जाति का प्रश्न
औपनिवैशिक उत्तरभारतीय परिदृश्य (1880-1930)
हिन्दी समाज के बौद्धिकों ने इस समाज के सबसे बडे प्रश्न- जाति पर जिस तरह से सोचा विचारा है उसपर हाल के वर्षों में समाज शास्त्रियों का ध्यान गया है. सन्दर्भ चाहे 1857 का हो, नवजागरण का हो, साम्पदायिकता का हो या फिर राष्ट्रवाद का जाति के प्रश्न को सामने रखने की कोशिश लगातार हो रही है. तेलगु, तमिल, मलयालम और सबसे अधिक मराठी साहित्य के श्रोतों का उपयोग कर नये सोच के साथ इन भाषिक समाजों के ‘इंटेलिजेंसिया’ वर्ग की विचारधारा के विभिन्न स्तरों की बहुस्तरीय पडताल अभी जारी है. आज अत्यंत सक्रिय दलित साहित्य आन्दोलन के कुछ विचारकों के अनुसार “ हिन्दी नवजागरण के लेखक धार्मिक रूढियों से बँधे दिखाई देते हैं, इसीलिये वहाँ ‘वर्ण व्यवस्था’ का विरोध नहीं समर्थन है.” [1] हिन्दी में एक दिलचस्प बात यह देखी जाती है कि ज्यों ज्यों नवजागरण का प्रभाव बढा जाति के प्रश्न पर सीधी तरह से तीखी टिप्पणी से, सन्दर्भ विवेचन से बचने का चलन बढता गया. जाति के उल्लेख कम होने के पीछे इन समाजों में जाति का कम महत्त्व पूर्ण होना नहीं था बल्कि राष्ट्रवाद के एक खास तरह के सोच का परिणाम था जिसके अंतर्गत यह माना जाने लगा कि बोध और रचनात्मक स्तर पर जातिवादी (कास्टिस्ट) सन्दर्भ को लाने से हमारी राष्ट्रीय चेतना के प्रसार में बाधा उत्पन्न होती है. निश्चित रूप से जाति का विरोध प्रेमचन्द से पहले भी था और कुछ हिन्दी बौद्धिक जाति को इस देश के विकास में एक बडी बाधा मानते थे, लेकिन अधिकतर हिन्दी लेखक जाति के प्रश्न पर वर्णाश्रमी प्रभाव से मुक्त नहीं थे और इस समाज में जाति की विभीषका के प्रति उतने सचेत साहित्य में नहीं दिखलाई पडते जितनी की ज़रूरत थी. प्रेमचन्द, राहुल, चतुरसेन शास्त्री और कुछ लेखकों में जाति के प्रश्न पर बैचैनी दिखलाई पडती है लेकिन आज ऐसा प्रतीत होता है कि कुल मिलाकर हिन्दी के लेखकों को जाति पर और अधिक गहरे जाकर विचार करना चाहिये था. जब फणीश्वर नाथ रेणु की अमर कहानी में बूढा मिरदंगिया एक ब्राह्मण को प्यार से बेटा कह देता है तो गांव के लडकों ने घेरकर उसे मारने की तैयारी कर ली क्योंकि “ बहरदार होकर ब्राह्मण के बच्चे को बेटा कहेगा? मारो साले बुड्ढे को घेरकर ! मृदंग फोड दो!” रेणु की अद्भुत अपूर्व शैली में यह आया है कि “ मिरदंगिया ने हँसकर कहा था, “ अच्छा, इस बार माफ कर दो सरकार ! अब से आप लोगों को बाप ही कहूंगा!” बाद में नागार्जुन ने इस हँसी को ‘फेड’ होते देखा और उसकी जगह एक क्रोध को जन्मते देखा और कहा- “दलित माओं के सब बच्चे अब बागी होंगे”. ( हरिजन गाथा)
यह सब उस दौर तक ही हो चुका था जब दलित साहित्य हिन्दी में नहीं आया था और न ही राजनैतिक रूप से शक्तिशाली दलित- पिछडों के उत्थान के बाद इस तरह की बातों को कहने का चलन शुरू हुआ.
इस आलेख में हिन्दी ‘इंटेलिजेंसिया’ के नवजागरण के दौर में जाति को लेकर जो सोच रहा था उसपर कुछ उदाहरणों के उल्लेख द्वारा संकेत करने का प्रयास किया गया है. बहुधा यह कहा जाता है कि कुछ अतिउत्साही दलित लेखक नवजागरण को छोटा बनाने की कोशिश करते हैं और साक्ष्य न होते हुए भी इस दौर के हिन्दी बौद्धिकों पर उलटी सीधी टिप्पणियां करते रहते हैं. उन्नसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में निचली जातियों –खासकर पिछडी जातियों के उभार के प्रति जो ब्राह्मणवादी नज़रिया था उसका कितना और किस तरह का प्रतिफलन हिन्दी साहित्य में हमें मिलता है इसकी जांच करना भी इस पर्चे का उद्देश्य है. इसी विवाद का एक दूसरा पक्ष यह है कि किस प्रकार औपनिवेशिक दौर में जातियों के पायदान में ऊपर उठने के लिये निचली जातियों में 1890 के बाद से 1911 तक होड लगी हुई थी और निचली जातियों के नेता अपना जातीय इतिहास लिखकर अपनी जाति का एक गौरवपूर्ण इतिहास लिखकर यह बतलाने में लगे थे कि कैसे वे ब्राह्मण, क्षत्रिय थे और बाद में अन्यायपूर्ण तरीके से उन्हें निचली जाति का बना दिया गया. मैंने अन्यत्र इस प्रसंग की विस्तार से चर्चा की है.[2] इस आलेख में राष्ट्रीय बनने के दौर में उत्तर भारतीय समाज के बौद्धिकों में निचली जातियों के उत्थान के दौर में उनके प्रति भावों की साहित्यिक अभिव्यक्तियों को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है.
