Saturday, 22 August 2009
प्रभाष जोशी का सती प्रसंग
जगदीश्वर चतुर्वेदी ने जिस तरह से प्रभाष जोशी के विचारों में मर्दवादी विचारधारात्मक रूझान लक्षित किया है वह एक अतिरेक है. जब मेक्स वेबर पूंजीवाद के विकास के लिए प्रोटेस्टेंट धर्म को एक कारण बताते हैं तो यह कहना गलत है कि वे दकियानूसी हैं. यह बिल्कुल सही है कि तेंदुलकर और कांबली में अंतर है. कांबली के पूरे लालनपालन और जीवन यापन में जिस किस्म की अनिस्थरता है उसे देखते हुए कोई अगर तेंदुलकर के एक ब्राह्मण परिवार के होने के कारण एक किस्म के स्थायित्व, संतुलन का दर्शन उसके पूरे व्यक्तित्व में पाता है तो यह एक दृष्टि हो सकती है. पर शायद प्रभाष जोशी से हम उम्मीद कर सकते हैं कि वे समझें कि कपिलदेव नाम का एक क्रिकेटर हुआ है जिसका योगदान और जिसका संतुलन किसी ब्राह्मण महानायक - तेंदुलकर या गावस्कर से कम नहीं है. एक जमाना था जब कपिलदेव का जाट होना ही उसके व्यक्तित्व का सबसे बडा वैशिष्ठ्य बन गया था. यह देखना चाहिए कि प्रभाष जोशी जब कपिलदेव के बारे में बात कर रहे होते हैं तो उस तरह से नहीं सोचते हैं जिस तरह से वे सचिन या गावस्कर के बारे में सोचते हैं. यहीं से हमारे लिए विमर्श का एक नया द्वार खुलता है. प्रभाष जोशी जैसे पत्रकार को यह क्यों जरूरी लगता है कि परम्परा विवेक के साथ परम्परा के प्रति एक क्रिटिकल दूरी रखना अंग्रेज का अनुसरण करना है. राहुल सांकृत्यायन जैसे विद्वान एक जगह जाकर अन्य महानों से इस लिए अलग हो जाते हैं क्योंकि उन्होंने इस सीमा का अतिक्रमण किया था. इस देश के सन्दर्भ में पियरे बोर्दिये के विचारों को ध्यान में रखकर लोगों के सौंदर्य बोध के विकास को समझना चाहिए. बोर्दिये बताते हैं कि हम जिस परिवार (वे हैबिटैट का प्रयोग करते थे जिसमें परिवार शामिल है)में रहते हैं उसी के अनुसार अपना टेस्ट और अपनी प्रवृत्ति का विकास करते चलते हैं. यह देखकर बहुत सारे लोग सोच में पड जाते हैं कि उनके इर्द गिर्द के तमाम सभ्य और संस्कारित दिखने वाले लोग ब्राह्मण या उंची जाति के होते हैं और जल्दबाजी में , उग्र और मतलबी तरह के लोग छोटी जाति के अधिक होते हैं. कई बार वे बोलें या ना बोलें वे मन ही मन मानने लगते हैं कि आखिर संस्कार कुछ तो होता ही है. यही वह मायाजाल है, दलदल है जहां एक बार फंसने के बाद एक व्यक्ति के पीछे की जाति को उसके गुण के रूप में देखने का अप्रत्यक्ष प्रभाव पैदा हो जाता है. अमिताभ बच्चन कायस्थ हैं और आप गौर करेंगे कि वे ब्राह्मण जैसे व्यक्तित्व का प्रदर्शन करते रहते हैं. जिस तरह से धोनी का विकास हुआ है क्या लगता नहीं कि उसके पीछे की जाति के बारे में कुछ कह पाना और उससे उसकी सफलता को जोडना बेवकूफी होगी. राहुल द्राविड का आचरण कैसे कन्नड ब्राह्मण जैसा नहीं है जबकि बे क्रिस्तान हैं.वैसे इस देश में ब्राह्मण वैचारिक दबाव इतना अधिक है कि हिन्दी पट्टी के बहुत सारे ब्राह्मण नेहरू की महानता के पीछे उनका ब्राह्मण होना महत्त्वपूर्ण मानते हैं. अब इतने सारे मिश्रण के बाद भी नेहरू परिवार तो ब्राह्मण होने का दावा नहीं कर सकता फिर भी एक छवि ऐसी बन चुकी है कि नेहरू परिवार में ब्राहम्ण संस्कार है. प्रभाष जोशी के पूरे लेखन में एक तरह का ब्राहम्णवादी आग्रह है इससे इंकार करना कठिन है. हालांकि वे एक महान पत्रकार हैं, और उनका यह ब्राह्मणवादी विचारधारात्मक प्रभाव उनके सांसारिक व्यवहार में सायास आता हो यह जरूरी नहीं. इस अर्थ में वे मदनमोहन मालवीय की परंपरा के राष्ट्रीय व्यक्तित्व हैं. उनकी इस सीमा को समझना चाहिए. बाकी की बातें इस बडी सीमा के पीछे पीछे चलती हैं. सती प्रथा के प्रसंग में जोशी जी हठ का परिचय दे रहे हैं. वे गलत हैं. स्त्री विमर्श के जिन सन्दर्भों की तरफ जगदीश्वर चतुर्वेदी गये हैं उस सन्दर्भ में प्रभाष जोशी के विचारों का अध्ययन नहीं किया जा सकता. अंत में, यह निवेदन है कि प्रभाष जोशी को चाहिए कि 'सबसे महान ब्राह्मण' गांधी का अनुसरण करें और बामनी जिद न रखकर अपनी भूल को सुधारें. राहुल सांकृत्यायन के कनैला की कथा के एक पाठ के बाद जब जोशी जी इन बातों पर सोचेंगे तो हो सकता है कि उनके सोच के भीतर जो एसेंसियलिज्म और सब्सटांसियलिज्म है उसके प्रति वे सचेत हो सकते हैं. मैं व्यक्तिगत रूप से उनको हिन्दी समाज का एक महान बुद्धिजीवी मानता हूं और जीवन भ उनसे सीखता रहा हूं और रहूंगा. इस प्रसंग में बस इतना ही.
Labels:
जगदीश्वर चतुर्वेदी,
पियरे बोर्दिये,
प्रभाष जोशी,
ब्राह्मणवाद,
सती प्रथा
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment