अनय, तीसरा विभाजन् (कहानी संग्रह), समन्वय प्रकाशन, गाजियाबाद, 2008 (मू.175 रू.).
हाल के वर्षों में सबाअल्टर्न (वंचितों-उपेक्षितों) और हाशिये के समाजों को समझने के लिये उनके दिन-प्रतिदिन के संघर्षों और आकाक्षा-अभिलाषा को प्रतिबिंबित करते साहित्य को बहुत महत्त्व दिया गया है. गायत्री चक्रवर्ती स्पिवैक ने महाश्वेता देवी के साहित्य को आधार बनाकर इतिहासकारों के समक्ष यह प्रश्न रखा है कि “ क्या सबाआल्टर्न अपने लिये खुद बोल सकते है?” इस क्रम में बंगाल में रहने वाले हिन्दी भाषी समाज या हिन्दुस्तानी समाज के सांस्कृतिक अध्ययन के लिये जिस रचनाकार का साहित्य हमारे लिये सबसे ज्यादा उपयोगी हो सकता है उसमें अनय का नाम लिया जा सकता है. उन्होंने कम कहानियां लिखी हैं और उनकी लेखकीय पहचान उनके व्यंग्यकार रूप से ही अधिक है. पहले रविवार और फिर जनसत्ता के लोकप्रिय व्यंग्यकार के रूप में वे अधिक जाने जाते हैं. कम लोगों को यह पता है कि अनय ने वामपंथ की राजनीति पर रविवार के दिनों में खूब लिखा था और उसके बाद भी जब जब उन्होंने लिखा लोगों ने गंभीरता से उसे लिया. जनसत्ता में छपे बंगाल के हिन्दी भाषी समाज पर उनका लम्बा आलेख आज भी याद किया जाता है. उनकी कहानियां पत्र पत्रिकाओं में पिछले चार दशकों से छपती रही हैं लेकिन अब तक उनका कोई कहानी संग्रह नहीं छपा था. यह संग्रह अनय का पहला संग्रह है लेकिन एक कथाकार के रूप में वे कलकत्ते में परिचित हैं. उनकी कहानियों का पाठ विभिन्न संस्थाओं ने कई कई बार किया है और एक कहानी –‘तीसरा विभाजन’ का पाठ और उसपर चर्चा तो बहुत अधिक हो चुकी है. यह सुखद है कि अनय की कहानियों के एक गल्प-गुच्छ से हिन्दी समाज एक साथ इस पुस्तक से परिचित हो सकेगा. एक कहानीकार के रूप में अनय का मूल्यांकन हो सके इसके लिए इस संग्रह की विशेष जरूरत थी.
अनय के कथा संसार में पात्र साठ के दशक से लेकर नब्बे के दशक के हैं. इस अर्थ में वे आदर्शवादी युग, मानस और भाव-बोध के साहित्यकार हैं. वे वैचारिक रूप से वामपंथी हैं और साठ के दशक से अगले तीस पैंतीस सालों के सामाजिक-भावनात्मक परिवर्तनों की एक प्रगतिशील व्याख्या करते हैं. उनके भाव-बोध का निर्माण जिन तत्त्वों से हुआ है उनमें हिन्दी प्रदेश के संस्कार, ग्राम्य जीवन दर्शन के प्रति मोह, सांस्कृतिक मूल्य-बोध के प्रति असाधारण आस्था आदि तत्त्वों का एक अद्भुत समावेश है जो उनकी कहानियों को हिन्दी समाज के बौद्धिक मानस का एक दस्तावेज बनाता है. ये कहानियां अपने पाठकों से एक दृष्टि की मांग करती हैं. अगर पाठक इन कहानियों को सामान्य ढंग से पढेंगे तो ये ‘सरल’ कहानियां लगेंगी, लेकिन ये कहानियां बहुत जटिल भावबोध को अभिव्यक्त करती हैं. उनके पात्र अपने ‘समय’ से कैसे हारते हैं और कैसे ‘समय’ के दबावों से मुक्त करने वाली संभावनाएं हमारे समय के जटिल यथार्थ को व्यक्त करती हैं –पूर्णत: नहीं, अंशत: यह अनय की तीसरा विभाजन की कहानियों से समझा जा सकता है.
