Sunday, 23 August 2009

प्रभाष जोशी की सती प्रथा संबंधी टिप्पणी

प्रमोद मल्लिक की प्रतिक्रिया से थोडा चकित हुआ. क्या यह कोई दोहराने की जरूरत है कि प्रभाष जोशी जी हिन्दी बौद्धिक जगत के एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ हैं ? निश्चित ही उन्होंने जब लोगों का चुनाव किया होगा तो वे ये न देखते होंगे कि यह ब्राह्मण है या नहीं. वे इस स्तर के तो नहीं ही होंगे. मैं उनको व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता, लेकिन इतना तो उनके लेखन से ही लग जाता है कि वे एक उच्च कोटि के व्यक्ति और विद्वान हैं. सवाल इस बात का है ही नहीं. सवाल है परंपरा की उस समझ का है जिसमें सती जैसी प्रथा का समर्थन ध्वनित होता है. इस मसले पर हम उनसे यह उम्मीद कतई नहीं करते कि वे सौ साल पहले के महानों की तरह ही बातें करते रहें. प्रमोद जी, बंकिमचन्द्र ने बहुविवाह का समर्थन किया था. इस बात से बंकिम हमारे लिए बेकार नहीं हो जाते. विद्यासागर और बंकिम का वितर्क देखिए. क्या आपको लगता है कि बंकिम का समर्थन इस विषय पर किया जा सकता है? प्रभाष जी को पूरा अधिकार है कि वे परंपरा की एक हिन्दूवादी समझ रखें. वे फिर भी हमारे लिए आदरणीय रह सकते हैं. आखिर मदन मोहन मालवीय हमारे महान हैं कि नहीं, कुमारस्वामी हैं कि नहीं? लेकिन, परंपरा की इनकी समझ एकांगी ही मानी जायेगी. आखिर एक समय नरबलि भी, शिशुबली भी परंपरा का अंग रही होगी. परंपरा कोई ऐसी चीज नहीं जिसे हम पूरा का पूरा ढोते रहें. हम अपनी सुविधानुसार उसमें काट छांट करते ही हैं. सती प्रथा हमारे समाज के लिए कलंक है. जिस बात से इसका परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन होता हो उसका विरोध होना चाहिए.

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