Thursday, 27 August 2009

हितेंद्र पटेल का पहला उपन्याकस “हारिल” प्रकाशित







जीवन के बौद्धिक प्रवाह में अपनी धुन और शर्तों पर जीते हुए व्यक्ति को कुछ ऐसे अनुभव होते हैं, जो उसके अब तक जीए जीवन से नितांत भिन्न होते हैं। इससे पहले जीवन ऐसे प्रश्ने लेकर नहीं मिला था। इन अनुभवों से जुड़े प्रश्नोंभ का उत्तर न खोज पाने की व्याकुलता में प्रशांत हिमालय की ओर अपनी औचक यात्रा पर निकल पड़ता है। इस हिमालय प्रवास में उसकी भेंट कुछ ऐसे जीवंत चरित्रों से होती है, जो उसे नयी दृष्टि देती है।

कोलकाता लौटकर प्रशांत ने पाया कि दुनिया अपनी धुरी पर नहीं घूम रही। नयी सृष्टि में कौन-सा मार्ग एक बौद्धिक के जीने के लिए मुफीद है? क्या चुनें हम अपने लिए!… आख‍िर क्या चुना प्रशांत ने अपने लिए?

इस उपन्यास में ऐसे बहुत से सवालों से मुठभेड़ हैं, जो अपनी सरल गति के कारण बेहद रोचक और पठनीय है। उपन्यास की नायिका जामिनी का आख‍िर में किया गया सवाल सिर्फ उपन्यास के भीतर का सवाल नहीं रह जाता – सभी सजग-सचेत व्यक्ति के लिए है कि, “क्या हमलोग ऐसा कुछ नहीं कर सकते, जिससे हम इज़्ज़त के साथ रहें, खुश रहें, स्वाधीन रहें और हमें किसी ऐसे सहारे की ज़रूरत न हो, जो हमारी डिग्निटी को नष्ट करे। पढ़े-लिखे लोगों को तो ऐसी कोई राह निकालनी चाहिए। ऐसा क्या कि हमारी सारी मेधा, सारी तपस्या, सारे आदर्श तभी बचें जब हमें शक्तिशाली लोगों की बैसाखी मिले!”

हारिल लेखक का पहला उपन्यास है, मगर इसके कथा-वस्तु के साथ जैसा प्रौढ़ मगर सहज लेखकीय निर्वाह मिलता है, वह विरल और विचारणीय अनुभव देता है।





Rajeeva said:

Hitendra coming out with a novel is not a surprise. Being not exactly from linguistic background was never his limitation. He is an emotional man and whatever was lacking, JNU filled in. I am sure Haaril would never part with the wooden plank now it has found. Looking forward to some interesting reading. राजीव पाण्डेय

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