हिन्दी के एक विद्वान ने 1978 में एक बातचीत में यह टिप्पणी की थी कि " पिछले 25-30 वर्षों का ज्यादातर साहित्य धार्मिक प्रेरणा और उत्तेजना से कतराकर , बचकर लिखा गया है.... हमारी परम्परा में व्यक्ति और समाज के बीच द्वन्द्व, तनाव और संघर्ष दी हुई अनिवार्यता नहीं है." निर्मल वर्मा ने उसी बातचीत में अपने एक उपन्यास के बारे में बताते हुए कहा था – " मैं सोचता रहा हूँ...एक आत्म अन्वेषक की नियति क्या है. हमारा मध्यवर्ग ...दुविधाओं में जीता है, उससे इस व्यक्ति का रिश्ता क्या होगा ताकि एक खास सपना, एक खास किस्म की निर्मलता और प्रामाणिकता पाई जा सके."
मनुष्य, व्यक्ति और एक उपभोक्ता के समाजों में क्या बुनियादी अंतर है, इस प्रश्न पर विचार किए बिना महाकाव्य के मनुष्य, उपन्यास के व्यक्ति और आज के विज्ञापन में दीखने वाला उपभोक्ता के मन के बीच कोई रचनात्मक संवाद संभव नहीं. अलका सरावगी के उपन्यास एक ब्रेक के बाद में उपभोक्ता ' उत्तर-आधुनिक' समाज में जी रहे पुरूष पात्रों के बीच एक रचनात्मक संवाद के माध्यम से पहले व्यक्ति और फिर मनुष्य की खोज का एक त्रासद वृत्तांत तैयार किया गया है. स्थितियों के चुनाव में लेखिका ने सावधानी बरतते हुए ऐसे पात्रों को चुना है जो सम्पन्न हैं, सफल हैं और समय और बाजार में प्रासंगिक हैं. कॉरपोरेट इंडिया के दौर में मध्यवर्गीय सपनों के प्रचलित अक्षों के तर्कों, आदर्शों को बातचीतों के माध्यम से रखने के बाद लेखिका ने इस समय के देश में पल रहे ग्लोबल सपनों और आदर्शों को रखा है. इस विषय पर बहुधा हिन्दी लेखक समुदाय बाजार के खिलाफ होकर इस तरह सोचने का अभ्यस्त होता है कि बाज़ार के भीतर का हर आदमी उसे बिका हुआ, मशीनी और मूल्यविहीन ही दिखलाई पडता है, लेकिन अलका सरावगी ने इस दौर के बदले हुए सपनों और मूल्यों की ऐसी जनवादी व्याख्या नहीं की है. उनके पात्र अंतर्जातीय विवाह करते हैं, " धर्म, जनेऊ, पिता –सबसे पीछा छुडा"सकते हैं, यह मानते हैं कि " अंतत: आर्थिक सुधार का फायदा गरीबों को होगा. आखिर यह विकास का रास्ता है. ज्यादा नौकरियां होंगी, रूपये का दाम गिरना कम होगा, सामान सस्ता मिलेगा, सेवाओं में ज्यादा लोगों के काम की गुंजाईश होगी. अभी जो पब्लिक सेक्टर और अमीर किसान देश का खून चूस रहे हैं, वह पैसा गरीबों के काम में लगाया जा सकेगा. उसके लिए मुफ्त स्कूल और अस्पताल खोले जा सकेंगे. पूरा देश एक दिन खुशहाल होगा...एक दिन यहां डाल डाल पर सोने की चिडिया बसेरा करेगी. " (पृ. 52) उनके पात्र इस बात से अवगत हैं कि " जमाना हर समय बदलता है, पर पिछले दस सालों में जमाना एक बार छलांग लगाकर जैसे सौ साल आगे निकल गया है... जाने लोग कौन सा गुजरा हुआ जमाना पकडे बैठे हैं और अपने को आज भी समय के उसी दौर में देखना चाहते हैं".( पृ 73-74). ऐसे पात्र हैं जो मीडिया में उनके आइडिया के आधार पर दकियानूसी मूल्यों को बढावा होते देख अपना नफा नुकसान न देख उससे अपने को अलग कर देते हैं, " रविवार की दोपहर प्राइम मिनिस्टर से भी बात नहीं" करते... .ये उस तरह के पात्र हैं जो कॉरपोरेट इंडिया के सपनों के साथ जी रहे हैं और जिन्हें पूरा भरोसा है कि जीवन ऐसे ही जिया जाता है.
अलका सरावगी के इस उपन्यास में असली ब्रेक तब आता है जब सपनों की टकराहटों, व्यक्ति के पार्श्व में छिप गये मनुष्य की आदिम इच्छाओं के साथ पाठक का संपर्क होता है. यह वह बिन्दु है जहां उपन्यास में ग्लोबल और आंतरिक सपनों की टकराहट होती है, गुरूचरण अजबदास यानि गुरु के साथ भट्ट जैसे सहज आदमी के साथ गहन आंतरिक संवाद होता है और यह यह स्पष्ट होता है कि सपनों का सच क्या है.
