Monday 24 August, 2009

खुदीराम बोस






खुदीराम बोस : अमर तरूण विप्लवी

2008 में आज के भारत में वैश्वीकरण और उदारीकरण के दौर में देश के युवाओं की ओर देखने पर ऐसा लगता है कि देश के युवाओं के हौंसले टूट रहे हैं और जीवन जीने की एक आदर्श वादी कल्पना की जगह किसी भी तरह बडे बनने की ललक ने ले ली है. आज विकासवादी वे हैं जो अमरीकी पूंजीवादी चक्र के साथ हैं और पिछडे वे हैं जो मातृभूमि और मातृभाषा की बात करते हैं. ऐसे कठिन दौर में सौ साल पहले के एक तरूण –खुदीराम के बारे में सोचने से हमें अहसास होगा कि हम कहां से कहां आ गये. अब भी न चेते तो कहां जायेंगे, यह अनुमान करना भी कठिन नहीं है. सौ साल पहले के बंगाल से आज के बंगाल को हम कैसे मिलायेंगे? अंधेरे समय में आदर्श की रक्षार्थ शायद हमारे नौजवानों को याद दिलाने की ज़रूरत है कि इस देश की खातिर कितनों ने अपना सब कुछ लुटा दिया. खुदीराम और भगत सिंह जैसे नौजवानों के आदर्श को इस देश में फिर से याद करने की ज़रूरत है. कैसे थे वे लोग जो देश के लिये अपनी जान की परवाह नहीं करते थे ! आज 2008 में खुदीराम की फांसी को सौ साल पूरे हो रहे हैं. आइये देखें कि हमारे देश के इतिहास के एक अमर प्रतीक का जीवन कैसे बीता.