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निचली जातियों और अगडी जातियों को साथ लेकर हिन्दू एकता की बात उन्नसवीं शताब्दी के आठवें दशक में भी कही जाती थी. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की पत्रिका हरिश्चन्द्र मैगज़ीन के अप्रिल 1874 अंक में एक लेख छपा था- ‘पबलिक ओपिनियन’ जिसमें ब्राह्मण से लेकर शूद्र तक सबको लेकर एक वर्णाश्रम हिन्दू धर्म के आदर्श की बात की गयी थी. इसके अनुसार हिन्दु जातियों के आपसी फूट के कारण सब (हिन्दू) “ बल सत्यानाश में मिल गया और यह बात ध्यान से बाहर हो गई कि हिन्दू भी कभी एक मत थे.” [3] इस लेख के लेखक का प्रस्ताव था कि “ धर्म और व्यवहार को एक में न सानैं.” [4]लोगों को अलग अलग विश्वासों को मानने का हक है लेकिन जहाँ “ व्यौहार का काम पडै सब एक हो जाओ और जब अपने हित की बात आवैं तब एक सी आवाज़ दो.”[5] इस तरह के उदाहरण भारतेन्दु से लेकर माधव प्रसाद मिश्र और अयोध्याप्रसाद हरिऔध इत्यादि साहित्यकारों की लेखनी में सहज ही मिल जाते हैं जहां हिन्दुओं की एकता के लिये सभी हिन्दुओं- ब्राह्मणों से लेकर शूद्रों तक – के बीच एकता की बात कही जाती थी. लेकिन, विभिन्न जातियों के बीच जो तनाव समाज में था उसके कारण ज्यों ज्यों निचली जातियों के लोग अपना इतिहास लिखने लगे और अपने को ऊँची जातियों के समतुल्य बताने लगे तनाव बढा. इन निचली जातियों के सामुदायिक इतिहास पर कम काम हुआ है, लेकिन उन्नसवीं शताब्दी में ऊँची जाति के लोग भी यह मानते थे कि दुसाध जाति के लोग राज करते थे. बाद में इस तरह की उदार इतिहास दृष्टि का लोप हो गया. उदाहरण के तौर पर पुराने मुंगेर जिले के गिद्धौर के एक क्षत्रिय राजा का जीवन चरित लिखते हुए एक प्रसिद्ध क्षत्रिय विद्वान ने लिखा है: “पहले इस देश में 816 वर्ष बहेलिये वा दुसाध राज्य करते रहे सम्बत 1123 में राजा विक्रम सिंह चन्दैल अगोरी बरदी से यहां आए और श्री बैद्यनाथ जी की कृपा से निंगुरिया नामी दुसाध को मार राज्य ले लिया तब से आज तक बराबर इनके वंश में राज्य चला आता है, इस राज्य के आधीन चान्दन, चकाई, विस्तहाजरी, और बहुत से फुटकर महाल हैं.[6]
औपनिवेशिक दौर में निचली जाति के उत्थान के प्रति अवज्ञा का भाव शुरू से था. विद्वान लेखक भी कभी कभी इस बात से बडे परेशान होते थे कि नीच लोग अंग्रेज़ी राज में कुछ ज़्यादा ही बढ चढ गये हैं. रामदीन सिंह ने एक खराब नीति की चर्चा करते हुए एक अन्य क्षत्रिय सुधारक के हवाले से कहलाया है कि “यह (खराब) नीति तो ब्राह्मण क्षत्री की नहीं है हाँ चंडाल चमार कसाई की अवश्य है.”[7] आगे कहा गया है- “ बाबू हितनारायण सिंह बराबर कहा करते थे कि नीचोँ से सर्वदा बचना चाहिए क्योंकि अब वह समय नहीं रहा कि जिस में वर्ण विचार हो और अंग्रेज़ अमलदारी होने से सब धन बाईस पसेरी अर्थात सब बराबर हो गये बल्कि नीच ही लोग बढ चढ गये तो उनसे एक दो बात परहेज ही करना ही हमलोगों को उचित है और समय ही देखकर काम करना बहुत अच्छी बात है. क्योँकि सरकारी कर्मचारी लोग यही जानते हैं कि ब्राह्मण क्षत्री ही वैश्य शूद्र पर ज्यादती करते हैं. इसलिए सब किसी को उचित है कि दुष्ट और कांटा से बचाकर रहना ही भला है न तो भली भांति उनका मुंह तोडना ही भला है... खाल काँटा इन दुनहु को , दोई जगत उपाय / जूतन ते मुख तोडिबो , रहिबो दूर बचाय”[8] इस भाव को और स्पष्ट करते हुए रामदीन सिंह ने जोडा है- “आज कल यही हाल देखने में आता है शहरों में दूकानदारों से कुछ कहो तो चट गाली दे देते हैं, कुंजरिन से बोलो तो तो वह भी फटकारती है भले मनुष्यों का कहीं भी गुजर बिना गम खाये नहीं हो सकता है.”[9]
रामदीन सिंह ने यह भी लिखा है कि “ यह तो सब कोई जानते हैं कि जैसी विपत्ति आजकल क्षत्रियों पर है वैसी और किसी और किसी जाति पर नहीं.”[10] वे इस विपत्ति का मुकाबला करने के लिये क्षत्रियों के लिये एक पत्रिका शुरू करते हैं जिसके विज्ञापन का घोषणा पत्र में वे बतलाते हैं कि जिस प्रकार यूरोप वासियोँ, बंगालियों और बिहार के कायस्थों ने पढ-लिख कर, समाचार पत्र निकाल कर उन्नति की है उसी प्रकार देश के क्षत्रियों को एक होकर आग आना चाहिये. वे याद दिलाते हैं कि “कायस्थ लोग तीन युगों (सतयुग, त्रेता और द्वापर) से शूद्र थे. अब क्षत्रिय हो गये... ऐ मेरे प्यारे क्षत्रिय सपूतों, कुछ भी तो सोचो कि हमारे कुल में रघु, राम, युधिष्ठिर, अर्जुन और कर्ण प्रभृति कैसे कैसे महापुरूष हो गये हैं ...धिक्कार है हमारे क्षत्रित्व पर कि कायस्थ प्रभृति नीच वर्ग बडे बडे स्थानों पर नीयत होते हैं और हमारे बन्धु-बान्धव प्यादगीरी कर केवल 3 या 4 मुद्रा में पलायन करते हैं.”[11]
