Monday 24 August, 2009

media ka khel

मज़े की बात यह है कि यह सबकुछ कोई सोची समझी रणनीति के तहद नहीं होती. मीडिया का काम इस तरह चीजों को फैलाना, बिखराना होता गया है कि अब लगता ही नहीं है कि ऐसा समय भी आयेगा जब सच को कहने और सुनने का दौर आयेगा. हाइपर रियलेतटी अब सचमुच वर्चुअल से ज्यादा पावरफुल होता जा रहा है. लेकिन, अभी भी इतिहास के प्रेत आकर हस्तक्षेप करते हैं और बहस चलने लगती है! यह बात कुछ और विश्लेष्ण की मांग करती है कि इतिहास के आइकन इतिहास से निकल कर किस तरह स्वायत्तता हासिल करते हैं और इतिहास की प्रक्रिया को गौण कर देते हैं. जसवंत सिंह की दिलचस्पी इस बात में क्यों नहीं होती कि इतने सारे लोगों को आखिर क्यों मरना पडा. वह कौन सा दौर था, कैसी ऐतिहासिक प्रक्रिया में इस तरह का नरसंहार चलता रह पाया. वह भी तब जब विभाजन हो चुका था ? जिन्ना के लिए हमदर्दी के कारणों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण होना चाहिए.

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