खुदीराम के समय का बंगाल



उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में अंग्रेज़ विरोधी चेतना का विकास पूरी तरह से हो चुका था. 1857 के महान राष्ट्रीय संग्राम को जिस नृशंशता से दबाया गया था उसकी स्मृति उत्तर भारतीय राज्यों में प्रबल रूप से देखी जा सकती है, लेकिन बंगाल के उन हिस्सों में जहां बंग्ला भाषा बोली जाती थी 1857 के विद्रोह का कोई खास असर नहीं दिखलाई नहीं पडता. इन हिस्सों में राष्ट्र्वादी चेतना का विकास 1860 के दशक में भिन्न रूप में शुरू हुआ. शुरूआती दौर में हिन्दुओं के बीच जो राष्ट्रीय चेतना फैलाने का जो काम हुआ उसमें हिन्दुओं के सामुदायिक संगठन पर अधिक बल था. हिन्दु मेला ने बंगाल के पढे लिखे वर्ग में देश के लिये सोचने, उसके प्रति देशवासियों को तैयार करने की कोशिश की. उसी समय से बंगाल प्रसिडेंसी में कई ऐसे केन्द्र बनने शुरू हो गये जहां अंग्रेज विरोधी पढे लिखे लोग अपने तरीके से क्रांतिकारी विचारों से लैस थे. तबसे लेकर 1890 के दशक तक के दौर में बंगाल के कुछ हिस्सों में नौजवानों के स्वास्थ्य सुधारने के लिये बनाये गये व्यायाम केन्द्रों में जो राष्ट्रीय चेतना का फैलना जारी रहा उसका यथेष्ट ऐतिहासिक मूल्यांकन अभी नहीं हुआ है. लेकिन 1902 के बाद जब क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों की गतिविधियां तेज हुईं और सरकारी तंत्र ने इनके बारे में तहकीकात की तो यह स्पष्ट हो गया कि बंगाल के इन क्रांतिकारियों के लिये ज़मीन तैयार करने का काम राजनारायण बोस ( रिश्ते में अरबिंद घोष के नाना) और नबगोपाल मित्र के हिन्दू मेला आन्दोलन के दौर से ही चल रहा था. राजनारायण बोस एक ऐसी गुप्त संस्था का निर्माण करना चाहते थे जो मौका पाकर अंग्रज़ों पर हमला कर सकें. वे मानते थे कि जब तक कुछ अंग्रेज़ अधिकारियों को बम से उडाया नहीं जायेगा वे लोग यहां से नहीं भागेंगे. क्रांतिकारी आन्दोलन के इस दौर में- जिसे सभा समितियों का दौर कहा जाता है- मिदनापुर एक बड़ा केन्द्र बन कर उभरा. 1900 के बाद क्रांतिकारियों की गतिविधियां बढने लगीं और धीरे धीरे छात्र समुदाय का समर्थन क्रांतिकारी संगठनों को मिलने लगा. प्रमथ मित्र, सरलाबाला, जतीन्द्रनाथ, बारिन्द्र घोष, सतीस बोस इत्यादि नेताओं की मदद से अनुशीलन समिति और जुगांतर समिति जैसे संगठन धीरे धीरे मिदनापुर, कलकत्ता और उन जिलों में प्रभावी होने लगे जो बंग विभाजन के बाद पूर्वी बंगाल में शामिल किये गये. 1902 में अरबिंद घोष ने क्रांति के संदेश को देशवासियों के बीच पहुंचाने के लिये हेमचन्द्र कानूनगो, सत्येन बोस और मेदिनीपुर के कुछ युवकों को दीक्षा दी. अरबिन्द घोष के छोटे भाई बारीन्द्र घोष इसी समय अनुशीलन समिति के सदस्य बने. 1904 तक आते आते क्रांतिकारी विचारों का प्रभाव इतना बढा हुआ दिखलाई देने लगा कि अरबिंद घोष को ऐसा लगने लगा कि एक राष्ट्रीय क्रांतिकारी आन्दोलन शुरू करने का समय आ गया है. ऐसा कहा जाता है कि बडौदा में, जहां अरबिंद घोष रहते थे, उनका संबंध ऐसे लोगों से था जो 1857 के विद्रोह के दौर से ही अंग्रेजों के विरूद्ध राष्ट्रीय आन्दोलन के लिये प्रयत्नशील थे. यह वह दौर था जब अरबिंद घोष ने भबानी मन्दिर , सिस्टर निवेदिता ने काली: द मदर जैसी पुस्तकें लिखी. सखाराम गणेश देउस्कर ने न सिर्फ देशेर कथा जैसी किताब लिखकर अंग्रेज़ी राज में आर्थिक शोषण का प्रामाणिक दस्तावेज़ प्रस्तुत किया बल्कि घूम घूम कर युवकों को क्र्रांतिकारी विचारों की अर्थवत्ता समझाने का कठिन कार्य किया. तिलक का आन्दोलन इस क्रांतिकारी आन्दोलन के लिये बहुत मददगार सिद्ध हुआ. लेकिन, क्रांतिकारी आन्दोलन तीव्र तब हुआ जब कर्ज़न ने बंगाल को विभाजित करने की योजना को कार्यरूप देने की कोशिश शुरू की. अब कलकत्ता से लेकर पूर्वी बंगाल और मेदिनीपुर तक अंग्रेज़ों के खिलाफ आन्दोलन तेज होने लगे और कांग्रेस के भीतर क्रांतिकारी और उग्रवादी कहे जाने वाले नेताओं का जोर बढने लगा. 1905 से लेकर 1907 के बीच बंगाल में अंग्रेज़ विरोधी जो आन्दोलन हुए उसने भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के चरित्र को बदल दिया. यही वह निर्णायक मोड था जिसके बाद राष्ट्रीय आन्दोलन जन आन्दोलन का रूप लेने लगा, मध्यवर्ग का चरित्र बदलने लगा, भारतीय दृष्टि के विकास पर बुद्धिजीवियों का ध्यान गया और यह स्पष्ट हो गया कि अंग्रेज़ों के प्रति तीव्र जनाक्रोश है. स्वदेशी आन्दोलन ने पूरे बंगाल को झकझोर दिया. लेकिन, 1907 के अंत तक आते आते यह आन्दोलन शिथिल पडने लगा. ऐसे समय में 30 अप्रिल 1908 में बिहार के मुझफ्फरपुर में एक घटना घटी जिसे 1857 के विद्रोह के बाद की सबसे बडी घटना के रूप में देखा गया. पता चला कि पहली बार इस देश में किसी शिक्षित भारतीय ने बम जैसी विध्वंसकारी चीज़ का इस्तेमाल एक अंग्रेज़ के खिलाफ किया था. राष्ट्रवादी पत्रिका केशरी ने अपने 26 मई 1908 के अंक में लिखा कि “ न तो 1897 के जुबिली हत्याकांड और न ही सिख रेजिमेंट के साथ हुए छेडछाड ने इतना बावेला मचाया ( जितना कि इस घटना ने). ब्रितानी अवाम के हिसाब से बम का भारत में आगमन 1857 के बाद की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है.” बाद में दो तरूण जिन्होंने कलकत्ता से मुझफ्फरपुर में बम फेंका था पकडे गये और उसके बाद उस महान गौरव गाथा का जन्म हुआ जो आज भी करोडों भारतवासियों के हृदय में प्रेरणा का संचार करते हैं. यह कहानी है अग्निपुंज अमर शहीद खुदीराम बोस की.