क्षत्रियों में अपनी जाति की दशा को लेकर जो भाव था उसको प्रकट करने में हिन्दी के बौद्धिक मुखर थे. क्षत्रिय पत्रिका ने 1882 में एक लेख प्रकाशित किया जिसका एक अंश देखें: “ क्या...क्षत्री कभी जागेंगे... अपने ही सहवासी शूद्रों (कायस्थ जो अब क्षत्री कहलाने लगेगी हैं) को देखिये कि कहां तक उन्नति कर गये जिस राज दरबार में देखिये जुत्थ के जुत्थ यही नज़र आते हैं... (कायस्थों ) पहले तो शूद्र से रूपया खर्च कर क्षत्री कहलाये अब तो तलवार धरें बान धरें बहादुर उपाधि भी मिलने लगी... गवर्नमेंट से बहादुरी इन्हीं कायस्थ कलाल , कलवार, बनिये को मिलती है.” [12]
हिन्दी नवजागरण के एक महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व रामदीन सिंह के इन उद्धरणों को उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं सदी के हिन्दी क्षेत्र के सवर्ण लेखक, समाज सुधारकों के विचारों के साथ रखा जा सकता है. उस दौर में राष्ट्रवाद, जाति के प्रति प्रेम और अपने सम्प्रदाय (धर्म) के भावों के बीच एक सहज किस्म का सम्पर्क था. जाति का प्रयोग इन तीनों- धर्म, राष्ट्र और जाति तीनों के लिये होता था.[13] बडी सहजता से विद्वान लोग जाति सूचक भाषा का प्रयोग करते थे. यहां एक दो उदाहरणों की चर्चा की जा सकती है. बाल कृष्ण भट्ट हिन्दी के महान लेखक और संपादक के रूप में सुविख्यात हैं. पहले के समय और वर्तमान के बीच आये अंतर को वे इस भाषा में व्यक्त करते हैं- “ उस समय ब्राह्मण तीनों वर्ण के लोगों को अपनी मूठी में किये थे, किसी को सामर्थ्य न थी कि इनसे आँख मिला सके. अब इस समय बनिया बक्काल भी ब्राह्मण बना चाहते हैं, और काछी कुनबी क्षत्री. सच है, ‘धोबी के घर धरमदास हैं ब्राह्मण पूत मदारी.”[14] खुद रामदीन सिंह ने खड्गविलास प्रेस, पटना से 1891 में द्विज पत्रिका अर्थात “ब्राह्मण ,क्षत्रिय और वैश्य को सुधारने वाली पाक्षिक” पुस्तिका निकाली थी. दिलचस्प बात यह है कि इसमें जो छपता था वह देश के हित से संबंधित होता था और किसी जाति के पक्ष में इसमें कुछ नहीं छपता था. इस पत्रिका का प्रकाशन लगातार होता रहा. इसमें छपने वाली सामग्री को ध्यान से पढने से प्रतीत होता है कि उस समय के लेखकों के बीच इतिहास बोध के निर्माण किस रूप में हो रहा था. एक उदाहरण देखें-“ ...बहुत शताब्दियां बीती जब बंगाल में कोल और सौंताल आदि असभ्य जाति के लोग बसते थे पर ब्राह्मण धर्मावलंबी हिन्दू लोगों ने पंजाब और उच्च भारतवर्ष को विजय कर के अंत में बंग देश की ओर पदार्पण किया और आदिम निवासियों को वशीभूत कर के बहुतेरों को जंगल पहाड़ का मार्ग बताया तथा कुछ लोगों को अपना दास बना के रक्खा इन विजयी हिन्दुओं के पुरोहित ब्राह्मण थे इस से यह ब्राह्मण धर्मावलंबी कहलाए यह मध्य एशिया निवासिनी प्रबल प्रतापशालिनी आर्य जाति के लोग थे यही आर्य जाति उच्च कुल के वर्तमान हिन्दुओं की मूल थी इसी जाति के भिन्न भिन्न भाग मध्य एशिया से पश्चिम की यात्रा करके यूरोप में जा बसे जिनसे अंगरेज़ फ्रेंच जर्मन इत्यादि बहुत सारी यूरोपीय जाति उत्पन्न हुईं.[15] इस दौरान हिन्दी के कुछ प्रकाशित ग्रंथों में भी कुछ ऐसे वाक्य मिलते हैं जिनमें ‘नीची जाति’ के प्रति, उसके आगे बढकर सम्मान पाने की लालसा के प्रति एक तिरस्कार का भाव है. इन पंक्तियों पर ध्यान दें: “ कुंवर सिंह को लोग बाबू कुंवर सिंह कहते थे. ‘बाबू’ की पदवी उन दिनों ऐसी सस्ती न थी जैसी आज कल हो गयी है कि उजले कपडों से कोइरी चमार तक बाबू बन जाते हैं.”[16]
जाति के सन्दर्भ के प्रयोग हिन्दी साहित्य में कम होने लगे और प्रेमचन्द के युग में इसका प्रयोग बहुत कम होने लगा. लेकिन उसके पहले यह बहुत आम था. यह वह दौर था जब नवजागरण के पुरोधाओं को वर्ण-व्यवस्था के नियमों के पालन और राष्ट्र के नवनिर्माण में कोई विरोधाभास नज़र नहीं आता था. कुछ उदाहरणों से उनके विचारों को समझा जा सकता है. अपने समय की प्रतिष्ठित हिंदी पत्रिका सुदर्शन के संपादक और एक प्रतिष्ठित साहित्यकार माधव मिश्र ने एक कथा का उल्लेख किया है. इस कथा में जोधपुर के महाराज से बादशाह अकबर ने पूछा कि हिन्दू किस को कहते हैं? महाराज के एक सामंत से जब महाराज ने पूछा तो उसने कहा कि इसका उत्तर तो कोई भी साधारण आदमी दे देगा. मामूली आदमी की खोज की गयी और एक नाई को लाया गया. उसने इस प्रश्न के उत्तर में कहा- “ हिन्दू वह है जो गो ब्राह्मण की पूजा करे और उनमें श्रेष्ठ वह है जो उनकी रक्षा करने में प्राणों तक की परवाह न करे. नाई के कथन से संतुष्ट होकर महाराज ने बादशाह अकबर के सामने हिन्दू की यूं व्याख्या की- “ ...