास नैमिशराय ने प्रस्तुत किया है वह इतिहास की दृष्टि से 'कमजोर' है। ऐसे तथ्यों को पेश किया गया है जिसे कहने के पहले हमें प्रमाण देने पड़ेंगे। ये प्रमाण सामान्यतः प्रभुत्वशाली वर्ग की मिल्कियत हैं। वे ही लेख लिखवाते हैं, अपनी गाथाओं को सुरक्षित रखवाते हैं और उनकी ही कथाएँ लिखित रूप में हमारी धरोहर बनकर सुरक्षित रहती हैं। लेकिन ऐसे पात्रों का इतिहास लिखना जो प्रभुत्वहीन समुदायों से आते हैं निश्चित ही इतिहास में दूसरे रूप में आता है। स्रोतों के अभाव में इनका इतिहास उल्टी यात्रा करता है। इस प्रसंग में मार्क ब्लॉख, लूसियेन फेब्रे जैसे फ्रांसीसी इतिहासकारों द्वारा प्रयुक्त 'रिग्रेसिव मेथड' का उल्लख उचित होगा। यह सब जानते हैं कि मार्क ब्लॉख विश्र्व के महानतम इतिहासकारों में से हैं। उनकी धारणा थी कि संग्रहालयीय तथ्य निर्भर राजनैतिक इतिहास एक आंशिक इतिहास है। पूर्ण इतिहास (च््रदृद्यठ्ठथ् ण्त्द्मद्यदृद्धन््र) के लिए हर तरह के स्रोतों और पद्धतियों की मदद लेनी चाहिए। वे मानते थे कि फ्रांस में सामाजिक परिवर्त्तन को समझने के लिए कृषक समुदाय के जीवन में हुए परिवर्त्तनों का अध्ययन जरूरी है। पर समस्या यह थी कि किसान का इतिहास कैसे लिखा जाये। इस समस्या के निदान के लिए जिस पद्धति का अनुसरण उन्होंने किया उसे अनजाने भूतकाल से चलकर जाने हुए वर्त्तमान की ऐतिहासिक प्रगतिशील धारणा के विपरीत जाते हुए (वर्त्तमान) से अजाने (भूतकाल) की यात्रा शुरू की। इसी पद्धति से वैकल्पिक इतिहास की वैकल्पिक व्यवस्था संभव हो सकी। भारत में इतिहास की इस उल्टी यात्रा की उपयोगिता का एक बेहतरीन उदाहरण हाल ही प्रकाशित पुस्तक 'वंचितों का

आत्म इतिहास' है जिसमें उत्तर भारत की दलित जातियों के अपने इतिहास लेखन को रखा गया है।

1857 का उल्टा इतिहास उस हद तक प्रयोजनीय शायद न हो। इस आलेख के शुरू में ही यह कहा गया है कि डेढ़ लाख पृष्ठों से भी अधिक ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है। फिर इतिहास के इन दस्तावेजों के आधार पर ही प्रामाणिक इतिहास क्यों नहीं लिखा जा सकता?

इन पंक्तियों के लेखक के अनुसार 1857 के इतिहास की हर पद्धति आंशिक-इतिहास को ही पेश कर सकती है। हम 1857 के इतिहास के पास कैसे प्रश्न लेकर जाते हैं वही तय करेगा कि 1857 के इतिहासों के पास हमारे लिए क्या उत्तर है। एक प्रश्न, सुविधा के लिए, यह हो सकता है कि 1857 के विद्रोहियों ने विद्रोह का मन कब, क्यों और कैसे बनाया। इस प्रश्न के उत्तर में हमारे इतिहासकारों के उत्तर अलग-अलग हैं। अधिकतर इतिहासकार यही मानते हैं कि सिपाहियों के बीच व्यापक असंतोष था। इस असन्तोष का कारण मुख्यतः यह था कि अंग्रेजी सैनिकों की तुलना में हेय माने जाते थे और उनके प्रति सरकारी रवैया उपेक्षापूर्ण था। इस प्रश्न के उत्तर ढूंढ़ते हुए सिपाही मन का जोड़ उत्तर भारतीय किसान मन से कितना था, यह एक बुनियादी प्रश्न है। अगर ये सिपाही मन से किसान और तन से सिपाही थे (एरिक स्टोक्स) तो 1857 के विद्रोह को राष्ट्रीय न मानने का कोई कारण नहीं। सिर्फ एक ही असुविधा हो सकती है। मार्क्सवादी चिंतन पद्धति के अनुसार 1857 का विद्रोह प्राक्‌ पूंजीवादी युग के दौर की परिघटना है और राष्ट्रवाद पूंजीवादी दौर में ही बुर्जुआ विचारधारा के रूप में उभर सकता है। अतः सिद्धांततः 1857 का विद्रोह राष्ट्रीय विद्रोह नहीं हो सकता। यह अधिक से अधिक 'स्वाधीनता का संग्राम' हो सकता था, मुक्ति संग्राम हो सकता है। पर, यह एक और समस्या को जन्म देता है - स्वाधीनता किससे - अंग्रेजों से या सामंती शक्तियों से? रामविलास शर्मा जैसे राष्ट्रीय मार्क्सवादी चिंतको की समस्या यह है कि वे एक साथ 1857 के नायकों और उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में शक्तिशाली हुए मध्यवर्ग दोनों की चेतना को जोड़कर देखने की कोशिश करते हैं। मंगल पाण्डेय, लक्ष्मीबाई, कुंवर सिंह और अ.जीमुल्ला की चेतना का जोड़ भारतेन्दु और प्रताप नारायण मिश्र से!