भारतीय क्रांतिकारियों के बलिदानों को इस देश की जनता हमेशा श्रद्धा से याद करती है. इस देश का इतिहास भले ही नरमपंथी राष्ट्रीय नेताओं के योगदानों को केन्द्र में रखकर विचार करती हो लेकिन लोगों के हृदय में लक्ष्मीबाई से लेकर खुदीराम बोस, बिस्मिल, चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह और सुभाषचन्द्र बोस तक ऐसे महापुरूषों के प्रति कम श्रद्धा नहीं रखती. समय समय पर इन नामों और इन प्रतीकों का प्रभावी उपयोग राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान किया जाता रहा लेकिन इन क्रांतिकारियों के वैचारिक संघर्ष पर कम ही ध्यान दिया गया है. खुदीराम को उनकी शहादत के सौ वर्ष पूरे होने के समय अधिकतर लोग इस रूप में ही याद करते हैं कि वह एक भावुक तरूण था जो क्रांतिकारी आवेग के कारण बम फेंकने के लिये मुझफ्फरपुर गया था और बाद में पकडे जाने के बाद वीरता का परिचय देते हुए फांसी के तख्ते पर झूल गया. उसके ऐतिहासिक कृत्य के महत्त्व को तो लोग याद करते हैं, लेकिन उस तरूण क्रांतिकारी के जीवन और उसके दर्शन पर अभी भी कम लोगों का ध्यान जाता है. प्रस्तुत आलेख में यह कहने का प्रयास किया गया है कि यह एक अधूरा सच है.



खुदीराम का आरंभिक जीवन



खुदीराम का जन्म 3 दिसंबर 1889 को मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में हुआ था. उनके पिता त्रैलोक्यनाथ बसु नराजोल इस्टेट के तहसीलदार थे. कहा जाता है कि जब लक्ष्मीप्रिया देवी को कोई पुत्र न हुआ तो उन्होंने अपने घर के सामने की सिद्धेश्वरी काली मन्दिर में तीन दिनों तक लगातार पूजन किया. तीसरी रात को काली माता ने उन्हें दर्शन देकर पुत्ररत्न की प्राप्ति का आशीर्वाद तो दिया लेकिन यह भी कहा कि यह पुत्र बहुत यशस्वी तो होगा लेकिन अधिक दिन जीवित नहीं रहेगा. उन दिनों के रिवाज़ के हिसाब से नवजात शिशु का जन्म होने के बाद उसकी सलामती के लिये कोई उसे खरीद लेता था. लक्ष्मीप्रिया देवी के पुत्र के जन्म के बाद उसे तीन मुट्ठी खुदी ( चावल ) देकर उसकी दीदी ने खरीद लिया जिसके कारण उसका नाम पडा –खुदीराम.



बालक खुदीराम को मां बाप का प्रेम अधिक दिनों तक नहीं मिल सका. मात्र 6 वर्ष की अवस्था में पहले मां और फिर पिता चल बसे. दीदी अपरूपा देवी का विवाह हो चुका था लेकिन उसे ही नन्हें खुदीराम का दायित्व लेना पडा. अब खुदीराम दीदी और उसके परिवार के साथ रहने लगे. दीदी का एक लड़का खुदीराम की ही उम्र का था. दोनों साथ ही तमलुक शहर के हेमिल्टन स्कूल में पढने लगे. तब तक खुदीराम 12 साल के हो चुके थे. स्कूल में खुदीराम का ज़्यादा मन नहीं लगता था. वे कुछ विशेष किस्म के किशोर थे. स्कूल में वे एक ऐसे छात्र के रूप में जाने जाते थे जिसे किसी भी तरह के कष्ट को सहन करने की क्षमता थी और जो किसी से भी नहीं डरता था. उनके स्कूली जीवन के बारे में दो तीन कहानियां बहुत प्रसिद्ध हैं जिसके बारे में उन लेखकों ने लिखा है जो उनके साथ स्कूल में पढते थे. एक बार वे एक ऊंचे पेड़ से ज़मीन पर कूदे और उन्हें बहुत चोट लगी और कपडे भी बुरी तरह से फट गये. लेकिन जब उसी समय उनके शिक्षक आ गये तो अपने दुःख और तकलीफ को भीतर ही भीतर पीते हुए खुदीराम ने ऐसा दिखाया मानो उन्हें कुछ हुआ ही न हो. सभी लडके अवाक ! खुदीराम सांप से बिल्कुल ही नहीं डरते थे और कई बार सांप को पकड कर, थोडी देर खेल करके वे उसे छोड दिया करते थे. ऐसे साहसी लडके को उनके साथ पढने वाले लडके क्यों न सराहते भला ?