किसी हिन्दू के घर में आग लग जाय और वह इतनी प्रचण्ड हो उठे कि या तो वह अपने कुढंगे कुपढ ब्राह्मण ही को जो उस मकान में पडा हुआ ज़िन्दगी के अंतिम सांस ले रहा हो, बचा ले, किम्बा अपनी लूढी लँगडी बूढी बांझ गऊ ही की, जो वहां उस समय बँध रही हो, रक्षा कर ले. अथवा अपने बुढापे की लकडी , घर के चिराग एकमात्र पुत्र ही के प्राण रख ले. कारण कि समय की इतनी न्यूनता हो कि एक की रक्षा के पश्चात दूसरे की रक्षा असंभव जान पडती हो! अग्नि की ज्वाला में दूसरे के भस्म हो जाने का निश्चय हो चुका हो. ऐसी कठिन अवस्था में जो वीर पुरूष सुत सम्पत्ति का मोह छोड उस अकर्मण्य ब्राह्मण बा बूढी गऊ के प्राणों की रक्षा में तत्पर हो, वही श्रेष्ठ हिन्दू है और साधारण वे हैं जो इन दोनों की पूजा करते हैं. (कहते हैं कि , उस दिन से बादशाह ने गो वध बन्द कर दिया था).” [17] कथा के उपरांत लेखक का संदेश है कि अगर किसी घर में एक मरनासन्न ब्राह्मण, एक बूढी गाय और एकलौता बेटा हो और आग लग जाये तो जो सच्चा वीर हिन्दू होगा वह पहले ब्राह्मण और बूढी गाय को बचायेगा. एक अन्य उदाहरण भी दिया जा सकता है जिसमें वे कहते हैं कि एक अग्रवाल वैश्य ब्राह्मण के विरूद्ध अपशब्द का प्रयोग नहीं कर सकता यह काम किसी नीच का ही हो सकता है. उनकी पत्रिका में छपा था कि कांग्रेस सही अर्थों में राष्ट्रीय नहीं है क्योंकि वहां वर्णाश्रम धर्म का पालन नहीं होता. लेखक के अनुसार सभा में ब्राह्मण की उपस्थिति ज़रूरी है और अध्यक्ष भी उसे ही होना चाहिये. एक जगह लेखक बहुत आहत होता है कि एक वैश्य अध्यक्षता कर रहा है जबकि शास्त्र के हिसाब से उसे कोषाध्यक्ष होना चाहिये.[18]
इस तरह के विचारों के पक्षधर लोगों की संख्या कम नहीं थी. 1920 के दशक में गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन के शक्तिशाली होने के दौर में भी उत्तर भारत के बहुत सारे हिस्सों में सच्चे हिन्दू के आदर्श को लेकर हिन्दू राजनैतिक संगठकों के बीच हुई बहसों को देखकर यह कहना गलत न होगा कि वर्णाश्रम आदर्श के प्रति इन महान लोगों की अटूट आस्था थी. वस्तुत: यह प्रस्तावित करना सही होगा कि शिष्ट साहित्य और पत्रकारिता के दायरे से जाति का परोक्ष रूप से चले जाने के इस दौर में जाति के सम्बन्ध में राष्ट्र्वादी चिंतन ने यह मन बनाया कि जाति व्यक्तिगत चीज़ है और इसके बारे में ज़्यादा हो हल्ला करना राष्ट्र्वाद के लिये ठीक नहीं है. इसी दौर के इस बोध के साथ जाति की सीधा चर्चा साहित्य और पत्रकारिता में कम हो गयी. अब बलवंत भूमिहार जैसे उपन्यास, जिनमें जाति का उल्लेख बडी सहजता से होता था, लिखने का दौर खत्म हो गया था. ऐसा नहीं था कि समाज में जातिवादी विमर्श खत्म हो गये हों. बल्कि यह कहना उचित होगा कि जाति को लेकर एक उग्र किस्म का संघर्ष यादवों और भूमिहारों के बीच जनेऊ पहनने को लेकर इसी दौर की घटना है.[19] भूमिहारों को ब्राह्मण मनवाने के लिये जिस तीव्रता से स्वामी सहजानन्द ने इस दौर में आन्दोलन किया था उससे सामान्य परिचय भी यह बतलाने के लिये पर्याप्त है कि जातीय आधार पर तीखी नोंक झोंक 1920 के दशक में जारी थी.[20]विभिन्न जातीय इतिहासों के विश्लेषण से भी यह साफ है कि समाज में जाति के प्रश्न पर जातियों के बीच तीव्र प्रतिद्वन्दिता चल रही थी.
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बीसवीं सदी में राष्ट्रवादी आन्दोलन के लोकोन्मुखी होने के बाद दो आदर्शों – वर्णाश्रमी सनातनी हिन्दू का आदर्श और हिन्दुओं की राष्ट्रीय एकता का स्वप्न- के बीच तनातनी का एक दिलचस्प दौर शुरू हुआ. 1920 के बाद, खासकर मालाबार दंगों के बाद हिन्दू धर्मावलंबियों के रक्षार्थ हिन्दू नेताओं ने यह देख लिया कि एक आदर्शों का नवीकरण ज़रूरी है. मदन मोहन मालवीय जैसे लोगों को यह लगा कि हिन्दू संगठनों के साथ अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियों और अन्य पिछडी जातियों को जोडा जाना चाहिये. उन्हें जिस तरह के विरोध का सामना करना पडा वह स्पष्ट कर देता है कि हिन्दू कट्टरवादी आदर्शों के प्रति अभी भी बहुत सारे लोग कटिबद्ध थे. मदन मोहन मालवीय की छवि एक कट्टर सनातनी हिंदू की है. उन्होंने हिन्दू महासभा की स्थापना की और सारे देश के हिन्दुओं को राजनैतिक रूप से संगठित करने का प्रयास किया. लेकिन हिन्दु समुदाय के असली सनातनी, वर्णाश्रमी हिन्दुओं की और से उंन्हें जिसमें तरह से ‘नया आर्यसमाजी’, ‘हिन्दु धर्म के शत्रु’ के रूप में प्रचारित किया गया वह कम दिलचस्प नहीं है. मालवीय का मत था कि हिन्दु राष्ट्रीय एकता के लिये सवर्ण और निम्न जातियों को एक साथ आना होगा. वे एक सावधान हिन्दू थे जो वर्णाश्रम के आदर्शों में राष्ट्र हित हेतु एक लचीलेपन की जरूरत को समझ रहे थे. उनका कथन था कि उँची जाति के लोगों को चाहिये कि चमार आदि जाति के लोगों को अपनी सभाओं में आने दें और अपने बराबर नहीं लेकिन नीचे बैठने दें. लेकिन दूसरी और ऎसे हिन्दुओं की कमी नहीं थी जो इस तरह के उँच नीच के जाने को हिन्दुपन की क्षय समझ रहे थे. अन्यत्र इस विषय पर चर्चा हुई है जिसमें हिन्दू राष्ट्र्वाद के इस दो धाराओं के बीच के अंतर को रेखांकित किया गया है.[21] एक ओर मालवीय जैसे लोग थे जो हिन्दू एकता की खातिर वर्णाश्रम धर्म को छोडे बिना छोटी जात के लोगों को साथ लेने की मुहिम चला रहे थे तो दूसरी ओर ऐसे लोग भी थे जो इसमें धर्म की हानि समझ रहे थे. इस तरह के लोग सनातन धर्म पताका फहरा रहे थे. 1926 में भी जब कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन शक्तिशाली हो चुका था सनातनियों की पत्रिकाएं लगातार यह कह रही थीं कि वर्णाश्रम को छोडने से देश धर्म भ्रष्ट हो जायेगा. मालवीय की हिन्दु महासभा के प्रति भी उनके मन में कोई आदर नहीं है और वे मालवीय की सबको साथ लेकर चलने की इच्छा को सही नहीं मानते. ‘हिन्दू महासभा का रहस्य’ नामक एक लेख में कहा गया है-
