Saturday 22 August, 2009

प्रभाष जोशी-जगदीश्वर चतुर्वेदी विवाद

यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है कि भाषा को आलोचना के दायरे में लाया जाए. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने हिन्दी में एक नये प्रकार की बह्स को बढाया है. जब से हेडेन व्हाइट जैसे विद्वानों का जोर बढा है और भाषा के भीतर छिपे (स्तरीय रूप में) विचारधारात्मक दबावों को समझने का प्रयत्न बढा है. यह बात बहुत सही है कि हमारे भीतर एक श्रद्धाशील पाठक पहले से मौजूद रहता है जिसके लिए श्रद्धेय लोग खास किस्म का प्रसाद बांटते चलते हैं और हम तृप्त होकर सर झुकाए चलते रहते हैं. यह भेडचाल हिन्दी में इतनी ज्यादा है कि एक बौद्धिक समुदाय के रूप में हिन्दी के बौद्धिकों की कोई हैसियत बन ही नहीं पाई. आज के इंडियन एक्सप्रेस में शेखर गुप्ता (संपादक) ने भारत में जिस किस्म की बौद्धिक क्षय का चित्र खींचा है वह कम से कम हिन्दी के मामले में तो सही ही लगता है. गुप्ता ने कहा है कि भारत मे समाज विज्ञान के क्षेत्र में कोई नया काम नहीं होता क्योंकि यहां राजनैतिक दबाव बहुत अधिक है. वे बतलाते हैं कि इतिहास में लगभग हर नया और उत्कृष्ट काम भारत के बाहर ही होता है. यह बात साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में भी है. मीडियाक्रिटी का ऐसा वर्चस्व है कि कोई भी नये विमर्श में शामिल होना नहीं चाहता. सांस्थानिक दबाव भी कम नहीं है. अब गौर करिए. जसवंत सिंह की किताब को रिलीज करने वाले प्रोग्राम में नामवर सिंह उपस्थित थे. नामवर सिंह पिछले तीस-चालीस सालों से हिन्दी बौद्धिक समुदाय में जिस तरह के विचारों को लेकर सबसे महान और बडे (प्रभाष जोशी के शब्द) बने हुए हैं उसकी भी किसी ने पडताल की हो (ठीक से) याद नहीं पडता. हिन्दी में नये लोगों को खुल कर बोलना पडेगा और चीजों को उघाड उघाड कर देखना पडेगा. गादामार (या गादामेर) की एक उक्ति का स्मरण होता है जिसमें वे कहते हैं कि हम भाषा में ही होते हैं. अगर भाषा के भीतर जाया जाए और उसे डीकंसट्रक्ट किया जाए तो कुछ नयी बातें आयेंगी. हम अपने प्रति भी क्रिटिकल सम्पर्क रखें तब जाकर वैसी दृष्टि हमें मिल सकेगी जिससे हम लगातार नये समय के साथ तादात्म बिठा सकेंगे. प्रभाष जोशी की भाषा का समाजशास्त्रीय विवेचन तो हो ही विचारधारात्मक विश्लेषण भी हो यह अभीष्ट है. आखिर क्या कारण है कि उन जैसा विद्वान ब्राह्मणों की संस्थाओं में जाकर सम्मानित होता है और इस बात के पीछे के सच को देखना नहीं चाहता. सचमुच हम भाषा के तिलिस्म में ही न अटक जाएं उसके पीछे के विचारों को भी खोलने का अभ्यास करे.

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