दो वर्ष के बाद खुदीराम को कक्षा तीन ( जो आज के हिसाब से कक्षा 8 के समकक्ष) में मिदनापुर कालेजियेट स्कूल में दाखिल कर लिया गया. इस समय तक यह स्पष्ट होने लगा था कि उनका मन स्कूल की शिक्षा में कम ही लगता था. उनका दिमाग तेज़ था लेकिन उनका दिल पढने में नहीं लगता था. वे देश की सेवा करना चाहते थे. जैसे ही उन्हें पता चलता कि किसी को मदद की ज़रूरत है वे दौड कर उसकी मदद करते. वे बचपन से ही बहुत दयालु प्रकृति के थे. एक बार एक भिखारी ठंड में ठिठुरता हुआ उनके दरवाज़े पर भीख मांगने आया. उसकी दशा देखकर बालक खुदीराम इतने द्रवित हो गये कि मृत पिता की कीमती निशानी- एक कश्मीरी शाल अपनी दीदी के मना करने पर भी दे आये ! इस तरह की अनेक कहानियां खुदीराम के बारे में प्रचलित हैं.



खुदीराम के बारे में अब तक यह बात कम ही लोगों को पता है कि वे एक अत्यंत कर्मठ समाजसेवी थे. जब वे स्कूल में पढ़ते थे तो उन्हें पता चला कि तमलुक शहर में हैज़ा फैल गया है. उस समय बहुत सारे लोग हैज़ा के प्रकोप से काल कलवित हुए थे. बालक खुदीराम ने अपनी जान की परवाह न करते हुए रोगियों की सेवा की. उसी कठिन समय में जब बहुत सारे लोग रोज मर रहे थे श्मशान घाट के बारे में बालकों के बीच यह धारणा हो गयी कि आधी रात के बाद घाट के एक पेड़ के पास कोई नहीं जा सकता. साहसी बालक खुदीराम ने आधी रात के बाद वहां जाकर, उस पेड़ से एक टहनी तोड कर लाकर दोस्तों को दिखलाकर अपने साहस का लोहा मनवा लिया. एक बार स्कूल के एक शिक्षक ने अपने छात्रों की सहन शक्ति की परीक्षा ली. उन्होंने एक टेबुल को पूरी ताकत से हाथ से मारने के लिये कहा. कुछ प्रयासों के बाद सभी छात्र बैठ गये लेकिन खुदीराम तीस के बाद भी प्रहार करते रहे. शिक्षक ने अंत में साश्चर्य उसे रोका तो देखा कि उनके हाथ से खून बह रहा है. बहुत तकलीफ होने पर भी खुदीराम ने उफ तक नहीं किया. ऐसी कितनी ही कहानियां हैं जिससे पता चलता है कि यह कोई साधारण बालक नहीं था. लेकिन एक घटना से पता चलता है कि इस बालक में सिर्फ साहस ही नहीं था एक देश प्रेमी हृदय भी था. एक बार एक छात्र कक्षा में स्वदेशी धोती पहन कर आ गया. सभी लडके उसे देखकर हंसने लगे, लेकिन बालक खुदीराम ने आगे बढ कर उस छात्र को गले लगा लिया. इससे बाकी के लडकों को अपनी गलती का अहसास हुआ.



खुदीराम का क्रांतिकारी आन्दोलन से जुडाव खुदीराम ने स्कूली शिक्षा में ज़्यादा दिकचस्पी नहीं दिखाई, लेकिन सामाजिक दायित्व पालन में असाधारण तत्परता दिखलाई. यह कम लोगों को ज्ञात है कि हैजा फैलने के समय से लेकर बाढ आने पर अपने जीवन की तनिक भी परवाह न करके खुदीराम ने विपत्ति में फंसे लोगों की मदद की. ऐसे नौजवान के प्रति क्रांतिकारी संगठनों के लोगों का ध्यान जाना स्वाभाविक था. मिदनापुर शहर में एक बार शहर के शिक्षकों, विद्यार्थियों और कई प्रमुख व्यक्तियों ने यह संकल्प लिया कि जब तक बंग विभाजन का आदेश नहीं लौटा लिया जाता वे विदेशी वस्तुएं- नमक, चीनी और कपडों का उपयोग नहीं करेंगे. इस संकल्प के साथ ही खुदीराम का स्कूल छूट गया. उन दिनों सत्येन बोस, ज्ञानेन्द्र नाथ बसु, हेमचन्द्र बसु आदि क्रांतिकारी आन्दोलन को प्रभावी बनाने के लिये नौजवानों की तलाश में थे. वे नौजवानों को लेकर मीटिंग करते थे और कुछ पुस्तकों की चर्चा करते थे. इन पुस्तकों में प्रमुख थे- ‘भागवत गीता’, स्वामी विवेकानन्द की पुस्तकें, क्रांतिकारी नेताओं की जीवनियां और सखाराम गणेश देउस्कर की पुस्तक- ‘ देशेर कथा’.