“ ...मालवीय जी, पण्डित दीन दयाल शर्म्मा आदि के सनातन धम्मानुकूल विचारों को ही हम लोग प्रमाण मानते हैं, उनके व्यक्तित्व को नहीं.... सर्वप्रियता प्राप्त करने के पीछे (वे) बडे बड़ी काम बिगाड डालते हैं. ...(वे) लाला लाजपत राय और दरभंगा महाराज के धार्मिक विचारों का सम्मिलन ...करना चाहते हैं! इसी को कहते हैं दक्षिणी ध्रुव को उत्तरी ध्रुव और पश्चिमी गोलार्द्ध को पूर्वी गोलार्द्ध से मिलाना और दो नावों पर चढना.”[22] मालवीय की चेष्टाओं पर भी उनका विश्वास नहीं. उन्हें खेद है कि मालवीय के हिन्दू विश्वविद्यालय में संस्कृत की प्रधानता नहीं है और वहां “क्वींस कालेज की तरह भी संस्कृत का प्राधान्य नहीं रहा और वहां के विद्यार्थी बिस्कुट, शोरबा और अंडा गले के नीचे उतारते हैं.”[23] इसी लेख में कुछ और बातों पर विचार किया गया है जिसे देखना उचित होगा. सनातन धर्मियों के अनुसार शुद्धि कर हिन्दू सभा का वर्ण संकरता फैलाना अनुचित है. हिन्दू सभा की आलोचना करते हुए सनातन धर्म पताका ने लिखा-“ जब एक बार गो मांस या शूकर मांस खा लेने से ही हमारे धर्म शास्त्रों में दीर्घ-काल व्यापिनी विकट तपस्या का प्रायश्चित्त है तब जिन चमार आदि अस्पृश्यों के पचास पुश्तों से अभक्ष्य भक्षण हो रहा है , उन्हें कैसे हम अपने कूओं से जल भरने दें या एक पंक्ति में बैठाकर श्वांस सूघें. इनके सिवा जब कांग्रेस, आर्य समाज आदि ने शुद्धि अछूतोद्धार आदि का प्रस्ताव पास कर सुधारकों के लिये दरवाजा खोलना दिया है, तब इन्हें हिन्दू सभा में घुसेडने की क्या आवश्यकता है ! किंतु कुछ औंधी खोपडी के मुठ्ठी भर सुधारकों की रूचि रखने के लिये मालवीय जी ने ऐसे धर्म विरूद्ध प्रस्तावों का अनुमोदन कर सनातन भाईयों के मताधिक्य और श्रेष्ठत्व की उपेक्षा की और उनकी विमल विचार –माला में खलबली मचा दी है. पहले तो यों ही आर्यसमाजियों और ईसाइयों ने अछूतों को भडकाकर गांवों में सनातनियों से लडने वाली एक पार्टी खडी कर दी थी, दूसरे हिन्दू सभा ने ऐसे उपेक्षणीय विषयों को उठा कर उसके कर्णधारों ने अस्पृश्यों और सनातनियों के बीच सारे देश में बराबर के लिये रणभूमि तय्यार कर दी.”[24]
इस लेख में अंतत: यह कहा गया कि “ हिन्दू महासभा एक स्वार्थमयी और रहस्य पूर्ण संस्था भी बनी जा रही है.” [25] यह देखना आज बहुत दिलचस्प है कि हिन्दू सभा के समर्थक किस तरह अछूतों को हिन्दू मनवाने के लिये लड रहे थे और हिन्दु धर्म के रखवाले उन्हें खडी-खोटी सुना रहे थे. हिन्दू सभा और सनातन धर्म के पंडितों के बीच के शास्त्रार्थ इस प्रसंग में बहुत उपयोगी सिद्ध होटल हैं. यहां एक दो प्रसंगों की चर्चा की जा सकती है. छपरा जिले में हिन्दू सभा की ओर से बोलते हुए बाबू चन्द्रिका प्रसाद ने कहा- “ हाय हाय बडे शोक की बात है कि हिन्दू जाति डोम मेहतरों को अपने में मिलाना नहीं चाहती, इनके न मिलाने से बडी दुर्दशा हो गयी. औरंगज़ेब ने ... मंदिर तोड डाले...कायर हिन्दुओं ने विश्वनाथ का दूसरा मंदिर बनवा लिया, सोमनाथ का मंदिर तोड दिया गया. यदि उस समय डोम और मेहतर हिन्दू जाति के अन्दर होते तो ये लडके बचा लेते.... नहीं मालूम अब हिन्दू जाति की क्या दशा होगी. इस हिन्दू धर्म ने कणाद जैसे नास्तिकों को अपने में रक्खा उसको तो निकाला ही नहीं फिर डोम मेहतरों को कैसे निकाल सकता है.” सनातनियों की ओर से बोलते हुए पं. कालूराम शास्त्री ने कहा कि जब तक क्षत्रिय समाप्त नहीं हो गये सोमनाथ का मंदिर लूटा नहीं जा सका. जब क्षत्रिय न बचा सके तो उसे डोम मेहतर क्या बचा पाते. शास्त्र के श्लोकों का अर्थ बताते हुए शास्त्री जी ने कहा कि “ ब्राह्मणी के साथ शूद्र का संसर्ग होने से जो संतान होती है उसका नाम चाण्डाल है. वह लोहे के और शीशे के जेवर पहिरे, गले में बद्धी बांधे, कांख में पेटी रक्खे, दिन के पूर्वार्द्ध में नगर का पाखाना साफ करके उत्तरार्द्ध में नगर में न जाय ये इकट्ठे होकर नगर के बाहर नैर्ऋत्य कोण में रहें ऐसा न करें तो दण्डनीय हैं.” फिर बोले- “ पाराशर स्मृति में लिखा है कि यदि चाण्डाल का दर्शन हो जावे तो सूर्य का अवलोकन करो और यदि चाण्डाल का स्पर्श हो जावे तो पहिरे हुए वस्त्रों को धोओ और स्नान करो. यह धर्म शास्त्र की आज्ञा है कोई भी आस्तिक हिन्दू इसमें चीं चपट नहीं कर सकता.”