उपन्यास का सबसे मर्मस्पर्शी विमर्श इस समय में प्रेम की संभावना के इर्द गिर्द उभर कर सामने आया है. उपन्यास के मध्य में गुरूचरण का प्रेम दर्शन स्पष्ट रूप से उभरता है- " मैं देखना चाहता हूं क्या कोई औरत मेरे लिए कृष्ण की मीरा बन सकती है? लोग शर्तों पर प्रेम करते हैं...लोग कुनकुना प्रेम करते हैं... प्रेम के आभास को प्रेम समझ लेते हैं." (पृ. 93) उसके जीवन का निष्कर्ष उसके मरने के बाद उनके 'शिष्य' भट्ट को उनकी डायरी में मिलता है- "...संगम का अर्थ ही है प्रेम.... लेकिन हम हम और तुम तुम बने रहते हैं. हम कहीं मिल नहीं पाते... जब प्रेम आता है, तो पता भी नहीं चलता." (पृ. 208.) "किसी का साथ क्यों खोजना है? जो साथ होते हैं वे भी साथ कहां होते हैं...सामने वाले का मन तुम्हारे मन से टकराता है. बोझ बढता जाता है. कोई ऐसा नहीं है जिसका अपना मन न हो." (पृ. 206) एक ऐसा निर्भार मन होना चाहिए जो अधिकार भाव न रखे तभी उस प्रेम की संभावना पैदा होती है जिसकी तलाश है गुरू को.
अंतिम हिस्से को पढते हुए निर्मल वर्मा के अंतिम अरण्य की याद न आए यह संभव नहीं. इस उपन्यास में भी राख के इर्दगिर्द ही अंतिम संदेश गूंजता है. लेकिन अलका सरावगी की दृष्टि निर्मल जी से एक दम भिन्न है. वे आत्म अविष्कार के साथ सामाजिकता को भी रखती हैं, लगातार. इसका प्रमाण है यह है कि भट्ट के भावुक क्षणों में भी जब वह फूलों की घाटी जाकर एक ड्राइवर के साथ गुरू की अस्थियां चुन लाने के बाद विचार करते हुए मससूस करता है कि " हिमालय के सपनों की कब्रगाह पर अब नये सपने उग आए हैं". वह तमाम संवेदनशीलता के बावजूद ड्राइवर के लिए यही सोच पाता है कि इस "बेचारे" के पास सिर्फ मुगालते ही हैं. पर यहीं पर वह ट्विस्ट है जो अलका सरावगी के सामाजिक सरोकारों को व्यक्त करती है. यह बेचारगी उस भट्ट की भी है जो ड्राइवर के प्रति प्रश्न- "अच्छा बाबू, आपका क्या सपना है?" के उत्तर में कोई जबाव नहीं दे पाता और उसे लगता है कि "उसके पैरों तले से किसी ने जमीन छीन ली है. वह जैसे हजारों मील नीचे खाई में गिर गया." (पृ 215)
अलका सरावगी का यह पाठ इस बात का प्रमाण है कि हिन्दी उपन्यास में आत्म अविष्कार के साथ ही सामाजिक सरोकारों को साथ रखकर उपन्यास लिखे जा रहे हैं. कई लोगों को यह यथार्थवाद विरोधी दृष्टि से लिखा गया उपन्यास लगेगा जो कॉर्पोरेट इंडिया के प्रति बहुत नरम है और उसके असली चेहरे को सामने नहीं रखता. यह भी लगेगा कि आखिरकार एक ऐसा उपन्यास हिन्दी में आया है जिसके पात्र 'अभिजात वर्ग' के हैं. साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि जिस ग्लोबल सपनों के सौदागरों को प्रतीकार्थ यहां रखा गया है वे सब असली प्रतिनिधि नहीं हैं उस ग्लोबल तंत्र के कर्मचारी लोग हैं जो अपने वेतन और सुविधा-सम्मान के लिए अपनी बुद्धि को बेचने वाले नये प्रोफेशनल लोग हैं जिसके भीतर किसी न किसी रूप में 'पेटि बुर्जुआ' दुचित्तापन अभी तक छाया हुआ है. एक अन्य बात जो इस उपन्यास में लक्ष्य की जा सकती है कि इसमें मारवाडी, बंगाली पात्र लगभग गायब हैं और कलकत्ते का जो व्यवसायिक वातावरण और मुनाफे की नयी दुनिया बनती दिखाई देती है उसमें कहीं भी राजनैतिक वर्ग का कोई हस्तक्षेप प्रभावी रूप में नहीं आया है. वामपंथी राजनीति पर पूरी चुप्पी है... आदि आदि.
इस उपन्यास को हिन्दी के पाठक कैसे लेंगे यह अनुमान करना कठिन है क्योंकि हिन्दी में यह नये ढंग का उपन्यास है. इसमें समय जिस रूप में उपस्थित है उसमें पात्रों का आंतरिक संसार और स्मृतियां जिस संवेदनशीलता से आयी हैं उसे देखते हुए इस उपन्यास का स्वागत होना अभीष्ट है. एक रूढ यथार्थवादी दृष्टि से न पढ़ कर इसे एक ऐसे उपन्यास के रूप में पढे जाने की जरूरत है जिससे स्मृति, समाज और समय के बीच एक गहरा रचनात्मक संवाद करने की चेष्टा की गयी है.
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