जुलाई 1905 में बंग विभाजन की सरकारी घोषणा के बाद जहां इसका सबसे तीव्र विरोध हुआ उनमें मिदनापुर शहर भी शामिल था. अगस्त में एक विशाल जनसभा का आयोजन किया गया. यहीं पर खुदीराम ने आजन्म स्वदेश सेवा का व्रत लिया. पिकेटिंग से लेकर जनसभाओं के आयोजन और् स्वयंसेवकों की सेवा और उनकी देखभाल का काम वे नि:स्वार्थ भाव से करते थे. उस दौर के बारे में लोगों ने लिखा है कि वे स्वयं कहीं भाषण नहीं देते थे और न ही कहीं अपने को जनप्रिय बनाने के लिये कुछ करते थे. लेकिन सब लोग जानते थे कि उनका योगदान सबसे बढकर होता था. खासकर विदेशी वस्तुएं बेचने वाले उनके नाम से बहुत घबराते थे. फरवरी 1906 से लेकर दिसंबर 1907 तक स्वदेशी प्रचार मिदनापुर में बहुत सक्रिय रहा. खुदीराम की ऐसी छवि थी कि अगर कहीं विदेशी वस्तुएं बिक रही हों तो वहां वे दियासलाई और माचिस लेकर पहुंच जायेंगे और आग लगा देंगे! भूपेन्द्र नाथ बसु ने उन दिनों के खुदीराम के बारे में लिखा है कि वे हर उस आदमी को देशद्रोही समझते थे जो चेतावनी के बावजूद विदेशी वस्तुएं बेचने की कोशिश करता हो. उन्हीं दिनों जब मिदनापुर से पाँच मील दूर के इलाके में कंसावती नदी में बाढ आयी और हजारों लोगों को जान माल का नुकसान होने लगा खुदीराम अपने दोस्तों के साथ राहत कार्य के लिये दौड पडे. कई दिनों तक वहीं रहकर बाढपीडितों की मदद करने के बाद वे घर लौटे. उनके बहनोई सरकारी कर्मचारी थे और खुदीराम की गतिविधियों से उन्हें दिक्कत हो सकती थी, इस ख्याल से खुदीराम ने उनका घर छोड दिया और एक वकील के घर में जाकर रहने लगे. इस दौर में एक बार वे घर द्वार छोड कर ग्राम सेवा के लिये चल पडे, लेकिन कुछ दिनों बाद वे लौट आये. दीदी को बाद में पता चला कि वे एक गांव में जाकर किसान परिवार के साथ रहते थे और उनकी तरह खेतों में मेहनत करते थे. बेचारे बालक की हथेलियां इस तरह के काम करने के कारण सख्त हो गयी थी. गरीबों के प्रति खुदीराम के मन में कितना दर्द था इसका अंदाजा एक घटना से लगाया जा सकता है. एक बार एक भिखारी ठंड में ठिठुरता हुआ उनके दरवाजे तक आया तो बालक खुदीराम ने अपने ट्रंक से निकालकर अपने मृत पिता की अंतिम निशानी –एक कीमती पश्मीने की शाल उसे दे दी. दीदी ने उन्हें समझाया कि भिखारी उसे बाजार में बेच देगा वे बोले- “ कोई बात नहीं. इससे उसे कुछ पैसे तो मिल जायेंगे जिससे उसकी कुछ मदद तो हो जायेगी!”



1906 में मिदनापुर में क्रांतिकारी युवकों का सबसे बड़ा अड्डा सत्येन्द्र नाथ बसु की एक हैंडलूम फैक्ट्री थी. इसके साथ ही एक छात्र भंडार था जहां नौजवानों के लिये क्रांतिकारी साहित्य और पत्र पत्रिकाएं उपलब्ध कराई जाती थी. यहीं खुदीराम ने फ्रांस की राज्यक्रांति, क्रांतिकारियों की जीवनियां, ‘वर्तमान राजनीति’, ‘मुक्ति किस रास्ते’ आदि पुस्तकें पढी और ‘बन्दे मातरम’, ‘जुगांतर’ , ‘सांध्य’ जैसी क्रांतिकारी पत्रिकाओं में छपने वाली चीजों को पढा. सत्येन्द्र नाथ के घर के पास ही एक काली मन्दिर था जहां जाकर नौजवान रक्त तिलक लगाकर देशव्रती होने की प्रतिज्ञा करते थे. खुदीराम को तो विदेशी वस्त्र जलाने में कुछ ज़्यादा ही आनंद आता था, पुलिस के साथ उनकी एक मुठभेड भी इसी साल हुई जिसके बाद उन्हें जेल भी जाना पडा. फरवरी 1906 की यह घटना यह बतलाती है कि मुजफ्फरपुर बम कांड के बहुत पहले ही खुदीराम ने एक और बड़ा कांड किया था.