यह पहले ही कहा जा चुका है कि भारतीय मध्यवर्ग मूलतः औरपनिवेशिक युगीन आधुनिक बोध का संवाहक था। जिन शब्दों में बंगला में राष्ट्रवादी कविताओं के अग्रदूत ईश्र्वरचन्द्र गुप्त इत्यादि ने 1857 के विद्रोहियों ने लिखा है वह आज भले हमें शर्मिंदा करे पर उस युग में उस श्रेणी के लोगों के लिए यही उत्तम विचार थे। भारतेन्दु के परिवार ने 1857 के दौरान अंग्रेजों की मदद की थी इस बात को छुपाया जाना चाहिए? भारतेन्दु जब सात वर्ष के थे तो उन्होंने अपने परिवार वालों को दंगाइयों के विरोध में अंग्रेजों की मदद करते पया होगा! जो लोग 19 वीं शताब्दी के पूवार्द्ध में सारे देश में अंग्रेज और भारतीय शक्तियों के संघर्ष को ध्यान में रखेंगे वे महसूस करेंगे कि अंग्रेजी राज्य भारत में दो तरह की प्रतिक्रिया पैदा कर रहा था - साधारण लोगों के बीच अत्याचार और दमन के फलस्वरूप वितृष्णा का भाव और नवशिक्षित आधुनिक लोगों के बीच आशा का भाव। 1853 में (उसके पूर्व भी) कई अंग्रेज कम्पनी शासन के प्रति लोगों के आक्रोश से परिचित थे। एक अंग्रेज प्रशासक ने तो साफ तौर पर यह लिखा था कि इस देश के दो देश हैं - बहुसंख्यक लोग ब्रिटिशों के घृणा करते हैं और उसे भगाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं और दूसरा - अल्पसंख्यकों का जो ब्रिटिश कम्पनी शासन को एक सुयोग के रूप में देखता है।

1857 का विद्रोह बहुसंख्यक भारतीयों का विद्रोह था। अल्पसंख्यक आधुनिकों के लिए तो यह एक उपद्रव ही था। कालांतर में अल्पसंख्यक आधुनिकों ने समाज का नेतृत्व हासिल किया और राष्ट्रीयता के आधार के निर्माता बने इसीलिए इस राष्ट्रीयता में 1857 के लिए सकारात्मक भाव प्रायः नहीं था। 1920 के बाद गांधी युग में बड़ी संख्या में 'बहुसंख्यकों' के राष्ट्रीय होने के दौर में जो 'पॅराडाइम शिफ्ट' हुआ उसके फलस्वरूप ही 1857 के नायकों को प्रतिष्ठा मिली। पह यह भाव भी पूर्ण स्वीकार का नहीं था। क़ांग्रेसी नेतृत्व ने 1857 को आदर से स्मरण भले ही किया हो लेकिन उस अंग्रेज विद्वेषी चरमपंथी भाव को कभी भी मान नहीं दिया जिसके प्रतिनिधि 1857 के वीर थे। यही वह केन्द्रीय प्रश्न है जिसकी ओर ध्यान दिए बिना ही 1857 पर लगातार विचार किया जाता रहा है।

