Friday, 21 August 2009
पुण्यप्रसून बाजपेयी की बिहार डायरी पर एक प्रतिक्रिया
बाजपेयी जी ने बात को सतही स्तर पर ही लिया है. न तो इस बात का कोई खास मतलब है कि किसने 1977 में जमीन बेच कर चुनाव लडा था और न ही कि कौन कितनी सादगी दिखा रहा है. बिहार संकट से तभी उबर सकता है जब लालू और नीतिश के समीकरण को बेमानी कर दिया जाये. हो सकता है अपनी अपील और कुछ विशेषताओं के कारण लालू भी बिहार की प्रगति के लिए सहायक हों. हमरा फोकस इस बात पर होना चाहिए कि बिहार की जनता को सही परिप्रेक्ष्य मिल सके, प्रशासन जिम्मेदार बन सके और सरकारी तंत्र से जितना संभव हो आम आदमी को राहत मिल सके. बिहार में सर्वत्र बदहाली है, तीव्र असंतोष है और बहुत संभव है कि अगर नीतिश जी बहुत जल्द कडे और बुनियादी सुधार का जोखिम न उठा सके तो उनके प्रति भी लोगों का विश्वास हिल जाएगा. याद होगा आपको कि जब लालू के खिलाफ कोई बोलता था तो लोग कहते थे कि ये जगन्नाथ मिश्र के घूसखोरवा युग से तो अच्छा ही है और फिर पिछडों को वे शक्तिशाली ही तो कर रहे हैं. आज इस सोच का परिणाम सामने है. पूरा बिहार रो रहा है. नीतिश लालू की छाया में कुछ कुंठित हो गये थे और वे अभी भी लालू के व्यक्तित्व के मुकाबले अपने व्यक्तित्व को रखकर ही सोचते हैं. समय सचमुच बदल गया है. बिहार में चाहे जिसकी सरकार रहे, चाहे कोई भी आए या जाए वहां जाति के नाम पर राजनीति खत्म होनी चाहिए और सब बिहारी को यह समझना चाहिए कि दूसरा बिहारी भी पहले बिहारी है बाद में भूमिहार या यादव है. एक और बात. बडी खूबसूरती से आप इस बात को गौण कर गये कि आप पटना एक मीडिया इंसटीच्यूट के उद्गाटन के लिए गये थे. ये सब खोल करके नीतिश क्या करना चाहते हैं मेरी समझ में नहीं आता. उनका मुख्य ध्यान स्कूल कालेज विश्वविद्यालय या अस्पताल को ठीक से चलवाने के बजाय इस तरह के संस्थानों के उद्घाटन के ऊपर ज्यादा है. 77 की याद में वे पेंशन की बात सोच पाते हैं लेकिन राज्य की राजधानी में कोई भी संस्थान अपना काम ठीक से करता दिखाई नहीं देता. नीतिश अच्छे आदमी हैं , ईमानदार भी. पर अगर उन्हें सचमुच कुछ करना है तो वे सांस्थानिकन पराभव को रोकें. आप भी मीडिया स्कूल के उद्घाटन के लिए कम जाएं थोडा स्कूल कालेज और महान पटना विश्वविद्यालय का हाल देखने जाएं तो ज्यादा उपकार होगा. आप इकानामी क्लास में चलते हैं अच्छी बात है लेकिन इससे भी अच्छी बात होगी अगर आप कष्ट करके ए एन सिन्हा इंस्टीच्यूट जाकर दो आंसू बिहार के बौद्धिक परिवेश पर बहा आएं. बाकी फिर कभी.
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