मिदनापुर जेल हाउस में एक समारोह हो रहा था जहां जिलाधिकारी को कुछ पुरस्कार देने थे. इस कार्यक्रम के दौरान बालक खुदीराम ने एक पुस्तिका- ‘बन्दे मातरम’ को बांटना शुरू कर दिया. जितनी निर्भीकता और आश्वस्ति से वे इस पुस्तिका को लोगों को दे रहे थे उससे पास में खडे सत्येन्द्र बसु प्रभावित हुए बिना न रह सके. खुदीराम ने एक प्रति एक शिक्षक रामचन्द्र सेन को भी दी. अंग्रेज़ों का इतना आतंक उस समय था कि इस तरह की सामग्री को देखना भी लोगों को भयभीत कर देता था. सेन ने तुरंत एक सिपाही को खुदीराम को पकडने के लिये कहा. सिपाही ने जब खुदीराम को पकडना चाहा तो उसकी नाक पर एक करारा घूंसे का प्रहार करके खुदीराम वहां से निकल गये. उस समय इस प्रकार की धृष्टता अकल्पनीय थी. बाद में उन्हें गिरफ्तार किया गया और एक्ट 121 के अंतर्गत ( साम्राज्य के विरूद्ध युद्ध छेडने के आरोप में) मुकद्दमा चलाया गया. सज़ा बहुत कठोर हो सकती थी, जैसा कि उन दिनों का चलन था, पर खुदीराम की उम्र और वकीलों की होशियारी से उन्हें बरी कर दिया गया. इस घटना को क्रांतिकारियों ने अपनी विजय के रूप में देखा. आखिरकार सरकार विरोधी प्रकाशन का सरकारी कार्यक्रम में वितरण करके, सिपाही की नाक पर घूंसा जडकर भी खुदीराम को रिहा कर दिया गया ! पूरे मिदनापुर शहर में खुशी की लहर दौड गयी. खुदीराम को फूलों से लाद दिया गया, घोडे पर बिठाकर उन्हें एक जुलूस निकालकर शहर में घुमाया गया और आतिशबाज़ी आधी रात तक चली. देश के लिये कुछ करने का जोश इतना अधिक था कि सत्येन बसु की नौकरी चली गयी( क्योंकि उन्होंने खुदीराम को बचाने के लिये झूठी गवाही दी थी) लेकिन वे बहुत खुश थे! जिस रामचन्द्र सेन ने खुदीराम के विरूद्ध गवाही दी थी उसकी सबने इतनी निन्दा की कि वे घर से निकलते न थे. एक दिन कोई आया और धोखे से उसे बाहर बुलाकर उसे पीटकर भाग गया ! सेन ने पुलिस में मामला किया और खुदीराम को अभियुक्त बनाना चाहा पर उसे कोई गवाह नहीं मिला.



1907 में जब स्वदेशी आन्दोलन शिथिल पडने लगा तब बंगाल में नरम दल और गरम दल का विभाजन और बढ गया. खुदीराम अरबिन्दो घोष के दल के साथ थे जो अपने को नेशनलिस्ट कहते थे. मिदनापुर में खुदीराम ने सुरेन्द्रनाथ बनर्जी आदि नरमपंथी नेताओं के विरूद्ध प्रदर्शन भी किया. उस समय क्रांतिकारियों के लिये पैसों की बडी कमी थी. खुदीराम ने डाक लूटने की योजना बनाई और डाक का थैला छीन कर फरार हो गये. किसी ने उन्हें देख भी लिया, लेकिन कोई उनके खिलाफ शिकायत करने नहीं आया. डाक छीनने के बाद खुदीराम रात के अंधेरे में आठ मील चलकर कोलाघाट होते हुए मिदनापुर पहुंच गये.



क्रांतिकारी दल ने इस समय किसी तरह बम बनाने की तकनीक सीखने का प्रयास किया. हेमचन्द्र दास भी खुदीराम के एक उस्ताद थे. उन्होंने अपनी ज़मींदारी का एक हिस्सा बेच दिया ताकि विदेश जाकर बम बनाना सीख सकें. ऐसे में खुदीराम कलकत्ता आ गये. पुलिस की नज़र में खुदीराम एक खतरनाक क्रांतिकारी थे और उनकी गतिविधि पर नज़र रखी जा रही थी.