चन्द्रिका प्रसाद हिन्दु सभाई थे और वे ताड गये कि ज़्यादा शास्त्रार्थ करने की अपेक्षा कुछ ऐसी बातें कहनी चाहिये जिससे हिन्दु हित की बात प्रमुख हो जाये. बोले जायेंगे, हिन्दुओं की रक्षा के लिये इन्हें अपने में मिलाना होगा. इस पर कालूराम शास्त्री के वचन में थोडी नर्माई आयी लेकिन फिर भी पाराशर स्मृति का एक श्लोक उद्धृत करना नहीं भूले जिसका अर्थ था- “ चाण्डाल के घट का जल यदि कोई द्विजाति भूलकर पी ले तो फौरन कै कर देना चाहिये कै करके समस्त जल को निकाल दे तथा फिर प्राजापत्य उपवास करे यदि उस जल को उसी समय न निकाल दिया जाये तो फिर कृच्छ सांतपन करना चाहिये...” मामले को थोडा दूसरा रूख देते हुए शास्त्री जी ने कहा कि मामला शूद्रों का नहीं है- श्वपच शूद्रों में पाँच भेद हैं तथा शास्त्रों में पांचों के साथ पृथक पृथक व्यवहार है- बल्कि चाण्डालों और श्वपचों का है. अंतत: शास्त्री जी उस आम सभा में बोले- “ मनु की व्यवस्था देखिये- चाण्डालों तथा श्वपचों का निवास ग्राम के बाहर हो तथा इनके पात्र अश्पृश्य हैं तथा इनका धन कुत्ता तथा गदहा है. इनके कपडे मुरदों के वस्त्र वा पुराने चिथडे हों तथा फूटे बर्तनों में भोजन लोहे के आभूषण तथा घूमना स्वभाव [ यह इनका लक्षण है]. धर्मानुष्ठान के समय में इन [चाण्डाल और श्वपच इत्यादि] के साथ देखना बोलना आदि व्यवहार न करे. उनका व्यवहार तथा विवाह बराबर वालों के साथ हो. इनको खपरे आदि में रखकर अलग से पराधीन अन्न देना चाहिये तथा वे रात को ग्रामों तथा नगरों में न घूमें ...”
इस शास्त्रार्थ में क्या हुआ इसपर सनातन धर्म पताका का मंतव्य था –“ आज के शास्त्रार्थ में हिन्दू सभा ने वह पछाड खाई है कि यदि इसमें शर्मदार सभासद होंगे तो फिर कभी शास्त्रार्थ का नाम न लेंगे निर्लज्जों की तो कथा ही भिन्न है.” [26]
इस पूरे प्रकरण को इसके सन्दर्भ में देखना उचित होगा. विद्वानों ने उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सनातनी और सुधारवादी हिन्दूवादी धाराओं के टकरावों की पर्याप्त चर्चा की है. मैक्लेन ने कहा है कि उस दौर में हिन्दू बनाम मुसलमान के बजाय सनातनी और सुधारवादियों के बीच ज़्यादा तीव्र संघर्ष चल रहा था.[27] इस दौर में हिन्दुओं को एकजुट करने के प्रयास आन्दोलनों –हिन्दी और गो-रक्षा- के दौर में तो हुआ ही एक प्रकार से राष्ट्रीय सोच का एक हिन्दू संस्करण भी लिखने पढने वाले वर्ग ने तैयार कर दिया. जिस समय राष्ट्र्वादी सोच आकार ले रहा था उसी दौर में एक साम्प्रदायिक सोच भी तैयार हो रहा था.[28] लेकिन, विद्वानों का ध्यान इस और कम गया है कि इसी दौर में एक सवर्णवादी पाठ भी तैयार हुआ. पूरे इतिहास पर उनकी दृष्टि, समाज के पिछडे समुदायों के प्रति रवैया तथा प्रगति के संबंध में उनकी धारणा इन सभी मामलों में उन्नसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के पहले तीन दशक में यह कोशिश लगातार हुई कि उत्तर भारतीय समाज में सनातनी या वर्णाश्रमी मूल्य बोध बना रहे. अधिकतर सनातनी लोग यह सोचते थे कि “बुरे दिन” आ गये हैं और सुधारवादी चक्कर में पडकर कोरी- चमार भी ब्राह्मण बनने के “ धर्म विरोधी” स्वप्न देखने लगे हैं. [29] फिर भी सुधारवादी आन्दोलनों और बाद में कांग्रेस के नेतृत्व में हुए जनांन्दोलनों के कारण समाज में निम्न जातियों की भागीदारी महत्त्वपूर्ण होने लगी. धीरे धीरे सनातनी विद्वान भी हिन्दू के भीतर निचली जातियों को लेकर सोचने लगे. 1907 में लिखे गये एक भाषण में अयोध्या प्रसाद हरिऔध ने “बीस करोड हिन्दू के राष्ट्र” की बात की.[30] मालवीय हिन्दू एकता के लिये निचली जातियों को साथ लेकर चलने के हिमायती थे हालांकि सबको बराबर मान कर नहीं. वे समझाते थे कि विवाहादि जैसे सामाजिक व्यवहार में जाति के नियमों का पालन अवश्य होना चाहिये लेकिन सभाओं में निचली जाति के लोगों को समकक्ष नहीं पर नीचे बैठने दिया जाय. उनका मानना था कि नीची जाति के लोग इसी से प्रसन्न हो जायेंगे और हिन्दु एकता का आदर्श उपस्थित हो जायेगा. 1922 में गया की एक सभा में यह कहा कि अगर ब्राह्मणों को सभा में उच्च आसन दिया जाय तो रैदासों को भी नीचे बैठने दिया जाये.[31] उनके अनुसार द्विजों द्वारा इस तरह की उदारता से ही निचली जाति के लोग संतुष्ट हो जायेंगे. अपनी बात को समझाने के लिये वे पुराण की एक कथा सुनाते हैं कि एक बार एक राजा एक गांव से होकर गुजर रहे थे. उस गांव में एक अहीर के घर कथा हुई थी और प्रसाद वितरण हो रहा था. राजा ने अहीर के हाथ से प्रसाद ग्रहण नहीं किया क्योंकि अहीर नीच जात का माना जाता था. घर लौटकर राजा ने देखा कि उसके सारे पुत्र बीमार पड गये हैं. इस कथा के माध्यम से मालवीय ने यह स्थापित करने का प्रयास किया कि किसी भी भक्त का निरादर प्रभु सहन नहीं कर सकते भले ही भक्त नीच अहीर ही क्यों न हो.[32] नेताओं में कुछ ऐसे लोग भी थे जो किसी भी सूरत में वर्णाश्रमी आदर्शों को छोडने को तैयार नहीं थे. इस तरह के लोगों में सबसे बड़ा नाम था दरभंगा महाराज का जिनके विचारों पर एक दृष्टि डालना युक्तिसंगत होगा. जनवरी 1923 में बम्बई की एक बड़ी सभा में उन्होंने कहा कि “ शोभा, प्रतिष्ठा, गौरव और जीवन इसी में है कि सच्चे हिन्दू की हैसियत से सत्य सनातन धर्म कि रक्षा करते हुए संसार के आगे बढें. उसी को हिन्दू जाति की उन्नति कहेंगे ...जिस जातीय व्यवस्था की आपके पूर्व पुरूषों ने धन, जन और जीवन सभी कुछ देकर रक्षा की है वह व्यवस्था जीवित रहेगी.” [33]