इन कहानियों में पहली और शायद सबसे ‘पूरी’ कहानी है ‘समय सूर्य’ जिसमें एक क्रिश्चियन कालेज में एक मैकाले की संतान अंग्रेज़ी पढाने वाले प्रो सेन के भीतर कालेज के चपरासी के कुत्ता पालने से उत्पन्न क्र्रोध को व्यक्त किया गया है. प्रोफेसर साहब बदलते समय को समझ नहीं पाते और अतीत के दौर में रहे अपने ‘स्टेटस’ को खोते देख चपरासी को पीट देते हैं. समय बदल चुका है. कालेज में हडताल हो जाती है. प्रोफेसर लोग सेन से सहानुभूति रखकर भी कुछ नहीं कर पाते और स्वाभिमानी प्रोफेसर को गरीब चपरासी से माफी मांगनी पडती है. इस कहानी के दो वाक्यों को देखें- प्रिंसिपल द्वारा सेन के बारे में यह कहना “ अतीत में जीने में उन्हें मलबा ही मिलेगा”; और कहानी के अंत में मिस्टर सेन को माफी मांगने के बाद “ मिस्टर सेन को बंसी (चपरासी) का आधार बढता नजर” आना. कहानीकार इन दोनों वाक्यों के साथ खड़ा दिखाई देता है. इस कहानी में व्यक्त भावों को ध्यान से देखने से यह साफ लगता है कि कहानीकार सेन महाशय के ‘एलियेनेशन’ से उत्पन्न आवेग को समझ रहे हैं और समय सूर्य के सामने उनके झुकने की आंतरिक पीडा को समझते हैं.
एक अनुमान किया जा सकता है कि यह कहानी सत्तर के आसपास लिखी गयी होगी. इसके तीस साल (अगर यह अनुमान सही है) बाद की कहानी ‘तीसरा विभाजन’ एक दूसरे तरह की पीडा को व्यक्त करने वाली मार्मिक कहानी है. इस कहानी की प्रशंसा आलोचक ज्योतिष जोशी और प्रफुल्ल कोलख्यान ने भी की है. यह निश्चित रूप से अनय की सर्वश्रेष्ठ कहानी है. इस कहानी को एक निहायत सपाट और भावुक कहानी के रूप में पढे जाने का भी भय है. एक गनी पहलवान है जो देश विभाजन के बाद तीन साल तक उन्नाव जिले में रहकर अंतत: पूर्वी पाकिस्तान जाने का निर्णय लेता है. उसके चेले उसे रोकने की कोशिश करते हैं, लेकिन उसका ईमान कहता है कि उसे मुसलमानों के अलग देश पाकिस्तान बन जाने के बाद यहां से चले जाना चाहिये. वह दो बरस के बेटे को लेकर बंगलादेश चला जाता है. समय उसे बांटने की कोशिश करता है उसे अपने ऊपर हुई ज़्यादतियों के बारे में बतलाने के लिये कहता है. बाद में जब उसका बेटा जुम्मन बड़ा होता है और महसूस करता है कि उसे यहां उसकी पहचान नहीं, वह तो बिहारी है और उसका घर तो वहां उस पार –उन्नाव में है वह यहां आता है. वापसी की इस यात्रा में वह सब कुछ मिट गया है जिसके सहारे वह अपने को पा सके. हिन्दू मुसलमान के बीच विभाजन इतना पक्का हो गया है कि अब लोग हिन्दू होकर गर्व करने लगे हैं और सिर्फ बूढों को याद है कि इस इलाके में कभी गनी चालीसा भी होता था. लोग उसे पाकिस्तानी समझ कर पुलिस स्टेशन ले जाते हैं और जुम्मन देखता है कि पुलिस स्टेशन उसके पुरखों के कब्रिस्तान के बिल्कुल पास में है. जुम्मन दु:ख के इन क्षणों में हंसा- “दादा की कब्र पुलिस की हिफाजत में है.”
कहानी इस बिन्दु पर आकर उस ओर बढती है जिससे इस कहानी का एक नया अर्थ उभरता है. एक बुढिया की आवाज आती है- “ दारोगा जी वह गनी पहलवान का लड़का है. मैंने गनी पहलवान को जाते समय वापस आने के लिये कहा था. गनी ने अपने लडके को भेजा है. वह अपने घर आया है.” इस समय कहानीकार ने लिखा है- “ जुम्मन का सारा डर दूर हो गया. न जाने कितने युगों से यह वह आवाज़ सुनने के लिए ज़िंदा था. वह अपने घर आया है.”