उन दिनों क्रांतिकारी लोगों पर सरकार बहुत सख्त थी और मामूली अपराधों के लिये भी कठोर दण्ड दिये जाते थे. एक जज था किंग्सफोर्ड जो क्रांतिकारियों को कठोर दंड देने में आनंद का अनुभव करता था. एक पन्द्रह वर्ष के किशोर सुशील सेन को एक पुलिस कर्मी को धक्का देने के लिये उसने कोडों से पिटवाने का हुक्म दिया था जिसके विरूद्ध क्रांतिकारियों में तीव्र असंतोष था. उसे रास्ते से हटाने के लिये एक पार्सल बम का प्रयोग किया गया लेकिन वह योजना सफल न हो सकी. सरकार सावधान हो गयी और किंग्सफोर्ड को कलकत्ता से हटाकर मुजफ्फरपुर भेज दिया गया. तब क्रांतिकारी दल ने तय किया कि वहां जाकर उसे खत्म किया जाना चाहिये.



खुदीराम और मुजफ्फर पुर बम कांड खुदीराम कैसे किंग्सफोर्ड की हत्या की योजना में शामिल हुए इसके बारे में कई अटकलें लगायी जाती हैं. सरकार का दृढ विश्वास था कि इस योजना का मिदनापुर षडयंत्र के साथ सीधा संपर्क था.कई ऐसे साक्ष्य सरकार ने इकट्ठा किये थे जिससे आभास मिलता है कि खुदीराम समेत कई क्रांतिकारी नौजवान ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या, पुल उडाने, विदेशी वस्त्रों को जलाने इत्यादि जैसे कामों को देश हित के लिये जरूरी मानते थे और संगठित रूप से काम कर रहे थे. जनवरी 1908 में जिस रिवाल्वर को एक पुलिस अधिकारी ने मिदनापुर के क्रांतिकारियों के पास देखा था वह वही पिस्तौल थी जो खुदीराम के पास गिरफ्तार होने के समय मिली थी. खुदीराम का संबंध 6 दिसंबर 1907 के नारायणगढ ट्रेन उडाने की योजना से भी जोडा जाता है.



दूसरी और कुछ लोगों का मानना है कि कलकत्ता आने के बाद खुदीराम का संपर्क अरबिन्दो घोष के दल के साथ और घनिष्ट हो गया जहां से किंग्सफोर्ड हत्या की योजना बनी थी. शुरू में यह काम प्रफुल्ल चाकी को दिया गया था जो खुदीराम की ही तरह क्रांतिकारी इतिहास के एक देदीप्यमान नक्षत्र हैं लेकिन हेमचन्द्र कानूनगो को लगा कि यह अकेले करना ठीक नहीं होगा और किसी अन्य क्रांतिकारी को प्रफुल्ल चाकी के साथ भेज दिया जाये. इस तरह बंगाल में पहले राजनैतिक हत्याकांड का दायित्व दो तरूणों को सौंपा गया. वे एक दूसरे का नाम तक नहीं जानते थे. खुदीराम का नाम दुर्गा दास सेन था और प्रफुल्ल का नाम दिनेश चन्द्र राय था. दोनो एक दूसरे को शायद इसी नाम से जानते थे, ऐसा भी कहा जाता है. उनके जाने के बाद पुलिस को गुप्तचर विभाग ने चेताया था कि किंग्सफोर्ड को मारने का संकल्प लिया गया है.



मुजफ्फरपुर बम कांड और उसके बाद किस तरह दो तरूण- प्रफुल्ल और खुदीराम मुजफ्फरपुर आकर दो सप्ताह रहकर अंतत: 30 अप्रिल 1908 को बम फेंकने में सफल हुए यह कहानी सबको पता है. एक धर्मशाला में दोनों रहे और किसी तरह किंग्सफोर्ड के बारे में पता करके अंतत: बम लेकर छिपे और अंधेरे में बम फेंककर वहां से भागे. दुर्भाग्य से उन्होंने एक गलत गाडी को निशाना बना लिया और दो विदेशी निर्दोष महिलाओं की जानें गयीं. लेकिन यह अपने आप में अनहोनी सी बात थी कि एक हिन्दुस्तानी बम जैसे अत्याधुनिक हथियार का प्रयोग एक गौरांग के ऊपर करे. पहली बार किसी बंग संतान ने एक अंग्रेज़ पर इस तरह आधुनिक अस्त्र का प्रयोग किया था. ऐसा तब भी हो गया जब पुलिस को इसकी सूचना पहले से थी कि किंग्सफोर्ड को मारने के लिये क्रांतिकारी दल सक्रिय है. पुलिस विभाग के लिये यह एक शर्मनाक घटना थी. रात के अंधेरे में खुदीराम और प्रफुल्ल भागे और दोनों ही पकडे गये. प्रफुल्ल को एक बंगाली दारोगा ने धोखे से पकडवाने की कोशिश की. इस कुकृत्य के लिये उसे बाद में क्रांतिकारियों ने मार डाला. प्रफुल्ल ने पुलिस के हाथों पकडे जाने से पहले ही आत्महत्या कर ली. खुदीराम को 1 मई 1908 को मुजफ्फरपुर से 20 मील दूर वैनी स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिया गया. उसके बाद मुकद्दमा चला और अंतत: 11 अगस्त 1908 को मुजफ्फरपुर में फांसी दे दी गयी. खुदीराम ने जिस भाव से मुकद्दमे के दौरान और फांसी के पहले देश के लिये प्राण देने के आदर्श को जीवन से बहुत ऊपर रखकर साहस का उदाहरण पेश किया वह आज भी हर देश प्रेमी के लिये प्रेरणा का स्रोत है. मुकद्दमे के दौरान खुदीराम का वज़न बढ गया था! फांसी के एक दिन पहले इस वीर तरूण ने अपने वकील से कहा था कि “ आपलोग व्यर्थ ही चिंतित होते हैं. पुराने समय में राजपूत रमणियों की तरह मैं भी निर्भय होकर मृत्यु का वरण करूंगा.” इस वीर बालक को देखने और उसकी अविश्वसनीय सी लगने वाली दृढता से जज भी अवाक थे. जब मृत्यु दंड सुनाया गया तो बालक खुदीराम के चेहरे पर मुस्कान थी. जज को लगा कि शायद तरूण ने अर्थ ठीक से समझा नहीं!