कतिपय संस्मरणों में बीसवीं सदी के दूसरे दशक में हिन्दी प्रदेश में जात पात के नियमों का कैसा आतंक था इस बात का पता चलता है. 1915 की गर्मियों में जमालपुर बाज़ार में एक मैथिल ब्राह्मण, जिसने आर्य समाज को स्वीकार कर लिया था, ने घोषणा की कि वह एक कुएँ से निकाल कर एक अछूत के हाथ से पानी पीकर लोगों को दिखलायेंगे कि इससे कोई प्रलय नहीं होता है. मैथिल पंडितों के भय दिखाने के बावजूद जब मोहित मिश्र (शर्मा) न डिगे तो देखा गया कि क्रुद्ध भीड के सामने किसी की हिम्मत न हो रही थी कि आगे बढे और कुएं से पानी निकालकर शर्मा को पानी दे. वहां कई आर्य समाजी नौजवान भी खडे थे. पर “ कहीं लोग पानी भरने वाले को ही न मार दें- युग युग से जो काम वर्जित है उसे अचानक उठकर कर देने का साहस कोई नहीं जुटा पा रहा था. स्त्रियां दूर दूर से , अपने घरों की खिडकियों से झांककर, यह तमाशा देख रही थीं. ‘ पता नहीं आज क्या हो जाए? धर्म का नाश होने पर तो यह धरती भी नष्ट हो सकती है. भूचाल आ जाएगा, महामारी फैल जाएगी’ तब हिम्मत कौन करे? मोहित शर्मा के बहुत ललकारने पर, हाथ पकड कर खींचने पर श्यामला साह तेली तथा एक दो सूडी, कलवार भी इनारे की जगत पर आ चढे.” ... उन दिनों डोम चमार आदि जातियों की तो बात ही नहीं उठती थी , बनिया जाति के ही कुछ शाखा के कुछ लोगों का पानी नहीं चलता था” हजारों लोगों के सामने एक साहसी ब्राह्मण आर्य समाजी युवक मोहित मिश्र को इस साहस के लिये कितने कष्ट उठाने पडे उसके बारे में जानने पर आज विश्वास करना कठिन होगा.[34]
उपसंहार में यह कहना अनुचित न होगा कि 1920 के दशक तक भी राष्ट्रवादी हिन्दू नेतृत्व जाति के प्रश्न पर वर्णाश्रमी व्यवस्था से विमुख होकर् अपने सामाजिक संगठन को नहीं समझ पा रहा था. लोकशक्ति के युग के आने की सूचना गांधी के नेतृत्व में चल रहे आन्दोलनों से हो चुकी थी और संख्या का समीकरण हर राजनैतिक समीकरण के लिये प्रभावी सिद्ध हो रहा था. ऐसे समय में भी मदन मोहन मालवीय जैसे प्रतिष्ठित हिन्दू नेताओं और उनके संगठन हिन्दू महासभा को जिस तरह से विरोध का सामना करना पड रहा था वह यह बतलाने के लिये काफी था कि सनातनी बज्र पुरातनपंथी वर्णाश्रमी समर्थकों की कमी उस समय भी यह नहीं देख सक रही थी कि अब नया युग आ गया है और नया समाज बन रहा है. वह कैसा युग था इसको व्यक्त करने के लिये अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जिससे प्रमाणित होता है कि तमाम प्रगतिशील तत्त्वों के साथ हिन्दी में ब्राह्मणवादी सोच प्रभावी रूप से उपस्थित था. यह ऐतिहासिक महत्त्व की बात है कि यह सोच बाद के वर्षों में परोक्ष रूप से धीरे धीरे कम दिखाई देने लगा. यह ‘छुप जाना’ था या खत्म हो जाना था, यह जांच का विषय है.
[1] ओम प्रकाश वाल्मीकि, ‘1857 और हिन्दी नवजागरण’, प्रगतिशील वसुधा- 76, वर्ष 4, अंक 4, जनवरी-मार्च 2008, पृ. 170. हिन्दी नवजागरण के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों के संतुलित अध्ययन के लिये ज़ोर देने पर बल एक अरसे से दिया जाता रहा है. हिन्दी के बहुत सारे समाजशास्त्रीय पद्धति से परिचित आलोचकों ने इस विषय पर लिखा है. हिन्दी नवजागरण के महत्त्व को स्वीकारते हुए भी मैनेजर पाण्डेय जैसे समीक्षक इसके नकारात्मक पक्ष को भी ध्यान रखने की ज़रूरत पर बल देते हैं. (देखें- मैनेजर पाण्डेय, साहित्य और इतिहास दृष्टि (दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2000), पृ. 191.
[2] हितेन्द्र पटेल, ‘ज़ाति का प्रश्न’, देवेन्द्र चौबे, साहित्य का नया समाजशास्त्र, (दिल्ली: किताब घर, 2006).
[3] हरिश्चन्द्र मैगज़ीन, 15 अप्रिल, 1874, पृ. 198.
[4] वही, पृ, 199.
[5] वही, पृ. 199.
[6] हेतुकर झा (सं) बाबू रामदीन सिंह रचित बिहार दर्पण, (दरभंगा: महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फाउण्डेशन,1996 [1882], पृ.134.
[7] वही, पृ. 142-43.
[8] वही, पृ. 148.
[9] वही, पृ. 148.
[10] वही, पृ. 138.
[11] क्षत्रिय पत्रिका,1880,
[12] रामचरित्र सिंह, क्षत्रिय पत्रिका, खण्ड 2, संख्या 3,4,1882, पृ. 28. इस लेख में लेखक का उद्देश्य कायस्थों या अन्य किसी जाति की निन्दा करना नहीं था बल्कि क्षत्रियों को इस बात के लिये तैयार करना था कि बदलते समय में अगर वे बंगाली, मद्रासी और कायस्थों की तरह उन्नति नहीं करेंगे तो उनका कोई मान सम्मान नहीं रहेगा.
[13] मैने अन्यत्र इस विषय पर विस्तार से चर्चा की है. देखें- हितेन्द्र पटेल, ‘कम्युनलिज्म एण्ड इंटेलिजेंसिया इन लेट नाइंटींथ एण्ड अर्ली ट्वेंटीथ सेंचुरीज बिहार’(शोध प्रबंध, इतिहास अध्ययन केन्द्र, ज. ने. वि., 2007), अध्याय 5.
[14] बालकृष्ण भट्ट, निबंधावली. पृ.