एक और प्रश्न 1857 में उठना स्वाभाविक है। 1857 के विद्रोह में धर्म की भूमिका कितनी अधिक थी। या फिर, मुसलमानों ने क्यों 1857 के आन्दोलन को ज्य़ादा जोरदार समर्थन दिया। विलियम डेलरिम्पल के दिल्ली सम्बन्धी अध्ययन को अगर प्रामाणिक माना जाय तो यह कहना गलत नहीं लगता कि 1857 का विद्रोह विद्रोहियों के लिए 'जेहाद' ही था। वे स्वयं को जेहादी कहते भी थे।

1857 को हम एक ऐसे आन्दोलन के रूप में याद करते हैं जिसमें हिन्दू और मूसलमान एक जुट होकर विदेशियों के विरूद्ध लड़े। ऐसे बहुत सारे दस्तावेज हमारे इतिहासकारों ने जुटाये हैं जिसमें हिन्दू और मुसलमान नेताओं ने देश की जनता में सामुदायिक सौहार्द बनाये रखकर अंग्रेजों की खिलाफत करने की बात की थी। मुसलमानों को क़ुरान-ए-पाक की सौगंध और हिन्दुओं को तुलसी-गंगाजल-की कसम जैसे प्रयोगों के आधार पर आम हिन्दु-मुसलमानों को लामबंद करने की चेष्टाएँ की गयी थीं, इसमें संदेह नहीं है। बहादुरशाह .जफ़र और लखनऊ के विद्रोही नेताओं के फरमानों को ध्यान से पढ़ने पर हमें कई नयी बातें समझ में आती हैं।

1857 की विरासत के संदर्भ में भी एक उल्टी-प्रक्रिया का उपयोग किया जाये। प्रश्न यह उठता है कि अगर क़ुरान और तुलसी एक होकर विदेशी ताकतों का मुकाबला करने के लिए तैयार हो गयीं तो आधुनिक हिन्दू और मुसलमान नेताओं में ऐसी ऐकता क्यों तैयार न हो सकी। सैयद अहमद खान ने 1857 की जो व्याख्या प्रस्तुत की और उसके लिए हिन्दुओं को जिम्मदार ठहराया उसे देखकर तो यही लगता है कि मुसलमानों में भी अंग्रेजों के समर्थकों की कमी न रही होगी। दूसरी ओर, हिन्दुओं के बड़े लोगों में अधिकतर अंग्रेजों के साथ थे, इसके संदेह नहीं। मनेजर पाण्डेय का यह सुझाव बिल्कुल सही ह कि जो लोग 1857 को प्रतिक्रियावादी जमींदारों और राजे-रजवारों के असंतोष को ही सबसे प्रमुख कारण मानते हैं उन्हें एक सूची .जरूर बनानी चाहिए जिसमें एक ओर उनलोगों का नाम दर्ज हो जिन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया और दूसरी ओर उनका नाम हो जिन्होंने अंग्रेजों का विरोध किया। कर्मेन्दु शिशिर ने यह माना है कि अधिकतर बड़े राजा-महाराजा लोग अंग्रेजों के साथ थे। उन्होंने यह बतलाया है कि कुंवर सिंह की जमींदारी डुमरांव राजा के अधीन थी और डुमरांव राजा ने 1857 में अंग्रेजों का साथ दिया। बिहार के ही शक्तिशाली महाराज - दरभंगा महाराज ने अंग्रेजों का साथ दिया। बंगाल के खत्री महाराज बर्दवान ने अंग्रेजों का पूरा साथ दिया। यह तो अवध के सन्दर्भ में रूद्रांशु मुखर्जी ने दिखलाया ही है कि विद्रोहियों में किस प्रकार बनियों के प्रति घृणा थी क्योंकि सेठ-साहूकार लोग अंग्रेजों का साथ दे रहे थे। जिन लोगों ने दिल्ली में हुई लड़ाई और दिल्ली पतन का इतिहास लिखा है वे बतलाते हैं कि खत्रियों और बनियों ने विद्रोहियों का साथ नहीं दिया। एक इतिहासकार ने ऐसी असंख्य अर्जियों का जिक्र किया है जिसमें सिपाहियों के विरुद्ध सरकार ने अपील की गयी थी। उन लोगों की इन अर्जियों पर और रोशनी डालने की जरूरत है। 1857 के इन सन्दर्भों को और अधिक विस्तार से चर्चा के केन्द्र में लाने के बाद ही चीजें और साफ होंगी। जो लोग फ्रांसीसी राज्य क्रान्ति के इतिहास से वाकिफ हैं वे जानते हैं कि जॉर्ज रूद (क्रड्ढदृद्धढ़ड्ढ ङद्वड्डड्ढ) द्वारा विश्लेषित विप्लवी भीड़/समूह (थ््रदृड) की भूमिका क्रांति के दौरान क्या थी। 1857 के सन्दर्भ में अगर सिपाहियों के मार्च पर ध्यान केन्द्रित किया जाये और इसके प्रति लोगों के बीच जो वातावरण पैदा हुआ उस पर ध्यान केन्द्रित किया जाये तो यह संभव है 1857-58 के दौर के इतिहास का एक जीवंत चित्र उभर सके। रामविलास शर्मा से लेकर देवेन्द्र चौबे और रश्मि चौधरी जैसे विद्वानों ने कुंवर सिंह की सेना के जगदीशपुर से शुरू होकर उत्तर भारत की परिक्रमा करते हुए वापस वहीं पहुंचने की यात्रा के प्रभाव पर चर्चा की है। इतिहासकार गौतम भद्र सेना के इस 'मार्च' को बहुत महत्त्वपूर्ण मानते हैं। इस प्रकार के प्रसंगों को कम महत्त्वपूर्ण मानकर विद्रोह के अंतिम परिणाम पर ही ध्यान केन्द्रित करना इतिहास के उन अंशों को छुपाना है जिससे भारतीय इतिहास को देखने-समझने की एक वैकल्पिक दृष्टि का निर्माण संभव है। इतिहास की एकरेखीय व्याख्या से आगे बढ़कर यह देखने की जरूरत है कि जनमानस में 1857 का जो प्रभाव लगातार बना रहा और जिसकी अनुगूंज लोक कथाओं और लोग गीतों में लगातार सुनायी देती है उसका इतिहास किस प्रकार लिखा जा सकता है। खतरा यह है कि भारतीय इतिहास का जो तानाबाना हमारे बौद्धिकों के बीच प्रचारित है वह इस नयी दृष्टि को महत्त्व देने के बाद बिखरने लगेगा। दरअसल, यह प्रस्तावित किया जा सकता है कि राष्ट्रवाद की पूरी धारणा भारतीय सन्दर्भ में मध्यवर्गीय सन्दर्भों में ही निर्मित और प्रचारित होती रही है। 1857 ही क्यों उसके पूर्व से ही हमारे देश में अंग्रेजों के विरुद्ध प्रतिरोधों का जो इतिहास रहा है उनको ज्य़ादा महत्त्व मिलना चाहिए। एडवर्ड सईद भारतीय इतिहास के बहुत बड़े ज्ञाता भले न हों लेकिन वे एक बात पते की कह गये कि भारतीयों का संघर्ष साम्राज्यवाद के विरूद्ध उसी दिन शुरू हो गया जिस दिन अंग्रेजी शासन यहां शुरू हुआ।