वीर तरूण खुदीराम को देखने के लिये मिदनापुर से चलकर एक युवती- सुधांशु बाला सरकार मुजफ्फरपुर चल कर आयी ताकि इस असाधारण तरूण को एक बार देख सके.



खुदीराम की फांसी के दिन बंगाल के कई स्कूलों में बच्चे शोक की पोशाक में, नंगे पाँव स्कूल गये और निरामिष भोजन किया. विप्लवी पत्रों ने खुदीराम की वीरता को सलाम किया. खुद बाल गंगाधर तिलक ने जिन शब्दों में खुदीराम को याद किया वह एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है. तिलक ने खुदीराम और प्रफुल्ल की शहादत को उद्देश्य की दृष्टि से चापेकर बंधुओं की शहादत से भी ज़्यादा महान बताया. बाद में तिलक पर मुकद्दमा चला और उन्हें कारावास का दण्ड भोगना पडा. सबसे अधिक महत्त्व की बात यह थी कि स्वदेशी आन्दोलन के शिथिल पड जाने के बाद एक बार फिर देशप्रेमी लोगों को जगाने का काम खुदीराम की शहादत ने किया. जून 1908 में सावरकर ने भी खुदीराम को महान क्रांतिकारी माना.



खुदीराम के फांसी के दृश्य को केन्द्र में रखकर बाद में बहुत कुछ लिखा गया. यह सिलसिला हिंदी में चाँद के फांसी अंक से 1928 में शुरू हुआ जिसमें इसका वर्णन इन शब्दों में हुआ: “ (खुदीराम की) अस्थि चूर्ण और भस्म के लिये परस्पर छीना झपटी होने लगी. कोई सोने की डिब्बी में , कोई चाँदी के और कोई हाथी दाँत के छोटे छोटे डिब्बों में वह पुनीत भस्म भर ले गये! एक मुट्ठी भस्म के लिये हज़ारों स्त्री पुरूष प्रमत्त हो उठे थे. खुदीराम ने अपनी जान पर खेलकर इस प्रकार भारत जननी पर अपनी भक्ति श्रद्धांजलि अर्पित की.”



बंगाल की धरती पर इस महान संतान के प्रभाव को एक बाऊल गायक के अमर गीत से समझा जा सकता है जिसे मानो खुदीराम ने फांसी पर चढते हुए ही गाया हो- “ एक बार विदाई दे मा, घूरे आसि”. यह गीत 1910 में एक स्वदेशी धोती में छपा हुआ पाया गया था जिसमें खुदीराम अपनी मातृभूमि को अपने विदा गीत में अंत में कहते हैं कि मां फिर मैं आऊंगा और तुम्हारी कोख से जन्म लूंगा. अगर तुम पहचान न पाओ तो उसकी गर्दन को देखना वहां तुम्हें (फांसी की डोरी के) निशान मिलेंगे!



आज भी इस गीत को सुनकर कौन होगा जिसकी आंखें नम न हो जाये ? धन्य है वह धरती जिसने इस कोटि के वीर पुत्र को जन्म दिया.



राहुल सांकृत्यायन में वीर सिंह गढवाली की जीवनी की भूमिका में चेताया था कि खुदीराम और अन्य क्रांतिकारियों के इतिहास को भुलाने की चेष्टा हो रही है. हमें इन क्रांतिकारियों को भुलाना नहीं चाहिये.


[प्रभात खबर, दीपावली विशेषांक, 2008]

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