[15] द्विज पत्रिका , संख्या 25, 1891. यह पत्रिका साहब प्रसाद सिंह द्वारा खड्गविलास प्रेस, बांकीपुर (पटना) से प्रकाशित होती थी. इस पत्रिका ने बंग देश का भूगोल और इतिहास पुस्तक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित किया था. इस इतिहास पुस्तक में जाति का उल्लेख बहुत सहजता से लोगों के वर्णन में किया जाता था. विशेष रूप से द्रष्टव्य है इस पुस्तक का ‘हिन्दू शासन’ खंड. इस खंड में उल्लेख किया गया है कि बंगाल में कुलीनता का प्रचलन कैसे शुरू हुआ- “ राजा आदिशूर (इन्होंने 974 ई के इधर उधर सिंहासनारोहन किया था) ने भारत के जिन जिन प्रदेशों में बौद्ध धर्म का प्राबल्य नहीं हुआ था उन उन प्रदेशों से अच्छे अच्छे पंडित बुलाने का संकल्प लिया.... कन्नौज से पाँच ब्राह्मण- भट्ट नारायण, दक्ष, श्री हर्ष, छांदोड और वेदगर्भ (बुलाए गये).यही कुलीन बंगाली ब्राह्मणों के आदि पुरूष हैं. इन के साथ एक एक कायस्थ जाति के सेवक थे वही कुलीन कायस्थों के के पूर्व पुरूष हैं.... आदिशूर ने जिन ब्राह्मणों और कायस्थों कन्नौज से बुलाया था उन की संतान को श्रेणी बद्ध करना सुयश का बड़ा भारी कारण हुआ किस की क्या मर्यादा है यह स्थिर करके बल्लाल सेन ने कुलीनता की प्रथा चलाई.”
[16] नगेन्द्र नाथ गुप्त, अमर सिंह (पुणे: संवाद प्रकाशन, 2008), पृ. 13. यह पुस्तक मूलत: 1895 में बांग्ला में लिखी गयी थी और इसका हिन्दी अनुवाद प्रतापनारायण मिश्र ने किया था. खड्ग विलास प्रेस , बांकीपुर (पटना) से इसका प्रकाशन बारह वर्षों बाद हो सका. फरवरी 2008 में संवाद प्रकाशन, पुणे ने इस पुस्तक को फिर से प्रकाशित किया है.
[17] माधव मिश्र, ‘ पिञ्जरपोल’, सचित्र माधव मिश्र निबन्ध माला परिशिष्ट खण्ड (सं. चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद शर्मा एवं झावरमल्ल शर्मा) (प्रयाग: इंडियन प्रेस लिमिटेड, 1935), पृ.25.
[18] माधव मिश्र संपादित सुदर्शन पत्रिका में जून 1900 के अंक में यह स्पष्ट रूप से कहा गया था कि हिन्दुओं को चाहिये कि वे सिर्फ उन्हीं राष्ट्रीय संगठनों को हिन्दुओं की राष्ट्रीय संस्था मानें जहां वर्णाश्रम धर्म के नियमों का पालन होता हो.
[19] हेतुकर झा, ‘लोअर कास्ट पेजेंट्स एंड अपर कास्ट्स ज़मीदार्स इन बिहार, 1921-25’, इंडियन इकानामिक एंड सोशल हिस्ट्री रिव्यू, 14,4, 1977.
[20] स्वामी सहजानंद जैसे महान किसान नेता ने अपना सामाजिक जीवन एक जाति के नेता के रूप में किया था. वे भूमिहारों को ब्राहमण का दर्ज़ा दिलाने के लिये लड रहे थे. उनके शुरूआती लेखन में जातिवादी सोच को स्पष्टत: देखा जा सकता है. (देखें- सहजानंद, भूमिहार ब्राह्मण परिचय, बनारस, 1916 एवं ब्राह्मण समाज की स्थिति, बनारस, प्रकाशन वर्ष का उल्लेख नहीं).
[21] देखें Hitendra Kumar Patel, ‘The Intelligentsia and the Question of Caste in Bihar in the Late Nineteenth and Early Twentieth Centuries’, in Raj Sekhar Basu & S. Dasgupta (eds.), Narratives of the Excluded (Kolkata: K. P. Bagchi, 2008).
[22] सनातन धर्म पताका, मुरादाबाद, संख्या 2, वर्ष 26, 1926, पृ. 28-29. यह मासिक पत्रिका 1900 से मुरादाबाद से निकलती थी.
[23] पूर्वोक्त पृ. 30.
[24] सनातन धर्म पताका, वर्ष 26, संख्या 2, पृ. 30-31.
[25] पूर्वोक्त, पृ. 33.
[26] सनातन धर्म पताका, वर्ष 26, पृ. 14.
[27] विस्तार से चर्चा के लिये देखें- John Mclane, Indian Nationalism And The Early Congress (Princeton:1977). इस सम्बन्ध में अन्य उपयोगी जानकारी के लिये देखें- W. Jones Kenneth, Socio Religious Reform Movements In British India (Cambridge University Press, 1994), Vasudha Dalmia, The Nationalization Of Hindu Traditions (Delhi and Calcutta: Oxford University Press, 1997).
[28] Gyanendra Pandey, Construction of Communalism , Delhi, OUP, 1992.
[29] बनारस और अन्य उत्तर भारतीय नगरों और कलकत्ता से निकलने वाले पत्रों में तो इस तरह के हज़ारों उदाहरण दिये ही जा सकते हैं, बिहार की कुछ पत्रिकाएं भी 1888 के बाद से इस तरह के भावों को स्पष्टत: व्यक्त कर रही थी. उदाहरण के लिये देखें सारन सरोज के जून और दिसम्बर 1888 के अंक.
[30] हरिऔध ने 1907 में सनातन धर्म के समर्थन में एक भाषण तैयार किया था जिसे उन्होंने प्रकाशित किया था. इस पुस्तिका की एक फटी हुई कापी राष्ट्रीय पुस्तकालय, कलकत्ता में है.
[31] विस्तृत चर्चा के लिये देखें- ब्राह्मण सर्वस्व, जनवरी, 1923. इस अंक में मालवीय 30 दिसंबर 1922 को गया में दिये गये भाषण को छापा गया था.
[32] वही.
[33] पूरे भाषण के लिये देखें ‘ सनातनधर्मोद्धार का उपाय’, ब्राह्मण सर्वस्व, जनवरी 1923, पृ. 58-63.
[34] विस्तार से जानने के लिये देखें- सावित्री दूबे, जो जाने नहीं गये (दिल्ली: अभिरूचि प्रकाशन, 1997), पृ.19-49.
[ वागर्थ, अगस्त, 2009]
कमाल की सोच है। आज के युग में भी इंसान की सोच जातिवाद से ऊपर नहीं उठ पा रही है।
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