यह कहानी विखंडन की तकनीक की मांग करती है. पहचान और जुडाव मनुष्य के लिए कितना ज़रूरी है जिसे धर्म की चौहद्दी में समेटा नहीं जा सकता. यह उन्नाव के उस जिले की बात है जहां एक पंडित चेले को लगता है कि 1950 के बाद, गनी पहलवान के जाने के बाद “ छंगा पंडित के जीवन में कुछ नहीं हुआ”. उस चंदनधारी पंडित ने गनी पहलवान के बाद लंगोट नहीं पहना. उसने अपना लंगोट पेड़ पर टाँग दिया जो बरसों गनी उस्ताद की याद में रोता रहा. वह लंगोट उस सेक्युलर सांस्कृतिक देश का परचम हो सकता है जिसमें हिन्दू पट्ठे मुसलमान उस्ताद के बिना बदनपुर में जाना तक गवारा नहीं करते. बदनपुर के बदन की लंगोट तो गनी पहलवान थे! यह एक क्लैसिक कहानी है. जिसकी प्रत्येक पंक्ति को अलग अलग पढ़ कर भी कहानी के मर्म तक पहुंचा जा सकता है. किसी दार्शनिक ने कहा है कि मनुष्य के भीतर एक हार्ड डिस्क होता है जिसे कभी भी नष्ट नहीं किया जा सकता है. मनुष्य चाहे कितना भी गिर जाये, झेल जाये, बदल जाये यह “ अनकरेप्टेबुल” रहता है. यह हार्ड डिस्क ही है जो देश के साथ जोड नहीं बना पाता, अपनी बेटी को बँगला पढाते देख दुःखी होता है. जुम्मन की स्मृति में ही उसका सांस्कृतिक लोकेशन है. उस स्मृति के भीतर का कोना कोना झंकृत हो उठता है उस आवाज से जो बुढिया की आवाज है. इस आवाज को सुनकर जुम्मन का सारा डर दूर हो जाता है. उस आवाज को शायद थाने के बाहर कब्रों में दबे जुम्मन के पुरखों ने भी सुना होगा तभी तो कहानीकार ने लिखा है- “ न जाने कितने युगों से वह यह आवाज सुनने के लिए जिंदा था.”
ऐसी कहानियां बरसों में कभी लिखी जाती हैं.
इन दोनों कहानियों को एक साथ पढते हुए साफ लगता है कि कहानीकार ने एक लम्बी सांस्कृतिक यात्रा तय की है.
संग्रह की कुछ अन्य कहानियां अलग धरातलों पर हैं. अनय जी ने बहुत नज़दीक से अपने समाज के विस्थापित लोगों की व्यथा को देखा है और उसकी राजनीति की असलियत को समझा है. ‘अनादि दास का क्या हुआ?’ कहानी तो मानो सत्यकथा का बयान हो. पर यह सत्यकथा से भी ज़्यादा है. शिल्प की दृष्टि से यह बहुत कसी हुई कहानी है और भाषा भी बहुत सटीक है. किसी समय का क्रांतिकारी जिन्हें देखकर पुलिसवाले भाग खडे होते थे और धनीमानी लोग मूत देते थे जब पुलिस की मार से नामर्द बनकर और क्रांति प्रयास के विफल होने के बाद विपत्ति में पडकर अपने परिवार के भरण पोषण के लिये कुछ हाथ पैर मारते हैं और अपने साथी से मिलते हैं तो पाते हैं कि वे बदल गये हैं. एक मित्र जो “ बीवी की पहरेदारी में रहने लगा है” के चेहरे पर आंखें गडा कर अनादि ने अनुभव किया- “ यह आदमी जरूर शनिवार को दो-तीन पैग दारू पीता होगा. मंगलवार को किसी धार्मिक अनुष्ठान में शामिल होता होगा. दस लाख का ऋण लेकर , यह कारबार की दुनिया में पैठ गया है, इसे करोड की चिंता है.” अनादि और काली के रूप में दो क्रांतिकारी इस कथा में उभरते है. एक अनादि है जो वामफ्रंट के युग में जानपहचान का फायदा लेना मुनासिब समझता है लेकिन अनादि इसके लिये तैयार नहीं हो पाता. बंगाल में वामफ्रंट के युग में उन वामपंथियों को तो लाभ लेने का हक है ही जिन्होंने पहले बहुत कष्ट उठाया है यह बात गलत है या सही यह प्रश्न यह कहानी छोड जाती है. कुछ अन्य कहानियां- ‘कालबैसाखी’, ‘ओ बुढिया भाग’ और ‘अंधी सुरंग’ भी अनय के कथा संसार को विस्तृत आयाम देती हैं. ‘अंधी सुरंग’ का एक मुसलमान प्रोफेसर भाडे के मकान के लिए जिस तरह कलकत्ते में भटकता है वह हमारे प्रगतिशील समाज के भीतर पलने वाले दुराग्रहों को बडी बारीकी से पकडता है. यह बहुत प्रसन्नता की बात है कि अनय जी ने हमें आखिरकार एक कथा संग्रह दिया है. जिन बातों को वे हमारे सामने रखते हैं उसेके पूरे परिदृश्य को सामने रखने के लिये एक उपन्यास की अपेक्षा तो कम से कम की ही जा सकती है. वामपंथी ट्रेड यूनियन, बस्ती पालिटिक्स, बंगलादेशी लोगों की कथा व्यथा और असंगठित श्रमिकों की करूण अवस्था आदि विषयों पर लिखते हुए अनय जी जिस गहरी समझदारी और साहित्यिक विवेक का परिचय इन कहानियों में देते हैं उसे देखते हुए एक क्या अनेक उपन्यासों की उम्मीद हिन्दी पाठक समाज कर सकता है.
[वागर्थ, मार्च 2009]
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