उर्दू के एक पत्रकार ने मुर्शिदाबाद की अपनी यात्रा का उल्लेख किया है। वे जिस गाड़ी से जा रहे थे उसके ड्राइवर ने एक जगह गाड़ी की स्पीड एकदम से ते.ज कर दी। पत्रकार ने पूछा कि ऐसा उसने क्यों किया। ड्राइवर ने बतलाया कि उस जगह हर ड्राइवर ऐसा ही करता है क्योंकि वहां मीरजाफर की कब्र है! 1757 के दो सौ पचास वर्ष बाद भी गद्दार मीरजाफर की जिस देशद्रोही छवि को वह ड्राइवर ढो रहा है उसमें राष्ट्रवाद कहीं है या नहीं? अगर है तो उसका इतिहास कहां है? उत्तर भारत के किसी भी हिस्से में जाइये आपको ऐसे असंख्य लोक गीत मिलेंगे जिनमें 1857 के विद्रोही नेताओं के शौर्य की अशेष गाथाएं होंगी। दिलचस्प बात यह है कि इन विद्रोही नेताओं की सूची लगातार बढ़ती जा रही है ऐसा तब जबकि इतिहासकारों के बीच 1857 के विद्रोही देशभक्त के रूप में नहीं बलवाई के रूप में ज्य़ादा रहे। आज भी समस्त उत्तर भारत में जो कैलेंडर सबसे ज्य़ादा बिकते हैं उनमें क्रान्तिकारी वीरों की तस्वीरें होती हैं। ये छवियों करोड़ों भारतीयों की राष्ट्रीय भावनाओं की अभिव्यक्ति हैं जिसका इतिहास अभी और लिखा जाना है, नये दृष्टिकोण से लिखा जाना है।

[वसुधा, 1857 अंक]

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